Friday, March 29, 2024

शहादत सप्ताह: सांप्रदायिकता को राष्ट्र का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे गणेश शंकर विद्यार्थी

अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी सिर्फ महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ही नहीं थे, बल्कि हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुष भी माने जाते हैं। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रेरित विद्यार्थी ‘जंग-ए-आजादी’ के एक निष्ठावान सिपाही थे। गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल इलाहाबाद में हुआ था। उनकी सारी तालीम तत्कालीन ग्वालियर रियासत के छोटे से कस्बे मुंगावली में हुई। आर्थिक परेशानियों की वजह से वे आला तालीम नहीं हासिल कर सके।

अलबत्ता स्वाध्याय के जरिए उन्होंने उर्दू-फारसी जुबानों के अलावा दीगर विषयों का भी जमकर अध्ययन किया। किशोरावस्था में ही उन्हें पत्रकारिता में दिलचस्पी हो गई थी। अपने दौर के चर्चित अखबारों ‘भारत मित्र’ और ‘बंगवासी’ का वे गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पढ़ने-लिखने का शौक भी बढ़ता चला गया। पढ़ने के प्रति उनकी ये दीवानगी ही थी कि थोड़े से ही वक्त में उन्होंने दुनिया भर के बड़े-बड़े विचारकों-लेखकों मसलन वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जान स्टुअर्ट मिल, शेख सादी वगैरह की प्रमुख कृतियों को पढ़ लिया था। 

पढ़ते-पढ़ते उनके अंदर लेखन का अंकुर जागा और साल 1911 में महज सोलह साल की छोटी सी उम्र में उनका पहला लेख, ‘आत्मोत्सर्ग’ उस वक्त के चर्चित समाचार-पत्र ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। ‘सरस्वती’ का संपादन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के जिम्मे था। गणेश शंकर विद्यार्थी, द्विवेदी जी के व्यक्तित्व एवं विचारों से बेहद प्रभावित थे और उन्हीं के प्रभाव में वे पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गए। महावीर प्रसाद द्विवेदी के सान्निध्य में उन्होंने बहुत कुछ सीखा। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेशशंकर विद्यार्थी की साहित्यिक अभिरुचियाँ भी निखरती जा रही थीं। समाचार-पत्र ‘सरस्वती’ के अलावा उनकी रचनाएं ‘कर्मयोगी’, ‘स्वराज्य’, ‘हितवार्ता’ आदि में भी छपती रहीं। उनका लेखन सरोकारों का लेखन था। 

महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के समाचार-पत्र ‘अभ्युदय’ से भी गणेश शंकर विद्यार्थी का नाता रहा। उन्होंने इस समाचार-पत्र में कुछ दिनों तक सहायक सम्पादक की जिम्मेदारी संभाली। कुछ दिनों उन्होंने ‘प्रभा’ का भी सम्पादन किया। 9 नवम्बर, 1913 को आखिरकार कानपुर से उन्होंने अपना समाचार-पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचार पत्र के पहले ही अंक में उन्होंने स्पष्ट कर दिया,‘‘यह पत्र राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के लिए संघर्ष करेगा।’’

विद्यार्थी जी ने अपने इस संकल्प को ‘प्रताप’ में लिखे अग्र लेखों में अभिव्यक्त किया। जिसकी वजह से अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें कई मर्तबा जेल भेजा और उनके समाचार-पत्र पर जुर्माना किया गया। लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी इन कार्रवाइयों से जरा सा भी नहीं घबराए। अंग्रेज सरकार से उनकी लड़ाई अनवरत चलती रही। ‘प्रताप’ के माध्यम से उन्होंने देश के किसानों, मिल मजदूरों और दबे-कुचले लोगों के दुखों को उजागर किया। आगे चलकर ‘प्रताप’ देश की आजादी की लड़ाई का मुख-पत्र साबित हुआ। 

ये समाचार-पत्र क्रान्तिकारी विचारों व देश की स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया। सरदार भगत सिंह की कई क्रांतिकारी रचनाएं ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित हुईं। क्रान्तिकारियों के विचार व लेख ‘प्रताप’ में निरन्तर छपते थे। भगत सिंह की ही रचनाएं नहीं, बल्कि एक और बड़े क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा भी प्रताप में ही छपी। आलम यह था कि एक वक्त बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्त लेखक, कवि ‘प्रताप’ से ही जुड़े थे। इस समाचार-पत्र के माध्यम से उनकी रचनाएं देश भर में पहुंच रहीं थीं।

अपने क्रांतिकारी तेवरों की वजह से ‘प्रताप’ को अंग्रेजी हुकूमत का पहला गुस्सा 22 अगस्त, 1918 को झेलना पड़ा। नानक सिंह की ‘सौदा-ए-वतन’ नामक कविता से अंग्रेज सरकार इतनी नाराज हो गई कि उन्होंने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का इल्जाम लगाते हुए पहली बार ‘प्रताप’ पर पाबंदी लगा दी। इस दमन से गणेश शंकर विद्यार्थी और भी ज्यादा मजबूत होकर निकले। विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी ज़ोरदार मुखालफत की कि आम जनता ‘प्रताप’ के सहयोग में खड़ी हो गई। जनता के सहयोग से एक बार जब आर्थिक संकट हल हुआ, तो प्रताप का प्रकाशन साप्ताहिक से दैनिक हो गया। 23 नवम्बर, 1920 से ‘प्रताप’ दैनिक समाचार पत्र के रुप में निकलने लगा।

अंग्रेज हुकूमत और उसकी नीतियों के लगातार विरोध में लिखने से ‘प्रताप’ की पहचान सरकार विरोधी बन गई। तत्कालीन मजिस्टेट मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में प्रताप को ‘बदनाम पत्र’ की संज्ञा देते हुए इस समाचार-पत्र की जमानत राशि ज़ब्त कर ली। अपनी पत्रकारिता के दौरान गणेश शंकर विद्यार्थी कई बार अंग्रेजी हुकूमत के निशाने पर आए।  23 जुलाई, 1921 और 16 अक्टूबर, 1921 को उन्हें जेल जाना पड़ा। अंग्रेज सरकार की सजा भी विद्यार्थी जी के हौसलों को पस्त नहीं कर पाई। जेल से वापस आकर वे फिर अपने काम में लग जाते। 

विद्यार्थी जी ने प्रेमचन्द की तरह पहले उर्दू में लिखना शुरू किया, लेकिन उसके बाद वे हिन्दी में लिखने लगे। पत्रकारिता उनके लिए एक मिशन थी। समाचार-पत्रों में अपने अग्र लेखों, सम्पादकीय और निबन्धों से उन्होंने देश में नव जागरण का काम किया। गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत के बारह साल बाद चार खंडों में उनकी रचनावली प्रकाशित हुई। इस रचनावली में उनकी संपूर्ण रचनाएं एक साथ प्रकाशित हुई हैं। रचनावली में उनके लेखों के अलावा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी हुई महान विभूतियों महात्मा गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले, जगदीश चंद्र बोस, दादा भाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक आदि पर लिखे गए संस्मरण व रेखाचित्र भी शामिल हैं।

पत्रकार होने के नाते विद्यार्थी जी की राष्ट्रीय परिदृश्य पर तो गहरी नजर थी ही, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य और घटनाओं के बारे में भी वे जानकारी लेते रहते थे। वैश्विक पटल पर जो बेहतर घटता, उसे भी भारतीय पाठकों तक लाते। गोर्की, लेनिन जैसी विश्व प्रसिद्ध शख्सियतों से वे काफी प्रभावित थे। यही वजह है कि उन्होंने इन पर लिखा भी। गणेश शंकर विद्यार्थी सिर्फ अपने ही नाम से नहीं लिखते थे, बल्कि उन्होंने कई छद्म और कल्पित नामों से भी लिखा। मसलन श्रीकांत, हरि, दिवाकर, कलाधर, लंबोधर, गजेन्द्र बैठाठाला ग्रेजुएट आदि। 

गणेश शंकर विद्यार्थी धर्म के आडंबर, धार्मिक कर्मकांडों और साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। अपनी पत्रकारिता से एक तरफ वे देशवासियों को देश के हक में खड़ा होने के लिए तैयार कर रहे थे, तो दूसरी ओर उनमें आपसी भाईचारा और सौहार्द बढ़ाने के लिए भी काम कर रहे थे। अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को वे अच्छी तरह से समझ चुके थे। लिहाजा वे अपनी कलम के माध्यम से देश के दो बड़े समुदाय हिंदू और मुस्लिम को जोड़ने का काम करते रहते थे। 27 अक्टूबर, 1924 को अपने समाचार-पत्र ‘प्रताप’ में ‘धर्म की आड़’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में इन दोनों समुदायों को आगाह करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘इस समय देश में धर्म की धूम है। उत्पात किए जाते हैं, तो धर्म और ईमान के नाम पर।’’

इसी लेख में वे आगे लिखते हैं, ‘‘रमुआ पासी और बुद्धू मियां धर्म और ईमान को जाने या न जानें लेकिन उसके नाम पर उबल पड़ते हैं और जान लेने व जान देने के लिए तैयार हो जाते हैं। देश के सभी शहरों में यही हाल है।’’ लेख के आखिर में नसीहत देते हुए वे कहते हैं, ‘‘साधारण से साधारण आदमी तक के दिल में यह बात अच्छी तरह बैठी है कि धर्म और ईमान की रक्षा के लिए प्राण तक दे देना वाजिब है। बेचारा साधारण आदमी धर्म के तत्वों को क्या जाने। लकीर पीटते रहना ही वह अपना धर्म समझता है। उसकी इस अवस्था का चालाक लोग बेजा फायदा उठा रहे हैं।’’

गणेश शंकर विद्यार्थी की समझाईश के बाद भी अंग्रेज हुकूमत देशवासियों को आपस में लड़वाने में कामयाब हो रही थी। छोटी-छोटी सी बात में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते। जब भी कहीं कोई साम्प्रदायिक संघर्ष या दंगा होता, विद्यार्थी जी अपने लेखन से समाज में जागरुकता का काम करते।  बिहार के आरा में हुए साम्प्रदायिक दंगे पर 12 नवम्बर, 1917 को प्रताप में उन्होंने लिखा,‘‘किसी भी अवस्था में कुछ आदमियों के अपराध पर उसका पूरा वर्ग अपराधी नहीं माना जा सकता। आरे के कुछ हिन्दुओं ने कुछ अपराध किया तो सभी हिन्दुओं को अपराधी मान बैठना अन्याय और अदूरदर्शिता है।

साधारण मुसलमान और उनके मौलवी लोग ऐसा ही कर रहे हैं। हमारी प्रार्थना है कि न्याय के नाते वे ऐसा अन्याय करना छोडे़ं। क्या अपराधी की हिन्दू या गैर मुस्लिम होने के कारण ही अपराध की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि उसमें सभी हिन्दू या गैर मुस्लिम लपेटे जा सकें।’’ इसी लेख में वे आगे लिखते हैं, ‘‘हम न हिन्दू हैं न मुसलमान। मातृभूमि का कल्याण ही हमारा धर्म है। उसके बाधकों का सामना करना ही कर्म है। पंडित हो या मौलवी, धर्म हो या कर्म, मातृभूमि के हित के विरुद्ध किसी की भी व्यवस्था हमें मान्य नहीं है। मातृभूमि का अपराधी चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान कोई भी हमारे तिरस्कार और उपेक्षा से त्राण नहीं पा सकता।’’

गणेश शंकर विद्यार्थी शुरुआत से ही राजनीति और धर्म के मेल के खिलाफ थे। एक नहीं, बल्कि कई मौके पर उन्होंने इसे लेकर अपनी नाराजगी भी जाहिर की। अंधराष्ट्रवाद के खतरों के बारे में गणेश शंकर विद्यार्थी ने आजादी के आंदोलन के समय ही आगाह कर दिया था। 21 जून, 1915 को प्रताप में प्रकाशित अपने लेख में वे कहते हैं, ‘‘देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी भूल की जा रही है। हर रोज इसके प्रमाण हमें मिलते रहते हैं।

यदि हम इसके भाव को अच्छे तरीके से समझ चुके होते, तो इससे जुड़ी बेतुकी बातें सुनने में न आतीं।’’ विद्यार्थी जी हिंदू राष्ट्र के नाम पर धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के सख्त खिलाफ थे और समय-समय पर इसे लेकर लोगों को सावधान भी करते रहते थे। ‘राष्ट्रीयता’ शीर्षक से लिखे अपने इसी लेख में वे आगे कहते हैं, ‘‘हमें जान बूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए। हिंदू राष्ट्र-हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं। इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है।’’ गणेश शंकर विद्यार्थी ने धर्म और राजनीति के घृणित गठबंधन को शुरू में ही पहचान लिया था। ‘प्रताप’ के माध्यम से वे लगातार इन प्रवृतियों के खिलाफ हमलावर थे। 30 मई 1926 को ‘जिहाद की जरूरत’ शीर्षक लेख में धर्म के पाखंड पर वे तीखा हमला करते हुए लिखते हैं, ‘‘आज हमें जिहाद करना है, इस धर्म के ढोंग के खिलाफ, इस धार्मिक तुनकमिजाजी के खिलाफ। जातिगत झगड़े बढ़ रहे हैं।

खून की प्यास लग रही है। एक-दूसरे को फूटी आंख भी हम देखना नहीं चाहते। अविश्वास, भयातुरता और धर्माडंबर के कीचड़ में फंसे हुए इस नाटकीय जीत को यह समझ रहे हैं कि हमारे सिर-फुटौव्वल की लीसा से धर्म की रक्षा हो रही है। हमें आज शंख उठाना है, उस धर्म के विरुद्ध जो तर्क, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकता।’’ आज जब पूरे देश में एक बार फिर धर्मांधता और अंधराष्ट्रवाद फन उठाए खड़ी है, तो गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी तर्कशील लेखनी की कमी शिद्दत से महसूस होती है।

पत्रकारिता के साथ-साथ विद्यार्थी जी स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। साल 1917-18 में हुए होम रूल आन्दोलन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मिल मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। साल 1920 में रायबरेली के किसानों के हितों की लड़ाई लड़ने के इल्जाम में उन्हें दो साल कठोर कारावास की सजा हुई। साल 1925 में कांग्रेस के राज्य विधानसभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेशशंकर विद्यार्थी कानपुर से यूपी विधानसभा के लिए चुने गए। साल 1929 में विद्यार्थी जी को उत्तर प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और उन्हें राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी भी सौंपी गयी।

सत्याग्रह के दौरान साल 1930 में उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जिसके बाद उनकी रिहाई गांधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च, 1931 को हुई। गणेश शंकर विद्यार्थी पूरी जिंदगी स्वराज के लिए जिए और उनकी मौत साम्प्रदायिकता से संघर्ष करते हुए हुई। कानपुर में भीषण साम्प्रदायिक दंगों की आग से बेगुनाह लोगों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 को उन्होंने अपनी जान का बलिदान दे दिया। विद्यार्थी जी का जीवन और उनके विचार आज भी हमें नई राह दिखलाते हैं।

(ज़ाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं। आप आजकल एमपी के शिवपुरी में रहते हैं।)

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