गलत शिक्षा प्रणाली और कोचिंग का तमाशा 

Estimated read time 1 min read

खान एकेडेमी अमेरिका से काम करती है। बहुत नाम कमाया है इसने। इसमें छोटे बच्चे भी दाखिला ले सकते हैं। कोचिंग संस्थानों पर शिक्षा मंत्रालय ने हाल में यह नियम लगाया गया है कि वह सोलह साल से कम उम्र के बच्चों को दाखिला न दे। क्या यह नियम खान एकेडेमी पर लागू होगा? क्या कोटा में सक्रिय कोचिंग संस्थानों में निरीक्षण के लिए शिक्षा विभाग का इंस्पेक्टर टाइप कोई अधिकारी जायेगा। या कुछ पैसे लेगा और इस बात को छिपा ले जायेगा कि वहां 16 साल के कम उम्र के बच्चे पढ़ते हैं।

अधिकारी रिश्वत लेगा और यथास्थिति बनी रहेगी। जैसे बिना नक़्शे के मकान बनते हैं, बगैर पार्किंग की व्यवस्था के व्यापार चलते हैं, छोटे-छोटे बच्चे उद्योग धंधों में काम करते हैं, वैसे ही कोचिंग केंद्र एक नए किस्म के भ्रष्टाचार को जन्म देंगे। जो लोग ऑनलाइन कोचिंग चलाते हैं, उन पर किस तरह के नियम लागू होंगे? यह सोलह साल वाला नियम उन पर कैसे लागू किया जायेगा? ये तो बहुत थोड़े सवाल हैं जो कोचिंग संस्थानों पर लगी सीमित रोक के बारे में उठते हैं।

सबसे पहले सोचा जाए कि कोचिंग संस्थान खुलते क्यों हैं और वहां क्यों बच्चों को भेजा जाता है? सबसे अधिक इसके जिम्मेदार होते हैं माता-पिता और अभिभावक। देश के हर मध्यमवर्गीय माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस ही बने। उनकी अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी हों, और बच्चों की सफलता की धूप में वे अपनी बूढी होती देह को सेंक सकें। इस महत्वाकांक्षा और ‘लोभ’ का फायदा उठा कर कोचिंग संस्थान पैदा हो जाते हैं।

इन दिनों क्लैट (कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट) या कानून की पढ़ाई के लिए भी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में प्रवेश को लेकर बड़ी तादाद में कोचिंग संस्थान खुल रहे हैं। आपको ताज्जुब होगा कि नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए कहीं-कहीं हर रोज़ 1000 रूपये के हिसाब से कोचिंग संस्थान फीस लेते हैं। यानी एक साल की कोचिंग के लिए तीन लाख साठ हज़ार रूपये के आस पास! और इसके लिए भी आपा-धापी मची रहती है। कोचिंग सेंटर का धंधा बहुत फायदेमंद है। कई स्कूल हैं जो अपने खुद के कोचिंग सेंटर भी खोलते हैं। स्कूल के बाद वही शिक्षक उनकी कोचिंग में जाकर पढ़ाते हैं। जो शिक्षक स्कूल में गणित ठीक से नहीं पढ़ा पाया वह कोचिंग में जाते ही गणित बच्चों के दिमाग में घुसा देता है। कैसे? इसके पीछे होता है धन का प्रलोभन। गणित, फिजिक्स और जीवविज्ञान जैसे विषय मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं में जरूरी होते हैं। इन विषयों के बारे में बच्चों के मन में शुरू से ही भय पैदा कर दिया जाता है, ताकि भविष्य में वे कोचिंग सेंटर में जाने की जरूरत को समझ सकें। इसमें शिक्षक और अभिभावकों की एक गोपनीय, अचेतन  साजिश होती है। बच्चों को सेल्फ स्टडी या खुद से पढने की कला नहीं सिखाई जाती। स्कूलों में ठीक से नोट्स बनाना तक नहीं बताया जाता। दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते बच्चे और उसके माता पिता को लगता है कि कोचिंग सेंटर की पनाह में जाना एकमात्र उपाय है। हर मोहल्ले में बच्चों और उनके माता पिता को निगलने के लिए दो-चार कोचिंग सेंटर तैयार खड़े रहते हैं। इस तरह कोचिंग एक आवश्यक बुराई की तरह हो गई है। हमारी अवास्तविक, बासी और अनुपयोगी शिक्षा प्रणाली की एक ऐसी नाजायज संतान है जिसे स्वीकारना भी मुश्किल है और अपनाना भी।     

पिछले कुछ दशकों में शिक्षा प्रणाली में भारी बदलाव आया है। एक समय था जब सिर्फ उन छात्रों को ट्यूशन और कोचिंग की आवश्यकता होती थी जो अपनी पढ़ाई नहीं कर पाते थे। ऐसे बच्चों को ‘कमज़ोर’ समझा जाता था। यदि कोई बच्चा स्कूल के बाद ऐसी कक्षाओं में जाता था तो यह उसके लिए अपमान की बा त थी। पर आज चलन बदल गया है और मेधावी छात्र भी विभिन्न कोचिंग कक्षाओं के बीच इधर से उधर पढ़ते-भिड़ते, संघर्ष करते देखे जाते हैं। इसके अलावा, तथ्य यह भी है कि स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्रणाली छात्रों की कई आवश्यकताओं पर ध्यान देने में विफल रही है।

गौरतलब है कि हम सभी छात्रों से उच्च बौद्धिक लब्धि की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, और यह नहीं कह सकते हैं कि वे अपने दम पर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सकते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर केवल स्कूली शिक्षा तक ही मदद कर सकते हैं। माता-पिता के लिए प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में अपने बच्चों की मदद करना काफी कठिन होता है।

यह भी कारण है कि इन कोचिंग सेंटरों में शामिल होने की संस्कृति गति पकड़ रही है क्योंकि जब किसी छात्र को उसके अंतिम लक्ष्य तक मार्गदर्शन करने की बात आती है तो यह कोचिंग संस्थान कुछ हद तक सफल रहे हैं। कम से कम इन कोचिंग केन्द्रों के विराट विज्ञापन तो यही भरोसा दिलाते हैं। ये बच्चों को सेलेब्रिटी बना देते हैं और उनकी तस्वीरें सड़क के बड़े चौराहों पर, अखबारों पर छापते हैं। बाकी बच्चे इससे प्रेरित होते हैं। उनके माता-पिता भी।

यदि हम तथ्यों और आँकड़ों के आधार पर चलें, तो हम उन अभ्यर्थियों के कितने उदाहरण सामने रख पाएंगे जो मेधावी हैं और जिन्होंने बिना कोचिंग के कठिन से कठिन परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं? दूसरी तरफ हमें ऐसे कई औसत उम्मीदवारों के उदाहरण मिलेंगे जो इन कोचिंग सेंटरों की मदद से सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचे हैं।

कोचिंग सेंटर इसलिए बने हैं और इसलिए सफल हैं क्योंकि उनकी भारी मांग है। यह भी सच है कि सभी स्कूल छात्रों को बोर्ड परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करने या कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए तैयार नहीं कर सकते हैं। इसलिए कोचिंग कक्षाओं पर पूर्ण प्रतिबंध एक उपयुक्त समाधान नहीं हो सकता है। इसके बजाय, उन्हें नियंत्रित और नियमित किया जाना चाहिए।

कोचिंग सेंटरों द्वारा ली जाने वाली अधिकतम फीस पर एक सीमा तय की जा सकती है। इस तरह हम उन छात्रों से अनावश्यक रूप से अधिक फीस वसूलने से रोक सकते हैं जिन्हें अतिरिक्त कोचिंग की आवश्यकता है। फीस के नियमितीकरण और ग्रेडिंग प्रणाली के कार्यान्वयन के अलावा, कोचिंग सेंटरों को छात्रों से कहा जाना चाहिए कि वे केवल अपने नोट्स के बजाय पाठ्य पुस्तकें पढ़ने पर अधिक ध्यान केंद्रित करें।

आम तौर पर, यह देखा जाता है कि कोचिंग कक्षाएं केवल बने बनाये नोट्स देने पर ध्यान केंद्रित करती हैं जिन्हें छात्र बुनियादी अवधारणाओं को समझे बिना आसानी से याद कर लेते हैं। उन्हें परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए न्यूनतम अंक प्राप्त करने के बजाय सीखने की प्रक्रिया पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका छात्रों को पाठ्य पुस्तकों से सब कुछ पढ़ने और पाठ्य पुस्तकों की सामग्री के आधार पर नोट्स तैयार करने के महत्व का एहसास कराना है। साथ ही, शिक्षण के नवीन तरीकों से छात्रों को पाठ्य सामग्री को बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी।

कोचिंग क्लास एक सप्ताह में छात्रों को कितने घंटे पढ़ा सकती है, इसकी भी सीमा होनी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि छात्रों पर पढ़ाई का बोझ न पड़े (क्योंकि उन्हें स्कूल, कॉलेज आदि भी जाना पड़ता है)। उन्हें पाठ्येतर गतिविधियों और मनोरंजन के लिए भी कुछ अतिरिक्त समय मिलना चाहिए।

नए नियम क्या इस बात की गारंटी देंगे कि हमारे शहरों में ढेर सारे कोचिंग सेंटर नहीं होंगे और सिर्फ वे ही अस्तित्व में रहेंगे जो सबसे अच्छे हैं। स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों पर शायद ही व्यक्तिगत ध्यान दिया जाता है। छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती है और कुछ धीमी गति से सीखने वाले लोग पिछड़ जाते हैं।

इसके अलावा, शिक्षकों/व्याख्याताओं के कम वेतन के कारण कभी-कभी शिक्षण मानक भिन्न होते हैं। इसलिए, कोचिंग कक्षाएं ऐसे स्कूलों/कॉलेजों के छात्रों को अच्छी शिक्षा पाने और अधिक चीजें सीखने का एक और अवसर देती हैं। इन फायदों के बावजूद उन्हें बगैर किसी नियंत्रण के खुली छूट नहीं दी जानी चाहिए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई कोचिंग सेंटर ऐसे भी हैं जो मानक से नीचे हैं और छात्रों और अभिभावकों की भावनाओं और मेहनत की कमाई से खेलते हैं। यदि कोचिंग केन्द्रों को उपरोक्त दिशानिर्देशों के मानदंडों को तोड़ने का दोषी पाया जाता है, तो उन्हें सजा दी जानी चाहिए।

कोचिंग सेंटर अवश्य ही इच्छुक छात्रों का मार्गदर्शन और समर्थन करके एक महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, और यही छात्रों के लिए मायने जरूर रखता है। इसलिए, हमें उन पर पूर्ण प्रतिबंध के बारे में नहीं सोचना चाहिए। बल्कि हमारा दृष्टिकोण उचित दिशा-निर्देशों के साथ उनकी कमियों को दूर करने का होना चाहिए।

शिक्षा की दुनिया में बहुत गहराई में कुछ है जो सड़ गया, सड़ता जा रहा है। हम वहां तक पहुंच नहीं पा रहे। टहनियां और पत्तियां काट-छांट रहे हैं। इससे कुछ नहीं होना। समस्या की जड़ तक जाना होगा। धैर्य, समझ, अनुभव और अंतर्दृष्टि के आधार पर। अधूरे समाधान दुगुनी समस्याओं को जन्म देंगे।

(चैतन्य नागर स्वतंत्र पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments