“अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।”
( डॉ. आंबेडकर पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338)
‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः प्रजातंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है-तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है‘‘
(सोर्स मटियरल आन डा. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।
भले ही कई सारे तथाकथित आंबेडकरवादी भाजपा की शरण में जा रहे हों या चले गए हों और नरेंद्र मोदी आंबेडकर और संविधान को अपनाने का खेल खेल रहे हों और अपनी हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे हों, लेकिन सच यह है कि नरेंद्र मोदी की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के बीच कोई ऐसा सेतु नहीं है, जहां दोनों का एक दूसरे से मेल कायम होता हो।
सच यह है कि यदि नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस की विचारधारा फलती-फूलती है, तो इसका निहितार्थ है कि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा की जड़ें खोदी जा रही हैं। इसके उलट यह भी उतना ही सच है कि यदि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा फूलती-फलती है तो संघ-भाजपा की विचारधारा की जड़ों में मट्ठा पड़ रहा है। दोनों के आदर्श समाज की परिकल्पना, राष्ट्र की दोनों की अवधारणा, दोनों के आदर्श मूल्य, दोनों के आदर्श नायक, दोनों के आदरणीय ग्रंथ, धर्म की दोनों की समझ, दोनों की इतिहास दृष्टि, स्त्री-पुरूष संबंधों की दोनों की अवधारणा, व्यक्तियों के बीच रिश्तों के बारे में दोनों के चिंतन, व्यक्ति और समाज के बीच रिश्तों के बारे में दोनों की सोच, दोनों की आर्थिक दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि बिलकुल जुदा-जुदा है। एक शब्द में कहें दोनों की विश्वदृष्टि में कोई समानता नहीं है। दोनों के बीच कोई ऐसा कॉमन तत्व नहीं है, जो उन्हें जोड़ता हो या उनके बीच एकता का सेतु कायम करता हो।
भाजपा-आरएसएस की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का कोई भी अध्येता सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जायेगा कि जो कुछ संघ-भाजपा की विचारधारा के लिए अमृत है, वह सब कुछ आंबेडकर की विचारधारा के लिए ज़हर जैसा है। इसे उलट कर कहें तो जो कुछ आंबेडकर की विचारधारा में अमृत है वह संघ के लिए ज़हर है। अपने असली रूप में दोनों एक दूसरे को स्वीकार और पचा नहीं सकते हैं। हां फरेब तो किसी भी चीज का रचा जा सकता है जिसमें संघ-भाजपा-नरेंद्र मोदी और उनके आनुषांगिक संगठन और उसके नेता माहिर हैं।
नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्र की अवधारणा और डॉ. आंबेडकर
सबसे पहले हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना पर विचार करते हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि संघ और उसके प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। यह लक्ष्य संघ के लिए नरेंद्र मोदी ने कमोबेश हासिल भी कर लिया। संवैधानिक और कानूनी तौर पर भले भारत आज भी एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हो लेकिन वास्तविक और व्यवहारिक अर्थों में भारत एक हिंदू राष्ट्र बन चुका है। भले यह सब कुछ अघोषित और अनौपचारिक तौर पर हुआ दिखता हो।
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की आशंका मात्र से डॉ. आंबेडकर किस कदर भयभीत थे। इसका अंदाजा उनके इस कथन से लगाया जा सकता है- “‘अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इस पैमाने पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338)।
आखिरकार आंबेडकर संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना से इतने भयभीत क्यों थे? क्या सिर्फ इसका एकमात्र कारण यह है कि हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की दोयम दर्जे की स्थिति होगी? जैसा कि बहुत सारे अध्येता संघ के हिंदू राष्ट्र का विश्लेषण करते समय यह कहते रहे हैं और कुछ आज भी कहते हैं। हिन्दू राष्ट्र के अर्थ को धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन तक सीमित करना या व्याख्यायित करना उसकी बहुत ही सतही व्याख्या है। सामान्य तौर पर माना जाता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल में मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति घृणा है।
परन्तु यह घृणा, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है। सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उतना ही वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है।
यह उन आदिवासियों के लिए भी उतना ही खतरनाक है, जो अपने प्राकृतिक धर्म का पालन करते हैं और काफी हद तक समता की जिंदगी जीते हैं, जिनका हिंदूकरण करने और वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की असमानता की व्यवस्था के भीतर जिन्हें लाने की कोशिश संघ-भाजपा निरंतर कर रहे हैं। यह उसके हिंदू राष्ट्र की परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
आंबेडकर हिंदू धर्म पर टिके हिंदू राष्ट्र को हर तरह की स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा मानते थे और इसे पूर्णतया लोकतंत्र के खिलाफ मानते थे। आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निहितार्थ शूद्रों-अतिशूद्रों (आज के पिछड़े-दलितों) पर द्विजों के वर्चस्व और नियंत्रण को स्वीकृति और महिलाओं पर पुरूषों के वर्चस्व और नियंत्रण को मान्यता प्रदान करना है। आंबेडकर ने अपनी किताब ‘जाति के विनाश’ में घोषणा की है कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित समाज है।
वे हिंदू धर्म आधारित हिंदू राष्ट्र को पूरी तरह स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के खिलाफ मानते थे। इसी कारण से वे किसी भी कीमत पर हिंदू राज को कायम होने से रोकना चाहते थे। उन्होंने यह आशंका जाहिर की थी कि हिंदू राज कायम होने पर स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के मूल्यों को कुचला जायेगा और लोकतंत्र की ऐसी की तैसी की जायेगी। उनकी सारी आशंकाएं आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चरितार्थ हो रही हैं।
मनुस्मृति-वर्ण-जाति व्यवस्था : भाजपा-संघ और आंबेडकर
वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का सर्वाधिक पक्षपोषण करने वाली मनुस्मृति संघ और उसके विचारकों का प्रिय ग्रंथ रहा है। नरेंद्र मोदी के आदर्श नायक संघ सावरकर मनुस्मृति के बारे में लिखते हैं कि “मनुस्मृति ही वह ग्रन्थ है, जो वेदों के पश्चात हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूजनीय है तथा जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, आचार, विचार एवं व्यवहार की आधारशिला बन गयी है।
यही ग्रन्थ सदियों से हमारे राष्ट्र की ऐहिक एवं पारलौकिक यात्रा का नियमन करता आया है। आज भी करोड़ों हिन्दू जिन नियमों के अनुसार जीवन-यापन तथा व्यवहार-आचरण कर रहे हैं, वे नियम तत्वतः मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज भी मनुस्मृति ही हिन्दू नियम (कानून) है।” (सावरकर समग्र, खंड 4, 2000 पृष्ठ 415)।
सावरकर की बात का समर्थन करते हुए गोलवलकर लिखते हैं “स्मृतियां ईश्वर निर्मित है और उसमें बताई गई चातुर्वण्य व्यवस्था भी ईश्वर निर्मित है। बल्कि वह ईश्वर निर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़-मरोड़ हो जाता है, तब हम चिंता नहीं करते। क्योंकि मनुष्य आज तोड़-मरोड़ करता भी है, तब भी जो ईश्वर निर्मित योजना है, वह पुन: स्थापित होकर ही रहेगी।” (गुरुजी समग्र, खंड-9, पृ.163)। वे आगे वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि “अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है।
किंबहुना आज की भाषा में उसे गिल्ड कहा जाता है और पहले जिसे जाति कहा गया, उसका स्वरूप एक ही है।…जन्म से प्राप्त होने वाली जाति व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु उसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा ही लचीलापन था भी। लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वण्य व्यवस्था उचित ही है।” (वही)
वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की संहिता ‘मनुस्मृति’ को जहां संघ-भाजपा ईश्वर निर्मित मानता है और आदर्श ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत करता है, उस ‘मनुस्मृति’ को डॉ. आंबेडकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की गुलामी का दस्तावेज कहते हैं। आंबेडकर अपनी विभिन्न किताबों में बार-बार मनुस्मृति को उद्धृत करके बताते हैं कि यह ग्रंथ किस तरह और किस भाषा में दलित-बहुजनों की तुलना में द्विजों की श्रेष्ठता और महिलाओं की तुलना में पुरूषों की श्रेष्ठता की घोषणा करता है।
इतना ही नहीं मनुस्मृति शूद्रों-अतिशूद्रों से कहती है कि उनका मूल धर्म द्विजों की सेवा करना और उनके आदेशों का पालन करना है। इसी तरह वह महिलाओं को बताती है कि उनका धर्म पुरूषों की सेवा करना और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करना है। ऐसा न करने वाले शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को कठोर दंड देने का प्रावधान भी मनुस्मृति में किया गया है। इन प्रावधानों में मारने-पीटने से लेकर हत्या करने तक शामिल है। हम सभी को पता है कि वर्ण-व्यवस्था का उल्लंघन करने पर स्वयं राम ने अपने हाथों से शंबूक का वध किया था। (वाल्मिकी रामायण, उत्तरकांड)।
सावरकर-गोलवलकर के आदर्श ग्रंथ मनुस्मृति से डॉ. आंबेडकर इस कदर घृणा करते थे कि उन्होंने एकमात्र जिस ग्रंथ का दहन किया- वह ग्रंथ मनुस्मृति है। 25 दिसंबर 1927 को आंबेडकर ने सार्वजनिक तौर पर मनुस्मृति का दहन किया था।
स्त्री-पुरूष समानता का प्रश्न संघ-नरेंद्र मोदी और आंबेडकर
स्त्री-पुरूष के रिश्तों के प्रश्न पर भी संघ और आंबेडकर विपरीत ध्रुव पर खड़े हैं। आंबेडकर हिंदू कोड बिल में वे महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरूषों के समान अधिकार का प्रस्ताव करते हैं। इन अधिकारों में हर बालिग लड़की को मनचाहा जीवन साथी चुनने का अधिकार और तलाक का अधिकार भी शामिल है। वे इस बिल में महिलाओं को संपत्ति में अधिकार का भी प्रस्ताव करते हैं। यह बिल अंतरजातीय विवाह की भी इजाजत देता था। यह सर्वविदित तथ्य भी है कि संघ ने हिंदू कोड बिल का पुरजोर विरोध किया था और कहा था कि यह भारतीय परिवार व्यवस्था (पितृसत्ता की व्यवस्था) और समाज व्यवस्था (वर्ण-जाति व्यवस्था) को तोड़ने वाला और भारतीय संस्कृति को नष्ट करने वाला है।
हिंदू कोड बिल को नेहरू द्वारा वापस लेने के बाद भी गोलवलकर ने चेतावनी देते हुए कहा कि “जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है जो पिछले द्वार से प्रवेश कर उनकी जीवन-शक्ति को खा जायेगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो।” (श्री गुरुजी समग्र, खंड-6, पृ.64)
आंबेडकर के बिलकुल उलट संघ महिलाओं को पुरुषों का अनुगामिनी मानता है और ऐसी स्त्रियों को भारतीय स्त्री के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है जो पूरी तरह से अपने पति की अनुगामिनी थीं और जिनका अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं था। वर्तमान सर संघचालक भागवत के मुताबिक, सफल वैवाहिक जीवन के लिए महिला का पत्नी बन कर घर पर रहना और पुरुष को धन उपार्जन के लिए बाहर निकलने के नियम का पालन किया जाना चाहिए।
नरेंद्र मोदी के संविधान और आंबेडकर प्रेम का सच
जो संघ कभी संविधान और आंबेडकर को खारिज करता था, हाल में वह जोर-शोर से संविधान की शपथ खाने और आंबेडकर को गले लगाने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है। संघ के पूर्व प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार संविधान और आंबेडकर की शपथ लेते रहते हैं।
संघ ने कभी संविधान को स्वीकार नहीं किया। गोलवलकर कुछ थोड़े बदलावों के साथ मनुस्मृति को ही संविधान का दर्जा देने के हिमायती थे। भारतीय संविधान पर अपनी राय संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने अपने संपादकीय में इन शब्दों में प्रकट किया था- “भारत के संविधान की सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।…यह प्राचीन भारतीय सांविधानिक कानूनों, संस्थाओं, शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय सांविधानिक विकास-यात्रा के भी कोई निशान नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था।
आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे सांविधानिक पंडितों के लिए इस सबका कोई अर्थ नहीं है।” इन संविधान बनाने वाले संघ की भाषा में, सांविधानिक पंडितों के अगुवा डॉ. आंबेडकर थे। इस प्रकार उनके ऊपर भी परोक्ष तौर पर हमला बोला गया। इतना ही नहीं जब संविधान में महिलाओं को दिए गए समता और स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया तो संघ बिलबिला उठा। हिंदू कोड बिल को हिंदू संस्कृति और परिवार व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में संघ ने प्रचारित करना शुरू कर दिया। मोहन भागवत के पहले के संघ प्रमुख के. सुदर्शन ने बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में संविधान को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था।
प्रश्न यह है कि संघ-भाजपा और नरेंद्र मोदी को क्यों संविधान को पूरी तरह स्वीकार करने की घोषणा कर रहे हैं और बार-बार कह रहे हैं कि हम संविधान के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं।
संविधान को स्वीकार करने और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने की घोषणा संघ ने अपनी सद्इच्छा के चलते नहीं किया है, ऐसा करने में उसकी धूर्तता और बाध्यता दोनों है। बाध्यता के इसके दो कारण हैं। पहली बात यह कि इस देश के दलित-बहुजनों (कल के शूद्र-अतिशूद्र) को यह लगता है कि उन्हें जो अधिकार प्राप्त हुए हैं, वे संविधान के चलते ही प्राप्त हुए हैं और यह काफी हद तक सच भी है। औपचारिक-सैद्धांतिक और व्यवहारिक स्तर पर भी इस देश के दलित-बहुजनों को संविधान से ही एक हद तक की समता और स्वतंत्रता मिली है। इसके अलावा आरक्षण और कुछ अन्य विशेष कानूनी संरक्षण संविधान के चलते ही मिला है।
संघ द्वारा संविधान को स्वीकार न करने के चलते और पिछले चार वर्षों में संविधान के संबंध में संघ-भजपा के लोगों के बयानों के चलते दलित-बहुजनों के एक बड़े हिस्से की यह राय बनती जा रही थी कि संघ संविधान को बदलना चाहता है और उसकी जगह मुनस्मृति को लागू करना चाहता है। दलित-बहुजनों द्वारा बड़े पैमाने पर संविधान बचाओ अभियान भी चलाया जा रहा है। संघ की संविधान विरोधी छवि का प्रचार-प्रसार तेजी से दलित-पिछड़ों के बीच हो रहा था। हम सभी को पता है कि पिछड़ी जातियों और दलितों को अपने साथ लिए बिना संघ की हिंदुत्व की परियोजना पूरी नहीं हो सकती है। उसे न तो दंगों के लिए जन-बल मिल सकता है, न ही चुनावी बहुमत प्राप्त करने के लिए वोट। संविधान को स्वीकार कर और उसके प्रति प्रतिबद्धता जाहिर कर दलित-बहुजनों का विश्वास जीतने के अलावा संघ के पास कोई विकल्प नहीं बचा था।
ऐसा करके संघ ने उन दलित-पिछड़ी जातियों के नेताओं को भी एक अवसर दिया है, जो संघ या भाजपा के साथ हैं। ये नेता अब खुलेआम दलित-पिछड़ों से कह सकते हैं कि संघ संविधान को स्वीकार करता है, उसके प्रति प्रतिबद्ध है। लेकिन पिछले 10 वर्षों में जिस तरह संविधान को नरेंद्र मोदी ने तोड़ा-मरोड़ा है, उस स्पष्ट हैं कि यह प्रतिबद्धता सिर्फ दलित-बहुजनों और आंबेडकर के अनुयायियों को धोखा देने और भाजपा के दलित-बहुजन कहे जाने वाले नेताओं को एक आड़ मुहैया करना है, जिससे वे संविधान विरोधी भाजपा के साथ हाथ मिल सकें।
संविधान और आंबेडकर को स्वीकार करने का यह सारा उपक्रम करने का उद्देश्य दलित-बहुजनों को अपने दायरे में लाने की कोशिश का एक हिस्सा है क्योंकि यदि दलित-बहुजन संघ के वैचारिक और सांगठनिक दायरे से अलग हो जाते हैं और मुसलमानों के साथ मोर्चा बना लेते, जिसके लक्षण एक समय दिख रहे थे, तो संघ-भाजपा की सारी परियोजना को ध्वस्त कर सकता था। इसके साथ ही हिंदुओं के वर्चस्व के नाम पर मुसलमानों, ईसाइयों और दलित-पिछड़ों पर उच्च जातियों के वर्चस्व का खात्मा कर सकता था। हिंदुत्व के नाम पर उच्च जातीय-उच्च वर्गीय हिंदुओं के वर्चस्व की हजारों वर्षों की परंपरा को भी बड़ा धक्का लग सकता था। इसका निहितार्थ संघ-भाजपा की हिंदू राष्ट्र की पूरी परियोजना खटाई में पड़ सकती थी।
तर्क, विवेक और न्यायपूर्ण चेतना रखने वाला शायद ही कोई व्यक्ति इस तथ्य से इंकार कर पाए कि संघ-भाजपा और नरेंद्र मोदी हिंदू राज की विचारधारा आज भारतीय समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा बनकर उभरी है। यह विचारधारा हमें एक अंधकार और बर्बरता के युग में ले जा रही है। जिसके संदर्भ में आंबेडकर ने कहा था कि “अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” आज हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोकने का कार्यभार ही सबसे बड़ा कार्यभार है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)
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