Sunday, April 28, 2024

श्याम सरन का लेख: ब्रिक्स का विस्तार भारत के हितों को चोट नहीं पहुंचाएगा; एससीओ, क्वाड, जी-7 से भी संवाद जरूरी

दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हाल में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में मूल पांच उभरती अर्थव्यवस्थाओं के दोगुना से अधिक देशों ने हिस्सा लिया, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था और वैश्विक शासन प्रणालियों के स्वरूप में बदलाव पर समूह के बढ़ते प्रभाव की अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं। समूह का गठन 2009 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन जैसे सदस्यों के साथ हुआ था। दक्षिण अफ्रीका अगले साल शामिल हुआ। चीन की पहल और रूस के समर्थन से छह नए सदस्य- अर्जेन्टीना, मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब और यूएई- को भी शामिल किया गया है। 

कई अन्य विकासशील देशों ने समूह में शामिल होने में रुचि दर्शाई है और संभावना है कि समूह का और भी विस्तार हो। पहले ऐसे संकेत थे कि भारत और ब्राजील विस्तार को लेकर उत्सुक नहीं थे। दोनों में से कोई भी यह नहीं चाहता था कि ब्रिक्स पश्चिम-विरोधी मंच बने। और सदस्यों को जोड़ने को लेकर भारत को पहले से प्रभुत्वशाली चीन के बढ़ते प्रभाव को लेकर भी दिक्कत थी। लेकिन ऐसा लगता है कि नए सदस्यों का चुनाव राजनीतिक समझौते का परिणाम है न कि किसी सर्वमान्य कसौटी को लागू करने का। ईरान को छोड़कर अन्य नए सदस्यों के लिए पश्चिम से संबंध महत्वपूर्ण हैं। इस तरह चीन को ब्रिक्स को पश्चिम विरोधी लाबी बनाने में सफलता नहीं मिली।

इतने सारे विकासशील देश ब्रिक्स में रुचि क्यों दिखा रहे हैं? जवाब बदलते राजनीतिक और सुरक्षा समीकरणों से अनिश्चित होती दुनिया में बचाव की उनकी इच्छा में छिपा है। अमरीकी प्रतिबंधों, जिससे रूस के विदेशी मुद्रा भंडार का महत्वपूर्ण हिस्सा फ्रीज़ हो गया था, को लेकर उनमें भय है। दूसरी तरफ चीन से वैकल्पिक वैश्विक करन्सी मुहैया कराने की अपेक्षा भी है। लेकिन ऐसा कुछ समय तक होने की संभावना नहीं है क्योंकि वैश्विक वित्तीय और करन्सी बाजारों पर अमरीकी डॉलर का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में रहने वाला भी है।

इस दौरान, स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देना और स्थानीय करन्सी बॉन्ड से निधि बढ़ाना, जिसे कि ब्रिक्स बढ़ावा दे रहा है, विनम्र और उपयोगी शुरुआत है। अस्तित्व में आने के बाद ब्रिक्स के 15 साल की अवधि की प्रमुख उपलब्धि ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) है, जो विकासशील देशों के लिए विकास निधि को एक स्रोत बन चुकी है। इसका वर्तमान ऋण पोर्ट्फोलियो 90 बिलियन अमरीकी डॉलर है।

लेकिन इसका कारोबार अमरीकी डॉलर में ही है भले ही समूह का घोषित उद्देश्य शक्तिशाली अमरीकी करन्सी से पार पाना है। ब्रिक्स ने एक आपात कोष बनाया हुआ है जो एक सदस्य तब इस्तेमाल कर सकता है जब भुगतान के संतुलन की समस्या से दरपेश हो। इसका अब तक इस्तेमाल नहीं हुआ। स्थानीय करन्सी को कारोबार में इस्तेमाल में बढ़ावा देने के मामले में प्रगति हुई है पर अमरीकी डॉलर के स्थान पर वैकल्पिक ब्रिक्स करन्सी बनाने की बात केवल बात बनकर ही रह गई है।

विकासशील देशों में ब्रिक्स में रुचि विकसित देशों द्वारा उनके हितों और आकांक्षाओं की अनदेखी करना भी दर्शाती है। संयुक्त राष्ट्र और आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे बहुपक्षीय वित्तीय संस्थानों पर जी-7 का ही कब्जा है। जैसे-जैसे प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक और सुरक्षा प्रोफाइल में विस्तार हो रहा है, वैश्विक प्रशासन में उनकी आवाज को महत्व मिलने की मांग बढ़ रही है। ऐसी भावनाएं भारत की भी हैं इसलिए विस्तारित ब्रिक्स में इसकी सदस्यता और सक्रिय हिस्सेदारी का महत्व बना रहेगा। समूह में चीन का प्रभाव रहेगा लेकिन अतिरिक्त मध्यम शक्तियों, जिनकी अतीत के मुकाबले ताकत बढ़ी है, की उपस्थिति चीन की भूमिका को संतुलित करेंगी।

ब्रिक्स की भूमिका बढ़ेगी क्योंकि इसके सदस्यों की आर्थिक, तकनीकी और सैन्य क्षमताएं लगातार बढ़ रही हैं और जी-7 विकसित देशों के साथ अंतराल कम हो रहा है। ब्रिक्स सम्मेलन के साथ ही हुए भारत के सफल चंद्रयान मिशन ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि यह शक्तिशाली ताकतों का समूह है, कमज़ोरों का नहीं जैसा कि शीत युद्ध के समय गुट निरपेक्ष आंदोलन था। वैश्विक ऊर्जा बाजार पर सऊदी अरब, ईरान और रूस का प्रभुत्व होने के कारण विस्तारित सदस्यता ब्रिक्स को ऊर्जा सुपरपावर बनाएगी।

लेकिन जी-7 के विपरीत ब्रिक्स में व्यापक विचारधारात्मक समानता और सुसंगति का अभाव है। जी-7 अस्तित्व में आने के बाद आधी सदी से ज्यादा अवधि में 1973 के तेल संकट और उसके नतीजतन बढ़ी मुद्रास्फीति का सामना करने के कारण परिपक्व हुआ है। ब्रिक्स का इतिहास केवल 15 साल पुराना है। इसके अलावा, जीडीपी, कारोबार और निवेश वॉल्यूम के मामले में ब्रिक्स जी-7 के मुकाबले में करीब आया है लेकिन इसके सदस्यों के तीखे आंतरिक टकराव हैं। भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता इसका एक उदाहरण है। इसके अलावा जी-7 मजबूती से जुड़ा सुरक्षा समूह है। इसके सभी सदस्य नाटो के भी सदस्य हैं और जापान अमरीकी समझौते का साथी है। ब्रिक्स देशों का समान सुरक्षा नजरिया नहीं है।

पश्चिम में आशंका है कि ब्रिक्स अपने प्रभाव से पश्चिम द्वारा स्थापित वैश्विक व्यवस्था को कमजोर करना चाहता है। सच्चाई यह है कि पश्चिमी देशों ने खुद इस व्यवस्था के नियमों और मानदंडों का उल्लंघन किया है। इसमें यूएन को लगातार दरकिनार करना, रक्षात्मक व्यापार उपाय अपनाना और टिकाऊ विकास के लिए ऊर्जा बदलाव विकासशील देशों पर मढ़ने का प्रयास शामिल है। ‘उदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ के सिद्धांतों को चयनात्मक तरीके से अमल में लाया जाता है और यह उभरते देशों को स्वीकार्य नहीं है।

जी-7 के पास खेल के स्वीकार्य नियम बनाने के लिए उभरती शक्तियों से संवाद करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। इसकी संभावना अधिक है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का नया ढांचा जी20 जैसे मंचों पर बनेगा, जहां विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व होता है, ब्रिक्स और जी-7 जैसे मंचों पर नहीं।

भारत के लिए बहु समूहों में हिस्सेदारी की नीति, जो इसके बहुआयामी हितों और आकांक्षाओं के लिए सहायक है, सही साबित हुई है। विस्तारित ब्रिक्स भारत के हितों के खिलाफ नहीं है और इसे ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, क्वाड और जी-7 में से चुनने की जरूरत नहीं है तथा नियमित संवाद जारी रखना चाहिए। यह भारत के कूटनीतिक विकल्प बढ़ाते हैं और ध्रुवीकृत विश्व में कठिनाइयों का सामना करने को आसान ही बनाते हैं।

(लेखक श्याम सरन पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर के ऑनरेरी फ़ेलो हैं। लेख- इंडियन एक्सप्रेस से साभार; अनुवाद- महेश राजपूत)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...

Related Articles

एक बार फिर सांप्रदायिक-विघटनकारी एजेंडा के सहारे भाजपा?

बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद हमेशा से चुनावों में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए सांप्रदायिक विघटनकारी...