Saturday, April 27, 2024

शीला संधु को लेकर पंकज बिष्ट का संस्मरण: उन्होंने चुनौती स्वीकारी

अगर उनके निजी जीवन को देखें तो कहना गलत नहीं होगा कि शीला संधु सही अर्थों में चुनौती का दूसरा नाम थीं। हिंदी प्रकाशन व्यवसाय को राजकमल प्रकाशन के माध्यम से चरम पर पहुंचानेवाली शीला संधु (24 मई 1924 – 01 मई 2021) का स्मरण ।

शीला जी को याद करना एक ऐसे व्यक्ति को याद करना है, जो अदम्य आत्मविश्वास, साहस और साहित्य तथा कला का पारखी था। जब उसके हाथ हिंदी का सबसे बड़ा प्रकाशन गृह आया, वह देवनागरी का एक अक्षर नहीं पहचानता था, हिंदी साहित्य की बात करने का तो अर्थ ही नहीं है। इसके बावजूद वह आज भी, देश की न सही, कम से कम हिंदी समाज की, अकेली महिला हैं जिसने इतना बड़ा प्रकाशन 30 वर्ष तक अपने बूते सफलता पूर्वक चलाया। सवाल है यह चमत्कार कैसे हुआ? यद्यपि मैं बीए में भी हिंदी साहित्य का छात्र नहीं था पर इसके साहित्य के प्रति मेरी रुचि न जाने कब पैदा हो गई थी। इसलिए यह अनायास नहीं था कि बीए तक पहुंचते-पहुंचते राजकमल प्रकाशन के नाम से मैं अपरिचित नहीं था। तब फैज रोड, अब नेताजी सुभाष मार्ग में, गोलचा सिनेमा से कुछ आगे, सड़क के दूसरी ओर राजकमल प्रकाशन का भव्य और विशाल शोरूम तथा दफ्तर हुआ करता था।

मैं उस शो रूम में अकेले प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर सका था और सहारे के लिए पहली बार अपने एक साथी को लेकर गया था। सन 1964-65 से चल कर अगले दो दशक में मैंने हिंदी साहित्य की दुनिया में किसी तरह थोड़ी-सी घुसपैठ कर ली थी। इसलिए गाहेबगाहे ही सही किसी-न-किसी समारोह-गोष्ठी में शीला जी नजर आ ही जाती थीं। वह मझोले कद की महिला थीं और बॉब कट बाल रखती थीं। हिंदी जगत की ऐसी महिला, जहां भी पहुंचतीं, लोग उनका नोटिस लिए बिना नहीं रह सकते थे।

यहीं से उनके जमाने में नई कहानियां भी निकला करती थीं, जिसके संपादकों में कमलेश्वर, भीष्म साहनी और मन्नू भंडारी भी शामिल रहे हैं। आलोचना त्रैमासिक की नींव इस प्रकाशन संस्था की स्थापना के आसपास ही हो चुकी थी और इसके पहले संपादक शिवदान सिंह चौहान थे। कई छोटे बड़े लेखक, नामवर सिंह से लेकर लेखक-आलोचक प्रदीप सक्सेना तक, जो अब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, कवि गीतकार रामकुमार कृषक और बाद में दैनिक नई दुनिया के संपादक बने सुरेश बाफना आदि ने भी वहां काम किया है।

शीला जी से पहला औपचारिक परिचय मेरे लिए इतना नाटकीय था कि संभलना मुश्किल हो गया था। यह चौथे ओमप्रकाश समारोह की बात है जो राधाकृष्ण प्रकाशन के संस्थापक की स्मृति में उनके बेटे अरविंद कुमार ने शुरू किया था। उस वर्ष पुरस्कार उदय प्रकाश को मिला था और प्रदान कृष्णा सोबती ने किया था। कार्यक्रम खत्म होने के बाद मैं त्रिवेणी कला संगम के संकरे गलियारे से बाहर निकल ही रहा था कि किसी ने मुझे बुलाकर परिचय करवाते हुए कहा था : पंकज जी, शीला जी मिलना चाहती हैं।

इससे पहले कि मैं हाथ जोड़ता, देखा कि वह हाथ जोड़े खड़ी हैं। मेरी सकपकाहट अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि उन्होंने आगे जो कहा वह 6.6 रेक्टर स्केल के जलजले से कम नहीं था, ”मेरा नाम शीला संधु है।”

मैं अत्यंत शालीन और भद्र महिला से रू-ब-रू था। वह महिला, जिन्हें चाहते हुए भी दूर से भी कभी नमस्कार करने की हिम्मत नहीं जुटा सका था। मैं इस कदर हड़बड़ा चुका था कि कहते नहीं बना, आप को कौन नहीं जानता।

शीला जी ने बिना किसी औपचारिकता के कहा, ”आप का उपन्यास पढ़ा,” और जोड़ा, ”मुझे जनम भर अफसोस रहेगा कि लेकिन दरवाजा हम नहीं छाप पाए।“ वह इतने पर ही नहीं रुकीं। बोलीं, ”आप कह दीजिए हम पूरा संस्करण उठा लेते हैं और नए सिरे से छापेंगे।“

कुछ देर तो दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया। मैला आंचल के इतिहास से मैं परिचित था। रेणु जी के देहांत पर आजकल पत्रिका ने विशेषांक निकाला था और सामग्री की तलाश में मैं स्वयं पटना गया था। पर इससे अनभिज्ञ था कि जब मैला आंचल पटना के अनजान प्रकाशक से खरीद कर राजकमल ने दोबारा छापा, तब शीला संधु राजकमल से नहीं जुड़ी थीं। इस पर भी यह उनका बड़बोलापन नहीं था।

अचानक मैं संभला था। मेरे सामने अरविंद कुमार का मुस्कराता चेहरा आ गया। उन्होंने लेकिन दरवाजा तब प्रकाशित किया था, जब तक किसी बड़े प्रकाशक ने मेरी कोई किताब नहीं छापी थी। फिर उन्होंने तो मुझ से, यानी एक नए लेखक से, पूरे सम्मान के साथ मांगा था। राधाकृष्ण उस दौर का कम महत्त्वपूर्ण प्रकाशन गृह नहीं था। अगर उससे मोहन राकेश जैसे बड़े लेखक जुड़े थे तो मेरे समकालीनों में मंगलेश डबराल, आलोकधन्वा, गोरख पाण्डेय, असद जै़दी, मृणाल पाण्डे और उदय प्रकाश जैसे उभरते लेखक भी वहां से छप रहे थे।

मैंने किसी तरह कहा था, ”शीला जी, मैं आपका आभारी हूं। इसे रहने दें। अगर मैंने लिखा, तो अगला उपन्यास आप ही को दूंगा।“

”अरे आप लिखेंगे, क्यों नहीं लिखेंगे”, कह कर वह मुस्कराईं थीं।

मैंने भी मुस्कराकर सिर्फ, ”जी!” कहा था। पर जिस अपार प्रसन्नता के सागर में, उस दिन मैं देर तक तैरता रहा था, उसका बयान मुश्किल है। और इस वाकये को दोहराने में मैंने कभी कंजूसी नहीं की है। (आधुनिक लेखक का विज्ञापन और प्रचार से गहरा संबंध है ही, उसमें आत्मप्रचार की क्या कम बड़ी भूमिका रहती है?)

वायदा जो निभा पाया

पर वायदा करना और लिखना मेरे लिए सदा मुश्किल काम रहे हैं। मैं अपने लेखन को लेकर उतना ही सशंकित रहा हूं जितना कि वायदों को लेकर, जो अक्सर जान का जंजाल बन जाते हैं। लिखना मैंने अभिव्यक्ति की तलाश में शुरू किया था और मैं इसे कभी भी बोझ की तरह ढोना नहीं चाहता था। न ही ढोया। हो सकता है शीला संधू का प्रस्ताव कहीं पीछे दिमाग में होगा, पर कुल मिलाकर यह महज संयोग था कि मैंने जो वायदा किया था, साढ़े चार साल बाद ही, पूरा हो गया था।

इसका एक पक्ष और भी है। शीला जी से उस दिन त्रिवेणी कला संगम में वायदा करने से लगभग दो साल पहले से ही, मैं एक घने द्वंद्व से गुजर रहा था। घटना थी पिताजी का अक्टूबर, 82 में देहांत। उस मृत्यु ने कई अस्तित्ववादी सवाल पैदा कर दिए थे। बाप बेटे के बीच का तनाव, आखिरी दिनों की पिताजी की व्यर्थता का आभास, आत्मग्लानि और अकेलेपन के बोझ की छटपटाहट ने अचानक मुझे झपट लिया था।

संयोग से यह वह दौर था जब आकाशवाणी पत्रिका समूह बंद कर दिया गया था और पीटीआई बिल्डिंग की दूसरी मंजिल के दाएं विशाल हिस्से में, एक क्लर्क, एक चपरासी के साथ अधिकारी के तौर पर मैं अकेला रह गया था। मुझे कार्यालय को समेटने की कार्यवाही करनी थी, जो मेरे लिए निहायत त्रासद काम था। इस मायने में कि मुझे दफ्तर के सामान यानी मेज-कुर्सी आदि को नीलाम करना था। चलो, वह भी हो जाता पर शुभचिंतकों ने मुझे चेताया था कि यह काम ऐसी सुरंग से गुजरना है जिसमें भ्रष्टाचार का बारूद बिछा है।

सुरंग में तो जब जाता तब जाता, इससे पहले हुआ यह कि मेरे पास कोई काम नहीं रहा। मैं अचानक बिल्कुल खाली हो गया। जब चाहे दफ्तर आने-जाने लगा था। देखते-देखते भुतहा हो गई किसी जीवंत जगह में, जिसके आप हिस्सा रहे हों, आकर बैठना ऐसा आभास देता था मानो आप किसी मृतक के साथ अकेले छोड़ दिए गए हों। अंदर की उथल-पुथल और बढ़ती बेचैनी प्रमाद में बदलती जा रही थी। किसी भी तरह से दबाव से मुक्त होने की छटपटाहट की कोशिश में एक दिन मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह 1985 के मध्य की बात है। अगले दो साल मैं रुक-रुक कर लिखता रहा।

संयोग से इसी बीच, उस मृत कार्यालय से, जहां मजाज की रूह बसती थी (आकाशवाणी के उर्दू संस्करण आवाज का नामकरण मजाज लखनवी ने ही किया था। यानी वह तब इस दफ्तर से जुड़े थे।) और जिसके ‘अंतिम संस्कार’ का दायित्व पूरा करने के लिए मुझे बलात रोका गया था, मैं किसी तरह पिंड छुड़ाने में सफल हो गया था।

फिल्म डिवीजन के कार्यालय वैसे तो दिल्ली में कई जगह थे और आज भी हैं, पर मुख्य कार्यालय उन दिनों टॉलस्टाय मार्ग के उस टुकड़े पर था, जो बारहखंभा रोड और कस्तूरबा गांधी मार्ग को जोड़ता है। मैं सहायक संपादक से ‘पटकथा लेखक’ बना दिया गया था। यह न कोई आदर्श स्थिति थी और न ही मेरे लिए सुकून देने वाली जगह। इस पर भी यह किसी मृत जगह से हर हाल में बेहतर थी। स्क्रिप्ट राइटिंग ऐसा काम था जो मुझे कभी पसंद नहीं आया। संक्षेप में कहूं तो संभवत: इसलिए कि मैं लेखक की स्वायत्तता के प्रति समर्पित रहा हूं।

ब्रिटिशकालीन मोटी-मोटी दीवारों और ऊंची छत वाली वह कोठी, जिसमें मैं अगले तीन साल रहा था, अजीब प्राणहीनता का शिकार थी। उसका मुखिया एक हेडमास्टर टाइप का आदमी था, जो दफ्तर को घरेलू धंधे की तरह चलता था और अपने मातहतों पर दहाडऩे में देर नहीं लगाता था। न जाने वहां सरकारी नौकर भी कैसे थे जो उसे सहन किए चले जाते थे। डर लगा रहता था कि किसी दिन इससे तू-तू, मैं-मैं न हो जाए। यद्यपि मन नहीं लगता था पर सुविधा यह थी कि बगल में हिंदुस्तान टाइम्स भवन था जहां मेरा एक बीए का सहपाठी विज्ञापन विभाग में काम करता था और दफ्तर में कोई काम नहीं था। इसके अलावा साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी आदि के दफ्तरों के कारण अक्सर ही कोई न कोई साहित्यिक मित्र टकरा जाता था। एक और नेमत बगल की अमेरिकी लाइब्रेरी भी थी जो अपनी सारी सीमाओं के बावजूद मजेदार जगह थी। सीमाओं से मेरा तात्पर्य उसके पुस्तकों के संग्रह की सीमा से है, पर पत्र-पत्रिकाओं का खंड अत्यंत आकर्षक था और मेरा प्रिय था।

उस चिड़िया का नाम पूरा होने के बाद मैं चाहता था उसे एक बार फिर से देखूं। पर हिम्मत जवाब दे गई। सामान्य स्थिति होती तो शायद मैं साल भर नहीं तो कम से कम छह महीने तो पांडुलिपि देने को टाल जाता। यही कारण था कि शीला जी के पास पांडुलिपि लेकर उपस्थित होने में मुझे जितनी प्रसन्नता वायदा निभाने की हुई थी उतनी शायद इस बात को लेकर नहीं थी कि अब मेरी पगड़ी में एक और तुर्रा लगने जा रहा है।

राजकमल : भविष्य की चिंता

तब तक राजकमल में संभवत: परिवर्तन की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी। मुझे उनके नेताजी सुभाषचंद्र बोस रोड पर स्थित ऐतिहासिक कार्यालय नहीं जाना पड़ा था। उससे पहले ही राजकमल प्रकाशन का शोरूम बंद कर दिया गया था और उसका संपादकीय विभाग पहले नोएडा, जहां उसका नया कार्यालय बनाया जा रहा था, ले जाया गया था और फिर न जाने किस कारणवश कस्तूरबा गांधी मार्ग पर हिंदुस्तान टाइम्स कार्यालय के सामने सूर्यकिरण बिल्डिंग में स्थानांतरित कर दिया गया था। वहां शीला जी के पति के द्वारा चलाई गई एक्सपोर्ट कंपनी चिनार का कार्यालय था। यह मुझे इसलिए याद है कि उस चिड़िया का नाम की प्रेस कॉपी रामकुमार कृषक ने तैयार की थी और वह वहीं बैठा करते थे।

शीला जी की राजकमल के भविष्य को लेकर तभी से चिंता बढऩे लगी थी। यह बात उन्होंने किसी संदर्भ में मुझसे कही भी। उनकी तीन में से किसी भी संतान की, अपने-अपने कारणों से, प्रकाशन में रुचि नहीं थी। एक नोट करनेवाली बात यह भी है कि संभवत: उन्हीं दिनों या उसके आसपास राजकमल प्रकाशन में कर्मचारियों को लेकर समस्या भी चल रही थी और कई कर्मचारियों को यूनियन बनाने के कारण निकाला भी गया था। संभव है इस समस्या ने भी उनके राजकमल से मुक्त होने के निर्णय को मजबूत किया हो।

जो भी हो, मेरे लिए सुखद यह था कि वह उपन्यास स्वयं पढ़ रही थीं। उन्होंने उपन्यास में आए कुछ प्रसंगों के संदर्भ में स्पष्टीकरणों के लिए बुलाया भी था। मेरी उनसे दोस्ती बढ़ती गई थी। वह जब भी बुलातीं लंच के दौरान ही बुलातीं और मेरे लिए मुर्गा मंगवातीं, जबकि स्वयं शाकाहारी हो चुकी थीं या फिर सिर्फ घर का खाना खाती थीं।

उन्हें उपन्यास पसंद आ रहा था और मेरे लिए सुखद और आश्चर्यजनक यह था कि वह शब्दश: पढ़ रही थीं। कई संदर्भों के संबंध में उन्होंने मुझ से पूछा भी। उनका एक सवाल यह भी था कि क्या ये तथ्य गजेटियर से लिए हैं? कुछ लिए भी थे पर अक्सर मैंने ऐतिहासिक तथ्यों को ‘टेक ऑफ पाइंट’ बना कर जरूरत के मुताबिक नए यथार्थ में ढालने की कोशिश की है। कुछ दंत कथाओं और लोक कथाओं को नया रूप और अर्थ देने की भी कोशिश है। गोकि उन्होंने कभी स्पष्ट रूप से कोई आपत्ति नहीं की, इस पर भी न जाने मुझे क्यों लगता रहता था कि उन्हें मेरी बात पर पूरी तरह यकीन नहीं हुआ है, जो अखरता भी था।

इस संदर्भ में सोचता हूं कि मूल्यांकन आप हर भाषा के साहित्य का कर सकते हैं बशर्ते कि वह आप की भाषा में हो, लेकिन हर भाषा को पढ़ पाना, जान पाना आसान नहीं है। हाल ही में मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जब उन्होंने राजकमल से ओमप्रकाश जी को अलग किया था, तब तक वह भारतीय भाषाओं में सिर्फ पंजाबी और वह भी गुरुमुखी में पढ़ सकती थीं। हिंदी को लेकर उनका तर्क था कि अगर मैं चीनी सीख सकती हूं तो हिंदी क्यों नहीं सीख सकती। वह इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में ‘इंपैक्ट ऑफ वैस्टर्न एज्युकेशन इन चाइना’ (चीन पर पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव) पर पीएचडी करने के लिए रजिस्टर्ड थीं और बीजिंग गई थीं। उन्होंने अपनी बात सिद्ध भी कर दी। जब उन्होंने हिंदी पढ़ी तो जम कर पढ़ी। आने वाली कई पीढिय़ां उन्हें भुला नहीं सकेंगी।

पर भाषा सीखना एक बात थी, प्रकाशन चलाना और वह भी साहित्यिक, बिल्कुल दीगर। यह कैसे हुआ? इसका उत्तर संभवत: यह है कि वह असामान्य रूप से दृढ़ प्रतिज्ञ महिला थीं और उतनी ही प्रतिभाशाली भी थीं।

चीनी से हिंदी तक

किस तरह से बीबी सुशील कौर का शीला संधु में कायांतरण हुआ वह कम रोचक नहीं है। उन्होंने गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से एमए किया था। वह सदा अपने समय से आगे की महिला थीं। उन्होंने प्रेम विवाह किया। जिस व्यक्ति को उन्होंने जीवन साथी चुना वह हरदेव संधु छात्र जीवन से ही कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा हुआ था और दिल्ली आने तक पूर्णकालिक कार्यकर्ता था।

विभाजन की त्रासदी को शीला जी ने निजी स्तर पर झेला था। उनके पिता दंगों में मारे गए थे। लाहौर से जान बचाकर आए उस परिवार, जिसमें उनके अपने छोटे भाई-बहन ही नहीं बल्कि पति के परिवार के सदस्य भी शामिल थे, का वह सहारा बनीं थीं। दिल्ली आकर भी जब तक उनके पति का कारोबार फलफूल नहीं गया, उन्हीं पर इस विशाल परिवार के भरण-पोषण का दायित्व रहा जो उन्होंने पूरी जिम्मेदारी से निभाया।

और चाहे जो हो, शीला जी का हिंदी भाषा के प्रति प्रेम और उसके महत्व के प्रति सजग होना किसी भी हिंदी भाषी के लिए गर्व की बात है। वह आदर्श भी है, हम जैसों के परिवारों में पैदा होने वाली संतानों के लिए। उन्होंने लिखा है, ”इस बात का मुझे बेहद अफसोस है कि उत्तर भारत का मध्यवर्ग हिंदी की संपदा का लाभ उठाने या उसकी कदर करने में असमर्थ है। मेरे तीनों बच्चे अपवाद नहीं हैं और इस बात से बेखर हैं कि इससे उनके बौद्धिक और भावात्मक जीवन में एक खाई रह गई है। किसी न किसी बहाने से उनमें से एक ने भी हिंदी के प्रति मेरी भावनाओं में हिस्सेदारी नहीं की।‘’ (द वीमैन हू डेयर्ड से)

अनुमान लगाया जा सकता है कि राजकमल प्रकाशन बेचने का उनका एकमात्र कारण यही रहा होगा। वह इस बेचने को अपना रिटायरमेंट कहती हैं, जो एक मामले में उनकी बड़ी होती उम्र और लंबी तथा संघर्ष और चुनौतियों से भरी जिंदगी की थकावट का भी संकेत है। अगर लाहौर से लें तो लगभग 20-22 वर्ष की उम्र से उन्हें किसी-न-किसी तरह की जिम्मेदारी संभालनी पड़ी थीं। 1995 में जब उन्होंने राजकमल छोड़ा, उनकी सक्रियता को आधी सदी से ज्यादा हो चुका था।

मेरे लिए मजेदार बात यह थी कि उपन्यास से एक मायने में वह स्वयं भी जुड़ गईं थीं। उन्होंने बातों-बातों में बतलाया कि मेरे पिता ने भी एक कम उम्र की औरत रख ली थी। उस चिड़िया का नाम में नायक के पिता का एक युवा स्त्री से संबंध हो जाता है। पर अब मुझे कई दफा शंका होती है, कहीं मैंने गलत तो नहीं सुना होगा।

मैंने ऋतु मेनन द्वारा संपादित किताब द वीमैन हू डेयर्ड में संकलित उनका वह आत्मकथ्य जब पढ़ा तो कई चकित करने वाली जानकारियां मिलीं। अपने लेख ‘चौराहे-दर-चौराहे’ (क्रास रोड आफ्टर क्रास रोड आफ्टर क्रास रोड) में उन्होंने लिखा है कि हमारी मां हम पांच भाई-बहनों को पिता के पास छोड़कर पिता के एक दोस्त के साथ सदा के लिए चली गई थीं। पर इस लंबे लेख में, जो खासी स्पष्टता से लिखा गया है, पिता को लेकर ऐसा कोई वाकया नहीं है जो कि उस चिड़िया का नाम के नायक के पिता से जुड़ता हो।

यद्यपि यह कोई मुद्दा नहीं है, इस पर भी मुझे लगता है, मेरी स्मृति ने अभी धोखा नहीं दिया है। पत्नी के चले जाने पर उनके पिता का ऐसा करना असंभव भी नहीं कहा जा सकता। क्या शीला जी ने यह बात इसलिए नहीं लिखी होगी कि उनको पिता से गहरी हमदर्दी थी? या उनका एक औरत का, जो मां भी थी, नए आदमी के साथ जाना स्वीकार नहीं हुआ था? उन्होंने लिखा भी है, 45 साल बाद जब मां का बुलावा आया, वह मृत्यु के निकट थीं। शीला जी ने पूरे ठंडेपन से लिखा है, ”मैंने उसे कभी माफ नहीं किया।‘’ यानी वह मां से मिलने नहीं गईं थीं। दूसरे शब्दों में वह एक औरत को अधबीच में रास्ता बदलने के कदम के ‘अपराध’ के लिए कभी क्षमा नहीं कर पाई थीं।

दिमाग में यह भी आया कि ऐसा तो नहीं होगा कि उन्होंने मां की जगह पिता को रख तथ्यों को दूसरा रूप दे दिया हो? यद्यपि इसका कोई तुक नहीं है पर शीला जी की मां के बारे में इस तरह की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति संभवत: उपरोक्त लेख में पहली और आखिरी बार है और वह भी राजकमल से मुक्त होने के लगभग डेढ़ दशक बाद। अंतिम समीकरण यह हो सकता है कि वह पिता की छवि को बचा रही हों, इसलिए कि उन्होंने अपने बच्चों का आखिरी सांस तक साथ दिया?

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उन में अपनी मां के प्रति जो गुस्सा था उससे वह कभी मुक्त नहीं हो पाईं पर यह भी देखने की बात है कि उन्होंने अपने उस पिता के, जिसके प्रति उनके मन में इतना सम्मान, लगाव और सहानुभूति थी, मारे जाने की घटना को सांप्रदायिक घृणा में नहीं बदलने दिया। 

ओम प्रकाश मलिक का योगदान

मेरा पहला उपन्यास जिस प्रकाशक ने छापा था, यानी राधाकृष्ण प्रकाशन, इत्तफाक से उसकी स्थापना उस आदमी ने की थी जिसकी प्रकाशकीय प्रतिभा, मेहनत और साहस की शीला जी ने जमकर तारीफ की है। वह थे ओम प्रकाश मलिक। अमृतसर में कपड़ों के व्यापारी ओमप्रकाश जी के छोटे भाई देवराज ने ही राजकमल प्रकाशन की स्थापना की थी। जब उनका काम बढऩे लगा तो उन्होंने बड़े भाई को मदद के लिए बुला लिया था। सन 1946 में शुरू किए गए राजकमल प्रकाशन ने अपनी शुरुआत मेजर जनरल शाहनवाज खान की अंग्रेजी किताब आईएनए एंड इट्स नेताजी से की। बाद में इसका हिंदी अनुवाद भी छापा गया था।

एक नए प्रकाशक का ऐसी किताब छापना, उसकी समझ, दृष्टि और साहस का भी प्रमाण है। इस अर्थ में कि देश की आजादी अभी एक वर्ष दूर थी यानी अंग्रेजी शासन अभी था और भविष्य के होने वाले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी भूमिका लिखी थी।

इस संदर्भ में एक और सवाल उठ सकता है कि जिस प्रकाशक ने अपनी पहली किताब की शुरुआत अंग्रेजी की इतनी महत्वपूर्ण किताब से की हो, हिंदी को इतनी तवज्जो क्यों दी होगी? इसलिए कि उसके दिमाग में यह बात रही होगी कि अब हिंदी का जमाना आ रहा है? जो एक मामले में आया भी और जल्दी ही राजकमल देश के प्रमुख और महत्वपूर्ण प्रकाशकों में हो गया था। उसने हिंदी के एक से बढ़कर एक लेखक छापे और आलोचना जैसी पत्रिका की शुरुआत की। संभवत: अंग्रेजी के बड़े-बड़े प्रकाशकों को भी उसने पीछे छोड़ दिया था। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि अरुणा आसिफ अली ने बंगाली होने के बावजूद उसमें पूंजी लगाई थी। यह बात और है कि हिंदी पिछले सात दशकों में लगातार फैली है पर उसका सामाजिक, अकादमिक और राजनीतिक महत्व घटता गया है। उसके समकालीन साहित्य को पढऩे वाला स्वयं हिंदी का उच्च वर्ग तो छोडि़ए मध्यवर्ग भी नहीं रहा है। जहां तक लेखकों का सवाल है मध्य और उच्च वर्ग से उनका आना भी लगभग खत्म होने के नजदीक है।

राजकमल लिमिटेड कंपनी की तरह रजिस्टर्ड थी और अरुणा आसिफ अली के उसमें सबसे ज्यादा शेयर थे, जिन्हें हरदेव संधु ने, जैसा कि शीला जी ने लिखा है, अरुणा जी की मदद करने के लिए खरीदा था, जो संभवत: ओम प्रकाश जी को संभाल नहीं पा रही थीं। और इस तरह से संयोगवश ही कहेंगे, शीला जी का हिंदी प्रकाशन में प्रवेश हुआ था।

वृहत्तर संदर्भ में देखें तो राजकमल की स्थापना इस बात का भी प्रमाण है कि जो लोग पंजाब से आए, वे कितने कर्मठ और कल्पनाशील थे। राजकमल और राधाकृष्ण ही नहीं, आत्माराम तथा राजपाल भी इन्हीं लोगों की देन हैं। हिंद पाकेट बुक्स के माध्यम से सामान्य हिंदी पाठक को साहित्य सुलभ करवाने का जो काम मल्होत्रा परिवार ने किया वह कैसे भुलाया जा सकता है। इससे भी बड़ी बात यह है कि देवराज और ओम प्रकाश मलिक ने मिल कर राजकमल के माध्यम से हिंदी प्रकाशन का जो मानदंड स्थापित किया, वह भविष्य के लिए भी मानक बना रहा।

संधु परिवार द्वारा लगभग ढाई दशक बाद उसे हस्तगत किया गया था, और शीला संधु ने उसकी कमान संभाली थी। वह स्वयं विदूषी महिला थीं, उन्होंने प्रकाशन के स्तर को बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, विशेषकर तब जबकि वह हिंदी की लिपि भी नहीं जानती थीं। असल में हुआ यह था कि जब संधु परिवार ने राजकमल लिया ओम प्रकाश जी उसके कर्ताधर्ता (एमडी) थे और स्थिति ऐसी बनी थी कि उन्होंने एक ही झटके में राजकमल छोड़ दिया था या कहिए उन्हें छोडऩा पड़ा था।

शीला जी के नेतृत्व में राजकमल की सफलता को समझने के लिए यह समझना जरूरी है कि वह परिवार किस तरह आगे बढ़ा था और भारत विभाजन के लगभग एक डेढ़ दशक बाद ही संधु दंपति ने अपने परिवार को कमोबेश आर्थिक स्थिति के स्तर पर खासी आरामदेह स्थिति में पहुंचा दिया था बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि यह स्थिति सामाजिक-आर्थिक, हर तरह से उनकी लाहौर की स्थिति से कई गुना प्रभावशाली और बेहतर हो चुकी थी।

पर यह सब अचानक नहीं हुआ था। उसका बड़ा कारण तो बदलते राजनीतिक और सामाजिक हालात थे। नई सरकार के आने और अंग्रेजों के जाने ने कई अवसर पैदा किए थे और इस तरह एक नए शासक वर्ग का तेजी से उदय और बुर्जुआ वर्ग का फैलाव हो रहा था। उसका फायदा पंजाब से उजड़कर आए अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते साहसी और कर्मठ लोगों ने उठाया और उसके परिणाम भी देखते-देखते सामने आए। कई मायनों में संधु परिवार उसका प्रतिनिधिक उदाहरण है।

जब यह दंपति लाहौर से उजड़ कर भारत आया था, उस समय रोटी के लाले थे। हरदेव कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र जीवन से ही फुल टाइम कार्यकर्ता थे और उन्हें पार्टी 25 रुपए प्रति माह देती थी जबकि परिवार में पति-पत्नी के अलावा दोनों ओर के सदस्य यानी आठ-दस लोग तो थे ही। जालंधर, लुधियाना और फिर दिल्ली पहुंचना किन स्थितियों में हुआ होगा, समझना कठिन नहीं है। यह बात और है कि शीला जी शिक्षित/प्रशिक्षित महिला थीं और उन्हें अध्यापन का काम मिलने में देरी नहीं लगी।

दिल्ली में जब पार्टी ने हरदेव जी को जवाब दे दिया, मामला चूंकि अस्तित्व बचाने का था, अंग्रेजी साहित्य के इस पोस्टग्रेजुएट को कमीशन एजेंट के रूप में नौकरी करनी पड़ी और जल्दी ही उन्होंने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते स्थिति बदलने लगी। इसके बाद उन्होंने कुछ साथियों के साथ मिलकर चिनार एक्सपोर्ट की स्थापना की जो सोवियत रूस से व्यापार करने वाली अपने समय की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक हो गई थी।

शीला जी ने राजकमल को संभालने के संदर्भ में नामवर सिंह को लेकर अपने लेख में छोटी पर मानीखेज टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा है, ”ऐसे कठिन समय में चमत्कारिक वक्ता और अध्यापक नामवर सिंह ने सलाहकार की जो भूमिका निभाई वह जितनी राजकमल के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई उतनी ही मेरे लिए भी, लेकिन इसके साथ फौरन ही गुटबाजी, व्यक्ति केंद्रित साहित्यिक राजनीति की समस्या खड़ी हो गई…।‘’

यह इस बात का एक तरह से प्रमाण भी है कि नामवर सिंह ने जहां राजकमल का इस्तेमाल हिंदी साहित्य को प्रभावित करने के लिए किया, वहीं दूसरी ओर अपनी आकादमिक स्थिति के चलते हिंदी के पूरे अकादमिक जगत को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

मेरा सौभाग्य

उन दिनों जब शीला जी सूर्य किरण बिल्डिंग में बैठती थीं और उस चिड़िया का नाम प्रकाशन की प्रक्रिया में था, उनसे मिलना हो जाता था। बातों-बातों में एक दिन मैंने उनसे पूछा कि आलोचना इतनी देर से क्यों आती है, तो वह थोड़ा उखड़ गई थीं। बोलीं, मैं नामवर सिंह से कहते-कहते थक गई हूं कि पत्रिका समय पर निकालें पर वह सुनते ही नहीं हैं। साल साल भर देर से निकलने वाली पत्रिका का क्या मतलब है? यह बात सही भी थी। कहने को आलोचना त्रैमासिक थी पर आती साल में एक भी नहीं थी। इसी कारण शीला जी ने 1990 में उसे बंद कर दिया था।

प्रसंगवश आलोचना की स्थापना ओमप्रकाश जी ने ही की थी। बाद में शीला संधू ने भी एक पत्रिका की शुरुआत की जिसका नाम नई कहानियां था और जो अपने समय की चर्चित पत्रिका थी। यह भी याद किया जा सकता है कि कहानी उनकी प्रिय विधाओं में थी ।

उस चिड़िया का नाम मार्च, 1989 में छप कर आ गया था। शायद तीन महीने के अंदर। शीला जी ने मुझे फोन कर प्रति लेने जनपथ होटल के कॉफी शॉप में पहुंचने का आदेश दिया था।

सारी प्रसन्नता के बावजूद में 15-20 मिनट देर से पहुंचा। शीला जी इंतजार कर रहीं थीं। नाराज हुईं। शायद उन्हें लगा हो कि मैं खासा लापरवाह व्यक्ति हूं। पर ऐसा था नहीं। मैं लेट जानबूझ कर नहीं हुआ था। बल्कि उनसे मिलने की मैं 24 घंटे पहले से तैयारी कर रहा था पर ऐन मौके पर न जाने कैसे कहां अटक गया था। एक अजीब किस्म की घबराहट में। हो सकता है उपन्यास के विषय को लेकर मेरे अंदर का द्वंद्व अभी बाकी था। जो छपकर आया था वह किस तरह से समझा जाएगा और मैं किस तरह उसे ‘जस्टिफाई’ करूंगा इस सवाल ने, जब से मुझे शीला जी का निमंत्रण मिला था, कुछ हद तक अस्थिर कर दिया था।

शाम के सवा पांच बज रहे थे। रेस्त्रां का बड़ा सा हाल अभी खाली ही था।

उन्होंने पूछा, ”क्या लोगे?’’

मैं कुछ नहीं बतला पाया।

अंतत: उन्होंने ही कहा, ”सूप चलेगा?’’ मुझे सहमत होने में देर नहीं लगी थी।

आर्डर से निपटने के बाद उन्होंने बगल की कुर्सी पर रखा हुआ रिब्बन से बंधा पैकेट मुझे थमा दिया। मैंने उसे पूरे उत्साह और उत्सुकता से खोला। तब तक मैं नहीं जानता था उसका आवरण कैसा बना होगा। यद्यपि उसका चित्र मैंने ही चुना था जिसे प्रमोद गणपते ने बनाया था। इसके साथ ही हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशक राजकमल के साथ मेरा भी नाम जुड़ गया था। निजी तौर पर देखें तो बड़ी बात थी पर अपने नाम से ज्यादा मैं उस नाम को देखना चाहता था जिसे उपन्यास समर्पित था।

दो पृष्ठ बाद ही लिखा था :

डॉ. ज्योत्स्ना त्रिवेदी के लिए सस्नेह।

पूरे पृष्ठ पर ज्योत्स्ना सूर्य की तरह चमक रही थी।

मैंने प्रसन्न होकर शीला जी को बतलाया था, ”देखिये कैसा संयोग है, आज हमारे विवाह की वर्षगांठ है।‘’

शीला जी जानती थीं कि जिसे उपन्यास समर्पित है वह कौन है।

वह फिर बिगड़ीं, आप अजीब आदमी हैं। आपने पहले बतलाया क्यों नहीं? मान लो किताब कल न आती? या मैं आज न ला पाती तो!

मेरे पास शब्द नहीं थे।

उन्होंने जोड़ा, ”ज्योत्स्ना के लिए कुछ लाती।“

शीला जी ने पर्स खोला और पहले से तैयार एक लिफाफा मुझे थमाते हुए कहा, पत्नी के लिए कुछ खरीदना जरूर।

इसके बाद हम सिर्फ बिल देने के लिए बैठे, जिसे आने में देर नहीं लगी।

देखा जाए तो मुझे सीधे घर जाना चाहिए था। हां, साथ में कुछ लेकर। पर आदत के मुताबिक मैंने मोटर साइकिल में किक मारी और सीधे मोहन सिंह प्लेस के कॉफी हाउस जा पहुंचा था। इच्छा हुई कि देखूं आखिर उन्होंने दिया क्या है? लिफाफे में ढाई हजार रुपए थे।

काफी मैंने उस पैसे से नहीं पी।

सब बातों के बाद

अपनी बात खत्म करने से पहले एक बात और कह देना चाहता हूं, जो मुझे जरूरी लगती है।

जिस तरह के संदर्भ कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में इस स्मरण में आए हैं वे पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन के आंतरिक और वाह्य, दोनों तरह के संकटों की ओर इशारा करते हैं और जिनसे ये पार्टियां आज भी उभरना तो रहा दूर बल्कि और गहरे फंसी नजर आती हैं। उदाहरण स्वरूप जिस तरह से स्वयं शीला जी और उनके पति को, कम्युनिस्ट होने के कारण कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ा, उस सब का वर्णन बहुत संक्षेप में है। बल्कि कहना चाहिए सिर्फ इशारों में है। जैसे कि 1949 में कम्युनिस्टों की धरपकड़ और स्वयं शीला जी का सरकारी नौकरी से हटा दिया जाना, हरदेव जी का बचने के लिए बाल कटा कर मोहन बन अगले दो साल के लिए अंडरग्राउंड हो जाना, शीला जी का चीन का अनुभव और कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन आदि, कई बातें जो उन्हें मालूम थीं और इन का जिक्र भी उन्होंने किया है, पर सब इशारे से।

हरदेव जी और वह कम्युनिस्ट नेताओं के खासा निकट रहे थे। वह कम्युनिस्ट नेताओं से अपने संबंध और सत्ताधारियों से संपर्क के कारण और भी कई बातें जो प्रकाशन और हिंदी जगत से ज्यादा महत्व की हैं, जानती थीं, विशेषकर कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में। आखिर उन्होंने उन पर बात करने की कोशिश क्यों नहीं की होगी? अगर ऐसा हो पाता तो संभवत: भारत में साम्यवाद आज संकट के जिस दौर से गुजर रहा है उसे समझने में कुछ और मदद मिलती।

सन 2020 में जब राजकमल प्रकाशन अपनी स्थापना के 73 वर्ष मना रहा था, शीला जी भी आईं थीं। वह व्हील चेयर में थीं। मैंने झुक कर हाथ जोड़े थे।

उनके चेहरे पर एक मुस्कराहट थी। इस मुस्कराहट का क्या अर्थ हो सकता है, मैं अनुमान लगाने लगा था। हमारी अम्मा को सुनाई नहीं देता था। जब उनसे कोई मिलता अगर वह उसे पहचान नहीं पाती थीं तो प्रत्युत्तर में सिर्फ मुस्करा दिया करती थीं। यद्यपि शीला जी से उनके राजकमल से अलग हो जाने के बाद से यदाकदा ही मुलाकात हो पाती थी, पर जब भी होती, वह मुझे गले लगा लिया करतीं थीं।

अशोक माहेश्वरी ने कहा, “पहचान नहीं पाती हैं।“

साथ में संभवत: उनकी छोटी बेटी थीं। उन्होंने मेरा नाम पूछा और एक पुर्जे में लिखकर शीला जी के सामने कर दिया।

मैं आश्वस्त था, पहचान जाएंगी।

उन्होंने कागज को कुछ क्षण देखा और यथावत मुस्कराती रहीं।

वीमैन हू डेयर्ड (वो साहसी महिलाएं) संग्रह में संकलित अपने लेख ‘क्रास रोड आफ्टर क्रास रोड आफ्टर क्रास रोड’ में उन्होंने उन नए-पुराने लेखकों के नाम गिनवाए हैं, जो उनके कार्यकाल में राजकमल प्रकाशन से जुड़े थे। इनमें आखिरी नाम मेरा है। ऐसा तो है नहीं कि 1989 से अगले पांच साल तक उन्होंने किसी नए लेखक को छापा ही नहीं होगा, पर उन्होंने जिस तरह से मुझे याद रखा, मेरे लिए वह सदा महत्वपूर्ण रहेगा। खैर!

मेरा पहला उपन्यास जिसे उस राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा था, जिसे ओमप्रकाश जी ने राजकमल से निकलने के बाद स्थापित किया, को भी उन के वारिस अरविंद कुमार ने उसी अशोक माहेश्वरी को बेचा था, जिसे अंतत: शीला जी ने राजकमल प्रकाशन सौंपा। जिस उपन्यास लेकिन दरवाजा को न छाप पाने का शीला जी को अफसोस था और जिस के पूरे संस्करण को वह खरीद कर नए सिरे से छापना चाहती थीं अंतत: वह, परोक्ष रूप से ही सही, राजकमल प्रकाशन के पास आ गया था। हार्ड बाउंड न सही उसका पेपर बैक राजकमल ने भी छापा है।

मैं थोड़ी देर वहां खड़ा रहा। मिलने वालों का तांता था।

लगा चूक हो गई है। मुझे शीला जी की बेटी को कहना चाहिए था कि पूरा नाम लिखें पंकज बिष्ट, जो उन्होंने नहीं किया था।

(पंकज बिष्ट चर्चित पत्रिका समयांतर के संपादक हैं।)

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