ईरान:जहां तलवार को कलम के सामने सिर झुकाना पड़ा

इतिहास इस बात की गवाही देता है कि किसी देश का धर्म बलपूर्वक बदला जा सकता है, लेकिन उसकी संस्कृति—जो भाषा, साहित्य और स्मृति में रची-बसी होती है—को मिटा पाना आसान नहीं होता। इस सत्य का सबसे जीवंत उदाहरण ईरान है।

सातवीं शताब्दी में जब अरबों ने ईरान पर विजय पाई और इस्लाम का प्रसार किया, तब ईरान ने नया धर्म तो स्वीकार कर लिया, लेकिन अपनी फारसी संस्कृति और भाषा को न तो त्यागा और न ही भुलाया। आज के दौर में जब धार्मिक पहचान को अक्सर सांस्कृतिक अस्तित्व पर थोपने की कोशिश की जाती है, ईरान का यह अनुभव हमें यह सिखाता है कि एक सभ्यता की आत्मा धर्म से नहीं, उसकी संस्कृति से बनती है।

धर्म बदला, संस्कृति नहीं

जब इस्लाम ईरान पहुंचा, तो वह एक धार्मिक आंदोलन के रूप में नहीं, बल्कि विजयी सत्ता के रूप में आया। उस समय ईरान मुख्यतः ज़रथुस्त्र धर्म मानता था। धीरे-धीरे, इस्लाम वहां फैल गया, लेकिन ख़ास बात यहां यह रही कि जिस प्रकार मिस्र, सीरिया, या अन्य क्षेत्रों में अरबी भाषा ने स्थानीय भाषाओं को दबा दिया, वैसा ईरान में नहीं हुआ।

फारसी भाषा जीवित रही, क्योंकि वह केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि ईरानी अस्मिता का स्रोत थी। उसमें इतिहास, मिथक, दर्शन, प्रेम, विद्रोह—सभी कुछ समाहित था। ईरान ने इस्लाम को अपनाया, लेकिन उसे फारसी आत्मा में ढाल लिया। अरबी भाषा वहां धर्मग्रंथों और पूजा पद्धति तक सीमित रह गई, लेकिन आम जीवन में फारसी भाषा और संस्कृति ही प्रबल बनी रही।

फ़िरदौसी बनाम ग़ज़नवी: जब कविता ने सत्ता को ललकारा

इस सांस्कृतिक प्रतिरोध की सबसे प्रतीकात्मक घटना है- फ़िरदौसी और महमूद ग़ज़नवी की टकराव की कथा। फ़िरदौसी ने शाहनामा नामक महाकाव्य की रचना की। यह एक ऐसा ग्रंथ, जो प्राचीन फारसी राजाओं, वीरता, और गौरव की गाथा है। उन्होंने इसे पूरी तरह फारसी में लिखा, जानबूझकर अरबी शब्दों से परहेज किया।

जब अरब आक्रमणों के बाद ईरान ने इस्लाम को अपनाया, तब वहाँ अरबी भाषा और संस्कृति को थोपने की कोशिश हुई। लेकिन फारसी जनता ने अपनी भाषा को न केवल बचाए रखा, बल्कि उसमें नई सांस्कृतिक ऊँचाइयों को भी छुआ। इसी सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत बने अबुल-क़ासिम फ़िरदौसी।

फ़िरदौसी ने शाहनामा की रचना की। यह एक ऐसा महान महाकाव्य है,जिसमें फ़ारसी सभ्यता, उसके नायक, वीरता और गौरव का समृद्ध चित्रण है। फ़िरदौसी ने न सिर्फ़ फ़ारसी भाषा में रचना की, बल्कि जानबूझकर अरबी शब्दों से परहेज़ किया। यह केवल एक साहित्यिक निर्णय नहीं था, यह एक सांस्कृतिक प्रतिरोध था। 

महमूद ग़ज़नवी, एक विजेता और इस्लामी सत्ता का प्रतीक, फ़िरदौसी से शाहनामा के लिए अरबी प्रभाव और धार्मिक महिमा की अपेक्षा करता था। लेकिन, जब फ़िरदौसी ने अपनी रचना प्रस्तुत की, तो उसमें प्राचीन ईरानी आत्मा की गर्जना थी—कहीं भी महमूद की सत्ता या अरबी संस्कृति की चापलूसी नहीं थी।

किंवदंती कहती है कि महमूद ने नाराज़ होकर वादा किया हुआ पारितोषिक नहीं दिया और फ़िरदौसी को अपमानित किया। लेकिन, फ़िरदौसी ने पलटकर एक तीखी, व्यंग्यात्मक कविता लिखी, जिसमें उसने महमूद की अहंकारी सत्ता को ललकारा। यह ऐसा साहित्यिक प्रहार था,जिसने सम्राट को झुकने पर मजबूर कर दिया।

हालाँकि महमूद ने बाद में प्रायश्चितस्वरूप उपहार भेजा, पर तब तक फ़िरदौसी इस संसार से विदा हो चुके थे। सत्ता की क्षणिकता और कविता की अमरता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?

आज के संदर्भ में इसका क्या अर्थ है?

आज जब धर्म, सत्ता और भाषा को हथियार बनाकर सांस्कृतिक अस्मिता को कुचला जा रहा है, तब फ़िरदौसी की यह घटना हमें याद दिलाती है कि सच्ची शक्ति बंदूक में नहीं, साहित्य और स्मृति में होती है। सत्ता बदलती रहती है, लेकिन कविता और संस्कृति कालजयी होती हैं।

ईरान का यह उदाहरण भारत सहित उन सभी समाजों के लिए प्रेरणा है जो सांस्कृतिक विविधता को बचाने के संघर्ष में लगे हैं। यह हमें सिखाता है कि भाषा को बचाना सिर्फ भाषाई मुद्दा नहीं है, यह आत्मा को बचाने का संघर्ष है।

कविता के आगे झुकी सत्ता

ग़ज़नवी ने अनेक युद्ध जीते, लेकिन फ़िरदौसी के शब्दों के सामने पराजित हो गया। यह घटना केवल एक कवि और सम्राट की टकराहट नहीं, बल्कि संस्कृति और सत्ता के बीच की शाश्वत लड़ाई है। और इस लड़ाई में, जीत हमेशा उस कलम की होती है, जो स्मृति, सम्मान और अस्मिता को जीवित रखती है।

जब इतिहास लिखा जाता है, तो तलवारें मिट्टी में दफन हो जाती हैं, लेकिन कविताएँ अमर हो जाती हैं। यही फ़िरदौसी की विजय थी। यही ईरान की आत्मा थी।

यह टकराव एक राजा और कवि के बीच नहीं था, बल्कि एक विजेता की सत्ता और परंपरा की स्मृति के बीच संघर्ष था—और अंततः विजयी हुई स्मृति।

आज जब धर्म और भाषा की राजनीति समाजों को विभाजित कर रही है, तब ईरान का इतिहास हमें यह याद दिलाता है कि संस्कृति को केवल धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता। धर्म बदला जा सकता है, परंतु संस्कृति तब तक जीवित रहती है जब तक उसका साहित्य, भाषा और स्मृति जीवित रहती है।

ईरान ने दिखाया कि किसी धर्म को स्वीकार करना, उस संस्कृति का परित्याग नहीं होता, जो आपके भीतर रची-बसी हो। यह शिक्षा उन सभी देशों के लिए उपयोगी है, जो आज सांस्कृतिक समरूपता या ‘एकरूपता’ की मांग कर रहे हैं—चाहे वह धार्मिक कारणों से हो या वैश्वीकरण के नाम पर।

भारत के लिए सबक

भारत भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का जीवंत उदाहरण है। ऐसे में भारत को इस अनुभव से बहुत कुछ सीखना चाहिए। जब धार्मिक पहचान को संस्कृति पर थोपने की कोशिश होती है, तब विविधता खतरे में पड़ती है। भारत को यह समझना होगा कि उसकी शक्ति उसकी भाषाओं, साहित्यिक परंपराओं और स्मृतियों की विविधता में है—उन्हें मिटाकर एकता नहीं लाई जा सकती।

संस्कृति: सभ्यता की आत्मा

ईरान ने यह सिखाया कि तलवारें धर्म बदल सकती हैं, पर आत्मा नहीं। फ़िरदौसी ने शाहनामा के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि सत्ता को चुनौती देने के लिए बंदूक नहीं, कलम की ज़रूरत होती है। और जब स्मृति जीवित रहती है, तो कोई भी संस्कृति मरती नहीं।

आज के भारत या विश्व में, जहाँ अनेक शक्तियाँ स्मृतियों को मिटाकर नए ‘सांस्कृतिक संस्करण’ गढ़ना चाहती हैं, ईरान हमें याद दिलाता है—धर्म परिवर्तन के बावजूद भी जो संस्कृति अपनी भाषा और साहित्य से जुड़ी रहती है, वही दीर्घजीवी होती है और वही सच में स्वतंत्र भी होती है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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