2024 के लिए बहुजन राजनीति का लक्ष्य और चुनौतियां

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बहुजन राजनीति का लक्ष्य 2024 के चुनाव को लेकर क्या है? यह सवाल करने से पहले यह पूछा जा सकता है कि क्या बहुजन राजनीति की कोई एक पार्टी है? जाहिर है कि इसका जवाब नहीं में है। किसी भी विचारधारा की राजनीति के लिए कोई एक पार्टी नहीं होती है। जैसे जब हम मानते हैं कि हिन्दुत्व की विचारधारा की कोई एक पार्टी नहीं है। बल्कि यह कहा जाए कि चुनाव में शामिल होने वाली पार्टियों के बीच हिन्दुत्व की विचारधारा की प्रतिस्पर्धा चल रही है। इसे हम नरम और गरम हिन्दुत्व में बांटकर आगे की बातचीत के लिए सुविधाजनक रास्ता तैयार करते हैं। लेकिन वैचारिक प्रतिस्पर्धा में नरम-गरम नहीं होता है। यह एक तात्कालिक रणनीति होती है। विचारधारा के स्तर पर हिन्दुत्व का ही विस्तार होता है और हिन्दुत्व के बारे में कई हजार साल पहले से सबको पता है।

बहुजन राजनीति भी एक विचारधारा की राजनीति है। इसकी वाहक होने का दावा अपने स्तर पर कई पार्टियां करती हैं। लेकिन इनकी पहचान कैसे की जा सकती है। क्या केवल सत्ता के नेतृत्व के आधार पर यह पहचान की जा सकती है? मसलन राजस्थान में अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पिछड़े वर्ग की है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की यही पृष्ठभूमि है  लेकिन दोनों कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं। कांग्रेस ने कर्नाटक में भी इसी वर्ग के बीच से मुख्यमंत्री बनाया है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमि है लेकिन वे भाजपा से हैं।

बिहार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, और वामदलों के समर्थन से पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमि के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री है जो उनकी अपनी उपलब्धि है। वे भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर भी सरकार बनाते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव हैं और दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी की मायावती हैं। इसके अलावा बिहार की तरह उतर प्रदेश में कई ऐसी पार्टियां हैं जो कि किसी एक या दो पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों के बीच अपना आधार बनाकर इधर-उधर के चुनावी गठबंधन का हिस्सा बनना चाहती हैं। मसलन बिहार में जीतन राम मांझी की पार्टी से बात शुरू करें तो उनका नाता बिहार में सत्तारुढ़ गठबंधन से टूट गया है और अब वे भारतीय जनता पार्टी वाले गठबंधन से जुड़ गए हैं।

बहुजन राजनीति के सामने दो प्रमुख सवाल हैं। क्या बहुजन पार्टियां भी हिन्दुत्व की प्रतिस्पर्धा में शामिल हैं? दूसरा सवाल यह हो सकता है कि बहुजन विचारधारा का इस्तेमाल बहुजन समाज की विभिन्न घटक जातियों को हिन्दुत्ववादी के रूप में तैयार करने के लिए किया जा रहा है? या फिर बहुजन विचारधारा में आगे निकलने की एक प्रतिस्पर्धा इन पार्टियों के बीच चल रही है?

बहुजन की भावनाओं को छूने वाली शब्दावली और प्रतीक चिन्हों के इस्तेमाल के आधार पर यह मूल्यांकन करना बेमानी है कि कौन सी पार्टी या पार्टियों का गठबंधन बहुजन राजनीति के करीब है। क्योंकि इससे बहुजन राजनीति के भविष्य का रास्ता ठोस रूप में आकार नहीं लेता है बल्कि भ्रमित हो जाता है। ठोस नीतियों के लिए दबाव महसूस करने वाली राजनीति के आधार पर बहुजन राजनीति की बेहतरी की उम्मीद भर की जा सकती है।

पहला तो यह कि वह हिन्दुत्व की प्रतिस्पर्धा की राजनीति के दबाव से मुक्त होने को अपना लक्ष्य माने। क्योंकि यह समझना जरूरी है कि बहुजन विचारधारा की एक राजनीतिक विचारधारा है जिसमें यह पाते हैं कि उसने वर्चस्व की राजनीति के खिलाफ एक संस्कृति का निर्माण किया है। हिन्दुत्व की राजनीति इसी संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करती है और इसके लिए भावनात्मक शोषण के उद्देश्य से शब्दावली और प्रतीक चिन्हों का भरपूर इस्तेमाल करती है। उसका सबसे बड़ा हथियार बहुजन बनाम जाति यानी बहुजनों के बीच जातिवादी इंजीनियरिंग का इस्तेमाल करना होता है।

बहुजन राजनीति की विचारधारा राजनीतिक पार्टियों के बीच एक ठोस प्रतिस्पर्धा खड़ी कर सकती है, यह आत्मविश्वास सबसे पहले जरूरी है। इसकी ठोस अभिव्यक्ति देखनी है तो जाति आधारित गणना के मुद्दे को देख सकते हैं। यह एक ऐसे मुद्दे के रूप में उभरकर आया है कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर लगभग सभी पार्टियां इसका समर्थन करने के लिए दबाव महसूस करती हैं। राहुल गांधी के नेत़ृत्व वाले कांग्रेस के धड़े ने तो अपनी पार्टी के भीतर इस मुद्दे को पूरी तरह से स्थापित कर दिया है। कर्नाटक की जीत में जाति गणना के समर्थन की अहम भूमिका है।

निजीकरण की नीति का विरोध और आरक्षण को बनाए रखने के लिए सरकारी सेवाओं के विस्तार के लिए बहुजन राजनीति का स्वर तेज हुआ है। पुरानी पेंशन की नीति ने मौजूदा बहुजन राजनीति की यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान नई पेंशन नीति लागू कर दी गई। इसका दूरगामी असर बहुजन राजनीति पर दिखाई देने लगा है। कई ऐसे और मुद्दे हैं जो कि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर बहुजन राजनीति को मजबूती दे सकते हैं।

उपरोक्त सीमित मुद्दों को प्रस्तुत करने का मकसद यह है कि बहुजन राजनीति के सहयात्री के रूप में आर्थिक, सामाजिक मुद्दों की पहचान की जा सके। मसलन जाति जनगणना इस संसदीय वैचारिकी में समानता की पक्षधरता के लिए है। यानी अल्पमत का बहुमत पर शासन नहीं होना चाहिए। विकेन्द्रीकरण का ढांचा ही बहुजन राजनीति के अनुकूल हो सकता है। वरना अल्पमत एक मजबूत केन्द्र बनाकर बहुमतों के बीच आंतरिक विवाद और संघर्ष पैदा करने की मशीन तैयार करने में ही व्यस्त बना रहता है। वह समाज निर्माण की जिम्मेदारी से अलग हो जाता है। समानता की संस्कृति को विकसित करने वाले हर मुद्दे बहुजन राजनीति के लिए महत्वपूर्ण हैं।

दूसरा वंचितों के लिए ठोस सशक्तिकरण की नीतियां तैयार करें। उनके लिए अवसरों में लगातार विस्तार करने की संभावना मौजूद हो। वित्तीय पूंजी बनाम श्रम के बीच बहुजन राजनीति की पक्षधरता श्रमिकों और उनके अधिकारों के प्रति मजबूत होनी चाहिए। मसलन तमिलनाडु में वित्तीय पूंजी का दबाव रहा है कि श्रमिकों के काम के घंटे बढ़ाकर 12 कर दिए जाएं। लेकिन यह बहुजन राजनीति का दबाव था कि द्रमुक सरकार को अपना यह इरादा बदलना पड़ा। दरअसल बहुजन के पक्ष में दबाव मूलक स्थितियां ही तैयार करना 2024 के चुनाव में बहुजन राजनीति का लक्ष्य हो सकता है।

इसके लिए बहुजन राजनीति के लिए सबसे पहले विचारधारात्मक स्तर पर यह जरूरी है कि वह धर्मनिरपेक्षता के अपने मूल रास्ते पर खड़ी दिखने लगे। उसमें भटकाव की तनिक भी आशंका नहीं हो। क्योंकि जिस तरह से बहुजन राजनीति की घटक जातियों के बीच जातिवाद के इंजीनियरिंग का इस्तेमाल होता है जिन्हें हम साधारणत: सोशल इंजीनियरिंग कहते हैं, उस सोशल इंजीनियरिंग का विस्तार भी है। वह कोई छोटा मोटा पेचकस नहीं है जिससे चुनाव में काम चलाने के लिए एक जाति से दूसरी जाति को कसने की कोशिश की जाती है।

वह विवाद और विभाजन की संस्कृति का प्रदूषण फैलाने की मशीन है। वह जातिवाद की तरह धर्म का इस्तेमाल भी करती है। जैसे छत्तीसगढ़ से लेकर मणिपुर तक में धर्म का इस्तेमाल एक ही समुदाय या उत्पीड़न और उपेक्षा के शिकार रहे समुदायों के बीच किया जा रहा है। झारखंड में भी उसकी शुरुआत हुई है। तो क्या यह अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के बीच नहीं कराई जा सकती है? इसकी एक पृष्ठभूमि तैयार है। 2024 के चुनाव से पहले इसके खतरे सतह पर दिखने लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

बहुजन राजनीति के सामने जो चुनौतियां हैं, उसमें बहुजन राजनीति के कई पार्टीगत नेताओं व उनके परिवारजनों को व्यक्तिगत तौर पर नुकसान होने की आशंका हो सकती है। यह भी हो सकता है कि कई नेतृत्व चुनावी राजनीति की पृष्ठभूमि में सरक जाएं लेकिन बहुजन राजनीति का जो दबाव संसदीय राजनीति के अंदर बना हुआ है, उसे मजबूत करना बहुजन राजनीति का लक्ष्य होना चाहिए और यही 2024 का भी लक्ष्य होना चाहिए। 

(अनिल चमड़िया वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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