Friday, September 22, 2023

नाजी एसएस से प्रेरणा लेने वाले आरएसएस के गेम प्लान का हिस्सा है अग्निपथ योजना?

संसदीय शासन में व्याप्त दुर्गुणों के चलते जनता में असंतोष फैल जाता है। लोग इस व्यवस्था को समाप्त करना चाहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का विश्वास घटने से तानाशाही के लिए रास्ता साफ हो जाता है, जर्मनों के साथ भी यही हुआ। संसदीय शासन प्रणाली में उनका विश्वास समाप्त होने तथा प्रथम विश्व युद्ध के बाद गठित लीग ऑफ नेशंस द्वारा उस युद्ध के लिए जर्मनी को दंडित किये जाने से बुरी तरह तबाही झेल रहे जर्मनी की दशा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1914 में विश्व युद्ध शुरू होते समय एक डॉलर 4.2 मार्क के बराबर था जो 1918 में 60 मार्क, नवम्बर 1922 में 700 मार्क, जुलाई 1923 में एक लाख 60 हजार मार्क तथा नवम्बर 1923 में एक डॉलर 25 ख़रब 20 अरब मार्क के बराबर हो गया। अर्थात जर्मन मुद्रा मार्क लगभग शून्य हो गई जिससे मंदी, महंगाई और बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया। उस समय चुनी हुई सरकार के लोग विलासितापूर्ण जीवन बिता रहे थे परन्तु उन्हें देश की समस्याएं हल करने का न तो ज्ञान था और न ही बहुत चिंता थी। ऐसे समय में हिटलर ने अपने जोरदार भाषणों से जनता को समस्याएं हल करने का पूरा भरोसा दिलाया और जर्मनों ने हिटलर का साथ देना शुरू किया।

हिटलर के 1933 में जर्मनी का चांसलर बनने के बाद उसकी पार्टी की बड़ी तेजी से सत्ता पर पकड़ मजबूत होती गई और उसने संसद को भंग कर उसकी सारी शक्तियां अपने हाथों में केन्द्रित कर लीं। उसे साम्यवादियों और यहूदियों से अत्यधिक घृणा थी। इसीलिए उसने साम्यवादी दल को गैरकानूनी घोषित कर दिया अन्य सभी राजनीतिक दलों को बर्खास्त कर राजनीतिक विरोधियों को जेल में बंद कर दिया या उन्हें मार डाला। 

इसके साथ ही उसकी ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन लेबर पार्टी’ (NSDAP) का जर्मनी पर पूरा नियंत्रण हो गया। जिसका जर्मन में संक्षिप्त नाम ‘नाज़ी पार्टी’ है। हिटलर द्वारा प्रतिपादित इसके सिद्धांत ही नाज़ीवाद कहलाते हैं। जर्मनी में राज्य का अर्थ था हिटलर। वह देश, शासन, धर्म सभी का प्रमुख था। हिटलर को सच्चा देवदूत कहा जाता था। 

उसने एक राष्ट्र, एक दल, एक नेता का सिद्धांत बड़ी क्रूरतापूर्वक लागू किया। उसके विरोध का अर्थ था-मौत। उसके विशेष रूप से गठित शूल्ज स्टेफल (एस.एस.) के प्रशिक्षित कमांडो तो साक्षात मृत्युदूत ही थे जो चुन-चुन कर विरोधियों को मारने तथा आतंक फ़ैलाने के काम करते थे। 

नाजियों का एक ही नारा था कि व्यक्ति कुछ नहीं है, राष्ट्र ही सब कुछ है। अतः व्यक्ति को अपने सभी हित राष्ट्र के लिए बलिदान कर देने चाहिए। उस समय मित्र देशों के चंगुल से जर्मनी को मुक्त करने के लिए यह भावना आवश्यक भी थी; परन्तु नाजियों ने इसका विस्तार शिक्षा, धर्म, साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान, मनोरंजन, अर्थ-व्यवस्था आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर दिया था। इससे सभी नागरिक नाज़ियों के हाथों की कठपुतली बन गए थे।

नाज़ी मानते थे कि व्यक्ति अपनी बुद्धि से नहीं बल्कि भावनाओं से कार्य करता है। इसलिए अधिकांश पढ़े-लिखे और सुशिक्षित व्यक्ति भी मूर्ख होते हैं। उनमें निष्पक्ष होकर विचार करने की क्षमता नहीं होती। वे भावनाओं तथा पूर्व-निर्मित अवधारणाओं के आधार पर कार्य करते हैं और अपने निजी मामलों में भी सही-सही सोच-विचार नहीं करते हैं। इसलिए उनको वश में करके जनता से बड़े से बड़े झूठ को भी सत्य मनवाया जा सकता है। यहां सोचिए कि आरएसएस द्वारा प्रचारित ‘भारत का बंटवारा कांग्रेस ने करवाया’ और मोदी द्वारा ’70 साल में कुछ भी नहीं किया गया’ कहना ये दो ऐसे ही सफेद झूठ हैं जिस पर लोग तालियां बजाकर समर्थन करते हैं।

हिटलर का विचार था कि शक्तिशाली राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को चिंतनशील और बुद्धिमान बनाने के स्थान पर उन्हें काठ का उल्लू बनाया जाना चाहिए। अधिकांश व्यक्ति बुद्धिहीन, विवेकशून्य, मूर्ख, कायर और निकम्मे होते हैं जो अपना हित नहीं सोच सकते हैं। ऐसे लोगों का शासन कुछ चतुर लोगों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए।

क्या उपरोक्त दोनों महाझूठ हिटलर की हूबहू तर्ज पर लोगों को काठ का उल्लू समझने और बनाने वाले ही नहीं हैं?

हिटलर और उसके साथियों का विचार था कि लोगों को तर्कपूर्ण दर्शन के बजाय परंपरा पर आधारित नैतिक, शारीरिक तथा औद्योगिक शिक्षा देनी चाहिए। उच्च शिक्षा केवल राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा रखने वाले प्रजातीय दृष्टि से शुद्ध जर्मनों को ही दी जानी चाहिए। नेताओं को भी उतना ही बुद्धिवादी होना चाहिए कि वे जनता की मूर्खता से लाभ उठा सकें और अपने स्वतंत्र कार्यक्रम बना सकें। 

इस तरह व्यापक बौद्धिक जड़वाद से नाज़ियों ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले और धुर राष्ट्रवाद तथा जातीय श्रेष्ठता पर आधारित अपनी पृथक राजनीतिक विचारधारा स्थापित की।

कसाई, हिटलर के वेश में

हिटलर द्वारा यहूदियों और कम्युनिस्टों के खिलाफ घृणा अभियान चलाकर जर्मनी की सत्ता पर काबिज़ होने के बाद उसके नाजी सैनिकों ने 1939 में परीक्षण के तौर पर यहूदी मानसिक रोगियों और उनकी नर्सों को मारा। इस काम को अंजाम देने का जिम्मा नाजी जर्मनी के अर्द्धसैनिक संगठन शूल्ज स्टेफल (एस.एस.) को दिया गया था। इस संगठन के लोगों ने सबसे पहले अस्पतालों से मनोरोगियों का अपहरण कर उन्हें कंसंट्रेशन कैम्प में रखा। इन लोगों ने 1940 तक 5000 से ज्यादा रोगियों और सैकड़ों की संख्या में पोलिश नर्सों को मार डाला। 

इस नरसंहार के बाद 4 और 6 अक्टूबर, 1943 को नाजी खुफिया सेना के प्रमुख और इस भीषण नरसंहार के योजनाकार हाइनरिख हिमलर ने एस.एस. अधिकारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं की एक बैठक में कहा था कि यह नरसंहार नाजियों का ऐतिहासिक मिशन है। उसने यहूदियों को ‍’डीसेंट मेन’ बताते हुए कहा कि ‘अगर यहूदी जर्मन राष्ट्र का हिस्सा बने रहे तो हम फिर से वैसी ही स्थिति में आ जाएंगे जैसे कि 1916-17 में थे।’ 

तीन वर्षों के बाद नाज़ियों ने लाखों की संख्या में यहूदियों के अलावा सत्ता विरोधियों तथा बुद्धिजीवियों को पकड़ कर यातना शिविरों (कन्संट्रेशन कैम्पों) में डालकर विशेष रूप से बनाए गए गैस चैम्बर्स में मौत के घाट उतार दिया। लोकतांत्रिक व्यवस्था को हिटलर पहले ही ध्वस्त कर चुका था तो उसके इस अमानवीय कृत्य का सिलसिला बेरोकटोक जारी रहा और साठ लाख यहूदियों के अलावा लाखों विरोधियों, बुद्धिजीवियों और वामपंथियों की हत्या कर दी गई। इस तरह 1945 तक यूरोप की दो तिहाई यहूदी आबादी का खात्मा कर दिया गया।

नाज़ीवाद का आधार

हिटलर से 11 वर्ष पूर्व इटली का प्रधानमंत्री बैनिटो मुसोलिनी भी अपने फ़ासीवादी विचारों के साथ तानाशाही शासन चला रहा था। ये दोनों विचारधाराएं समग्र अधिकारवादी, अधिनायकवादी, उग्र सैन्यवादी, साम्राज्यवादी, शक्ति व प्रबल हिंसा तथा राष्ट्रीय समाजवाद की कट्टर समर्थक और इसके विपरीत लोकतंत्र, उदारवाद, व्यक्ति की समानता, स्वतंत्रता एवं मानवीयता की पूर्ण विरोधी हैं। 

आरएसएस के प्रेरणास्रोत फासिस्ट और नाज़ी

संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के राजनीतिक गुरु बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने 1931 के लंदन गोलमेज सम्मेलन में हिंदू महासभा के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के बाद फरवरी से मार्च 1931 तक यूरोप का भ्रमण किया। उन्होंने 15 मार्च से 24 मार्च तक इटली में रुककर फासीवादी दर्शन की नींव रखने वाले प्रधानमंत्री बेनिटो मुसोलिनी से मुलाकात की। 

मुंजे ने इटली में फासीवादी युवाओं के प्रशिक्षण केन्द्र एकेडेमिया डियेला फ़ार्नेसिना, अनेक सैन्य स्कूलों व शैक्षणिक संस्थानों को देखा। उन्होंने इटली में 1926 से 1937 के बीच सक्रिय रहे 18 से 21 वर्ष की आयु वाले इतालवी फासीवादी युवाओं के संगठन ओपेरा नाज़ियोनेल बलीला को भी देखा और इन सबकी कार्यप्रणाली का अध्ययन किया। 

ओपेरा नाज़ियोनेल बलीला (ओएनबी) एक इतालवी फासीवादी युवा संगठन था जिसे ‘ब्लैक शर्ट्स’ भी कहा जाता था। इसे कानून द्वारा 1926 में राष्ट्रीय शिक्षा मंत्रालय के नियंत्रण में एक संस्था के रूप में स्थापित किया गया था। प्रारंभ में इसकी सदस्यता स्वैच्छिक थी लेकिन बाद में इसे 6 से 18 वर्ष की आयु के लड़कों और लड़कियों के बीच अनिवार्य कर दिया गया। ओएनबी सदस्यों को सैन्य विज्ञान और इतालवी इतिहास का अध्ययन कराया जाता था। उसके बाद 1936 में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए एक प्री-बलीला किंडरगार्टन स्थापित किया गया। 

ओपेरा नाज़ियोनेल बलीला का उद्देश्य फासीवादी संदेश के साथ-साथ बच्चों व तरुणों को स्कूली शिक्षा के बाद प्रौद्योगिकी, कानून या लड़कियों के लिए घर और परिवार से सम्बंधित शिक्षा देना था। यह फासीवादी शासन द्वारा युवाओं के स्वदेशीकरण और सैन्यीकरण के लिए गठित इटालियन राष्ट्रवाद और फासीवाद के संदेश के साथ युवाओं को इतालवी सेना में ‘भविष्य के फासीवादियों’ के रूप में प्रशिक्षण देने वाला एक अर्द्धसैनिक संगठन था। बाद में इसे नेशनल फ़ासीवादी पार्टी के युवा वर्ग Giovent the Italiana del Littorio में समाहित कर लिया गया। जिसकी खूब प्रशंसा बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने भारत लौटकर की।

उन्होंने अपनी डायरी में अपनी इटली यात्रा के दो विशेष अवसरों का उल्लेख किया है जो उन्हें सबसे अधिक आकर्षित व चकित करते थे। पहला, इतालवी फासीवादी तानाशाह मुसोलिनी के साथ उनकी मुलाकात और दूसरा युवाओं को ‘कल के फासीवादी’ के रूप में प्रशिक्षण देने वाले फासीवादी शासन के संगठनों जैसे सेंट्रल मिलिट्री स्कूल ऑफ फिजिकल एजुकेशन, फासिस्ट एकेडमी ऑफ फिजिकल एजुकेशन और सबसे उल्लेखनीय बल्लीला और अवांगार्डिस्टी ऑर्गेनिस्टिन’ का। 

मुसोलिनी के साथ अपनी व्यक्तिगत मुलाकात में वे एक तरह से सम्मोहित हो गए थे। तानाशाह से मिलने पर उसके प्रति सम्मान, श्रद्धा तथा उनके पुलकित होने का अंदाजा उनकी निजी डायरी में इस घटना के बारे में उनके खुद के बयान से लगाया जा सकता है। वे कितनी खुशी से लिखते हैं, “मैंने उनसे हाथ मिलाया और कहा कि मैं डॉ. मुंजे हूं। वे मेरे बारे में सब कुछ जानते थे।”

मुंजे ने फासीवादी संचालित स्कूलों और कॉलेजों का दौरा भारत में अपने स्वयं के प्रचार के लिए कुछ मूल्यवान चीजें प्राप्त करने की उच्च आशा के साथ किया। इन फासीवादी संस्थाओं ने भी उन्हें निराश नहीं किया। वे उनकी दृष्टि और कार्य से बहुत संतुष्ट और गहराई से प्रभावित थे। उन्होंने अपनी भावनाओं को अपनी डायरी में इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘बल्लीला संस्थाओं और पूरे संगठन की अवधारणा ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया है…। इटली के सैन्य उत्थान के लिए मुसोलिनी द्वारा पूरे विचार की कल्पना की गई है। इटालियंस स्वभाव से भारतीयों की तरह सहज प्रेमी और गैर-मार्शल दिखाई देते हैं…। भारत और विशेष रूप से हिंदू भारत को कुछ ऐसे संस्थानों की आवश्यकता है।’ 

वे युवाओं की शिक्षा और सैन्यीकरण की फासीवादी पद्धति से इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने कसम खाई थी, “मैं अपना शेष जीवन पूरे महाराष्ट्र और अन्य प्रांतों में डॉ. हेडगेवार की इस संस्था के विकास और विस्तार में बिताऊंगा।”

फासीवादी शासन ने अपने शत्रु राष्ट्रों के खिलाफ अपने शासन की रक्षा करने के निर्धारित उद्देश्य के साथ सैन्यीकरण और स्वदेशीकरण का तरीका अपनाया था। लेकिन किसी को आश्चर्य हो सकता है कि मुंजे को फासीवाद से इतना लगाव क्यों था? न कि अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए! तो क्यों?

मुंजे ने अपना वादा निभाया और भारत लौटने पर उन्होंने इटली में देखे गए फासीवादी संगठनों की पद्धति पर संस्थानों की स्थापना और मौजूदा लोगों के पुनर्निर्माण के लिए जोरदार अभियान शुरू किया। उनके मित्र केशव बलिराम हेडगेवार ने इस कार्य में उनके साथ उत्साहपूर्वक भाग लिया।

हिंदू युवाओं को सैन्यीकरण की आवश्यकता क्यों पड़ी? मुंजे और उसके साथी किसे दुश्मन मानते थे? हिंदू युवकों को लामबंद करने के लिए उनके मन में कौन-से विचार भरने थे?

कसाई की भूमिका में मुंजे

सैन्य प्रशिक्षण के उद्देश्य को स्वयं मुंजे ने रेखांकित किया था। उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य हमारे लड़कों को ‘प्रतिकूलों’ के लिए यथासंभव मृतकों और घायलों की सर्वोत्तम संभव संख्या में मारने के लिए प्रशिक्षित करना और हिंदुओं के सैन्य उत्थान तथा हिंदू युवाओं को पूरी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार करना है। (अपनी मातृभूमि की रक्षा—एनएमएमएल, मुंजे पेपर्स)। 

मुंजे के विचार से लड़कों को विरोधी, ‘आंतरिक’ और ‘बाहरी’ के रूप में वर्गीकृत करने तथा ‘प्रतिकूल’ लोगों को सटीकता के साथ मारने की कला का ज्ञान होना चाहिए (इसे फिर से पढ़िए)।

मुंजे के अनुसार ‘अपनी’ मातृभूमि यानी भारत की रक्षा की ‘पूरी जिम्मेदारी’ हिंदुओं के कंधों पर है। सैन्यीकरण के उद्देश्य के बारे में उनका विवरण ऊपर दिए गए दूसरे प्रश्न के उत्तर को सूक्ष्मता से प्रकट करता है। भारत केवल हिंदुओं और हिंदुओं का है। इसलिए इसके बचाव की जिम्मेदारी हिंदुओं पर है। भारत में रहने वाला हर दूसरा समुदाय प्रमुख रूप से भारत के लिए विदेशी और ‘आंतरिक दुश्मन’ है। वे हिंदुओं के लिए खतरा हैं क्योंकि उनके विचार, मूल्य और संस्कृतियां हिंदुओं के अनुरूप नहीं हैं। वे प्रमुख संस्कृति में अपने मूल्यों और संस्कृतियों को शामिल करने का विरोध और इनकार करते हैं।

मुंजे और उनके साथियों के मुताबिक हिंदू भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसे मूर्त रूप देते हैं। भारत हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है और उनका प्रतीक है। इस अंतर्सम्बंध के कमजोर पड़ने को भारत और हिंदुओं के लिए खतरा माना जाना चाहिए। इस खतरे के कारक तत्वों को भारत के दुश्मन के रूप में मानते हुए उसी के अनुसार निपटा जाना चाहिए। उनके द्वारा कल्पित ‘दुश्मनों’ या ‘आंतरिक खतरनाक तत्वों’ में मुस्लिम, ईसाई, कम्युनिस्ट और कांग्रेस शामिल हैं। जैसा कि माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में पारिभाषित किया है और मुंजे ने हिंदू युवाओं को ‘अपनी’ मातृभूमि की रक्षा करने और सामूहिक हत्याओं को करने के लिए प्रशिक्षित करने की ज़रूरत बताई है। 

बालकृष्ण शिवराम मुंजे के अनुसार युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण के साथ-साथ ‘अपनी मातृभूमि के दुश्मनों’ से बचाव के लिए मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से भी तैयार किया जाना था। मानसिक तैयारी में भावनाओं को जगाना और युवाओं में यह चेतना जगाना शामिल था कि हिंदुओं का भारत पर, उनकी मातृभूमि पर विशेष अधिकार है और बाकी सभी या तो विदेशी हैं या आक्रामक। 

विनायक दामोदर सावरकर की ‘एसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व’ को यहां संदर्भित किया जा सकता है, जिसे हिंदुत्व की विचारधारा को समझने की इच्छा रखने वाले के लिए एक प्रमुख और अवश्य पढ़ा जाने वाला माना जाता है। सावरकर के मतानुसार चूंकि हिंदू ही भारत के निर्माता और संस्थापक हैं, इसलिए उनके पास भारत के सम्बंध में ‘सर्वाधिकार सुरक्षित’ हैं।

क्या अग्निपथ योजना आरएसएस के स्वयंसेवकों के लिए लाई गई है?

फासीवाद से बहुत गहराई तक प्रभावित मुंजे ने सन 1934 में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य मातृभूमि की रक्षा के लिए युवा हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देना और उन्हें ‘सनातन धर्म’ की शिक्षा देना था। मुंजे की योजना को ध्यान में रखते हुए भारतीय सेना के हिंदूकरण के उद्देश्य से नासिक में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी द्वारा 1935 में भोंसला मिलिट्री स्कूल की स्थापना की गई। महाराष्ट्र स्टेट बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एंड हायर सेकेंडरी एजुकेशन (MSBSHSE) से संबद्ध इस विद्यालय का प्रबंधन आज भी सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी द्वारा किया जाता है।

इसके बाद भी जब आरएसएस को अपने लक्ष्य की पूर्ति होती दिखाई नहीं दी तो उसने अपने चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के नाम पर बुलंदशहर (उप्र.) स्थित शिकारपुर के गांव खंडवाया में वर्ष 2018 में आवासीय सैनिक स्कूल की स्थापना की। सीबीएसई बोर्ड के पाठ्यक्रम पर चलने वाले इस विद्यालय में 12 वर्ष के बच्चों को 6ठीं कक्षा में भर्ती कर 12वीं तक की शिक्षा दी जाती है। यहां छात्रों को एनडीए और नेवल एकेडमी के अलावा सेना में 10+2 टेक्निकल परीक्षा के लिए भी तैयार किया जाता है। 

आरएसएस का लक्ष्य भारतीय सैन्य बलों का हिंदूकरण कर उसे अपने अनुसार संचालित करना है‌। इसीलिए उसने अपने सैनिक स्कूलों की शृंखला शुरू कर दी है, जहां से उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण हुए छात्रों को सैन्य तथा नेवल अकादमी में भेजा जायेगा तो निचले स्तर पर भर्ती करने के लिए अग्निपथ योजना शुरू करवाई गई है।

नाजीवाद और आरएसएस

नाज़ियों और फ़ासिस्टों से प्रेरित और उनकी नक़ल पर भारत में चंद धुर दक्षिणपंथी चितपावन ब्राह्मणों द्वारा गठित आरएसएस भी मुसलमानों के विरुद्ध घृणा अभियान चलाये हुए है। उसके निशाने पर देश का वामपंथी और बुद्धिजीवी वर्ग भी है क्योंकि ये दोनों उसके द्वारा लोगों की धार्मिक भावनाओं का राजनीतिक हित साधने में किये जा रहे इस्तेमाल और पाखंड के आलोचक हैं। 

आरएसएस शुरुआत से ही अपने स्वयंसेवकों को अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग और सैनिक प्रशिक्षण देता आया है। शायद उसी के बल पर सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने कहा कि उनके स्वयंसेवक दो-तीन दिन में ही तैयार होकर सीमा पर पहुंच सकते हैं। यहां पर यह भी हो सकता है कि उन्होंने यह बात आरएसएस की महत्ता बढ़ाने के लिए कही हो।

बहरहाल यहां सवाल यह है कि क्या बालकृष्ण शिवराम मुंजे और विनायक दामोदर सावरकर की चिरकालिक वर्चस्ववादी इच्छा और योजना को लागू करने के लिए ही आरएसएस की पहल पर अग्निपथ योजना लागू की गई है? 

यदि अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल प्रकाश कटोच के इस लिंक पर तीन अंकों की शृंखला में लिखे गए विवरण को ध्यान से पढ़ें तो साफ हो जाता है—

https://www.financialexpress.com/defence/cds-the-bonded-hombre/2553329/

जिसमें उन्होंने अनेक गंभीर मुद्दों पर चर्चा करते हुए कहा है कि सरकार की मंशा सेना की रेजिमेंटल प्रणाली को खत्म करने की है, जो हथियारों और कामरेडशिप से लड़ने की आधारशिला—’नाम, नमक और निशान— को ‘सबका साथ, सबका विकास’ के विषैले अनुप्रयोग के माध्यम से बलिदान किया जाना है। तो राजपूत रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट जैसी फिक्स क्लास रेजीमेंट क्या कहलाएगी? क्या उन्हें सेना के पुलिस-करण के साथ नंबर आवंटित किए जाएंगे या उनका नाम बदलकर ‘सावरकर रेजिमेंट’, ‘मंगल पांडे रेजिमेंट’, ‘दीन दयाल उपाध्याय रेजिमेंट’ कर दिया जाएगा? 

(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल नैनीताल में रहते हैं।)

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