Sunday, April 28, 2024

जन्मदिन विशेष: वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में इतिहास और कल्पना का अद्भुत समन्वय

हिंदी साहित्य में वृंदावनलाल वर्मा की पहचान ऐतिहासिक उपन्यासकार की है। ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में उनका कृतित्त्व विशेष महत्त्व रखता है। उनसे पूर्व हिंदी साहित्य में ऐसा कोई उपन्यासकार नहीं हुआ, जिसने इतने अलग-अलग विषयों पर अपनी क़लम पूरी विशेषज्ञता के साथ चलाई हो। उनके उपन्यासों में ग़ज़ब का इतिहास बोध मिलता है। हालांकि, उनसे पहले अनेक उपन्यासकारों ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे, लेकिन यह उपन्यास न तो पाठकों को पसंद आए और न ही इनका कोई साहित्यिक महत्व है।

हिंदी में वृंदावनलाल वर्मा, पहले ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं, जिन्होंने इतिहास और कल्पना शक्ति का शानदार इस्तेमाल कर, एक नई परंपरा का आगाज़ किया। अपने उपन्यासों में वे ऐतिहासिक तथ्यों और कल्पना से ऐसी कहानी रचते थे कि पढ़ने वाले उनमें डूब जाते थे। यही वजह है कि उन्हें हिंदी का वाल्टर स्कॉट कहा जाता है। वृंदावनलाल वर्मा, हिंदी के अप्रितम उपन्यासकार हैं।

हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया, तो दूसरी ओर ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्थापित किए। बुन्देलखंड का मध्यकालीन इतिहास उनके कथा साहित्य की बुनियाद है। उपन्यास हों या फिर नाटक, वृंदावनलाल वर्मा उनकी विषयवस्तु इतिहास में ही तलाशते थे। इतिहास उनका पसंदीदा विषय था।

9 जनवरी, 1889 को उत्तर प्रदेश में झांसी जिले के मऊरानीपुर में जन्मे वृंदावनलाल वर्मा ने विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से स्नातक तक की पढाई की। आगरा कॉलेज से क़ानून की पढाई पूरी करने के बाद झांसी में वकालत करने लगे। उन्हें बचपन से ही पढ़ने का शौक़ था। ख़ास तौर से पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाओं के प्रति उनकी बेहद दिलचस्पी थी।

वृंदावनलाल वर्मा जब स्कूल में ही थे तभी भारतेंदु हरिशचंद्र, देवकीनंदन खत्री और बंकिम चंद्र चटर्जी का पूरा साहित्य पढ़ लिया था। लगातार पढ़ने से उनमें लिखने की ललक जागी और उन्नीस साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’ लिख डाली। उसके अगले ही साल यानी 1909 में वृंदावनलाल वर्मा ने आल्हा और ऊदल की वीर गाथा को केन्द्र में रखकर, ‘सेनापति ऊदल’ नाटक लिखा। इस नाटक में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये, तत्कालीन अंग्रज़ी सरकार ने इसे ज़ब्त कर लिया। नाटक की सारी कॉपियां जला दी गईं।

वृंदावनलाल वर्मा की नौजवानी का दौर, देश के स्वतंत्रता आंदोलन के उभार का दौर था। महात्मा गांधी के अंहिसक आंदोलनों के अलावा क्रांतिकारी भी आज़ादी के आंदोलन में अपना सर्वस्वः लुटा रहे थे। वृंदावनलाल वर्मा, क्रांतिकारियों से ज़्यादा प्रभावित थे। भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और गणेशशंकर विद्यार्थी से उनकी मुलाक़ातें थी। उन्होंने गुप्त रूप से क्रांतिकारियों की मदद भी की।

साल 1920 तक वृंदावनलाल वर्मा, छोटी-छोटी कहानियां लिखते रहे। इसी दौरान उन्होंने निबन्ध लिखने की शुरुआत की। अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार-नाटककार वाल्टर स्कॉट के उपन्यासों से वृंदावनलाल वर्मा ख़ासे प्रभावित थे। दरअसल, ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की प्रेरणा उन्हें स्कॉट से ही मिली। एक महत्वपूर्ण बात और, भारतीय इतिहास के प्रति जिस तरह अंग्रेज़ इतिहासकारों का नकारात्मक रवैया था, इतिहास के साथ वे जिस तरह से खिलवाड़ कर रहे थे, इन सब बातों ने भी वृंदावनलाल वर्मा को ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की ओर खींचा।

बहरहाल, साल 1927 में वृंदावनलाल वर्मा ने अपना पहला उपन्यास ‘गढ़ कुंडार’ लिखा। यह उपन्यास उन्होंने महज़ दो महीने में ही लिख दिया था। उपन्यास खंगार राजपूतों और बुंदेल राजपूतों के सत्ता संघर्ष की गाथा है। ‘गढ़कुंडार’ को जबरदस्त प्रसिद्धि मिली। इसके बाद, तो वृंदावनलाल वर्मा ने एक के बाद एक ‘विराटा की पद्मिनी’, ‘कचनार’, ‘झांसी की रानी’, ‘माधवजी सिंधिया’, ‘ललितादित्य’, मुसाहिबजू, ‘ललित विक्रम’, ‘अहिल्याबाई’, ‘टूटे कांटे’, ‘देवगढ़ की मुस्कान’ और ‘मृगनयनी’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिख डाले। उनके उपन्यासों में इतिहास जीवंत होकर बोलता है। एक तरफ़ वे ऐतिहासिक उपन्यास लिख रहे थे, तो दूसरी ओर सामाजिक विषयों पर भी उन्होंने कलम चलाई। ‘लगन’, ‘संगम’, ‘प्रत्यागत’, ‘कुण्डली चक्र’, ‘प्रेम की भेंट’, ‘कभी न कभी’, ‘अचल मेरा कोई’, ‘सोना’, ‘अमरबेल’ तथा ‘हृदय की हिलोर’ वृंदावनलाल वर्मा के सामाजिक उपन्यास हैं।

उपन्यास ‘लगन’ में जहां प्रेमकथा के साथ बुन्देलखण्ड के समृद्ध घर के दो किसानों की आनबान और संघर्ष का चित्रण है, तो उपन्यास ‘संगम’ और ‘प्रत्यागत’ में वे समाज में व्याप्त ऊंच-नीच की रूढ़िगत भावना का प्रतिकार करते हैं। इन उपन्यासों में तत्कालीन जाति-व्यवस्था की कठोरता, रूढ़िग्रस्तता और उससे उत्पन्न अराजकता का सजीव चित्रण है। जबकि ‘कुण्डलीचक्र’ में किसानों और ज़मींदारों का संघर्ष दिखाया गया है। उपन्यास ‘कभी न कभी’ मज़दूरों के जीवन पर केन्द्रित है। ‘अमरबेल’ में सहकारिता तथा श्रमदान के महत्त्व को दिखाया गया है। यानी उस ज़माने में ऐसी कोई सामाजिक समस्या नहीं थी, जिस पर कि वृंदावनलाल वर्मा ने अपनी कलम नहीं चलाई हो।

साल 1946 में वृंदावनलाल वर्मा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘झांसी की रानी’ प्रकाशित हुआ। यह लक्ष्मीबाई पर प्रमाणिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देते हुए, साम्प्रदायिक सौहार्द का सशक्त संदेश दिया है। रानी लक्ष्मीबाई द्वारा अपने राज्य संचालन और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 की क्रांति में दोनों धर्मों के लोगों को समान रूप से महत्व देना, उन पर विश्वास रखते हुए युद्ध रणनीति का कुशलता से संचालन करना आदि घटनाएं, वृंदावनलाल वर्मा ने उपन्यास में बड़े ही प्रमाणिकता से दिखलाई हैं। ‘झाँसी की रानी’ खूब लोकप्रिय हुआ। उपन्यास ने उस दौर में देशवासियों के दिल में देशप्रेम और एकता का जज़्बा जगाने का काम किया।

‘मृगनयनी’, वृंदावनलाल वर्मा का एक और बेहतरीन उपन्यास है। इस उपन्यास में 15वीं शती के आख़िर के ग्वालियर राज्य के राजा मानसिंह तोमर और उनकी रानी मृगनयनी की कथा है। यज्ञदत्त शर्मा ने वृंदावनलाल वर्मा की उपन्यास कला का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, ‘‘वृंदावनलालजी ने इतिहास को बन्धन मुक्त कर दिया है और काव्य को बन्धन में बांधकर उसे लाजवन्ती का स्वरूप प्रदान किया है। जो अपने समस्त सौन्दर्य को अपने में समेट कर चित्रित की जाती है।’’

आज़ादी के बाद वृंदावनलाल वर्मा ने जितने भी उपन्यास लिखे, उनमें उन्होंने अपनी मातृभूमि बुन्देलखंड को समग्रता से उभारने की कोशिश की। इतिहास और कल्पना का अद्भुत समन्वय कर, उन्होंने बेमिसाल उपन्यास रचे। इसके लिए उन्होंने इतिहास का गहन अध्ययन एवं अनुसंधान किया, तो प्रचलित जनश्रुतियों का भी आधार लिया। जहां ज़रूरत पड़ी, वहां कल्पना का सुन्दर और सार्थक इस्तेमाल किया।

वृंदावनलाल वर्मा की प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य, इतिहास, कला, पुरातत्त्व, चित्रकला एवं मूर्तिकला में विशेष रुचि थी। उन्होंने उपन्यास के अलावा ऐतिहासिक नाटक भी लिखे, जो काफ़ी चर्चित रहे। ‘झांसी की रानी’, ‘हंसमयूर’, ‘पूर्व की ओर’, ‘बीरबल’, ‘ललित विक्रम’, और ‘जहांदारशाह’ उनके ऐतिहासिक नाटक हैं। नाटक ‘नीलकण्ठ’ में वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों के समन्वय पर ज़ोर दिया गया है। नाटक ‘निस्तार’, दलितों के सुधार पर केन्द्रित है। ‘दबे पांव’, ‘मेढ़क का ब्याह’, ‘अम्बपुर के अमर वीर’, ‘ऐतिहासिक कहानियां’, ‘अंगूठी का दान’, ‘शरणागत’, ‘कलाकार का दण्ड’ ‘वीर का बलिदान तथा अन्य कहानियां’ और ‘तोषी’ वृंदावनलाल वर्मा के प्रमुख कहानी संग्रह हैं। ‘अपनी कहानी’ में उन्होंने अपने जीवन की संघर्षमय गाथा लिखी है।

वृंदावनलाल वर्मा के समग्र साहित्य का अवलोकन करें, तो उनके कथा साहित्य में देश के समृद्ध इतिहास और वीर नायक-नायिकाओं का चित्रण है, तो परतंत्रता की वजह भी तलाशी गई हैं। उनकी दृष्टि राष्ट्र के पुनः निर्माण की रही है। जाति व्यवस्था, साम्प्रदायिकता को वे देश की एकता, अखंडता का दुश्मन मानते हैं। अपने उपन्यासों में उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों की ओर भी इशारा किया है। उन्होंने मेहनत, सच्चाई और ईमानदारी जैसे जीवन मूल्यों को हमेशा अहमियत दी।

यही नहीं वृंदावनलाल वर्मा, मानव जीवन के लिए प्रेम को भी ज़रूरी मानते थे। जहां तक उनकी भाषा का सवाल है, इसमें बुन्देलखण्डी का प्रभाव साफ दिखाई देता है। उपन्यासों की कथावस्तु और पात्रों के अनुसार उनकी भाषा होती है। वृंदावनलाल वर्मा की शैली वर्णनात्मक है। जिसमें रोचकता तथा धाराप्रवाहिता, दोनों गुण विधमान हैं। वे पात्रों के चरित्र चित्रण में तटस्थ रहते हैं। पात्र अपने चरित्र का परिचय घटनाओं, परिस्थितियों एवं कथोपकथन से ख़ुद दे देते हैं। यही सब वजह वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों की लोकप्रिय बनाती हैं।

वृंदावनलाल वर्मा एक साहित्यिक मनीषी थे। उनकी प्रतिबद्धता अपने देश और समाज से थी। उन्होंने न सिर्फ़ अपने लेखन से समाज को जागरूक करने का काम किया, बल्कि वकालत और लेखन से कमाये अपने पैसे का इस्तेमाल वे समाज के कमज़ोर वर्ग के जीवन को ऊपर उठाने में करते थे।

हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण अवदान के लिए वृंदावनलाल वर्मा को कई पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित किया गया। वे हिन्दुस्तानी अकादमी, प्रयाग और नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के सर्वोत्तम पुरस्कारों से सम्मानित किये गये। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय जगत में भी उनके लेखन को सराहना मिली। सोवियत संघ सरकार ने उन्हें अपने प्रतिष्ठित सम्मान ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ से नवाज़ा।

वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों का अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनके उपन्यासों पर कुछ फ़िल्में और टेलीविजन धारावाहिक बने। 23 फ़रवरी, 1969 को अस्सी साल की उम्र में वृंदावनलाल वर्मा ने इस दुनिया से विदाई ली। वृंदावनलाल वर्मा के निधन के बाद, सरकार ने उनकी याद और सम्मान में 9 जनवरी, 1997 को एक डाक टिकट जारी किया। हिंदी साहित्य में जब भी ऐतिहासिक उपन्यासों का ज़िक्र छिड़ेगा, साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा और उनके उपन्यास ज़रूर याद किए जाएंगे।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र टिप्पणीकार और रंगकर्मी हैं।)

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