प्रतीकात्मक फोटो।

कोविड के कहर पर भारी पड़ीं समाजवादी व्यवस्थाएं

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की गई है, जो संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग कर रही है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में इन सिद्धांतों को लगातार कमजोर किए जाने के बावजूद, हमारे राजनीतिक पूर्वजों ने जिस प्रकार के गणतंत्र की कल्पना की थी, उसके लिए ये दोनों बुनियादी सिद्धांत थे। नब्बे के दशक में नवउदारवादी नीतियों को अपनाये जाने के साथ, समाजवाद को एक तरफ धकेल दिया गया। लेकिन वर्तमान महामारी के दौरान समाजवाद न केवल भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए भी प्रासंगिक हो गया है। ऐसे में, जबकि दुनिया कोविड-19 का कहर झेल रही है और इसके लिए एक अदद वैक्सीन खोजने के लिए जूझ रही है, अगर हम ध्यान से देखें तो पता चलता है कि समाजवादी आदर्श ही जीवन-रक्षक बन कर सामने आए हैं। इसे उदाहरणों से पुष्ट किया जा सकता है।

आज की इस नवउदारवादी दुनिया में, किसी भी देश को विशुद्ध समाजवादी देश नहीं कहा जा सकता है। लेकिन वे देश जो अपने नागरिकों को समाजवादी ढंग की चिकित्सा प्रदान करते हैं, उन्होंने दरअसल अपने यहां लोक कल्याणकारी राज्य के मॉडल को विकसित किया है। यह मॉडल ही अतीत के समाजवादी देशों की चिकित्सा-व्यवस्था से काफी समानता  रखता है। कोविड-19 महामारी ने सरकारों, हेल्थकेयर मॉडलों और राजनीतिक विचारधाराओं की कमजोरी को उजागर कर दिया है। इस प्रकार यह देखना महत्वपूर्ण है कि किन देशों ने इस महामारी में कोविड ​​से संबंधित रुग्णता और मृत्यु-दर को बेहतर ढंग से नियंत्रित किया है और उनकी राजनीतिक विचारधारा क्या है।

यह कल्पना करने के लिए किसी रॉकेट साइंस के ज्ञान की जरूरत नहीं है कि स्वास्थ्य के बेहतर बुनियादी ढांचे वाले देश ही किसी महामारी के दौरान बेहतर काम करेंगे। लेकिन यह संबंध इतना सीधा भी नहीं है। स्वास्थ्य सेवा प्रबंधन के अलावा, इसमें राजनीतिक प्रतिक्रिया और इच्छाशक्ति की भूमिका भी निर्णायक है।

एक अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की संकल्पना और उसके ढांचे  ने, जो कि समाजवाद के किसी भी रूप का एक महत्वपूर्ण घटक है, वर्तमान महामारी के दौरान बेहतर परिणाम दिखाया है। निजी स्वास्थ्य सेवा के साथ पूंजीवादी देशों ने, जहां निजी स्वास्थ्य सेवाएं हैं, अत्याधुनिक स्वास्थ्य सुविधाओं और टेक्नोलॉजी की उपलब्धता के बावजूद सबसे खराब प्रदर्शन किया है। अमरीका इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

वर्तमान महामारी से अच्छे ढंग से निपटने के मामले में, एक देश जिसने सबसे अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है वह न्यूजीलैंड है। कुल लगभग 1,757 मामलों और प्रति दस लाख जनसंख्या में मात्र 4.56 की कम मृत्यु दर के साथ, कोविड-19 के न्यूजीलैंड के आंकड़े दुनिया में सबसे अच्छे हैं। यह देश वर्तमान में वामपंथी रुझान वाली लेबर पार्टी द्वारा शासित है। न्यूजीलैंड में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत व्यय होता है। जबकि भारत की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ लिखा होने के बावजूद, स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1 प्रतिशत व्यय होता है।

अधिकांश यूरोपीय राष्ट्र जिन्होंने वर्तमान महामारी में अच्छा प्रदर्शन किया है, वे समाजवादी झुकाव वाले हैं, या सत्ता में वाम गठबंधन के साथ पूरी तरह से कल्याणकारी राज्य हैं। जर्मनी में महामारी का प्रकोप बहुत तेज था, लेकिन उसने अपने यहां मौतों को बहुत तेज़ी से रोक लिया। अब तक, जर्मनी में 108 मौतें प्रति दस लाख जनसंख्या की दर के साथ कुल 2,47,000 मामले दर्ज किए गए। स्वास्थ्य पर जर्मनी का कुल व्यय जीडीपी का लगभग 11 प्रतिशत है और यह स्वास्थ्य पर यूरोपीय संघ के अन्य देशों द्वारा खर्च किए गए औसत से लगभग एक प्रतिशत अधिक है। पुर्तगाल, जहां पिछले कुछ वर्षों से वामपंथी गठबंधन की सरकार रही है, उसने महामारी को अच्छी तरह से नियंत्रित किया है।

कई अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में इसने अपने यहां लोगों को मोहलत देते हुए बहुत पहले ही लोकतांत्रिक रूप से नियोजित लॉकडाउन किया था। पुर्तगाल में 1,827 मौतों के साथ कुल 58,000 मामले थे। जबकि इसके पड़ोसी स्पेन में हालत इसके विपरीत थी। स्पेन में कुल 4,80,000 मामलों और 29,194 मौतों के साथ वायरस ने तबाही मचा दिया था। स्वास्थ्य पर पुर्तगाल का कुल व्यय जीडीपी का 9.5 प्रतिशत है। आइसलैंड एक अन्य यूरोपीय राष्ट्र है जिसने महामारी से निपटने में अच्छा काम किया है। वहां कुल 2,121 मामले आए और मात्र 10 मौतें हुईं। दिलचस्प बात यह है कि आइसलैंड के निवासियों ने 2017 में आम चुनावों में बहुमत के साथ वामपंथी सरकार को वोट दिया है।

लैटिन अमेरिकी देशों में भी उन देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया है जहां स्वास्थ्य पर अधिक खर्च किया जाता है, जबकि उन देशों में ज्यादा बुरी हालत है जहां स्वास्थ्य पर खर्च लोगों को अपनी जेब से करना पड़ता है। अर्जेंटीना एक उत्कृष्ट उदाहरण है। कोविड-19 के 40,000 मामलों और 8,00 मौतों के साथ, यह अपने अधिकांश पड़ोसियों की तुलना में कहीं बेहतर है। देश में पेरोनवादियों (वामपंथियों) का शासन है, जो अधिक वामपंथी आर्थिक नीतियों के पैरोकार हैं।

अर्जेंटीना की आबादी की तुलना कई मामलों में उसके पड़ोसी ब्राजील से की जा सकती है। ब्राजील में दक्षिणपंथी सरकार है और वायरस ने इस देश को तबाह कर दिया है। वहां 39 लाख 60 हजार मामले आए और लगभग 1 लाख 23 हजार मौतें हुई हैं। दूसरी ओर वेनेजुएला में, जो पिछले दो दशकों से समाजवादी शासन के अधीन है, वर्तमान महामारी के दौरान आशाजनक परिणाम दिखा। इसमें केवल 400 मौतों के साथ कुल 47,756 मामले सामने आए।

इस विश्लेषण के खिलाफ एक तर्क यह होगा कि न्यूजीलैंड, जर्मनी, आइसलैंड या यहां तक ​​कि अर्जेंटीना के साथ भारतीय स्थिति की तुलना करना मुश्किल है क्योंकि हमारी आबादी इन देशों की संयुक्त आबादी से काफी ज्यादा है। बाजार अर्थव्यवस्था के समर्थकों के साथ समस्या यह है कि वे सभी समस्याओं के लिए जनसंख्या वृद्धि को बहाना बनाते हैं। वर्तमान महामारी में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला भारतीय राज्य केरल भी सबसे सघन आबादी वाला है। जनसंख्या वृद्धि पर चिंता जताना हमेशा एक लोकलुभावन एजेंडे का हिस्सा रहा है, उसमें भी गरीबों की आबादी पर मुख्य रूप से चिंता जताना। हम यह समझने में विफल हैं कि जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाने का रास्ता भी लोगों के समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास से होकर गुजरता है, और इस कोविड-19 महामारी ने बहुत अच्छी तरह से इस बात का खुलासा किया है।

निष्कर्ष निकालने के लिए, एक त्वरित नज़र से पता चलता है कि समाजवाद एक अजूबा विचार नहीं है जिससे आसानी से पिंड छुड़ा लिया जाए। यहां तक ​​कि अपने सबसे अधिक निष्क्रिय, रूपांतरित और अटपटे रूप में भी, यह कोविड-19 जैसी महामारी से सफलतापूर्वक लड़ने में एक सुगम हथियार रहा है। समाजवादी व्यवस्था के लिए भारत की खोज भले ही अधूरी छोड़ दी गई हो, लेकिन समाजवादी सिद्धांत हमारे जैसे देश में भी लोगों के स्वास्थ्य-संबंधित मामलों में उम्मीद की एक झलक दिखाते हैं।

(नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हड्डी रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर डॉ. शाह आलम खान का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था। इसका अनुवाद लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार शैलेश ने किया है।)

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