दुनिया का हर लोकतांत्रिक देश अपने संसद भवन पर गर्व करता है। इसलिए नहीं कि उसे वह बिल्डिंग देश की सबसे अच्छी बिल्डिंग लगती है। किसी अच्छी बिल्डिंग पर लोग मुग्ध होते हैं। पर अपनी संसद या पार्लियामेंट की बिल्डिंग पर लोग गर्व करते हैं। क्योंकि वह बिल्डिंग महज़ ईंट-गारे और पत्थरों की संरचना मात्र नहीं होती, वह लोगों की आकांक्षाओं, विश्वासों और आशाओं का प्रतीक बन जाती है।
संसदीय लोकतंत्र में जनता के बाद सबसे शक्तिशाली संरचना या इकाई संसद है। शायद इसीलिए दुनिया के ज़्यादातर लोकतांत्रिक देशों ने अपने पार्लियामेंट की पुरानी और बहुत पुरानी बिल्डिगों को कभी नाकाफ़ी समझकर छोड़ा नहीं। उसकी जगह नयी पार्लियामेंट बनाने का फ़ैसला नहीं किया। भीषण अग्निकांड या किसी अन्य क़िस्म की तबाही के चलते ही कुछेक मुल्कों में पुरानी बिल्डिगों में कुछ फेरबदल या सुधार किये गये। लेकिन अपने भारत के मौजूदा सत्ताधारियों ने सरकार में आने के साथ ही नयी पार्लियामेंट बिल्डिंग बनाने का मन बना लिया था। इतिहास पर अपनी छाप छोड़ने के लिए उन्होंने ऐसा करना ज़रूरी समझा। महज़ संयोग नहीं कि उन्होंने विवादास्पद हिन्दुत्ववादी नेता वी डी सावरकर की जयंती के दिन नयी बिल्डिंग का उद्घाटन कराया।
संसद की पुरानी बिल्डिंग के छोटा होने या निकट भविष्य में लोकसभा-राज्यसभा के बैठक-कक्षों में सीटों की संख्या बढ़ाये जाने की ज़रूरत पड़ने पर संकट की स्थिति पैदा होने की बातें पूरी तरह अनर्गल हैं। दोनों बैठक-कक्षों के गलियारों को समेटकर और उनमें सांसदों के बैठने की व्यवस्था को स्मार्ट और आधुनिक बनाकर सीटों की संख्या आसानी से बढ़ाई जा सकती थी। पर हमारे यहां ऐसा नहीं किया गया। 1927 में बनकर तैयार हुई संसद की इमारत को छोड़कर नयी इमारत तैयार कराई गई। ब्रिटेन, डेनमार्क, फ़्रांस सहित दुनिया के अधिकतर देशों की पार्लियामेंट बिल्डिंगें डेढ़ सौ से तीन सौ साल पुरानी हो चुकी हैं। पर किसी ने अपने लिए नयी बिल्डिंग नहीं बनवाई। उन्होंने विरासत को सहेज कर रखा है। समय-समय पर उनकी मरम्मत होती है।
पर हमारी सरकार ने काफ़ी रक़म खर्च करके नयी बिल्डिंग बना ली। अभी तक इस पर हुए कुल खर्च का आधिकारिक आंकड़ा भी नहीं आया। पर माना जा रहा है कि इस पर तक़रीबन 1000 करोड़ से ज़्यादा खर्च हुए। स्थापत्यविदों की छोड़िये किसी आम आदमी से भी पूछें तो वह कहेगा कि संसद की पुरानी गोलाकार बिल्डिंग के सामने संसद की यह तिकोनी बिल्डिंग बिल्कुल अनाकर्षक लगती है।
नयी बिल्डिंग में बस एक ही नयी बात है कि यह सेंगोल वाली संसद हो गयी है। तेईस चौबीस सौ साल पुराने एक राजशाही-ब्राह्मणी प्रतीक को इसमें प्रमुखता से जगह दी गई है। यह प्रतीक है-एक सुनहले राजदंड का जो तमिलनाडु के पुराने चोल वंशीय राजाओं के बीच सत्ता के हस्तांतरण के दौरान उपयोग में लाया जाता था। सन् 1947 में आज़ादी के दिन से ऐन पहले 14 अगस्त को इस सेंगोल को तमिलनाडु से आये पुजारियों और ब्राह्मणों के झुंड ने जवाहरलाल नेहरू को उनके 17 यार्क रोड स्थित घर जाकर पेश किया था। जवाहर लाल नेहरू की जगह डॉ. बी आर अम्बेडकर होते तो निश्चय ही इस राजशाही के ब्राह्मणी राजदंड के ब्राह्मणवादी को वह नहीं स्वीकार करते।
बहरहाल, नेहरू ने अपने घर पर इन पंडित-पुजारियों को मिलने का वक्त दिया। लेकिन सेंगोल उपहार को उन्होंने जल्दी ही शासकीय संग्रहालय को सौंप दिया। संसद भवन या 14-15 अगस्त के किसी आधिकारिक समारोह में उसको कभी स्थापित करने या लाये जाने का कोई सवाल नहीं था। नेहरू की इस सतर्कता के बावजूद तमिलनाडु के द्रविड़ नेताओं ने सेंगोल को निजी तौर पर भी एक उपहार के तौर पर लेने के नेहरू के फ़ैसले की तीखी आलोचना की थी।
आज उस सेंगोल को मोदी सरकार ने विपक्षी दलों और जनता के भारी विरोध के बावजूद बीते 28 अगस्त को लोकसभा के कक्ष में स्थापित कर दिया। मोदी सरकार का यह कदम संसदीय परम्परा से विच्छेद है। ऐसे मामलों में संपूर्ण विपक्ष की व्यापक सहमति की ज़रूरत थी या फिर सदन की राय से लिया जाता। इन दोनों में किसी का भी पालन नहीं हुआ। जैसा आरएसएस ने चाहा मोदी सरकार ने वैसा किया। जिस तरह नयी बिल्डिंग के उद्घाटन के सवाल पर दोनों पक्षों में मतभेद रहे, उसी तरह सेंगोल पर भी रहे। विपक्ष के सभी प्रमुख दलों ने इसीलिए उद्घाटन सत्र का बहिष्कार किया।
दो अन्य बड़ी घटनाओं से संसद की नयी बिल्डिंग की शुरुआत ही विवादों और टकरावों के बीच समा गयी। इस बिल्डिंग के इतिहास में ये दोनों भयानक घटनाएं दर्ज हो गयीं। पहली घटना है संसद की नयी बिल्डिंग के उद्घाटन के दिन ही भारत की श्रेष्ठतम महिला पहलवानों साक्षी मलिक और विगेश फ़ोगाट आदि का बेहद क्रूर तरीक़े से पुलिस हिरासत में लिया जाना और दूसरी घटना है मणिपुर में भयानक हिंसा और उपद्रव, जिसके लिए वहां और केंद्र के शासन को सीधा ज़िम्मेदार ठहराया गया।
महिला पहलवानों के साथ यौन अपराध के आरोपी भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह उस दिन नयी संसद में चहक रहे थे और शासन उनकी गिरफ़्तारी की मांग करने वाली भारत की ओलम्पिक विजेता पहलवानों के साथ बेहद नृशंसता से पेश आ रहा था। संसद में नये-नये स्थापित हुए राजसी-ब्राह्मणी राजदंड की पारम्परिक क्रूरता का पहला प्रदर्शन देश की राजधानी दिल्ली से पूर्वोत्तर के मणिपुर तक देखा गया।
यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद की नयी बिल्डिंग की शुरुआत विवादों-टकरावों से भरी है। निश्चय ही आरएसएस-भाजपा के इच्छित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का रास्ता निरापद नहीं दिखता। विवादों के साथ वह समाज के बड़े हिस्से के भारी प्रतिरोध के चलते आसान नहीं होगा। दक्षिण और पूर्वोत्तर भारत उसे हरगिज़ स्वीकार नहीं करेगा। उत्तर और मध्य के राज्यों में हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों और सेक्युलर भारत के पैरोकारों के बीच राजनीतिक टकराव जारी रहेगा। मौजूदा सत्ता या भविष्य की किसी भी सरकार को अगर इस खूबसूरत देश को गृहयुद्ध की आशंका से बचाना है तो उन्हें हर क़ीमत पर संवैधानिक लोकतंत्र को बरकरार रखने की प्रतिबद्धता दिखानी होगी।
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं।)
+ There are no comments
Add yours