Thursday, March 28, 2024

कैफी की पुण्यतिथि पर विशेष: बहार आये तो मेरा सलाम कह देना…

क़ैफी आज़मी, तरक्कीपसंद तहरीक के अगुआ और उर्दू अदब के अज़ीम शायर थे। तरक्कीपसंद तहरीक को आगे बढ़ाने और उर्दू अदब को आबाद करने में उनका बड़ा योगदान है। वे इंसान-इंसान के बीच समानता और भाईचारे के बड़े हामी थे। उन्होंने अपने अदब के जरिए इंसान के हक, हुकूक और इंसाफ की लंबी लड़ाई लड़ी। मुल्क की साझा संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाया। ऐसी बेमिसाल शख्सियत कैफी आजमी का जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के छोटे से गांव मिजवां में 14 जनवरी, 1919 को एक जमींदार परिवार में हुआ। बचपन में ही वे शायरी करने लगे थे। ग्यारह साल की उम्र में लिखी गयी उनकी पहली गजल, ‘‘इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े/हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े/जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म/यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।’’ को आगे चलकर गजल गायिका बेगम अख्तर ने अपनी मखमली आवाज दी।

जो कि उस जमाने में खूब मकबूल हुई। शायरी की ओर उनका रुझान कैसे हुआ, यह कैफी की ही जुबानी,‘‘मैंने जिस माहौल में जन्म लिया, उसमें शायरी रची-बसी थी, पूरी तरह। मसलन मेरे पांच भाइयों में से तीन बड़े भाई बाकायदा शायर थे। मेरे वालिद खुद शायर तो नहीं थे, लेकिन उनके शायरी का जौक बहुत बुलंद था और इसकी वजह से घर में तमाम उर्दू, फारसी के उस्तादों के दीवान मौजूद थे, जो उस वक्त मुझे पढ़ने को मिले, जब कुछ समझ में नहीं आता था। जिस उम्र में बच्चे आम तौर पर जिद करके, अपने बुजुरगान से परियों की कहानियां सुना करते थे, मैं हर रात जिद कर के अपनी बड़ी बहन से मीर अनीस का कलाम सुना करता था। उस वक्त मीर अनीस का कलाम समझ में तो खाक आता था, लेकिन उसका असर दिल-ओ-दिमाग में इतना था कि जब तक मैं दस-बारह बन्द उस मरसिए के रात को न सुन लेता था, तो मुझे नींद नहीं आती थी। इन हालात में मेरी जहनी परवरिश हुई और इन्हीं हालात में शायरी की इब्तिदा हुई।’’

बावजूद इसके कैफी आजमी के घर वाले चाहते थे परिवार में एक मौलवी हो, लिहाजा उन्हें लखनऊ के मशहूर ‘सुल्तानुल मदारिस’ में पढ़ने के लिए भेजा गया। लेकिन कैफी तो कुछ और करने के लिए बने थे। हुआ क्या ?, ये अफसानानिगार आयशा सिद्दीकी के अल्फाजों में,‘‘कैफी साहब को सुल्तानुल मदारिस भेजा गया कि फातिहा पढ़ना सीखेंगे। लेकिन कैफी साहब वहां से मजहब पर ही फातिहा पढ़कर निकल आए।’’ मौलवी बनने का ख्याल भले ही उन्होंने छोड़ दिया, लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखी और प्राइवेट इम्तिहानात देकर उर्दू, फारसी, और अरबी की कुछ डिग्रियां हासिल की।

किसी कॉलेज में सीधे एफए में दाखिला लेकर वे अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे, लेकिन सियासत और शायरी का जुनून उनके सिर इतना चढ़ा कि पढ़ाई पीछे छूट गई। अली अब्बास हुसैनी, एहतिशाम हुसैन और अली सरदार जाफरी की संगत मिली तो मार्क्सवाद का ककहरा सीखा। बाद में ट्रेड यूनियन राजनीति से जुड़ गए। ट्रेड यूनियन की राजनीति के सिलसिले में ही कानपुर जाना हुआ। जहां वे मजदूर तहरीक से जुड़े। उनके आंदोलनों में शिरकत की। मजदूर आंदोलन और तमाम सियासी सरगर्मियों के बीच उनका पढ़ना-लिखना जारी रहा। मजदूर और किसानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर उन्होंने उस वक्त कई शानदार नज्में लिखीं।  

‘कौमी जंग’ और ‘नया अदब’ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कैफी आजमी की शुरूआती नज्में और गजलें प्रकाशित हुईं। रोमानियत और गजलियत से अलग हटकर उन्होंने अपनी नज्मों-गजलों को समकालीन समस्याओं के सांचे में ढाला। कैफी आजमी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आजादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी। मुल्क में जगह-जगह अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे। किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे एक दिशा प्रदान की तरक्कीपसंद तहरीक ने। तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े सभी प्रमुख शायरों की तरह कैफी आजमी ने भी अपनी नज्मों से प्रतिरोध की आवाज बुलंद की। किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते। खास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अश्आर की मस्नवी ‘खानाजंगी’ सुनाते तो हजारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता।

कैफी आजमी आगे चलकर पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर साल 1943 में जब वे मुम्बई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज तेईस साल थी। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुम्बई इकाई नई-नई कायम हुई थी। वे पार्टी के होल टाईमर के रूप में काम करने लगे। पार्टी के दीगर कामों के अलावा उन्हें उर्दू दैनिक ‘क़ौमी जंग‘ और ‘मजदूर मुहल्ला‘ के संपादन की जिम्मेदारी मिली। इस दरमियान कैफी आजमी ने उर्दू अदब की पत्रिका ‘नया अदब‘ का भी सम्पादन किया। पार्टी कम्यून में एक कमरे का उनका छोटा सा घर, ऑफिस भी हुआ करता था। जहां हमेशा यूनियन लीडरों और पार्टी कार्यकर्ताओं का जमघट लगा रहता। कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के बाद कैफी आजमी का आंदोलन से वास्ता आखिरी सांस तक बना रहा।

साम्यवादी नजरिए का ही असर है कि उनकी सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है। उन्होंने कभी बर्तानवी साम्राज्यियत, तो कभी सामंतशाही, कभी पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता के खिलाफ जमकर लिखा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिगत जीवन गुजार चुके क़ैफी आजमी ने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया। ‘तरबियत‘ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं,‘‘मिटने ही वाला है खून आशाम देव-ए-जर का राज़/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज।‘‘ कैफी आजमी की शायरी के बारे में अफसानानिगार कृश्न चंदर का ख्याल था,‘‘वही व्यक्ति ऐसी शायरी कर सकता है, जिसने पत्थरों से सिर टकराया हो और सारे जहान के गम अपने सीने में समेट लिए हों।’’

साल 1944 में महज 26 साल की छोटी सी उम्र में कैफी आजमी का पहला गजल संग्रह ‘झनकार’ प्रकाशित हो गया था। प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद ज़हीर ने उनके इस संग्रह की शायरी की तारीफ में जो बात लिखी, वह उनके तमाम कलाम की जैसे अक्काशी है,’‘आधुनिक उर्दू शायरी के बाग़ में नया फूल खिला है, एक सुर्ख़ फूल।’’ ‘आखिर-ए-शब‘, ‘इबलीस की मजलिसे शूरा’ और ‘आवारा सज्दे‘ कैफी आजमी के दीगर काव्य संग्रह है। कैफी आजमी ने इंकलाब और आज़ादी के हक में जमकर लिखा। इसके एवज में उन्हें कई पाबंदियां और तकलीफें भी झेलनी पड़ीं। लेकिन उन्होंने अपने बगावती तेवर नहीं बदले। कैफी आजमी कॉलमनिगार भी थे। उनके ये कॉलम उर्दू साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में नियमित प्रकाशित होते थे। ‘नई गुलिस्तां’ नाम से छपने वाला यह कॉलम राजनीतिक व्यंग्य होता था।

जिसमें सम-सामयिक मसलों पर वे तीखे व्यंग्य करते थे। उनके ये कॉलम ‘नई गुलिस्तां’ नाम से ही एक किताब में प्रकाशित हुए हैं। तकरीबन 600 पेज की यह किताब दो खंडों में है। ‘नई गुलिस्तां’ के अनुवादक नरेश ‘नदीम’ जिन्होंने इस किताब का सम्पादन भी किया है, कैफी के गद्य की खासियत को बयां करते हुए लिखते हैं,‘‘इस पूरे संकलन को नज्म में लिखी गई नस्र (गद्य) का नाम दें, जो तथाकथित नस्री नज्म (गद्य काव्य) से कहीं बहुत ऊंचे दर्जे की चीज है, तो कुछ गलत नहीं होगा। इस पूरे संकलन में शायद ही आपको ऐसा कोई वाक्य मिले जिसमें कैफी ने अपनी शायराना फितरत छोड़ी हो और काफियापैमाई न की हो। यानी कि कैफी की नस्र भी बड़े ठस्से के साथ यह कहती नजर आती है कि मैं किसी नस्रनिगार की नहीं, एक शायर की रचना हूं।’’

शादी होने के बाद आर्थिक परेशानियों और मजबूरियों के चलते कैफी आजमी ने मुंबई के एक व्यावसायिक अखबार ‘जम्हूरियत’ के लिए रोजाना एक नज्म लिखी। फिल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया। साल 1948 में निर्माता शाहिद लतीफ की फिल्म ‘बुज़दिल‘ में उन्होंने अपना पहला फिल्मी गीत लिखा। करीब 80 फिल्मों में गीत लिखने वाले क़ैफी के गीतों में जिंदगी के सभी रंग दिखते हैं। फिल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपने गीतों, शायरी का मैयार नहीं गिरने दिया। सिने इतिहास की क्लासिक ‘प्यासा‘, ‘कागज़ के फूल‘ के उत्कृष्ट गीत उन्हीं के कलम से निकले हैं। ‘अनुपमा‘, ‘हक़ीकत‘, ‘हंसते ज़ख्म‘, ‘पाकीज़ा‘ वगैरह फिल्मों के काव्य प्रधान गीतों ने उन्हें फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। फिल्म ‘हीर-रांझा’ में कैफ़ी ने ना सिर्फ गीत लिखे, बल्कि शायरी में पूरे डॉयलॉग भी लिखने का कठिन काम किया।

हिन्दी फिल्मों में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था। फिल्मों से कैफी आजमी का संबंध आजीविका तक ही सीमित रहा। उन्होंने अपनी शायरी और आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया। कैफी आजमी ने फिल्मों के लिए जो गीत लिखे, वे किताब ‘मेरी आवाज सुनो’ में संकलित हैं। साल 1973 में देश के बंटवारे पर केन्द्रित फिल्म ‘गरम हवा‘ की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। यही नहीं इसी फिल्म पर संवादों के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। क़ैफी आजमी जब मुम्बई आए, तो प्रगतिशील आन्दोलन की दाग बेल सज्जाद जहीर डाल चुके थे। कैफी आजमी ने मुम्बई में प्रगतिशील लेखक संघ, कायम करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और यहां बहुत बड़ा संगठन बनाया। आगे चलकर तरक्कीपसंद तहरीक के अहम लीडर के तौर पर उन्होंने देश भर में दौरे किए और लोगों को अपने साथ जोड़ा।

कैफी आजमी बंटवारे और साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। भारत-पाक विभाजन के समय पार्टी ने फैज़ अहमद फैज़ को जहां पाकिस्तान पहुंचा दिया, तो वहीं क़ैफी ने हिन्दुस्तान में ही रहकर काम किया। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता जैसी अमानवीय प्रवृत्तियों पर प्रहार करते हुए कैफी ने लिखा,‘‘टपक रहा है जो ज़ख्मों से दोनों फिरकों के/ब गौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं/तुम इसका रख लो कोई और नाम मौंजू सा/किया है खून से जो तुमने वो वजू तो नहीं/समझ के माल मेरा जिसको तुमने लूटा है/पड़ोसियों ! वो तुम्हारी ही आबरू तो नहीं।’’ (‘लखनऊ तो नहीं’) कै़फी आजमी मुम्बई में चाल के जिस कमरे में रहते थे, वहीं उनके आस-पास बड़ी तादाद में मजदूर और कामगार रहते थे।

मजदूरों-कामगारों के बीच रहते हुये उन्होंने उनके दुःख, दर्द को समझा और करीब से देखा। मजदूरों, मजलूमों का यही संघर्ष उनकी बाद की कविताओं में साफ परिलक्षित होता है,‘‘सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।‘‘ (‘मकान’) अली सरदार जाफरी की तरह कै़फी ने भी शायरी को हुस्न, इश्क और जिस्म से बाहर निकालकर आम आदमी के दुख-दर्द, संघर्ष तक पहुंचाया। अपनी शायरी को जिंदगी की सच्चाइयों से जोड़ा। कैफी आजमी अत्याचार, असमानता, अन्याय और शोषण के खिलाफ ताउम्र लड़े और अपनी शायरी, नज्मों से लोगों को भी अपने साथ जोड़ा।

आज़ादी के बाद क़ैफी ने समाजवादी भारत का तसव्वुर किया था। स्वाधीनता के पूंजीवादी स्वरूप की उन्होंने हमेशा आलोचना की। अपनी नज्म ‘क़ौमी हुक़्मरां‘ में तत्कालीन भारतीय शासकों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा,‘‘रहजनों से मुफाहमत करके रहबर काफिला लुटाते हैं/लेने उठे थे खून का बदला हाथ जल्लाद का बंटाते हैं।‘‘ कैफी के यही आक्रामक तेवर आगे भी बरकरार रहे। उनकी शायरी में समाजी, सियासी बेदारी साफ-साफ दिखाई देती है। सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सद्भाव को उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में बढ़ावा दिया। स्त्री-पुरूष समानता और स्त्री स्वतंत्रता के हिमायती क़ैफी आजमी अपनी मशहूर नज़्म ‘औरत‘ में लिखते हैं,‘‘तोड़ कर रस्म का बुत बंदे-कदामत से निकल/ज़ोफे-इशरत से निकल, वहमे-नज़ाकत से निकल/नफ़्स के खींचे हुये हल्क़ाए-अज़मत से निकल/यह भी इक कै़द ही है, क़ैदे-मुहब्बत से निकल/राह का खार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे/उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे।’’

कैफी आजमी ‘भारतीय जननाट्य संघ’ (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे। वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर कई साल तक रहे। उनके कार्यकाल में इप्टा की शाखाओं का पूरे भारत में विस्तार हुआ। इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीका मानते थे। अपनी नज्मों और नाटकों से उन्होंने साम्प्रदायिकता पर कड़े प्रहार किये। अपनी एक नज्म में साम्प्रदायिक लीडरों और कट्टरपंथियों पर निशाना साधते हुये वे कहते हैं,‘‘तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा/अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी।‘‘ (‘सोमनाथ’) साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस, एक ऐसी घटना है जिसने देश में साम्प्रदायिक विभाजन को और बढ़ाया। हिंदू-मुस्लिम के बीच शक की दीवारें खड़ी कीं।

कैफी आजमी जिन्होंने खुद बंटवारे का दंश भोगा था, एक बार फिर साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए आगे आए और उन्होंने अपनी चर्चित नज़्म ‘दूसरा बनवास‘ लिखी, ‘‘पांव सरजू में अभी राम ने धोये भी न थे/कि नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे/पांव धोये बिना सरजू के किनारे से उठे/राम ये कहते हुये अपने द्वारे से उठे/राजधानी की फिजा आई नहीं रास मुझे/छः दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।’’ क़ैफी आजमी की वैसे तो सभी नज्में एक से एक बढ़कर एक हैं, लेकिन ‘तेलांगना’, ‘बांगलादेश’, ‘फरघाना’, ‘मास्को’, ‘औरत’, ‘मकान’, ‘बहूरूपिणी’, ‘दूसरा वनबास’, ‘जिंदगी’, ‘पीरे-तस्मा-पा’, ‘आवारा सज्दे’, ‘इब्ने मरियम’ और ‘हुस्न’ नज्मों का कोई जवाब नहीं।

क़ैफी आज़मी को उर्दू अदब मे सबसे ज्यादा पुरस्कार पाने वाला शायर माना जाता है। पद्म श्री क़ैफी को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी द्वारा ‘संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार’, ‘महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘युवा भारतीय पुरस्कार’, विश्व भारती यूनिवर्सिटी से ‘डी लिट्’ की उपाधि के अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से भी नवाजा गया। मसलन ‘अफ्रो-एशियन पुरस्कार’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ आदि। बावजूद इसके वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लाल कार्ड को समझते थे और उसे हमेशा अपनी जेब में रखते थे। वामपंथी विचारधारा में उनका अकीदा आखिर तक रहा। अपने व्यवहार में वे पूरी तरह से वामपंथी थे। लेखन और उनकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं था। मुंबई आने के बाद भी उनका अपने गांव मिजवां से हमेशा नाता रहा।

ज़िदगी के आखिरी 20 साल का ज़्यादातर समय उन्होंने अपने गांव मिजवां में ही ग़ुज़ारा। ‘मिजवां वेलफेयर सोसायटी’ के ज़रिए लड़कियों को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई स्कूल, प्रशिक्षण केन्द्र कायम कर समाजी खि़दमत की। कैफी आजमी की ही वजह से इस छोटे से गांव मिजवां को पहचान मिलने के साथ-साथ कई सौगातें भी मिलीं। मुल्क में समाजवाद आए, उनका यह सपना था। वे लोगों से अकसर कहा करते थे कि‘‘मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद भारत में जिया और समाजवादी भारत में मरूंगा।‘‘ लेकिन अफसोस ! कैफी आजमी की आखिरी ख्वाहिश उनके जीते जी पूरी नहीं हो सकी। उनका सपना अधूरा ही रहा। 10 मई, 2002 को यह इंकलाबी शायर हमसे यह कहकर, हमेशा के लिए जुदा हो गया,‘‘बहार आये तो मेरा सलाम कह देना/मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने।’‘

(ज़ाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और मध्य प्रदेश के शिवपुरी में रहते हैं।)

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