झारखंड की राजधानी रांची से 207 किलोमीटर दूर है गढ़वा जिला मुख्यालय, जहां से करीब 22 किमी दूर है रंका प्रखंड मुख्यालय, रंका प्रखंड के जंगलों के बीच बसा है सिंजो गांव, जो प्रखंड मुख्यालय से करीब आठ किलोमीटर दूर है, जहां की आबादी लगभग 1300 है। इस गांव में मुख्यतः दो जातियां निवास करती हैं, आदिम जनजाति कोरवा और ओबीसी के यादव। कोरवा की संख्या करीब 500 है तो यादवों की संख्या 800 के करीब है। इसी गांव में रहते हैं, हीरामन कोरवा, जो झारखंड के अन्य क्षेत्रों में चर्चा में तब आए जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2020 के अपने अंतिम रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के दौरान 27 दिसंबर को हीरामन कोरवा की चर्चा की।
दरअसल हीरामन कोरवा ने कोरवा भाषा का शब्दकोश तैयार किया है। उस शब्दकोश का लोकार्पण झामुमो के गढ़वा विधायक एवं हेमंत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्री मिथिलेश ठाकुर ने किया। जब इस शब्दकोश की जानकारी स्थानीय मीडिया के माध्यम से पलामू के बीजेपी सांसद और झारखंड के पूर्व डीजीपी विष्णु दयाल राम (बीडी राम) को हुई तब उन्होंने इसकी सूचना प्रधानमंत्री कार्यालय को दी, जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जिक्र रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में किया।
बताते चलें कि गढ़वा जिला, जहां की भाषा सामान्यतः सादरी है, परंतु बिहार से सटा होने के कारण मगही और भोजपुरी का इतना ज्यादा प्रभाव है कि यहां की आदिम जनजातियां भी इससे अछूती नहीं हैं। परहिया, खेरवार सहित अपनी संख्या बल में सबसे मजबूत कोरवा जनजाति भी अपनी भाषा धीरे-धीरे खोती जा रही हैं और आपस में मगही, भोजपुरी और सादरी की मिली-जुली बोली बोलती हैं। आज के 37 साल के युवा हीरामन कोरवा को इसकी चिंता तब हुई थी, जब वे चौथी कक्षा में पढ़ रहे थे। वे क्लास में पढ़ाए जा रहे हिंदी के शब्दों के अर्थ को कोरवा में जानने के लिए अपने दादा-दादी और अन्य बुजुर्गों से पूछते थे और उनके अर्थ को अपने कॉपी में लिखते थे।
उस वक्त भी क्षेत्र में मगही, भोजपुरी का ही बोल बाला था। यहां तक कि इन जनजाति के लोग भी आपस में मगही, भोजपुरी और सादरी की मिली-जुली भाषा बोलते थे। इन तमाम घटनाक्रम को हीरामन खामोशी से देखते रहे। जब 2004 में हीरामन ने इंटर पास की, तब गांव के लोगों ने उन्हें बच्चों को पढ़ाने को ऑफर दिया, क्योंकि हीरामन कोरवा उस वक्त अपने गांव के पहले इंटर तक पढ़े व्यक्ति थे। हीरामन कोरवा कहते हैं कि शब्दकोश बनाने के पीछे का मेरा मकसद था कि कोरवा भाषा का उत्थान किया जा सके और अपनी भाषा के माध्यम से कोरवा जनजातियों के बीच जागरूकता लाई जा सके। अतः मैंने बचपन से कोरवा भाषा के शब्दों का जो संग्रह करता गया था, उसे पुस्तक का रूप देने के लिए हमेशा बेचैन रहने लगा था। इस आशय को मैंने रिश्ते में भाई लगने वाले एक साथी मानिकचंद कोरवा से जब शेयर किया तो उन्होंने मल्टी आर्ट एसोसिएशन के सचिव मिथिलेश जी से इस बाबत बात की।
इस बाबत मल्टी आर्ट एसोसिएशन के सचिव मिथिलेश कुमार बताते हैं कि हमारी संस्था भाषा और संस्कृति के विकास के लिए हमेशा से कार्य करती रही है, संस्था के कार्य क्षेत्र में कार्य के दौरान मानिक चंद कोरवा ने हीरामन कोरवा से मुलाकात कराई, तब हीरामन कोरवा ने बताया कि मेरे द्वारा कोरवा भाषा के शब्दों का संग्रह किया गया है और हम चाहते हैं कि कोरवा भाषा शब्दकोश की पुस्तक प्रकाशित हो। हीरामन कोरवा ने संस्था के साथियों से यह भी अपील की कि कोरवा भाषा के शब्दकोश की पुस्तक को प्रकाशित करने में हमारी मदद करें। इसके बाद संस्था ने कोरवा भाषा शब्दकोश की पुस्तक के प्रकाशन पर काम शुरू किया और धीरे-धीरे हीरामन द्वारा लिखे गए कोरवा के शब्दों की टाइपिंग कराकर पुस्तक की शक्ल में लाया गया। उसके बाद संस्था ने कोरवा शब्दकोश को प्रिटिंग के लिए डाल्टनगंज के सुनील प्रिंटर्स से बात की और प्रेस भेजा।
वे कहते हैं कि पुस्तक की छपाई में संस्था के द्वारा पूरी तरह आर्थिक और तकनीकी मदद की गई, तब जाकर कोरवा शब्द कोश की 1000 प्रति पुस्तक का प्रकाशन हो पाया। संस्था द्वारा यह सुनिश्चित कराने का प्रयास किया गया कि लगातार कोरवा भाषा के शब्द को अपग्रेड कर पुनः प्रकाशन जारी रहे। पुस्तक बिक्री से जो भी आय होगी, उससे शब्दकोश की छपाई और कोष का निर्माण हो, जिससे कोरवा भाषा शब्दकोश का लगातार प्रकाशन होता रहे, ताकि कोरवा समुदाय और भाषा का विकास हो सके। मिथिलेश कुमार बताते हैं कि संस्था के द्वारा पुस्तक छपाई के लिए ऋण नहीं दी गई है और न किसी भी तरह की ऋण दी जाती है। ऐसे कामों के लिए संस्था आर्थिक सहयोग करती है और यह सुनिश्चित भी करती है कि संस्था द्वारा किए गए सहयोग का री-साईकिलिंग हो। इसके लिए संस्था द्वारा 32,000 रुपये खर्च किए गए।
बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2020 के अपने अंतिम रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के दौरान 27 दिसंबर को हीरामन कोरवा की चर्चा की थी। इसके बाद हीरामन पूरे झारखंड में सुर्ख़ियों में आए। इसके पहले इस शब्दकोश का लोकार्पण झामुमो के गढ़वा विधायक एवं हेमंत सरकार के पेयजल व स्वच्छता मंत्री मिथिलेश ठाकुर ने किया।
झारखंड सरकार के मंत्री मिथिलेश ठाकुर ने अपने व्यक्तिगत कोष से हीरामन को एक स्मार्ट फ़ोन दिया है। शब्दकोश का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मंत्री के निर्देश पर हीरामन कोरवा के गांव जाकर बीडीओ और दूसरे अधिकारियों ने कोरवा जनजाति के लोगों के बीच कंबल का वितरण किया और हीरामन कोरवा के घर में पेयजल आपूर्ति के लिए नया चापाकल का इंतज़ाम कराया। हीरामन कोरवा ने बताया है कि उन्हें वन पट्टा दिलाने का आश्वासन भी दिया गया है। बता दें कि कोरवा जनजाति की जनसंख्या पूरे झारखंड में लगभग 40 हजार के आस-पास है। इनकी आबादी सबसे ज्यादा गढ़वा जिले में हैं, जहां अकेले इनकी संख्या 35 हजार से अधिक है, जबकि प्रधानमंत्री ने मन की बात कार्यक्रम के दौरान कोरवा जनजाति की संख्या पूरे झारखंड में सिर्फ़ छह हज़ार बताई थी।
जिले के धुरकी गांव के जंगली क्षेत्र में कोरवा जनजाति के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इलाके के जो लोग अशिक्षित हैं, उन्हें बाहरी दुनिया से कोई वास्ता नहीं है। ये लोग अभी भी जंगली जीवों जैसे खरगोश, चिड़िया और जंगली कंद मूल जैसे गेंठी, कंदा इत्यादि को खाकर जीवन यापन करते हैं। शराब इनकी मानों संस्कृति का अंग बन गई है। दूसरी तरफ खरगोश के मांस के अत्यधिक सेवन से इनका प्रजनन भी बाधित हो रहा है। इनमें कुपोषण भी बहुत ज्यादा है, क्योंकि इन्हें संतुलित आहार नहीं मिलता है। इनका शिशु मृत्यु दर भी बहुत अधिक है। ये अस्पताल जाने से डरते हैं, इनमें यह धारणा घर कर गई है कि वहां गए तो अर्थी उठना तय है और डॉक्टर लोग ऐसा इंजेक्शन वगैरह लगाएंगे, जिससे हमारी पीढ़ियां नष्ट हो जाएंगी।
ऐसे में हीरामन कोरवा द्वारा शब्दकोश के बहाने कोरवा भाषा के विकास के प्रति पहल एक ऐतिहासिक मिशन है, जिसकी जितनी सराहना की जाए कम है। अब देखना यह होगा कि वे अपने मिशन में कितना लंबा सफर कर पाते हैं। इस बाबत हीरामन कोरवा बताते हैं कि आदिम जनजाति होने के कारण सामाजिक स्तर से मानसिक प्रताड़ना के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी, वे अपने मिशन के प्रति केंद्रित रहे। वे बताते हैं कि चूंकि वे ही अपने गांव के पहले इंटर थे, अतः पारा शिक्षक में इनका चयन हो गया। तीन बेटों और दो बेटियों समेत पत्नी, पिता, भाई और बहन की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं के कंधे पर है, जो पारा शिक्षक के 12,000 रुपये के मानदेय से ही पूरा होता है। बावजूद इसके अपनी भाषा के प्रति लगाव से वे विमुख नहीं हुए।
हीरामन बताते हैं कि हमारे आदिम समाज की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है नशाखोरी। कमाने-खाने के साथ बोतल इनके जीवन का हिस्सा बन गया है। वे कहते हैं कि इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि इस शराबखोरी के खिलाफ आजादी के बाद से अब तक राजनीतिक स्तर से कोई सशक्त मुहिम नहीं चलाई गई है, जिससे इन लोगों के बीच जागरूकता पैदा हो और नशाखोरी से ये लोग मुक्त हो सकें। उल्टे राजनीतिक लोग चाहते ही नहीं हैं कि इनकी नशाखोरी छूटे। इसका कारण यह है कि चुनाव में शराब का इस्तेमाल करके इन नेताओं द्वारा अपने पक्ष में वोट तैयार किया जाता है। इतना ही नहीं समाज के कुछ ऐसे लोग जो आर्थिक व राजनीतिक स्तर से थोड़ा ऊपर उठ चुके हैं वे भी नहीं चाहते हैं कि किसी तरह अपनी जीविका चलाने वाले ये लोग शराब से दूर हो जाएं, आगे बढ़ें औक शिक्षित हों, ताकि उनके श्रम शोषण के साथ सामाजिक शोषण भी किया जा सके। यही कारण है कि ये लोग शराबखोरी में उल्टे इनकी मदद करते हैं।
इस आदिम जनजाति के लोगों के विकास के लिए सरकार ने आदिम जनजाति विकास समिति और नौकरियों में भी इनके लिए डायरेक्ट बहाली की व्यवस्था कर रखी है, लेकिन यह केवल कागजों तक सिमट कर रह गई है। कोरवा जनजाति की जनसंख्या पर एक नजर डालें तो साफ हो जाता है कि अनुपात में इनकी संख्या में लगातार गिरावट आई है। मिले आंकड़ों के अनुसार 1872 में बिहार में कोरवा जनजाति की आबादी 5,214 थी। वहीं इनकी जनसंख्या 1911 में 13,920 और 1931 में 13,021, मतलब 20 साल में 900 की संख्या कम हो गई। वहीं 30 साल बाद 1961 में 21,162 संख्या हो गई, जो 1971 में जाकर 18,717 की संख्या हो गई, मतलब 10 साल में 2,445 की संख्या फिर कम हो गई। पुनः 1981 में 10 साल बाद इनकी संख्या 3,223 की बढ़त के साथ इनकी आबादी 21,940 हो गई। अब 40 साल बाद इनकी संख्या लगभग 40,000 है, जो इनके जीवन स्तर पर कई कई सवाल खड़े करते हैं। इनके इस जीवन स्तर पर हीरामन कोरवा राजनीतिक और सामाजिक नीयत को दोषी मानते हैं और उन पर ही सवाल खड़ा करते हैं।
कोरवा जनजाति की आबादी पलामू जिले में 2000 के आस पास है। कई पीढ़ियों से पलामू की पहाड़ियों और इसके आसपास निवास करने वाले इस जनजाति के अपने परिवेश और संस्कृति से काफी भावनात्मक जुड़ाव है। अन्य जनजातियों की तरह कोरवा जनजातियों में भी सामूहिक खेती की परंपरा है। झारखंड में इन्हें आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है। मतलब ये विलुप्त हो रही जातियों की श्रेणी में हैं। कोरवा के लोग झारखंड के गढ़वा, पलामू, सिमडेगा और गुमला ज़िलों के अलावा छत्तीसगढ़ और दूसरे कुछ राज्यों में भी रहते हैं।
(झारखंड से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)