किसान आंदोलन को देखने का बहुजन नजरिया

वर्तमान किसान आंदोलन की शुरुआत संघ की केंद्र सरकार द्वारा आनन फानन में तीन कृषि कानूनों को असंवैधानिक तरीक़े से संसद में पास कराने से ही हो गई थी। शुरू में पंजाब और हरियाणा में इसके खिलाफ किसानों की प्रतिक्रिया आयी, कभी नरम तो कभी गरम। लेकिन आंदोलन तमाम संघी मीडिया और सरकार के बहुत सचेत ढंग से भटकाने और गुमराह करने, बदनाम करने के बावजूद विस्तार पाता रहा। हमारी चर्चा का केंद्र मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर है।

(1) धुर ब्राह्मणवादी कम्युनिस्टों के विचार

(2) दलित संगठनों या विचारकों द्वारा आशंका जाहिर करना

(3) बहुजन दृष्टिकोण क्या हो सकता है इस आंदोलन के संदर्भ में

पहले बिंदु पर बात करते हैं। वामपंथी पार्टियों के अपने किसान संगठन इस आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहे हैं और पूरी शिद्दत से मोर्चा भी संभाल रखा है। इस बारे में संघी सरकार ने बार-बार यह ऐतराज़ भी जताया है कि इस आंदोलन से वामपंथी हट जाएं तो जल्दी ही कोई हल निकल जायेगा। कुल मिलाकर वामपंथी किसान संगठनों की स्थिति अभी कम से कम दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे किसानों के बीच में नोटिस योग्य तो है। लेकिन धुर ब्राह्मणवादी वामपंथियों का एक हिस्सा यह मानता है कि यह आंदोलन धनी किसानों का है। जब पूंजीवाद आता है तो छोटे-छोटे कास्तकार, उनके साधन और उद्यम बर्बाद हो जाते हैं। इनका ये भी मानना है कि हमें इस आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहिए, जल्दी से जल्दी सब कुछ पूंजीपतियों के पास चला जायेगा तो सीधे-सीधे वर्ग संघर्ष पूंजीपतियों और सर्वहारा वर्ग के बीच होगा। तब सामंती चेतना का अंत हो जाएगा और सही मायने में मज़दूर वर्ग का चरित्र क्लासिकल रूप में आएगा।

अब सवाल ये उठता है कि, इन पर हंसा जाए या रोया जाए या दीवार पर अपना सिर फोड़ा जाए। इनके लिए भारत में न ब्राह्मणवाद है, न जातीय व्यवस्था है, न नस्लीय घृणा है और न ही शैतानी संस्कृति है। ये आरएसएस के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद साबित होने वाले हैं। इनका अधिकांश नेतृत्व सवर्ण हिन्दू पुरुष से ही आता है। ये स्वाभाविक रूप से ब्राह्मणवादी सिस्टम के लिए भरोसेमंद पार्टनर की भूमिका निभाते दिख जाएंगे।

दूसरे बिंदु पर विचार करते हुए तमाम बहुजन चिंतक, जिसमें से अधिकांश एससी/एसटी से हैं, की ओर से यह आशंका जताई जा रही है कि सवर्ण हिंदुओं से ज्यादा ओबीसी की किसान जातियों द्वारा दलितों का शोषण होता है क्योंकि भूमिहीन ग्रामीण मज़दूरों के पास कोई खेतिहर मजदूर बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है, तब ज्यादातर शोषण बड़े किसानों के द्वारा ही होता है। दलितों और आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़े समाजिक समूह या गरीब अल्पसंख्यक समाज के लिए जब ज़मीन के समान वितरण का एजेंडा आएगा तो ऐसे मामले में यही धनी किसान सबसे बड़े अवरोध के रूप में सामने आएंगे। यही वजह है कि एक सामाजिक और आर्थिक दूरी बरकरार है और इस किसान आंदोलन में दलित संगठनों की भूमिका बहुत कम है।

अब इन आशंकाओं पर विचार करें तो कुछ हद तक यह सही भी लग रहा है। लेकिन जब पूरे परिदृश्य पर सोचा जाय तो ये आशंकाएं सतही ही नज़र आएंगी। कृषक समाज में बमुश्किल 3-4% किसान ही हैं जिन्हें धनी किसान कहा जा सकता है। बाकी सीमांत, मझोले या गरीब किसान की श्रेणी में आते हैं। जिन तीनों किसान कानूनों के नाम पर खेती को भी ब्राह्मणीकरण के जरिये सवर्णों के हाथों में लेने की कवायद चल रही है, तब इस मार के चलते हो सकता है कि धनी किसान और मझोले किसान बच भी जाएं, लेकिन ग्रामीण और शहरी असंगठित मज़दूरों को भयंकर गुलामी में धकेल दिया जाएगा। जिस ब्राह्मणवादी फासिस्ट डिज़ाइन के तहत बहुजनों के श्रम और उनके टैक्स से बने सार्वजनिक संस्थान, उद्योग-धंधे, खनिज, प्राकृतिक संसाधनों को ब्राह्मण-बनिया ने लूट लिया है और गरीब से गरीब सवर्ण भी आज जो इस डिज़ाइन का पैरोकार बना हुआ है तब बहुजनों को इसके परिणाम की भयावहता को समझना ही होगा। खेती का काम श्रमजीवी बहुजन समाज ही करता है। यदि यह भी छीन लिया गया तो मनुस्मृति लागू करने का इन मनुवादी फासिस्टों का मंसूबा पूरा हो जाएगा।

यही सबसे उचित समय है कि समाज के सभी बहुजनों को, चाहे वह किसी भी धर्म के हों, तमाम इंसाफ पसंद लोगों को, तमाम समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व पर विश्वास करने वालों को और कुल मिलाकर ब्राह्मणवादी शोषण की मार झेल रहे शोषित-वंचित समाज को एक हो जाना चाहिए। कोई भी सामाजिक समूह अकेले अकेले इस हैवानी फासिस्ट डिज़ाइन का मुकाबला नहीं कर सकता। जिस बहुजन समाज का समीकरण मान्यवर कांशीराम ने समझाया था उस लिहाज से सभी बहुजन समाज को न केवल कृषि कानूनों के खात्मे के एजेंडे तक सीमित रखना होगा बल्कि इस फासिस्ट दमन चक्र को तोड़ते हुए बहुजन सिस्टम की ओर बढ़ना ही होगा। 

इसके साथ एक बात और ध्यान देने की जरूरत है कि जिस किसान आंदोलन को किसान बनाम कॉरपोरेट के पॉपुलर जुमले के तहत देखा जा रहा है वह बहुत ही आत्मघाती सिद्ध होने वाला है। यह ठीक है कि इन कानूनों से बड़े कॉरपोरेट घरानों को ही सबसे ज्यादा फायदा पहुंचेगा, लेकिन आरएसएस द्वारा गांव-शहर में जिस तरह की घेरेबंदी की जा रही है और न केवल किसानों के खिलाफ बल्कि दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों, ईसाइयों के खिलाफ जिस आक्रामकता के साथ ब्राह्मणवादी सवर्ण दुष्प्रचार फैला रहे हैं, उससे समझा जा सकता है कि यह महज कॉरपोरेट का मसला नहीं है बल्कि पूरा मनुवादी व्यवस्था बनाने वालों का एजेंडा है।

हमें ध्यान देना चाहिए कि जिस पॉपुलर स्लोगन के साथ संघी सरकार केंद्र में आई थी, और बहुजनों की ओर से भी भरपूर समर्थन मिला था, वह नोटबन्दी से शुरू होकर तमाम दलित अधिकारों, आदिवासियों के अधिकारों, आरक्षण को खत्म करने, मुस्लिम समाज के खिलाफ भयंकर किस्म का जहर बोने, नागरिक अधिकारों पर हमला करने, जम्मू-कश्मीर को तबाह करने और उसके टुकड़े-टुकड़े करने, बाबरी मस्जिद विध्वंस और रामजन्मभूमि के मामले में पूरी अनैतिकता के साथ न्याय प्रक्रिया अपनाने आदि की एक पूरी श्रृंखला बहुजन समाज के खिलाफ दिखती है। ऐसे में केवल एक एजेंडे तक सीमित करने से इस शैतानी निज़ाम को नहीं खत्म किया जा सकता।

अंततः किसान आंदोलनों की धमक जब पूरे देश में सुनाई दे रही है और यह अब वैश्विक विमर्श के केंद्र में आ गया है, तब बहुजन समाज के सभी हिस्सों को पूरी ताकत से संगठित संघर्ष की ओर बढ़ना ही होगा। अन्यथा एक लंबे अंधेरे वक्त के लिए तैयार हो जाना चाहिए। बहुजनों को कमान हाथ में लेना ही होगा नहीं तो बहुजन समाज के पास वो हाथ भी नहीं बचेगा जो कमान सम्हाल सके या हाथ होगा भी तो उसमें कोई जुम्बिश नहीं होगी।

(हिम्मत सिंह बहुजन किसान यूनियन के नेता हैं।)

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