इतिहास को बदलने की मोदी की नाकाम कोशिश

भारतीय जनता पार्टी जब भी सरकार में आती है, वह न केवल इतिहास से छेड़छाड़ करती है, बल्कि वह पाठ्यक्रमों में भी बदलाव करती है और दक्षिणपंथी मूल्यों की रचनाओं को उसमे घुसेड़ने का काम करती हैं।

इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं चाहे वह वाजपेई की सरकार हो या मोदी की सरकार हो। इतना ही नहीं वह मुस्लिम नाम से जुड़े शहरों के नाम भी बदलने  लगती है क्योंकि वह बुनयादी रूप से साम्प्रदायिक सोच वाली है,  उसे मुस्लिम कौम से चिढ़ है। वह तो हिन्दू राष्ट्र का सपना देखती है। पहले उसने मुगलसराय का नाम बदला, फिर इलाहाबाद का नाम बदला और अब वह अलीगढ़ का भी नाम बदलने जा रही है। इतना ही नहीं उसे नेहरू खानदान से भी नफरत है क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील मूल्यों में यकीन करता रहा। कुछ दिन पहले उसने राजीव खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलकर ध्यानचंद पुरस्कार कर दिया। जबकि ध्यानचंद के नाम पर एक राष्ट्रीय पुरस्कार पहले से ही है।

इससे सरकार की बड़ी फ़जीहत हुई पर बेशर्म सरकार को शर्मों हया तक नहीं। इससे भी उसका जी नहीं भरा तो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की वेबसाइट पर स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीर में नेहरू जी की तस्वीर शामिल नहीं कर अपनी क्षुद्रता का परिचय दिया। नेहरू की तस्वीर न लगाकर उल्टे उसने सावरकर की तस्वीर लगाई जबकि सावरकर ने आजादी की लड़ाई में सेलुलर जेल से छूटने के लिए अंग्रेजों से बार-बार माफी मांगी थी और वह अंग्रेज सरकार से पेंशन भी पाते रहे। जबकि नेहरू जी 9 साल जेल में रहे। उनके पिता मोतीलाल नेहरू भी जेल गए लेकिन मोदी सरकार अपनी हरकतों से बाज नहीं आती है। दिलचस्प बात यह है कि खुद मोदी जी का इतिहास ज्ञान भूलों और गलतियों से भरा है। कई बार अपने भाषणों में वे अपने अज्ञान का परिचय दे चुके हैं।

अब भाजपा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी ऑनर्स के कोर्स से महाश्वेता देवी तथा दो और दलित नेताओं के कहानी को पाठ्यक्रम से हटा कर अपनी कट्टरता का फिर परिचय दिया है। पहले भी दिल्ली विश्वविद्यालय में इस्मत चुगताई की लिहाफ कहानी नंदिनी सुंदर की किताब और रामानुजम की कितने रामायण किताब पर विवाद हो चुका है। मुरली मनोहर जोशी जब मानव संसाधन मंत्री थे तो उन्होंने एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम का भगवा करण किया था। अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री बने तो धूमिल की कविता को लेकर सुषमा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी ने संसद में बड़ा हंगामा किया था उनका कहना था कि धूमिल की कविता हिन्दू संस्कृति के खिलाफ है।

उस समय प्रख्यात शिक्षाविद कृष्ण कुमार एनसीईआरटी के निदेशक थे। अंत में धूमिल की कविता हटानी पड़ी। ये घटनाएं बताती हैं कि हर बार भाजपा सरकार हिंदू धर्म और परंपरा के नाम पर प्रगतिशील तत्व की मुखालफत करती रहती है और दकियानूसी विचारों को इतिहास में घुसेड़ने का काम करती रहती है। ताजा विवाद दिल्ली विश्वविद्यालय का है जो थमने का नाम नहीं ले रहा। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी ऑनर्स के पाठ्यक्रम से प्रख्यात बंगला लेखिका महाश्वेता देवी की कहानी “द्रौपदी” के अंग्रेजी अनुवाद को हटाए जाने का  मामला काफी गंभीर है। यही कारण है कि 10 जन संगठनों ने इस कहानी को पाठ्यक्रम में फिर से बहाल करने की मांग की है ।

गौरतलब है कि पिछले दिनों विश्वविद्यालय की ओवरसाइट कमेटी ने  महाश्वेता देवी और दो दलित लेखिकाओं की कहानी को ऑनर्स के पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया जिसका तीखा विरोध प्रगतिशील शिक्षकों और बुद्धिजीवियों ने किया था जबकि भाजपा समर्थित शिक्षक संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट ने इन कहानियों को” हिंदू विरोधी” बताते हुए इन्हें  पाठ्यक्रम से हटाए जाने का स्वागत किया।

इस तरह इस कहानी को हटाए जाने के मुद्दे पर वामपंथी और भाजपाई शिक्षक आमने सामने आ गए हैं।

जनवादी लेखक संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, इप्टा ,संगवारी ,प्रतिरोध का सिनेमा, दलित लेखक संघ सोशलिस्ट इनिशिएटिव,  अभदालम  समेत दस संगठनों द्वारा जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि भाजपा जब सरकार में आती है तब वह इस तरह के कदम उठाती है। वाजपयी सरकार में प्रेमचन्द के उपन्यास को हटाकर मृदुला सिन्हा का उपन्यास सीबीएसई के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।

दस वाम संगठनों ने एक संयुक्त बयान जारी कर कहा कि महाश्वेता देवी अंतरराष्ट्रीय स्तर की लेखिका हैं और उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है तथा वह पद्म भूषण से भी सम्मानित हो चुकी हैं। उनकी यह कहानी 1999 से  दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी ऑनर्स के पाठ्यक्रम में शामिल थी लेकिन इस कहानी को पाठ्यक्रम से अब बाहर कर दिया गया। हम इस कहानी को दोबारा पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग करते हैं।

बयान में कहा गया है कि ओवरसाइट कमेटी में न तो इतिहास न ही साहित्य और दलित मामलों के जानकार लोग शामिल हैं। इस कहानी का मूल्यांकन वे कैसे कर सकते हैं।

बयान में कहा गया है कि “हमें नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1978 में प्रख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा द्वारा लिखित पाठ्यपुस्तक ‘प्राचीन भारत’ को ग्यारहवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से सीबीएसई ने निकाल दिया था। इसी प्रकार वाजपेयी सरकार में प्रेमचन्द के निर्मला उपन्यास को CBSE के पाठ्यक्रम से हटाकर उसकी जगह गुमनाम मृदुला सिन्हा के उपन्यास ‘ज्यों मेहँदी के रंग’ को शामिल किया गया था। इसी कड़ी का ताजा उदाहरण है दिल्ली विश्वविद्यालय की पर्यवेक्षी समिति (Oversight Committee) द्वारा देश की ख्यातिलब्ध लेखिका महाश्वेता देवी की लघुकथा ‘द्रौपदी’ और दो दलित लेखकों बामा और सुकिर्तरानी की कहानियों को अंग्रेजी पाठ्यक्रम से बाहर करना है।”

“ये कहानियां जातिभेद और लैंगिक भेदभाव पर आधारित समाज में स्त्री के साथ होने वाले अन्याय और वंचितों के साथ होने वाली संरचनात्मक हिंसा को उजागर करती हैं। महाभारत काल से आज तक वर्चस्व के लिए होने वाली पुरुषों की लड़ाई में स्त्री अपमान का मोहरा बनाई जाती रही है। जिस तरह महाभारतकार ने द्रौपदी के सशक्त चरित्र के माध्यम से इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, इसी तरह हमारे समय की इन प्रतिनिधि लेखिकाओं ने भी उठाई है।

 “समाज में व्याप्त अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने से समाज कलंकित नहीं होता, उस पर पर्दा डालने से होता है। किसी भी समाज में श्रेष्ठ साहित्य की यही भूमिका होती है। आलोचना और प्रतिरोध को साहित्य से निकाल दिया जाए तो हमारे पास केवल चारण साहित्य रह जाएगा। चारण साहित्य से देश मजबूत नहीं,  कमजोर होता है।”

विश्वप्रसिद्ध लेखिका गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक द्वारा अनूदित महाश्वेता देवी की  उत्पीड़न विरोधी रचना को देशविरोधी, हिन्दू विरोधी और अश्लील बताना सेंसरकर्ताओं के मानसिक दिवालिएपन का सूचक है। हिन्दू धर्म का गौरव चीर हरण में नहीं, चीर हरण के विरुद्ध द्रौपदी और कृष्ण के प्रतिरोध में है।

नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के अध्यक्ष डॉ. एके भागी और महासचिव डॉ. वीएस नेगी ने गत दिनों एक बयान जारी कर दिल्ली विश्वविद्यालय में  अकादमिक परिषद के द्वारा अंग्रेजी आनर्स पाठ्यक्रम में किए गए संशोधन और अनुमोदन का स्वागत किया है। गौरतलब है कि 2019 में कार्यकारी परिषद के द्वारा गठित सक्षम निगरानी समिति ने इस अंग्रेजी पाठ्यक्रम में बहुत कम किंतु सार्थक संशोधन किए हैं। समिति ने सभी संबंधित अकादमिक  हितधारकों से परामर्श कर जो सुझाव प्रस्तुत किए उन्हें अकादमिक काउंसिल में उपस्थित सदस्यों ने बहुमत से अपनी स्वीकृति प्रदान की।ज्ञात हो कि कुल 125 सदस्यों में से 87 उपस्थित थे। कुल उपस्थित सदस्यों में केवल 15 सदस्यों ने इन संशोधन के विरोध में अपना मत दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेजी विभाग के कुछेक सदस्यों ने अकादमिक स्वायत्तता का दुरुपयोग हिंदुत्व को बदनाम करने और खलनायक बनाने, समाज में विभिन्न जातियों के बीच वैमनस्य पैदा करने तथा आदिवासियों और अन्य के बीच हिंसक माओवाद और नक्सलवाद को प्रोत्साहित करने के लिए किया है। कई हितधारकों ने वैधानिक आपत्तियां की। अपने एजेंडे में नाकामयाब होकर लोग राजनीतिक शोर शराबा कर रहे हैं।

फ्रंट का कहना है कि कहानी के शीर्षक से लेकर उसमें जिस तरीके से अशिष्ट चित्रण किया गया है उसमें हिंदू धर्म को नीचा दिखाने का क्षुद्र प्रयास है। कहानी की भाषा और विवरण भी आपत्तिजनक हैं।

नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट को वामपंथ के इस झूठ पर आपत्ति है कि दलित साहित्य को हटाया गया है दरअसल पाठ्यक्रम में वे सभी लेखक शामिल हैं जो मूल पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं जिसे अकादमिक परिषद की बैठक में अनुमोदित किया गया था। अंग्रेजी विभाग अध्यक्ष की संस्तुति और सहमति से इस कहानी को रुकैया सखावत हुसैन की सुलताना ड्रीम से प्रतिस्थापित किया गया है। रमाबाई रानाडे के लेखन का उनकी कथित निम्न जाति से न जुड़े होने के कारण वामपंथियों का विरोध उनकी मानसिकता को दर्शाता है। रमाबाई का  महिला आंदोलन और महिला सशक्तिकरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।उन्होंने  सभी जातियों की महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य किया।

लेकिन प्रश्न है कि भाजपा हिन्दू धर्म की खामियों गड़बड़ियों और अप्रगतिशील मूल्यों को क्यों छिपाना चाहती है? लोकतंत्र के नाम पर संस्कृति का तालिबानीकरण क्यों करना चाहती है। क्यों वह इतिहास और पाठ्यक्रमों को बदलना चाहती है? देश की जनता को यह जानना जरूरी है तभी वह मोदी सरकार के छलावे को समझेगी।

(विमल कुमार वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं। आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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