धर्म की ये कैसी परंपरा जिसमें मोदी-भागवत यजमान और साधु-संत होंगे मेहमान

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पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद ने आखिर क्या गलत बात कह दी जब उन्होंने कहा कि पीएम मोदी मंदिर का उद्घाटन करके हाथ हिलाएंगे और हम संत उसका हाथ जोड़ कर जवाब देंगे। ऐसा करने के लिए वह इस कार्यक्रम में नहीं जाएंगे। क्योंकि वह इसे एक धार्मिक आयोजन के तौर पर देखते हैं जिसको पूरी तरह से राजनीतिक आयोजन में बदल दिया गया है। इसी तरह की बात एक दूसरे धर्मगुरु अविमुक्तेश्वरानंद ने कही है।

उन्होंने कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन का कार्यक्रम पूरी तरह से राजनीतिक हो गया है। जिस तरह से वहां निमंत्रण बांटे जा रहे हैं और नेताओं तथा राजनीतिक प्रतिनिधियों का जमावड़ा हो रहा है उससे धार्मिक केंद्र के तौर पर अयोध्या के पूरे वजूद पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया गया है। उन्होंने कहा कि भगवान राम सबके हैं और वहां जाने के लिए किसी को किसी तरह के निमंत्रण की जरूरत नहीं है। और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इस कतार में अब दो और धर्मगुरु स्वामी भारतीकृष्ण और स्वामी सदानंद महाराज भी शामिल हो गए हैं।

दरअसल संघ-बीजेपी ने अयोध्या की पूरी कमान धर्मगुरुओं से छीन ली है। अयोध्या इस समय बीजेपी की कैंप आफिस बन गया है। और यहां सारे फैसले शुद्ध रूप से राजनीतिक लाभ और हानि के हिसाब से लिए जा रहे हैं। यहां तक कि आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए वोट की गणित को कैसे सेट किया जाए उसके लिहाज से निमंत्रण बांटे जा रहे हैं। संघी चंपत राय जिनका पहले भी अपने परिजनों को लाभ पहुंचाने के लिए पैसे की चपत लगाने में नाम आ चुका है, इस पूरे आयोजन के केंद्र में हैं। इस पूरे आयोजन में इस बात को सुनिश्चित किया जा रहा है कि पीएम मोदी इसके सबसे बड़े चेहरे बन कर उभरें। उनके ऊपर न तो कोई शंकराचार्य होगा और न ही कोई दूसरा धर्म गुरू।

यहां तक कि मंदिर आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे आडवाणी के आने से पीएम मोदी के इस आभामंडल को नुकसान पहुंचने की आशंका थी। इसलिए चंपत राय के जरिये उन्हें निमंत्रण पत्र तो भेजा गया लेकिन उसके साथ ही इस बात को भी सुनिश्चित करा दिया गया कि वह इस उद्घाटन कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेंगे। यह अभी तक का सबसे अनोखे किस्म का निमंत्रण पत्र था जिसमें आमंत्रण के साथ ही नहीं आने देने की गारंटी शामिल थी। इससे बड़ा अपमान कोई दूसरा नहीं हो सकता है। जिसमें किसी शख्स को बुलाया तो जा रहा है और फिर कहा जा रहा है कि आप न आइये तो अच्छा रहेगा। इससे बेहतर तो होता कि उन्हें निमंत्रण ही नहीं दिया जाता। लेकिन आडवाणी ने मंदिर आंदोलन के जरिये इस देश के भीतर नफरत और घृणा का जो बीज बोया था आज उसी की वह फसल काट रहे हैं। और खुद उसके शिकार हो गए हैं।

बीजेपी के एक दूसरे नेता मुरली मनोहर जोशी के साथ भी यही किया गया। कल उनका जन्मदिन था। पीएम मोदी ने ट्वीट से काम चला लिया। पार्टी के इस बुजुर्ग नेता के घर पीएम मोदी ने एक बार भी जाना जरूरी नहीं समझा। हालांकि आडवाणी को उन्होंने यह इज्जत जरूरी बख्शी है। लेकिन जोशी के साथ मोदी जी पता नहीं किस बात का बदला ले रहे हैं। बुजुर्गों के सम्मान और अपमान का संघ-बीजेपी के हिंदुत्व में अगर यही पैमाना रहा तो समझा जा सकता है कि यह बुजुर्गों के लिए कितना खतरनाक साबित होने जा रहा है।

विपक्षी दलों को निमंत्रण इस नजरिये से बांट जा रहे हैं जिससे उनको घेरे में लिया जा सके। मसलन जो लोग जाने के लिए उद्धत हैं उनको निमंत्रण नहीं दिया जा रहा है। इसमें शिवसेना और ‘आप’ जैसी पार्टियां शामिल हैं। जो पहले से भी मंदिर आंदोलन की समर्थक रही हैं। लेकिन अभी भी उनके नेताओं के पास निमंत्रण नहीं गया है।

लेकिन इस मामले में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को बीजेपी फंसाना चाहती थी लिहाजा उसने सोनिया गांधी के पास निमंत्रण भेज दिया। पहले बताया जा रहा था कि कांग्रेस के भीतर भागीदारी को लेकर दुविधा थी लेकिन बाद में जो बात सामने आयी उसके मुताबिक हाईकमान के बीच इस मसले को लेकर कोई किंतु-परंतु नहीं है। और पार्टी उद्घाटन कार्यक्रम में हिस्सा ले सकती है। उसका क्या रूप होगा इसको लेकर अभी तक कोई स्पष्ट रूप सामने नहीं आया है।

बाकी बीजेपी के भीतर उसी हिसाब से नाम और चेहरे तय किए जा रहे हैं जिनसे आगामी लोकसभा चुनाव में फायदा मिल सकता है। बताया जा रहा है कि इस नजरिये से तमाम लोकसभा क्षेत्रों से बाकायदा जाति और तमाम दूसरे पैमानों के हिसाब से चेहरे तय किए जा रहे हैं। जिनसे अधिक से अधिक वोटों की फसल काटी जा सके।

इस पूरी प्रक्रिया में न तो देश के चारों शंकराचार्य कहीं आते हैं। न ही देश के दूसरे हिंदू धार्मिक केंद्रों के धर्मगुरु। यहां तक कि स्थानीय पंडों-पुजारियों को भी इससे दूर रखा गया है। एक धार्मिक आयोजन जिसमें धर्मगुरुओं की केंद्रीय भूमिका होनी थी उसमें उन्हें हाशिये पर डाल दिया गया है। ऐसे में आखिर किस धर्म का लाभ होने जा रहा है। और हिंदू धर्म का यह कौन सा चेहरा है?

क्या हिंदू धर्म अब इसी तरह से संचालित होगा? हिंदू धर्म के सारे फैसले नागपुर और बीजेपी के हेडक्वार्टर से लिए जाएंगे? और हिंदू धर्म के बाबा, पंडे, पुजारी और धर्मगुरु बीजेपी और संघ के तनखैया घोषित कर दिए जाएंगे? और आने वाले दिनों में मंदिरों और मठों में चढ़ने वाले चढ़ावे बीजेपी के चुनावी फंड का हिस्सा बन जाएं तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।

आखिर किस बिना पर पीएम मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत इस मंदिर का लोकार्पण करेंगे? क्या किसी धार्मिक आयोजन का नेतृत्व कोई राजनीतिक शख्सियत कर सकती है। मंदिर की नींव डालने के समय भी यही हुआ था। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पीएम मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत थे। यही दोनों यजमान थे और यही मेजबान भी।

बाकी साधु-संत मेहमान हो गए थे। यह उसी तरह की बात थी जैसे नेताओं ने साधुओं के घर यानि मंदिर पर कब्जा कर लिया हो। एक बार फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है। लेकिन उसका कहीं उस स्तर पर विरोध होता नहीं दिख रहा है। हां यह ज़रूर है निश्चलानंद और सरस्वती जैसी कुछ आवाजें सामने आयी हैं। लेकिन इनको भी पता है कि इसकी इनको बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।)

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