कृषि कानूनों के फिर आने का बरकरार है खतरा

19 नवंबर को किसान आंदोलन के दबाव में तीन कृषि कानूनों को एक तरफा प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा करके वापस लेने का ऐलान किया था। तो मैंने पहली टिप्पणी लिखते हुए कहा था कि, सावधानी हटी दुर्घटना घटी। उस टिप्पणी में मैंने यह लिखा था कि 1 वर्ष के करीब से चल रहे विश्व विख्यात किसान आंदोलन ने सरकार का गला दबा दिया है। सरकार सांस लेने के लिए थोड़ा मोहलत चाह रही है। हमें सचेत और सावधान रहना होगा। यह सरकार को जितना मैं समझ सका उसके अनुसार वह पलट कर वार कर सकती है। मैंने उस टिप्पणी में यह भी कहा था कि कॉरपोरेट के दबाव में लाया गया यह कानून कारपोरेट क्षेत्र में भाजपा और मोदी सरकार की विश्वसनीयता को क्षति पहुंचाएगा।

चंद दिनों पहले कृषि मंत्री ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था कि अभी हम एक कदम पीछे हटे हैं कल फिर हम दो कदम आगे बढ़ेंगे। उनकी यह टिप्पणी कृषि कानूनों के संदर्भ में थी। उन्होंने कहा कि हम कृषि कानून फिर वापस लाएंगे। कृषि मंत्री तोमर की साफगोई पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। खुद प्रधानमंत्री ने इन कानूनों को कृषि विरोधी ना बता कर सिर्फ इतना कहा था कि हमारी तपस्या में कुछ कमी रह गई और हम कुछ किसानों को इन कानूनों के फायदे नहीं समझा सके। ठीक इसी बात को श्रीमान तोमर जी दोहरा रहे हैं। उन्होंने तीन बातें कहीं ।

एक, कानून कृषि विकास को ध्यान में रख कर के लाया गया था। जड़ हो चुके कृषि उत्पादन क्षेत्र में बड़े रिफार्म की जरूरत है। और यह कानून कृषि रिफार्म को तीब्र आवेग देता। दूसरा, उन्होंने कहा था कि कृषि सुधार पर हम एक कदम पीछे हटे हैं। फिर हम कर दो कदम आगे बढ़कर कानून वापस लाएंगे।

तीसरा, भारत में विकास की रीढ़ कृषि है इसको कमजोर नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसी पर भारत का संपूर्ण आर्थिक ढांचा टिका है। इसलिए कृषि सुधारों के क्रम को जारी रखा जाएगा।

अब हम यहां से सरकार को किसान आंदोलन द्वारा खड़े किए गए संकट से बाहर निकलने के प्रयास को समझने की कोशिश कर सकते हैं। लखीमपुर में किसानों का नरसंहार और गुड़गांव में मुस्लिम समाज को नमाज अदा करने के दौरान संघी गिरोहों द्वारा हमला करके टकराव और तनाव पैदा करने के प्रयोग को गुरुद्वारों और आम नागरिकों द्वारा असफल कर दिया गया तो भाजपा संकट में आ गई। क्योंकि भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के लिए हिंदू-मुस्लिम टकराव ही एकमेव मार्ग है जिस पर वह जिंदा रह सकते हैं। सांप्रदायिक टकराव से ही संघ परिवार को प्राणवायु मिलती है। इस एजेंडे को फेल होते देख उन्होंने कुछ समय के लिए पीछे हटने का फैसला किया।

कानून वापस लेने के बाद मैंने लिखा था की चौतरफा राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन के चलते संकट में फंसी हुई सरकार दो कदम पीछे हटने का फैसला की है। वह चतुर शिकारी की तरह से इसलिए पीछे हटी है कि आगे बढ़कर शिकार की गर्दन दबोची जा सके। तोमर जी के बयान से यह बात स्पष्ट हो गई है कि सिर्फ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार और मोदी की गिरती हुई साख के चलते इन्होंने कारपोरेट से सहमति के आधार पर कानून वापस लिया था। ज्यों ही किसान घर वापस लौटे त्यों ही मोदी सरकार अपने एजेंडे पर पुनः लौट गयी हैं।

हरिद्वार, दिल्ली, मुरादाबाद, रायपुर आदि स्थानों पर जिस तरह से धर्म संसद के नाम शस्त्रमेव जयते और मुसलमानों के नरसंहार की घोषणा की गई यह भाजपा सरकार का आखरी हताशा भरा कदम है। हरियाणा में संघ बिग्रेड द्वारा सैकड़ों वाहनों सहित जिस तरह से दंगाई अभियान शुरू किए गए उससे अब परिदृश्य साफ होने लगा है। इसलिए किसान आंदोलनकारियों सहित भारत के नागरिक समाज को बहुत सचेत रहने की जरूरत है। हमें इनके इस षड्यंत्र को पांचों राज्यों के चुनाव में धूल चटा कर ही मात देनी होगी। किसान नेताओं आंदोलनकारियों और राजनीतिक दलों को अपने छोटे राजनीतिक स्वार्थों से बाहर आना होगा।

संघ परिवार और मोदी सरकार की कार्य योजना को समझते हुए एकता बद्ध हो कर इन्हें गहरी चोट देने की जरूरत है। हमें निम्न सवालों पर हर समय सचेत रहना चाहिए। पहला, धर्म आधारित योजना। हिंदू गौरव के नाम पर खड़े किए जा रहे उन्माद के खेल को विधानसभाओं के चुनाव में असफल करना होगा। दो, इनके द्वारा रचे जा रहे षड्यंत्र को समय रहते समझना होगा। तीसरा, इनके आक्रामक सांप्रदायिक अभियान को बिल्कुल ठंडे दिमाग से शांतिपूर्ण जनगोल बंदी द्वारा तोड़ना।

चौथा, सत्ता द्वारा जनता के पैसे का प्रयोग कर लाभार्थी जैसे नागरिक विरोधी श्रेणी को लाकर जनाक्रोश को कम करने की कोशिश की जन अधिकार के सवाल से जोड़ना और इस पर तीखा जन अभियान चलाना होगा।

पांचवां, जनता के बुनियादी सवालों एमएसपी से लेकर छात्रों युवाओं के रोजगार के सवाल को हर समय हमें पहले एजेंडे पर रखना होगा। चुनाव के एजेंडे को जन समस्याओं के इर्द-गिर्द ही केंद्रित करने की कोशिश करनी होगी।

छठा, इनकी लगातार कोशिश रहेगी कि चुनावी एजेंडे को यह अब्बा जान, कब्रिस्तान, पाकिस्तान, अकबर जिन्ना मुसलमान इस्लाम और विभाजन कारी नीतियों के गिर्द ही केंद्रित रखें। लेकिन हमें कानून व्यवस्था के सवाल दलितों महिलाओं पर हो रहे उत्पीड़न छात्रों युवाओं के रोजगार आन्दोलनों पर हो रहा दमन, आरक्षण पर किए जा रहे हमले और जातिगत टकराव खड़ा करने के इनके सारे प्रयासों के खिलाफ केंद्रित करते हुए जन अभियान को चलाना होगा।

किसान आंदोलनकारियों ने सही समय पर पहल ली है और चेतावनी दी है कि अगर सरकार अपने कारपोरेट मित्रों के दबाव पर कृषि कानून सुधार के नाम पर कानून लाने की कोशिश की तो इस बार उन्हें और बड़े किसान आंदोलन को झेलना होगा। हमने आंदोलन स्थगित किया है समाप्त नहीं किया है। किसान आंदोलन कार्य कर्ताओं को किसानों के बीच अपने एमएसपी सहित अन्य सवालों पर प्रचार अभियान को और तेज कर देने की जरूरत है।

किसान आंदोलन के दबाव में कानून वापस लेने के बाद घायल हिंसक जानवर की तरह यह और उन्मादी हो गए हैं। इसलिए यह सामाजिक तनाव को बढ़ाना चाहते हैं। देश में कानून व्यवस्था की स्थिति को अराजकता की तरफ ले जाना चाहते हैं। नौकरशाही का बहुत बड़ा हिस्सा किसी अज्ञात दबाव के कारण से अपना संवैधानिक अधिकार भूल चुका है। वह इनके अपराध का भागीदार बन गया है। इसलिए जन दबाव ही इनके असंवैधानिक कारनामे को रोक सकता है। हमें नागरिक अधिकारों को महामारी पुनः वापसी की आड़ में इनके लोकतंत्र विरोधी कदमों का डटकर विरोध करना होगा।

स्वयं प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिक अभियान की कमान अपने हाथ में ले ली है। काशी के प्रहसन के अंततोगत्वा गाय की पूंछ पकड़ कर चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं। जन आंदोलनों से जनमानस में   राजनीतिक चेतना आई है। जनता में बच्चों के भविष्य रोजगार और स्वास्थ्य शिक्षा के सवाल पर खड़ा होने और इसे चुनावी मुद्दा बनाने की चेतना मजबूत हुई है। जिससे हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ की चिंता थोड़ा बढ़ गई है। मोदी सरकार पर कारपोरेट का दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। इसलिए हमें तोमर के बयान को इस के संदर्भ में देखना होगा और आने वाले विधानसभा चुनाव और उसके बाद हमें इनके जनविरोधी नीतियों का जवाब देने के लिए इसकी तैयारी में जुट जाना होगा। चुनाव के इस काल में आज यही सबसे बड़ा कार्यभार है।

(जयप्रकाश नारायण सीपीआई एमएल यूपी की कोर कमेटी के सदस्य हैं।)

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