झारखंड के जंगल का एक दृश्य।

घरेलू इस्तेमाल वाले वनोपजों पर नहीं लगेगा टैक्स, हाल में पारित संबंधित नियमों में झारखंड सरकार करेगी बदलाव

रांची। राज्यपाल, झारखंड सरकार के ‘आदेशानुसार’ का हवाला देकर 29 जून को झारखंड सरकार के पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के प्रधान सचिव अमरेंद्र प्रताप सिंह ने एक अधिसूचना जारी की। जिसमें वनोपज यानी जंगलों से पैदा होने वाले सभी पदार्थों और वस्तुओं के उपयोग पर टैक्स लगाने की घोषणा की गयी थी। इस कड़ी में वर्ष 2004 में अधिसूचित झारखंड काष्ठ एवं वन उत्पाद (अभिवहन का विनियमन) नियमावली, 2004 को निरस्त करके उसके स्थान पर झारखण्ड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली, 2020 की स्वीकृति दे दी गयी थी। इसका मतलब था कि अब आदिवासियों को जंगलों से जलावन समेत अन्य वनोपज लाने पर भी टैक्स का भुगतान करना पड़ेगा।

इस अधिसूचना को जनचौक ने गंभीरता से लिया और 8 जुलाई को ”आदिवासियों से जंगलों पर मालिकाना हक छीनने की तैयारी, जलावन समेत दूसरे वनोपजों पर झारखंड सरकार ने लगाया टैक्स” शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की। जिसे देश के अन्य भागों समेत झारखंड में भी पढ़ा गया। इस रिपोर्ट में पूरे मसले को लेकर राज्य सरकार पर कई सवाल खड़े किये गए थे। 

इसके बाद यह मामला झारखंड सरकार के संज्ञान में आया और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अमरेन्द्र प्रताप सिंह को नयी वनोपज नियमावली में बदलाव किये जाने के निर्देश दिए। उसके बाद आनन-फानन में 10 जुलाई को सिंह ने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर बताया कि राज्य सरकार झारखण्ड वनोपज नियमावली 2020 में कुछ बदलाव करेगी तथा ग्रामीणों को जलावन लकड़ी अथवा अन्य निजी कार्य हेतु उपयोग की लकड़ियों के लिए न तो किसी तरह की अनुमति लेनी होगी और न ही उन्हें किसी तरह का शुल्क देना होगा। 

सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय, रांची की ओर से 10 जुलाई की एक विज्ञप्ति में  कहा गया कि ”झारखण्ड वनोपज नियमावली 2020 में संशय दूर करने का मुख्यमंत्री से मिला निर्देश, राज्य सरकार झारखण्ड वनोपज नियमावली 2020 में करेगी कुछ बदलाव-  ग्रामीणों को जलावन लकड़ी अथवा अन्य निजी कार्य हेतु उपयोग की गई लकड़ी पर कोई अनुज्ञा पत्र नहीं और न ही किसी तरह का शुल्क।’’ 

प्रतीकात्मक फोटो।

सिंह ने बताया कि वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ने जून माह में ट्रांजिट रुल लाया था। जिसके तहत झारखण्ड वनोपज नियमावली 2020 अधिसूचित की गई थी। इसमें जलावन लकड़ी के लिये 25 रुपये घन मीटर की दर के प्रावधान तथा अन्य वनोत्पाद को लेकर भी संशय हो रहा था। उन्होंने कहा कि जलावन लकड़ी के लिये 25 रुपये घनमीटर की दर के प्रावधान को जल्द ही हटा दिया जाएगा।

उन्होंने कहा कि इस नियमावली में यह बात स्पष्ट है कि ग्रामीण अगर अपनी ग्राम सीमा के अंदर जलावन या अन्य निजी कार्यों के लिये लकड़ी का उपयोग करते हैं तो उन्हें किसी तरह का शुल्क नहीं देना होगा और न ही लाइसेंस लेना होगा। परंतु इसे बेचने की अनुमति नहीं होगी। वहीं यदि लकड़ी का उपयोग व्यवसायिक कार्यों के लिए होता तो उसके लिए शुल्क देना होगा। 

उन्होंने कहा कि ग्राम सीमा के अंदर लकड़ी का उपयोग जलावन या निजी कार्यों हेतु मान्य है न कि बेचने के लिये। परंतु यदि वन क्षेत्र में सड़क निर्माण या अन्य कार्यों हेतु जंगल की कटाई से प्राप्त लकड़ी का उपयोग व्यवसायिक कार्यों हेतु किया जाता है तो इसकी अनुमति लेनी होगी। 

अब सवाल यह उठता है कि यह कानून कैबिनेट से कैसे पारित हो गया। सूबा जिन आदिवासियों के नाम पर बना है और जिनके अधिकारों की उसे संरक्षा करनी है उसकी सरकार खुद ही उसके खिलाफ खड़ी हो जा रही है। यह एक बड़ा सवाल बनकर रह जाता है। और अगर यह काम नौकरशाही के स्तर पर हुआ है बगैर सत्ता में बैठी राजनीतिक जमात से सलाह-मशविरे के तब मामला और गंभीर हो जाता है। तब यह अतिरिक्त सवाल बन जाता है कि सरकार जनता द्वारा चुने गए उसके प्रतिनिधि चला रहे हैं या फिर नौकरशाह? जाहिर है राज्य में विधायिका नौकरशाहों पर आंख बंद करके भरोसा कर रही है, जो शायद लोकतंत्र के लिए किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। 

भाकपा माले के विधायक और प्रत्यायुक्त (प्रतिनिधि) विधान समिति के सभापति विनोद सिंह कहते हैं कि ”कोई भी नियमावली पारित करने के लिए कैबिनेट के बाद विधानसभा में भी रखा जाता है जो इस मामले में नहीं हुआ है।” 

वे बताते हैं कि ”जब मुझे मामले की जानकारी हुई तो ‘प्रत्यायुक्त विधान समिति’ के सभापति के नाते मैंने 17 जून को हुए कैबिनेट के फैसलों में ‘झारखण्ड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली, 2020’ की स्वीकृति अधिसूचना और सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय रांची, द्वारा दिनांक- 10.07.2020 को जारी विज्ञप्ति संख्या- 366/2020 की प्रतिलिपि की मांग की है, उसे देखने के बाद ही मैं इस पर कुछ कह सकूंगा।”

बताना जरूरी होगा कि कोई भी अध्यादेश लाकर किसी अधिनियम (कानून) को नहीं बदला जा सकता है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों से भी कानून को पारित कराना होगा। कहना ना होगा कि आदिवासियों को जल, जंगल व जमीन से बेदखल करने की हमेशा से कोशिश होती रही है। 

(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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