और याद आएगी उसकी शिकन भरी पेशानी

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(सीपीएम महासचिव कॉमरेड सीताराम येचुरी का निधन हो गया है। वह 72 साल के थे। उनके असमय जाने से न केवल लेफ्ट बल्कि लोकतांत्रिक और नागरिक समाज का एक बड़ा हिस्सा बेहद आहत है। उसको लग रहा है कि उसका कोई अपना चला गया। यह दुखद खबर आने पर सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्मों पर आयी प्रतिक्रियाएं इसकी निशानी हैं। और इस दौर में होने वाली विपक्षी गठबंधन की राजनीति ने उनकी प्रासंगिकता को और बढ़ा दी थी। अनायास नहीं 1996 के संयुक्त मोर्चा से लेकर यूपीए तक के मोर्चों का उन्हें आर्किटेक्ट कहा जाता है। यही सारी चीजें संवेदना के अलग-अलग रूपों में सामने आ रही हैं। इसी कड़ी में ट्रिब्यून के पंजाबी संस्करण के पूर्व संपादक स्वराजबीर ने उन पर एक कविता लिखी है। पेश है पूरी कविता-संपादक)

सीता येचुरी: एक याद 

उसका रोशन और त्योरियों से भरा माथा 

जहां कशमकश की लौअ थी जलती  

जहां साँझ की चिंगारी थी सुलगती 

पर उसके आसपास उदासी भी थी 

हवा संघर्ष के लिए प्यासी भी थी 

लगता था, वह अपने आप से उलझ रहा है 

लगता था, दिल में इतिहास की अंत:शैय्या सुलग रही हो।

वह बात करता था 

तो दिल को जैसे धैर्य सा मिलता 

सूखी टहनियों में आस थी महकती 

जीने की उमंग सी टहकती

कहता था, हम इकट्ठे हों एक जगह 

जहां कड़कड़ाती है धूप, जहां सहला जाती है छाँव। 

पर कौन सुनता है यहां 

इकट्ठे होने की बात 

अहंकार के चढ़े हुए तूफ़ान 

और वह चला गया है 

आस छोड़ चुके जहाज़रान की तरह 

हल की लकीरों से बेगाने हो चुके किसान की तरह। 

वह चला गया 

और यादों में ऐसी उदासी है 

कि कोई कतरा नहीं आशा उम्मीद का 

आशाओं के खुर्शीद का। 

वह मेरे साथ सहमत नहीं था होता 

पर बात सुनता था 

बात सुनना, गोष्ठी का आरंभ है 

और अब गोष्ठी किसने करनी है 

हर किसी ने अपने अहम की झोली भरनी है। 

क्या वह आखिरी आदमी था 

जो हमें इकट्ठे करके बैठ सकता था 

हमारी बात सुन सकता था 

अपनी बात सुना सकता था 

वह ना पूरा सही था, ना पूरा गलत

वह हमारे समय की उखड़ी दहलीज़ थी

फिर भी वह हमारे होने की खबर थी। 

वह याद आएगा

और याद आएगी उसकी शिकन भरी पेशानी 

उसकी उदासी, उसकी परेशानी 

वह जिसकी आवाज़ में 

उजड़े गावों का अंधेरा था 

खोखले हो गए शहरों का उदास सवेरा था।

वह चला गया, और 

टूटते तारों की सारंगी चुप है 

वह चला गया 

जहां हमारे ना होने की धूप-छांव है 

वह चला गया 

और चुप हैं हम। 

हम कब बोलेंगे 

चुप के तालों को कब खोलेंगे?

-स्वराजबीर 

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