Sunday, April 28, 2024

कृष्ण चंदर की महान कृति ‘पौदे’: महज एक किताब नहीं नायाब दस्तावेज है!

कृष्ण चंदर का वजूद और अदब इस बात की जमानत है कि वे उन लोगों की पहली कतार में से हैं जिन्होंने तरक्की-पसंद राहों को नई दशा और दिशा दी। सिर्फ लेखन मकसद नहीं था, दिल में जुनून यह था कि विसंगतियों भरी इस दुनिया में आमूल-चूल इंकलाबी बदलाव कैसे लाया जाए। किताब ‘पौदे’ इसकी पुख्ता मिसाल है। वस्तुतः ‘पौदे’ को कुछ लंबा-कुछ छोटा रिपोर्ताज भी कहा जा सकता है। प्रगतिशील लेखन पर अति उल्लेखनीय काम करने वाले पत्रकार/लेखक जाहिद खान ने इशरत ग्वालियरी के सहयोग से उर्दू से इसका हिंदी में लिप्यंतरण किया है।

यह इतना आसान काम नहीं लेकिन जाहिद खान एक जिद्दी संस्कृतिकर्मी हैं। सो दिन-रात की मेहनत से उन्होंने इसे संभव कर दिया। उनकी इससे पहले की किताबों की फेहरिस्त है: आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान, संघ का हिंदुस्तान, फैसले जो नजीर बन गए, आधी आबादी अधूरा सफर, तरक्की-पसंद तहरीक के हमसफर, तरक्की-पसंद तहरीर की रहगुजर, तहरीक-ए-आजादी और तरक्की-पसंद शायर और इप्टा की अनकही कहानियां।

‘पौदे’ का लिप्यंतरण उनकी ताजा प्रस्तुति है और यकीनन हर लिहाज से स्वागत योग्य। यह कृति कृष्ण चंदर से वाबस्ता जानकारियों की नई खिड़कियां भी खोलती है। भूमिका में जाहिद खान ने लिखा है कि उर्दू अदब, खासतौर से उर्दू अफसानों को जितना रचनात्मक योगदान कृष्ण चंदर ने दिया, इतना शायद ही किसी दूसरे अदीब ने दिया हो। हालांकि यह कथन कुछ अतिशयोक्ति भरा लगता है। बहुतेरे लेखकों और उनके काम पर शायद खान की तवज्जो नहीं गई। यह सही है कि कृष्ण चंदर इन सब में से अव्वल थे।

कृष्ण चंदर ने उर्दू और हिंदी में समान अधिकार के साथ बेशुमार लिखा। वह प्रगतिशील बने और उनके ज्यादातर अफसाने समाजवाद से प्रेरित हैं। यकीनन वह प्रतिबद्ध लेखक थे। उन्होंने साठ से ज्यादा किताबें लिखीं। उनकी किताबों के अनुवाद लगभग तमाम भारतीय भाषाओं के अलावा दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओं में भी हुए। मसलन अंग्रेजी, रूसी, चीनी, चेक, पोलिश और हंगेरियन में भी हुए। बंगाल का अकाल आज भी लोगों को भुलाए नहीं भूलता। उस पर उन्होंने नाटक ‘भूखा बंगाल’ और कहानी ‘अन्नदता’ लिखी। भूखा बंगाल का मंचन उन दिनों इप्टा ने पूरे देश में किया था।

कृष्ण चंदर की किताब ‘पौदे’ अक्टूबर 1945 में हैदराबाद (दकन) में आयोजित उर्दू के प्रगतिशील लेखकों की ‘कुल हिंद कॉन्फ्रेंस’ का रिपोर्ताज है। मुल्क में उर्दू अदीबों की यह पहली कॉन्फ्रेंस थी।

आजादी से पहले हुई इस अहम कॉन्फ्रेंस में उर्दू अदब से जुड़े हुए, बेशुमार बड़े अदीब मुस्लिम मौलाना हसरत मोहानी, एहतेशाम हुसैन, डॉ. अब्दुल अलीम, काजी अब्दुल गफ्फार, फिराक गोरखपुरी, सज्जाद जहीर, डॉ. मुल्कराज आनंद, सरोजिनी नायडू, जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, मखदूम मोहिउद्दीन, कैफी आज़मी, वामिक जौनपुरी, सागर निजामी, सिब्ते हसन, महेंद्रनाथ, आदिल रशीद, मुमताज हुसैन, इब्राहिम जलीस, जिगर हैदराबादी, कुद्स सहबाई, रइफअत सरोश, मदन गोपाल और कृष्ण चंदर वगैरह ने शिरकत की थी। 

रिपोर्ताज से जाहिर होता है कि उस वक्त जैसे तरक्की पसंद तहरीक की पूरी कहकशां जमीन पर उतर आई थी। यह एक यादगार और ऐतिहासिक कॉन्फ्रेंस थी। रिपोर्ताज में ही दर्ज है कि इस कॉन्फ्रेंस की कुछ अहम बातों का जिक्र सज्जाद जहीर ने अपनी अहमतरीन किताब ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में किया है।

एक जगह उन्होंने लिखा है, “यह कॉन्फ्रेंस कोई पांच दिन तक हुई। इसका उद्घाटन मिसेज नायडू ने किया। उद्घाटन समारोह एक सिनेमा हॉल में हुआ था। और उसमें कोई दो-ढाई हजार का मजमा रहा होगा। इस कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मंडल में मौलाना हसरत मोहनी, डॉ. ताराचंद, कृष्ण चंदर, फिराक गोरखपुरी और एहतेशाम हुसैन शामिल थे। पहले दिन की सदारत कृष्ण चंदर ने की।

‘पौदे’ में कृष्ण चंदर के हवाले से सविस्तार बताया गया है कि इस कॉन्फ्रेंस में सिब्ते हसन ने उर्दू पत्रकारिता के विकास, सरदार जाफरी ने इकबाल की शायरी-दर्शन और जिंदगी, एहतिशाम हुसैन ने उर्दू की तरक्कीपसंद आलोचना, साहिर लुधियानवी ने उर्दू की जदीद इंकलाबी शायरी, सज्जाद जहीर ने उर्दू, हिंदी, हिंदुस्तानी के मसले और कृष्ण चंदर ने उर्दू अफसाने पर अपने शोध परक पर्चे पढ़े।

सज्जाद जहीर ने ‘रौशनाई तरक्कीपसंद तहरीक की यादें’ में एक जगह लिखा है, ‘इससे बेहतर या वैसा भी लिखना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। ‘पौदे’ साहित्य और पत्रकारिता की मिली-जुली विधा में, जिसका नाम रिपोर्ताज है, एक खास हैसियत रखती है। इसमें कॉन्फ्रेंस के ब्यौरे नहीं, बल्कि इसकी फजा और माहौल को पेश किया गया है।’

‘पौदे’ पढ़ने से बखूबी पता चलता है कि सज्जाद जहीर साहब की बात सौ फ़ीसदी दुरुस्त है। कृष्ण चंदर ने इस किताब में कॉन्फ्रेंस के एकेडमिक ब्यौरे नहीं दिए हैं, बल्कि इस पूरी कान्फ्रेंस की फज और माहौल की शानदार अक्कासी की है। शुरुआत मुंबई के बोरीबंदर रेलवे स्टेशन से होती है, जहां तरक्की पसंद अदीब हैदराबाद जाने के लिए एक के बाद एक इकट्ठा हो रहे हैं। उसके बाद कृष्ण चंदर ने बड़े दिलचस्प तरीके से गाड़ी के अंदर का पूरा मंजर-नामा खींचा है।

पूरे भारत की यदि एक झलक देखनी है, आप ट्रेन के जनरल डिब्बे में सफर कीजिए। ये अदीब भी थर्ड क्लास के डिब्बे में सफर कर रहे थे। कृष्ण चंदर ने एक बेहतरीन फोटोग्राफर की तरह इस सारे सफर की मानो जीती-जागती तस्वीरें खींच दी हैं। इसके साथ ही अपने साथियों के खाके और आपसी बहस-मुबाहिसों का जो ब्यौरा है, इसका तो कोई जवाब ही नहीं। उन्होंने असल जिंदगी के किरदारों को कुछ इस तरह पेश किया है, कि वे किसी अफसाने के किरदार नजर आते हैं। यहां तक कि कृष्ण चंदर, अपने आपको भी नहीं बख्शते। बड़ी ही इमानदारी से उन्होंने अपनी कमियों, बुराइयों और बुरी आदतों की तरफ इशारा किया है। 

किताब का अगला अध्याय ‘हैदराबाद स्टेशन’ है। जहां आयोजन समिति के सदस्य इन अदीबों की अगवानी के लिए इकट्ठे हुए हैं। कृष्ण चंदर, छोटी सी मुलाकात को भी अपने लेखन के दिलचस्प अंदाज से अफसाना बना देते हैं। खासतौर से लफ़्ज़ों का वह जिस गहराई से इस्तेमाल करते हैं, लाजवाब है। तबस्सुम की किस्मों से वह हमारा ताआरुफ करवाते हैं। किसी भी शख्स का खाका कुछ इस तरीके से पेश करते हैं कि उसकी तस्वीर हमारी आंखों के सामने तैरने लगती है।

किताब में इजलास का भी जिक्र है, मगर मुख्तसर। उन्होंने इजलास के माहौल पर ही अपने आप को केंद्रित किया है। इसमें इजलास की संजिदा तकरीरें और बहस-मुबाहिसे नहीं हैं। कॉन्फ्रेंस से इतर हैदराबाद में अदीबों की दीगर सरगर्मियों और सैर-सपाटे का भी ब्यौरा है। आजादी से पहले का हैदराबाद, जब यह निजाम स्टेट थी, सामंतवाद अपने चरम पर था, इसकी भी एक झलक किताब के ‘पुराना महल’ अध्याय में नजर आती है। एक तरक्की पसंद अदीब अपने आसपास के माहौल की किन छोटी-छोटी चीजों के बयान से हुकूमत के असल किरदार को सामने लाता है, इस अध्याय को पढ़कर मालूम चलता है।

लिप्यंतरणकार जाहिद खान और उनके सहयोगी इशरत ग्वालियरी ‘पौदे’ सरीखी नायाब रचना हिंदी लिपि में उपलब्ध कराने के लिए विशेष शुभकामनाओं बधाई के हकदार हैं। यकीनन पढ़ने वाले पर यह किताब अपना दूरगामी असर छोड़ेगी। किताब में अदब और इंसानी जिंदगी पर कई मानीखेज टिप्पणियां है। अपने वक्त के बड़े-बड़े अदीबों सज्जाद जाहिर, सरदार जाफरी, मौलाना हसरत मोहानी, डॉ. अब्दुल अलीम, सिब्ते हसन, काजी अब्दुल गफ्फार के छोटे-छोटे रेखा- चित्र हैं, जिनमें उनकी पूरी शख्सियत निखर कर सामने आती हैं।

कृष्ण चंदर के लिखन का जादू, पूरी किताब में बिखरा पड़ा है। मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने इस अजीम अफसाना-निगार की जादुई लेखनी के बारे में एक मर्तबा कहा था, ‘सच्ची बात ये है कि कृष्ण चंदर की लेखनी से मुझे रस खाता है।’ उम्मीद है कि ‘पौदे’ पढ़कर, बाकी लोग भी सरदार जाफरी के इस कौल के कायल हो जाएंगे।

‘पौदे’ का अंत एक उपन्यास या अफसाने की तरह है। कृष्ण चंदर की बेहतरीन किस्सागोई ने इस छोटे से रिपोर्ताज को भी जबरदस्त शाहकार बना दिया है। किताब का प्राक्कथन सज्जाद जहीर ने लिखा था। अपनी इस छोटी-सी भूमिका में सज्जाद जहीर ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद, भारत के हालात को बयां करते हुए, तरक्की पसंद अदीबों से अपेक्षा की है कि वे अपनी रचनाओं में मुल्क की आजादी, एकता और समानता की बात करें। अवाम को साम्राज्यवाद, फासीवाद, सामंतवाद और सांप्रदायिकता के खतरों से आगाह करें।

कृष्ण चंदर की किताब ‘पौदे’ को भी सज्जाद जहीर ने इसी कैटेगरी में रखा है। किताब में कृष्ण चंदर की भी एक लंबी भूमिका है। जिसमें वह तरक्की पसंद तहरीक के दस साल सफर यानी 1936 से लेकर 1946 तक की यात्रा का मूल्यांकन करते हुए, तहरीक के पूरे मुल्क में फैलने पर अपनी खुशी जाहिर करते हैं।

हैदराबाद कॉन्फ्रेंस के दो महीने पहले ही अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा शहर पर पहला परमाणु बम गिराया था। पूरी दुनिया दूसरी आर्मी जंग में मुब्तिला थी। कृशन चंदर, दुनिया को 8 वीं एनर्जी के खतरों से आगाह करते हुए, गुलाम देशों की आजादी, वहां जम्हूरियत और कम्युनिज्म की कायमगी की पुरजोर वकालत करते हैं। अपनी इस भूमिका में कृष्ण चंदर न सिर्फ उर्दू जुबान का पूरे देश में प्रचार-करने की बात करते हैं, बल्कि उर्दू को कौमी जबान का मर्तबा देने की भी इंकलाबी सोच जाहिर करते हैं। अपनी इस बात के हक में वे कई दलीलें पेश करते हैं।

उनकी कैफियत है, ‘हिंदुओं ने और इस मुल्क की दूसरी कौमों ने उर्दू की इशाअत में, उसे फैलाने में, बढ़ाने और अपनाने में एक बड़ा हिस्सा लिया है। सबने मिलकर इसकी तरक्की के लिए अपने बेहतरीन इंसान का लहू दिया है। मुनाफकत (मिथ्याचार) की दुनिया में वो एक पौदा (पौधा) है, जिसकी आबयारी (सिंचाई) हम सब ने मिलकर की है। इसलिए एक ऐसी जुबान को जिसे हिंदुस्तान की मुख्तलिफ कौमों ने मिलकर तख्लीक किया है, किसी एक कौम के लिए हमेशा वक्फ कर देना, एक जबरदस्त तहजीबी और तारीखी गलती होगी। जिसकी मिसाल दुनिया में मुश्किल से मिलेगी। अगर अमेरिका और इंग्लैंड दो मुख्तलिफ कौमें होते हुए, एक-दूसरे से हजारों मील दूर होते हुए भी एक जुबान को रख सकते हैं और उसे अपनी तहजीबी रूह का मरकज बना सकते हैं, तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान साथ-साथ रहते हुए भी क्यूं इस जुबान को अपना नहीं सकते।’ 

‘पौदे’ के 12 अध्याय हैं और खुसूसियत यह है कि किसी भी अध्याय से पढ़ना शुरू कीजिए; लगेगा ही नहीं कि पिछला कोई अध्याय छूट गया है और आगे कोई नया आने वाला है। हर अध्याय अपने आप में मुकम्मल। यह बहुत कम किताबों का हासिल होता है। ‘पौदे’ को है जो इसकी वजह से (भी) किताब को कालजयी किताबों के पहली कतार में रखती है।

जिन्होंने कृष्ण चंदर को सिर्फ हिंदी में पढ़ा है, उनके लिए यह लिप्यंतरण बेशकीमती तोहफे की मानिंद है। सिर्फ एकाध जगह प्रूफ की गलतियां हैं। बाकी प्रस्तुति जानदार-शानदार है। एशिया पब्लिशर्स ने इसे प्रकाशित किया है और अगर आप किताबों के शौकीन हैं तो यह किताब आपकी निजी लाइब्रेरी में जरूर होनी ही चाहिए। अमेजॉन वगैरह पर भी यह आसानी से उपलब्ध होगी।

पूरी किताब में उर्दू, अरबी और फारसी के हर कठिन लफ्ज़ के साथ हिंदी मायने दिए गए हैं। यकीनन कृष्ण चंदर की कृति ‘पौदे’ एक महान रचना है और अपनी किस्म का पहला सारगर्भित रिपोर्ताज भी। इसके हिंदी लिप्यंतरण के लिए एकबारगी फिर जाहिद खान को साधुवाद।

(अमरीक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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Suresh Hans
Suresh Hans
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9 months ago

बेहतरीन समीक्षा
आज का युवा पाठक वर्ग जिन्होंने कृष्ण चंदर को नहीं पढ़ा उनके लिए बेहतरीन कार्य किया हमारे युग के वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह ने । पौदे वास्तव में भाषा की पाठशाला है ।

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