ओह, विदा चितरंजन भाई!

Estimated read time 1 min read

जीवन की इतनी ही सीमा होती है। चितरंजन भाई भी आज छोड़ गए। वे एक भव्य इलाहाबादी विभूति थे। हमारे लिए एक ज्वलंत वैचारिक ज्वाल! हालांकि मैं कभी भी उनके संगठन में नहीं रहा फिर भी उनका स्नेह सदैव मुझ पर भी रहा।

उनकी अनेक और मार्मिक यादें हैं। इलाहाबाद की सड़कों सभाओं में तो मिल ही जाते थे स्वराज भवन के गेट पर भी उनके साथ अल्प कालिक मुलाकातों का स्मरण हो रहा है।

1992 की बात है। मैं पटना में ऋषिकेश सुलभ जी के बुलावे पर आकाशवाणी पटना के एक आयोजन में कविता पाठ कर रहा था। इस महा आयोजन में मैं पहला कवि था और विनोद कुमार शुक्ल जी अन्तिम। साथ में वीरेन दा और कई कवि थे।

मैंने पहली कविता पढ़ी तो भीड़ में से आवाज आई जिंदाबाद इलाहाबाद। सामने देखा तो चितरंजन भाई मेरा हौसला बढ़ाने के लिए “स्नेह गर्जना” कर रहे हैं। उस पर भी जो आश्चर्य हुआ वह यह कि उन्होंने कई कविताओं के नाम लेकर पढ़ने की फरमाइश कर दी।

मेरा पहला कविता संग्रह आया ही आया था। और यह तय था कि उन्होंने उसे पढ़ा था। क्योंकि कुछ कविताएं सीधे किताब में ही प्रकाशित हुई थीं और वे उनके नाम भी ले रहे थे। मुझे ठीक से याद है। 

मैंने उनकी फरमाइश पर दो कविताएं पढ़ीं। उन्होंने उस शाम मुझमें एक ऐसा उत्साह संचार कर दिया जो उनके प्रति मुझे अनेक आदर और मान के भावों से भर देता है।

उनकी ऐसी उपेक्षा पूर्ण दारुण विदाई हमें अनेक स्तरों पर सोचने को विवश करती है।

उनसे अन्तिम मुलाकात वाराणसी से मुंबई की एक हवाई यात्रा में हुई। उस यात्रा में प्लेन के इंजन में शायद आग लग गई थी। भयानक कोलाहल में चितरंजन भाई हम चारों को हिम्मत दे रहे थे। आभा को और हमको बच्चों को सम्हालने की हिदायत देते वे बच्चों को सम्हालने में जुट गए थे। आस पास के लोग हनुमान चालीसा पढ़ रहे थे लेकिन चितरंजन भाई तो हम लोगों के लिए साक्षात हनुमान बन कर मनोबल बढ़ा रहे थे। वे लगातार यह कहते रहे सब ठीक होगा, ठीक होगा। उनके कहे का भाव ऐसा था की जैसे कुछ न होगा। और सच बताऊं तो उनके साथ होने से ऐसा लग भी रहा था कि यह विमान सही सलामत जमीन पर उतरेगा।

हुआ भी ऐसा ही। हम दूसरे विमान से मुंबई आए। उस विमान की प्रतीक्षा में हम उनके साथ करीब चार घंटे बनारस हवाई अड्डे पर चर्चा करते रहे। उनमें एक सरल और उदात्त मनुष्य भावना संचारित थी। वे निरंतर मेरी छोटी सी बिटिया को सुविधाओं के खयाल में लगे रहे।

आगे उनसे लगभग दो साल पहले तक फोन पर बात होने की याद आ रही है। शायद कुछ और महीने हुए हों! उस क्षणिक आपदा में उनका व्यवहार नितांत सुलझे हुए वरिष्ठ का था। आगे वे आभा के और शायद मेरे भी फेसबुक फ्रेंड हो गए थे। आभा को उनके देसी अपनापे की भावना ने बहुत आदर से भर दिया था। वह आदर भाव अभी भी हम सब में कायम है।

विदा चितरंजन भाई विदा। 

एक संघर्ष का साथी और कम हुआ।

हम और अकेले हुए!

नमन आपको!

बोधिसत्व

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author