चिर युवा क्रांतिकारी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की सर्वोच्च प्रतिभा, दृढ़ता, संकल्प और आत्मशक्ति के प्रतीक शहीद भगत सिंह (23 मार्च 1931 के बाद) का फानी (नश्वर) शरीर नहीं रहा। लेकिन आज भी उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है। “जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण होता रहेगा तब तक संघर्ष जारी रहेगा” या “लॉर्ड इरविन की जगह पर सर तेज बहादुर सप्रू के आ जाने से भारत की व्यापक गरीब जनता के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा।”
भारत में समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और लोकतंत्र के लिए चल रहे संघर्ष के हर मोड़ पर हमारा अमर नायक नए तेवर व नए विचारों की खुशबू के साथ अवतरित हो जाता है। जिसके विचारों की बिजली उसी वेग से गरज और चमक रही है। जिस वेग के साथ ब्रिटिश उपनिवेशवाद के राज्य पर गिरी थी।
जिस कारण आज भी भगत सिंह सत्ताधारियों के आंख का कांटा बने हुए हैं। इस शहीद की शख्सियत और खासियत यह है कि उनका भूत आज भी सत्ताधारियों का पीछा करता रहता है और सपने में भी उन्हें चैन से सोने नहीं देता।
जिसके चलते वे उनकी शहादत की महत्ता और उनके विचारों की खुशबू को नकारने की कोशिश आज भी करते हैं। यह नौजवान हमारा ऐसा नायक है जिसने समझौते जैसे किसी विचार के बारे में सोचा भी नहीं। आत्मरक्षा का कोई ख्याल उसके अंदर आया ही नहीं। पिता सरदार किशन सिंह संधू द्वारा दया याचिका दाखिल करने पर जेल से वायसराय को पत्र लिखकर कहा था इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। कृपया इसे स्वीकार न करें।
स्वाभाविक है माफीनामा वीरों के नायकत्व की पूजा करने वालों के इस काल में उनके लिए भगत सिंह एक अवांछित तत्व के रूप में ही मौजूद रहेंगे।
वो गुलामी की सभी जंजीरों को तोड़ कर फेंक देना चाहते थे। चाहते थे कि उनके अपने लोग (किसान मजदूर नौजवान कर्मचारी छोटे कारोबारी और भारत के श्रमशील नागरिक) पूर्ण स्वतंत्रता के संघर्ष में उतरें और उसे हासिल करें। इसलिए उन्होंने बहरों के कान में आवाज पहुंचाने के लिए जोरदार राजनीतिक धमाका किया था।
उन्होंने औपनिवेशिक सत्ता के केंद्र में खड़ा होकर इंकलाब जिंदाबाद का उद्घोष किया और उसके बाद यह आवाज ‘इंकलाब- जिंदाबाद‘ दुनिया में सबसे ज्यादा गूंजने वाला मंत्र बन गया। शायद ही कोई ऐसा मंत्र हो जो भौगोलिक सीमाओं को पार करते हुए इतनी जगहों, इतने स्वरों से गूंज रहा हो जितना यह नारा उसके बाद भी आज तक गूंज रहा है।
फासिज्म के इस आक्रामक दौर में इस नारे की अनुगूंज 40 के दशक से ज्यादा प्रासंगिक हो गई है। इसका अर्थ और भाव बोध आजादी, बराबरी, बंधुत्व और लोकतंत्र जैसे उच्चतर मूल्यों के साथ-साथ जुड़ गया है। इसलिए यह भारत ही नहीं भारतीय उप महाद्वीप के आजादी की आकांक्षा पाले सभी नागरिकों के कंठों से फूटता रहता है।
1947 के बाद भगतसिंह और उनके साथियों को नकारने की कोशिश हुई। एक तरफ भ्रष्ट पूंजी के दलाल राजनीतिक दलों, व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा आतंकवादी कहा गया। उन्हें जाति के खांचे में रखकर नकारने की कोशिश हुई।
दूसरी तरफ आज के हिंदुत्व के नेताओं के पूर्वजों ने उन्हें अपनी ऊर्जा को बर्बाद करने वाले नासमझ की संज्ञा दी। लेकिन वह फैलाए जा रहे अंधेरे और दर्द गुबार को फाड़ते चीरते हुए सुबह के लाल सूरज की तरह भारत के आकाश में छाये हुए हैं।
उसकी ऊंचाई को छूने की क्षमता किसी में नहीं है। इसलिए सभी लुटेरे इस बात पर एकमत हैं कि उन्हें भुला दिया जाए। उन्हें इतिहास के किसी कोने में कैद कर दिया जाए। हाशिए पर ठेल दिया जाए। उन्हें संसद के हाल में घुसने न दिया जाए।
क्योंकि उन्होंने उनके गोरे मालिकों के पवित्र विधानसभा को बम के धमाके और अपने हाथों से फेंके गए अद्भुत घोषणा पत्र के द्वारा अपवित्र कर दिया था। जिसमें उन्होंने अपने विचारों की खुली घोषणा की।
उन्होंने कहा था कि क्रांति की धार विचारों के शान पर तेज होती है। बम और पिस्तौल क्रांति नहीं होते। यह किसी समय एक साधन ही हो सकते हैं।
मनुष्य का खून बहाना उनकी फितरत में नहीं था। वह मानव मात्र से मोहब्बत करते थे। मनुष्य से बेइंतहा प्रेम करते थे। उसकी गरिमा और गौरव को पूर्णता तक ले जाना चाहते थे। समता मूलक सभ्यता को नई ऊंचाई देना चाहते थे। मनुष्यता को नया आयाम देना चाहते थे।
इसलिए वह मनुष्य को किसी भी तरह की छति पहुंचाने का कहीं से भी समर्थन नहीं करते थे। लेकिन जो उस समय उनके आस-पास की दुनिया थी। जिस तरह लूट झूठ और गुलामी की ताकत उस वक्त भारत पर काबिज थी। वह ऐसी क्रूर दानवी ताकतों से भारतीय जन गण की मुक्ति शीघ्रातिशीघ्र चाहते थे। वह एक पल भी इन ताकतों को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण हो या मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाया जाना। मनुष्य मात्र में किसी भेदभाव के विचार के सख्त विरोधी थे। इसी वैचारिक परियोजना की खोज करते-करते वह समाज में फैले उन सभी विचारों, परंपराओं और व्यवहारों की चीर-फाड़ करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद तक पहुंचे थे।
इस व्यावहारिक और वैचारिक यात्रा में उन्होंने धर्म,जाति, ईश्वर सब की असलियत को खंगाल डाला । उसने खुद घोषणा की कि” मैं नास्तिक क्यों हूं। “दलितों से कहा कि ऐ सोए हुए शेरों उठो और इस दुनिया को उलट-पुलट दो। अपनी सामाजिक वेडियों को तोड़ डालो।’
शोषण और भेदभाव मुक्त समाज का निर्माण कर वह मनुष्य की मनुष्यता वापस लाना चाहते थे। वह मनुष्य और मनुष्य के बीच भाषा, जाति और धर्म बंधन को स्वीकार नहीं करते थे। वे मनुष्य की खोई हुई मनुष्यता को पुनः वापस दिलाकर उसे प्रकृति का स्वामी बना देना चाहते थे। प्रकृति और परिस्थिति के दासत्व से उसे मुक्त दिलाना चाहते थे।
अपने सपनों के प्रति इतना ईमानदार थे कि सिर्फ 23 वर्ष तक जिंदा रहे। इतनी छोटी उम्र में उन्होंने वह स्थान हासिल किया जो मनुष्य के जीवन में दुर्लभ होता है। इसलिए आज भी भारत के युवा दिलों पर वे राज करते हैं। परिवर्तन और क्रांति के लिए संघर्षरत मनुष्यों के वे शिक्षक मार्गदर्शक और नेता हैं। जहां भी बलिदान, बराबरी , समानता, आजादी की बात होती है वे आकर खड़े हो जाते हैं।
भारत में लोकतंत्र के इतिहास के सबसे क्रूर काल में वह एकमात्र आशा व आस्था के केंद्र हैं। जहां से भारत के संघर्षशील लोग प्रेरणा और शक्ति ग्रहण करते हैं। उम्मीद हासिल करते हैं और लड़ने की ताकत और जज्बा ग्रहण करते हैं। आज जब उनके विचारों के ठीक विपरीत धर्म, पाखंड, अंधविश्वास, अतार्किकता और कारपोरेट पूंजी के गठजोड़ की ताकतें मनुष्य को गुलाम बना देना चाहती हैं और भारतीय समाज की हासिल की हुई सभी सभ्यता गत उपलब्धियों को नष्ट कर देना चाहती हैं। लोकतंत्र, बराबरी और बंधुत्व के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट करना चाहती हैं। भाईचारा और गंगा जमुनी तहजीब को नफरती आंधी द्वारा बर्बाद कर पूंजी की गुलामी थोप देना चाहती हैं। जो विश्व साम्राज्यवादी लुटेरी ताकतों से गठजोड़ कर भारत के 135 करोड़ लोगों को गुलाम बना देना चाहती हैं।
ऐसे समय में भगत सिंह और उसके साथी फिर जिन्दा हो उठे हैं। आज फिर उसके हम उम्र करोड़ों युवा उसके दिखाए रास्ते पर मार्च करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
उसके जन्मदिन के अवसर पर भारत के जनगण नई ऊर्जा और शक्ति के साथ फिर से उसके सपनों को पूरा करने का संकल्प लें रहे हैं । भारतीय जन की स्वतंत्रता, आजादी और मुक्ति की इस महान यात्रा में वह हमारे साथ मशाल लेकर आगे आगे चल रहे हैं।
इसलिए शहीदों के सिरमौर्य के जन्मदिन पर हमें उसके सपनों का भारत यानी शोषण मुक्त समाज बनाने के लिए संकल्प लेना ही महानायक को याद करना और उससे सच्ची मोहब्बत करना होगा।
(जयप्रकाश नारायण वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। और आजकल आज़मगढ़ में रहते हैं।)
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