वायु सेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने 29 मई को कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) के सालाना बिजनेस सम्मेलन को संबोधित करते हुए दो टूक यह बताया कि भारत के रक्षा उत्पादन क्षेत्र में बुरा क्या है। यानी इसकी मूलभूत समस्याएं क्या हैं। इन बातों पर ध्यान दीजिएः
- एयर चीफ मार्शल सिंह के भाषण का बड़ा हिस्सा रक्षा परियोजनाओं में देर पर केंद्रित रहा। उन्होंने कहा- ‘मेरी राय में एक भी ऐसी परियोजना नहीं है, जो समय पर पूरी हुई हो।’
- सिंह ने इस चलन की कड़ी आलोचना की कि कंपनियां डिलीवरी की ऐसी समय सीमा बता देती हैं, जिन पर परियोजना को पूरा करना संभव नहीं रहता। उन्होंने कहा- हम यह जानते हुए भी प्रोजेक्ट्स पर दस्तखत करते चले जाते हैं कि रक्षा सिस्टम जिस समय पर देने का वादा किया गया है, वह पूरा नहीं होगा। जबकि ऐसे मामलों में नजरिया प्राण जाए पर वचन ना जाए का होना चाहिए।
- एयर चीफ मार्शल ने इस पर चिंता जताई कि रक्षा क्षेत्र में शोध और विकास (R&D) के लिए भारत को सर्वोत्तम लोगों की सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं। कुशल लोग विदेश चले जाते हैं। अतः भारत में रक्षा आविष्कार का वातावरण बनाने के लिए उन्होंने बेहतर प्रोत्साहन, बेहतर वेतन और कामकाज का बढ़िया माहौल बनाने पर जोर दिया।
- सिंह ने R&D में निवेश बढ़ाने का आह्वान किया। इस सिलसिले में उन्होंने कहा कि सिख परंपरा ‘दसवंत’ से सीख ली जा सकती है, जिसमें सिखों से अपनी कमाई का दस फीसदी समाज की भलाई में लगाने को कहा जाता है। उन्होंने कहा कि R&D और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ऐसा ही समर्पण भाव दिखाने की आवश्यकता है।
(https://youtu.be/uX5eHty_NW8?si=uTvdPnkPCh_GUyEf)
वायु सेनाध्यक्ष की ये टिप्पणियां सुर्खियों में छायीं। देश का रक्षा उत्पादन ढांचा भारतीय सेना के लिए समय पर और उपयुक्त आपूर्ति नहीं कर रहा है, जाहिर है, ये बात इससे अधिक आधिकारिक स्रोत से सामने नहीं आ सकती थी। कुछ विश्लेषकों का अनुमान है कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय वायु सेना को हुए नुकसान से वायु सेनाध्यक्ष आहत थे, इसलिए उन्होंने रक्षा उत्पादन से जुड़े लोगों को खरी-खोटी सुनाई।
(https://x.com/PravinSawhney/status/1929369715417186446)
तो अब स्वाभाविक है कि बहुत से लोगों का ध्यान रक्षा उद्योग के आकार, उसके प्रदर्शन एवं उससे जुड़ी समस्याओं पर गया है। खासकर उस दौर में ये अहम है, केंद्र सरकार के मंत्री और अधिकारी भारतीय रक्षा उद्योग की कामयाबियों का गुणगान रोजमर्रा के स्तर पर कर रहे हों।
तो नज़र डालिएः
- यह हकीकत है कि भारत के रक्षा निर्यात में जबरदस्त उछाल आया है। 2013-14 में जहां ये निर्यात महज 686 करोड़ रुपये का था, जो 2024-25 में 23,622 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। नरेंद्र मोदी सरकार इसे अपनी बहु-प्रचारित ‘मेक इन इंडिया’ पहल की कामयाबी बताती है।
- कुल निर्यात में निजी क्षेत्र का हिस्सा लगभग 60 प्रतिशत और सार्वजनिक क्षेत्र का तकरीबन 40 प्रतिशत है। रक्षा सामग्रियों के निर्यात से आज देश की लगभग 100 कंपनियां जुड़ी हुई हैं।
भारत के मुख्य निर्यातः
- मिसाइल प्रणालियां: इनमें ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलें, आकाश एयर डिफेंस मिसाइलें, और पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर शामिल हैं।
- विमान एवं हेलीकॉप्टरः इनमें ड्रोनियर-228 विमान, एडवांस्ड लाइट हेलीकॉप्टर्स (ध्रुव) और चेतक हेलीकॉप्टर शामिल हैं।
- इनके अलावा गोला-बारूद, नौ सैनिक गश्ती वाहन, इंसेप्टर नौकाएं, बख्तरबंद गाड़ियां, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एवं रडार, राइफल, बुलेटप्रूफ जैकेट, हेल्मेट आदि का निर्यात भारत कर रहा है। ड्रोन्स एवं कुछ हथियारों में इस्तेमाल होने वाले पाट-पुर्जे भी भारतीय निर्यात में शामिल हैं।
- भारत से होने वाले कुल निर्यात का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा अमेरिका जाता है। वहां की बोइंग और लॉकहीड मार्टिन आदि जैसी कंपनियां अपने कई पाट-पुर्जे आज भारत में बनवा रही हैं।
- फ्रांस की कई कंपनियों ने भारत से सॉफ्टवेयर, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, एवं अन्य रक्षा पाट-पुर्जों का आयात किया है।
- तैयार हथियारों का एक प्रमुख खरीदार अर्मीनिया है, जिसने भारत से पिनाका रॉकेट, गोला बारूद और कई रक्षा उपकरण खरीदे हैं।
- फिलीपीन्स ने ब्रोह्मोस मिसाइलें और अपनी नौ सेना के लिए कुछ उपकरण खरीदे हैं।
- म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, वियतनाम, मॉरिशस आदि अन्य प्रमुख खरीदारों में हैं।
- वैसे छोटी-मोटी खरीदारियां करने वाले देशों की संख्या दर्जनों में जाती है।
वायु सेनाध्यक्ष की टिप्पणियों के बाद ये प्रश्न सहज ही मन में आया कि आखिर विदेशी ऑर्डरों के मामले में भारतीय कंपनियों का रिकॉर्ड कैसा है। इस बारे में सामान्य रिसर्च से ज्यादा कुछ ना मिलने के कारण इस स्तंभकार ने ये सवाल एआई ऐप ग्रोक से पूछा। तो उत्तर मिलाः
“ऐसे ऑर्डर्स की डिलीवरी के मामले में भारतीय रक्षा कंपनियों का रिकॉर्ड मिला-जुला है। ऐसा होने की वजहों में उत्पादन क्षमता की कमी, नौकरशाही लेट-लतीफी, और रक्षा सौदों की पेचीदगियां शामिल हैं।” एक अन्य समस्या आयातित पुर्जों पर निर्भरता है। यानी सप्लायर कंपनी ने देर की, तो उसका असर पूरी उत्पादन शृंखला पर पड़ता है।
ग्रोक ने कहा- “अमेरिका या रूस जैसे बड़े निर्यातकों की तुलना में हाई-टेक सिस्टम्स के मामलों में भारतीय कंपनियां संघर्ष करती नजर आती हैं। इसकी वजह R&D में उनका सीमित निवेश है। (भारत में सकल घरेलू उत्पाद- जीडीपी- का लगभग 0.7 प्रतिशत हिस्से का ही R&D में निवेश होता है। विश्व के अग्रणी देश अपनी जीडीपी का दो से तीन प्रतिशत हिस्से का इसमें निवेश करते हैं, जबकि उनकी अर्थव्यवस्था का आकार भी भारत से बहुत बड़ा है)।”
भारत में 2001 में रक्षा उत्पादन का निजीकरण शुरू हुआ। उसके पहले सारा उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में होता था। परंपरागत रूप से रक्षा उत्पादन करने वाली पब्लिक सेक्टर की प्रमुख कंपनियां हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL), भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL), भारत डायनेमिक्स लिमिटेड (BDL), मिश्र धातु निगम लिमिटेड (MIDHANI), मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड (MDL), गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड (GRSE), गोवा शिपयार्ड लिमिटेड (GSL), बीईएमएल लिमिटेड (BEML) आदि रही हैं। हाल के वर्षों में म्यूनिशन्स इंडिया लिमिटेड (MIL), आर्मर्ड व्हीकल्स निगम लिमिटेड (AVNL) और इंडिया ऑप्टेल लिमिटेड (IOL) ने भी इस क्षेत्र में योगदान किया है। जैसा कि ऊपर उल्लेख हुआ है, भारत के रक्षा निर्यात में आज इन कंपनियों का हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत है।
अब नजर डालें कि प्राइवेट सेक्टर की कौन-सी कंपनियां इस काम से जुड़ी हैं। कुछ कंपनियों के नाम से जाहिर है कि वे किस समूह की हैं। निजी क्षेत्र की इन कंपनियों में टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड (TASL), लार्सन एंड टूब्रो (L&T), भारत फॉर्ज लिमिटेड, महिंद्रा डिफेंस सिस्टम्स, रिलायंस डिफेंस एंड एयरोस्पेस, कल्याणी स्ट्रेटेजिक सिस्टम्स (KSSL), अडानी डिफेंस एंड एयरोस्पेस, गोदरेज एंड बॉयस आदि प्रमुख हैं। स्पष्ट है, भारत के निजी क्षेत्र की लगभग सभी प्रमुख एवं रसूखदार कंपनियां आज रक्षा उत्पादन से जुड़ी हुई हैं। भारत के रक्षा निर्यात में उनका हिस्सा तकरीबन 60 प्रतिशत है। इसके अलावा पब्लिक सेक्टर की कंपनियां जो सिस्टम बनाती हैं, उनके अनेक पाट-पुर्जे भी प्राइवेट सेक्टर में बनते हैं।
तो जाहिर है कि रक्षा निर्यात से संबंधित कामयाबियों का सेहरा अगर निजी क्षेत्र की इन कंपनियों के माथे बंधता है, तो उससे जुड़ी नाकामियों की जिम्मेदारी लेने से भी वे बच नहीं सकतीं। उल्लेखनीय है कि एयरचीफ मार्शल एपी सिंह ने उपरोक्त टिप्पणियां देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों की संस्था सीआईआई के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कीं। यानी उन्होंने अपनी शिकायतें उन लोगों को बताई, जिनके ऊपर आज देश की रक्षा जरूरतों को पूरा करने और देश का रक्षा निर्यात बढ़ाने का दायित्व है।
मगर उन लोगों से शिकायतों के समाधान की आस जोड़ना अपने-आप को भ्रम में रखना होगा। इसलिए नहीं कि वे बुरे लोग हैं। बल्कि इसलिए कि वे उत्पादन प्रणाली के जिस मॉडल के संचालक हैं, वह खुद इस समस्या का कारण है। वह मुनाफा प्रेरित मॉडल है। आउटसोर्सिंग, सप्लाई चेन पर निर्भरता, R&D की उपेक्षा, आपूर्ति में देर आदि इस मॉडल में अंतर्निहित समस्याएं हैं। इस मॉडल ने दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक महाशक्ति अमेरिका की रक्षा तैयारियों में घुन लगा दी।
दक्षिणपंथी अमेरिकी थिंक टैंक हेरिटेज फाउंडेशन के शोध पत्र की ये पंक्तियां इस सिलसिले में उल्लेखनीय हैं- ‘दूसरे विश्व युद्ध में मित्र शक्तियों की विजय और उसके बाद दशकों तक अमेरिका की सैन्य श्रेष्ठता जारी रहने के अलावा बेहतरीन हथियार विकसित करने के रिकॉर्ड को अमेरिका की औद्योगिक क्षमता के संदर्भ में भी समझा जा सकता हैः वह क्षमता जो उसकी रक्षा औद्योगिक आधार की मजबूती से उपजी थी- वह क्षमता जिसकी जड़ में फूल-फल रही मैनुफैक्चरिंग अर्थव्यवस्था और रक्षा केंद्रित नेतृत्व थे। अब चूंकि वो आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं, इसलिए रक्षा औद्योगिक आधार नए युग की महाशक्ति प्रतिस्पर्धा के लिए बेहतर स्थिति में नहीं है।’ (https://www.heritage.org/military-strength/topical-essays/the-us-defense-industrial-base-past-strength)
यह अवश्य याद रखना चाहिए कि आज अमेरिका में रक्षा उत्पादन मोटे तौर पर निजी क्षेत्र के हाथ में है। अमेरिकी रक्षा उद्योग में कई प्रमुख निजी कंपनियां शामिल हैं, जैसे लॉकहीड मार्टिन, बोइंग, रेथियॉन टेक्नोलॉजीज, नॉर्थरोप ग्रुम्मन और जनरल डायनेमिक्स। ये कंपनियां अमेरिकी रक्षा विभाग (DoD) के साथ बड़े अनुबंधों के माध्यम से हथियार, विमान, मिसाइल, और अन्य रक्षा उपकरणों का उत्पादन करती हैं।
अमेरिकी रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों को दिया जाता है, जो अनुसंधान, विकास और उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। डायरेक्ट कमर्शियल सेल्स (DCS) और फॉरेन मिलिट्री सेल्स (FMS) जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से अमेरिकी सरकार अन्य देशों को भी रक्षा उपकरण बेचने में निजी कंपनियों की मदद करती है।
गुजरते वर्षों में अमेरिका के अंदर अपने रक्षा उत्पादन प्रणाली की आलोचनाएं तेज होती गई हैं। उन क्रम में उभरे प्रमुख पहलू हैं:
- बड़ी कंपनियों का वर्चस्वः अमेरिकी रक्षा उद्योग पर कुछ ही बड़ी कंपनियों का नियंत्रण है। इन कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा की कमी के कारण आविष्कार और लागत नियंत्रण में बाधा आती है, जैसा कि अर्थव्यवस्था के किसी अन्य क्षेत्र में होता है।
- उच्च लागत और धीमी उत्पादन प्रक्रिया: अमेरिकी रक्षा उपकरणों की लागत अक्सर बहुत अधिक होती है और नई प्रणालियों के विकास में वर्षों या दशकों लग जाते हैं।
- अनुबंधों में पारदर्शिता की कमी: रक्षा अनुबंधों में पारदर्शिता की कमी के कारण कई बार भ्रष्टाचार और अनावश्यक खर्च की शिकायतें सामने आई हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिकी रक्षा कंपनियों का एक प्रकार का “कार्टेल” यानी कंपनियों का गुट बन गया है, जो प्रतिस्पर्धा को सीमित करता है।
अब जो मॉडल महाशक्ति माने जाने वाले अमेरिका जैसे देश में चुनौती बन गया है, उससे भारत में अलग परिणाम हासिल होंगे, यह सोचना नादानी ही होगी। इसी मॉडल के तहत भारत में रक्षा उत्पादन क्षेत्र का क्रमिक रूप से निजीकरण किया गया है। औपचारिक रूप से ये सोच तो 1991 में आर्थिक उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद ही जड़ जमाने लगी, मगर पहली बार इस संबंध में फैसला 2001 में हुआ। तब की भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने निजी कंपनियों को रक्षा उत्पादन में 100 फीसदी भागीदारी की अनुमति दी, जिससे इस क्षेत्र में निजी निवेश का रास्ता खुला। इसके बाद 2016 में रक्षा खरीद नीति (DPP) में संशोधन किया गया। इसका मकसद था निजी कंपनियों को रक्षा उपकरणों के निर्माण में अधिक अवसर देना। मेक इन इंडिया पहल के तहत सरकार ने रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कई सुधार किए। और आज देश में रक्षा उत्पादन का अधिकांश हिस्सा निजी क्षेत्र के हाथ में जा चुका है।
नतीजा वो शिकायतें हैं, जिन्हें जताने में एयर चीफ मार्शल एपी सिंह ने कोई कोताही नहीं की। इसलिए कि आपूर्ति में देर का बेहद खराब असर देश की रक्षा तैयारी के साथ-साथ रक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाली सशस्त्र सेनाओं पर पड़ता है। वायु सेनाध्यक्ष ने यह कहा भी कि ऐसी देर किसी की जिंदगी पर भारी पड़ती है। मीडिया में उनका भाषण प्रमुख खबर बना। मगर क्या समाधान की दिशा में भी सोचा जाएगा?
अगर इस दिशा में सचमुच गंभीरता और ईमानदारी से चर्चा हो, तो रक्षा उत्पादन एवं कुल औद्योगिक ढांचे के उत्पादन मॉडल में परिवर्तन की जरूरत सहज ही साफ होकर उभरेगी। आखिर रक्षा उत्पादन कोई अलग-थलग प्रक्रिया नहीं होती। वह कुल औद्योगिक ढांचे का ही हिस्सा होता है। इस संबंध में हम चाहें, तो एक अन्य मॉडल से सीख सकते हैं, जिसकी सफलताओं ने अमेरिका जैसी महाशक्ति के ललाट पर भी चिंता की रेखाएं गहरी कर रखी हैं।
इस सिलसिले में अमेरिका के वित्तीय अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपी ये रिपोर्ट गौरतलब है, जिस पर एयर चीफ मार्शल की शिकायतों के मद्देनजर अधिक गंभीरता से ध्यान दिया जाना चाहिए। उस रिपोर्ट की आरंभिक पंक्तियां अपने-आप में बहुत कुछ कहती हैं, जिन्हें उद्धृत करते हुए हम इस आलेख को समाप्त कर रहे हैं।
“चीन की सैनिक एवं आर्थिक चुनौती के अनुरूप देश को ढालने पर अमेरिकी प्रशासन का ध्यान केंद्रित रहा है। इसलिए कि अमेरिका जमीन खो रहा है।
आज के दौर में युद्ध औद्योगिक शक्ति का मुकाबला है, जैसा कि यूक्रेन के खिलाफ रूस के युद्ध में जाहिर हुआ है। वो दोनों गोला-बारूद, रॉकेट और बख्तरबंद गाड़ियों के जखीरे इसमें झोक रहे हैं। अब स्वचालित फैक्टरियां दिन-रात ड्रोन्स का उत्पादन करती हैं। यहां तक कि पुराने ढंग के तोपों के लिए भी सटीक मैनुफैक्चरिंग की जरूरत पड़ती है।
अमेरिका दूसरे विश्व युद्ध में इसलिए विजयी रहा, क्योंकि वह अपने दुश्मनों की तुलना में हर चीज- गोलियों से लेकर खाद्य तक का- उत्पादन करने में सक्षम था। अमेरिका आज वैसी मैनुफैक्चरिंग में सक्षम नहीं है।
आज हर चीज का उत्पादन करने में सक्षम देश चीन है। वह बेसिक केमिकल्स से लेकर उन्नत मशीनरी तक का उत्पादन करता है। अमेरिका और चीन के बीच बढ़ रहे तनाव को देखते हुए दोनों देशों की औद्योगिक क्षमता पर ध्यान केंद्रित हो रहा है, जो किसी लड़ाई में मुख्य रणक्षेत्र साबित होंगे।” (https://www.wsj.com/world/america-let-its-military-industrial-might-wither-chinas-is-booming-7325f34b).
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)