जोकवा में पहुंची पुलिस।

पूर्वांचल में बढ़ता आत्महत्याओं का ग्राफ

भूख, गरीबी, कर्ज और अपराध की गिरफ्त में पूर्वांचल का समाज, अवसाद की अंधेरी कोठरी में समाने लगा है। स्थिति नियंत्रण से बाहर दिख रही है और जागरुक लोग चिंतित हैं कि आखिर इसका समाधान क्या है? किसान और मजदूर, अपने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर रहे हैं तो कहीं युवक और युवतियां फांसी लगा रही हैं। यह बात सही है कि लम्बे समय से लॉकडाउन ने समाज को बंधक बना रखा है। बाहर जाकर काम-धंधा करने पर पाबंदी लगायी है। बाहर से आए मजदूर अभी तक वापस जा नहीं जा पाए हैं।

बिहार से सटे कुशीनगर जनपद की बात करें तो 8 सितम्बर, 2021 को जोकवा बाजार में एक लड़की ने फांसी लगा ली। 7 सितम्बर को तुर्कपट्टी थाने के एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और दो बच्चों का गला रेतकर हत्या कर दिया। इसी माह में पडरौना के एक युवक ने फांसी लगा ली थी। अगस्त, 2021 में थाना कुड़वा दिलीपनगर की एक महिला ने अपने तीन बच्चों की हत्या कर, खुद जहर खा लिया था तो थाना बिशुनपुरा की एक महिला ने अपने चार बच्चों के साथ गंडक नदी में छलांग लगा दी थी।

विगत वर्ष से ही ऐसी घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है। मार्च, 2020 में कुशीनगर जनपद के खड्डा थाने की एक महिला ने अपने बेटे के साथ कामाख्या एक्सप्रेस के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली थी। तरयासुजान के एक डॉक्टर और कप्तानगंज के एक किसान ने कर्ज में डूबे होने के कारण फांसी लगा ली थी। मई, 2020 में लॉकडाउन के समय तरयासुजान थाना क्षेत्र की एक और मजदूर महिला, सूरत से लौटी थी। कुछ ही दिन बाद आर्थिक तंगी के कारण उसने आत्महत्या कर ली। जुलाई, 2020 में नेबुआ नौरंगिया थाने के एक लड़के ने आर्थिक तंगी के कारण फांसी लगा ली तो नवम्बर 2020 में अहिरौली बाजार थाना क्षेत्र की एक छात्रा ने सोहदों से तंग आकर फांसी लगा ली थी।

पूर्वांचल के दूसरे जिलों, आजमगढ़, जौनपुर, बस्ती, वाराणसी से भी ऐसे ही समाचार रोज-ब-रोज मिल रहे हैं। आत्महत्याओं की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर के व्यावहारिक मनोविज्ञान विभाग ने विगत वर्ष सितम्बर 2020 में लोगों में अवसाद के बढ़ते कारणों को जानने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। यह एक प्रकार से अध्ययन की दिशा में एक प्रयास था। निःसंदेह ऐसे अध्ययन को विस्तृत क्षेत्रों में करने और कारणों के तह में जाने की जरूरत महसूस हो रही है। अभी तक संस्थागत रूप से इस दिशा में कुछ ठोस होता दिखाई नहीं दे रहा है।

मोटे तौर पर देखा जाए तो पूर्वांचल में ज्यादा उद्योग-धंधे नहीं हैं। एक जमाने में यहां सहकारी चीनी मिलों का जाल था जो अब खत्म हो चुका है। गोरखपुर का खाद कारखाना दशकों पूर्व बंद हो चुका है। जिसको अब चालू करने का काम किया जा रहा है। पूर्वांचल में भूमिहीन किसानों की संख्या लगभग 23 प्रतिशत से ज्यादा है। जिन सीमांत किसानों के पास जमीनें हैं, उनके आकार बहुत छोटे हैं। ऐसे में पूर्वांचल की अर्थव्यवस्था सूरत, मुंबई, बंगलुरू और लुधियाना जैसे व्यावसायिक शहरों में मजदूरी पर टिकी रही है। भारी संख्या में मजदूर खाड़ी देशों में भी काम करते रहे हैं। लॉकडाउन की वजह से इन मजदूरों की रोजी-रोटी पर संकट आ खड़ा हुआ है। आत्महत्या करने वालों में ज्यादातर इसी वर्ग के मजदूर, और किसान शामिल हैं। 

एक दूसरा वर्ग युवतियों और महिलाओं का है जो बलात्कार और घरेलू हिंसा की वजह से आत्महत्या कर रही हैं। ऐसे में पूर्वांचल की कानून व्यवस्था पर नियंत्रण की जरूरत है। पांच किलो अनाज और हर महीने पांच सौ रुपए की मदद बेशक मिल रही है फिर भी इस मदद के बावजूद आत्महत्याओं की दर बढ़ रही है तो हमें समस्या के अन्य कारणों पर अध्ययन करने की जरूरत है। हमें विकास की ऐसी योजनाओं को बनाने की जरूरत है, जो किसानों और मजदूरों को उनके घर के आसपास रोजी-रोटी उपलब्ध करा सके। इसके लिए पूर्वांचल में उद्योग-धंधों को स्थापित करने की जरूरत है। फंतासियों, बनावटी रूपकों, ऊंचे ख्वाब को नकारते हुए जमीनी हकीकतों का विश्लेष्ण कर विकास का मॉडल तैयार करने की जरूरत है। गरीबों पर जो आफत आयी हुई है, वह महज पांच किलो अनाज से खत्म नहीं होने वाली। इसके लिए स्थायी मदद की जरूरत है। आज की पीढ़ी को अवसाद से बचाने के लिए जरूरी है, हम विकास के मॉडलों की पुनः समीक्षा करें। रोजी-रोटी रोजगार के अलावा अन्य मुद्दे पर ध्यान भटकाने से समाज टूटता जायेगा। अवसाद बढ़ेगा। इससे बचने की तत्काल जरूरत है।

(सुभाष चन्द्र कुशवाहा इतिहासकार और साहित्यकार हैं।)

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