Sunday, April 28, 2024

बहुसंख्यकवादी राजनीति के जाल में फंस रहे हैं ईसाई

गत 25 दिसंबर, 2023 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई ईसाइयों को क्रिसमस की बधाई देने और उनसे बातचीत करने के लिए अपने घर निमंत्रित किया। उन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में ईसाई समुदाय के योगदान और प्रभु ईसा मसीह की समावेशी शिक्षाओं की सराहना की। उन्होंने ईसाई समुदाय के नेताओं से अपने पुराने और लम्बे संबंधों के बारे में भी अपने मेहमानों को बताया। इसके कुछ दिन बाद केरल में कुछ सैकड़ा ईसाइयों ने भाजपा की सदस्यता ले ली।

‘द हिन्दू’ ने लिखा: “भाजपा की राज्य इकाई की कोट्टयम में हुई बैठक में तय किया गया कि ईसाई समुदाय को आकर्षित करने के लिए 10 दिन की स्नेह यात्रा निकाली जाएगी जिसके दौरान पार्टी मणिपुर हिंसा सहित विभिन्न मसलों पर अपनी बात समुदाय के सामने रखेगी”। केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन ने बिलकुल ठीक कहा कि “मणिपुर में हालत यह हो गई है कि आबादी का एक हिस्सा…ईसाई समुदाय वहां रह ही नहीं सकता…हम सबने देखा है कि इस मामले में राज्य और केंद्र दोनों सरकारों ने चुप्पी साध रखी है” (द इंडियन एक्सप्रेस, मुंबई, 2जनवरी, 2024)।

अगला आम चुनाव नज़दीक है और आरएसएस-भाजपा ने ईसाई समुदाय को लुभाने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। जहां तक ईसाई समुदाय की वर्तमान स्थिति का सवाल है, उसे विभिन्न राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय रपटों और धार्मिक स्वतंत्रता सूचकांकों से समझा जा सकता है। ‘वादा न तोड़ो अभियान’ के अनुसार देश में हर दिन ईसाइयों की प्रताड़ना की दो घटनाएं होती हैं। उत्तर प्रदेश में….”करीब 100 पास्टर और आम पुरुष और महिलाएं भी गैर-क़ानूनी धर्मपरिवर्तन करवाने के आरोप में जेलों में बंद हैं, जबकि वे या तो जन्मदिन मना रहे थे या इतवार की विशेष प्रार्थना सभा कर रहे थे।”

एक ज्ञापन के अनुसार सरकार कार्डिनलों और पास्टरों के खिलाफ अपनी विभिन्न जांच एजेंसियों का इस्तेमाल भी कर रही है। यूनाइटेड क्रिस्चियन फोरम के अनुसार, सन 2022 के पहले सात महीनों में ईसाइयों पर हमलों की 302 घटनाएं हुईं। नेशनल सॉलिडेरिटी फोरम एंड इवैंजेलिकल फेलोशिप ऑफ़ इंडिया के आर्चबिशप पीटर मेकेडो द्वारा दायर एक याचिका के मुताबिक, “राज्य ऐसे समूहों के खिलाफ त्वरित और आवश्यक कार्यवाही करने में असफल रहा है जिन्होंने ईसाई समुदाय के खिलाफ व्यापक हिंसा की, नफरत फैलाने वाले भाषण दिए, उनके आराधना स्थलों पर हमले किये और उनकी प्रार्थना सभाओं में व्यवधान उत्पन्न किये।”

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने लगातार चौथे साल भारत को ‘विशेष सरोकार’ वाला देश निरुपित किया है और अमेरिकी सरकार से कहा है कि वह इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अपनी नीतियां बनाए।

ओपन डोर्स के अनुसार, “वर्तमान सरकार के मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से ईसाइयों पर दबाव में नाटकीय वृद्धि हुई है…हिन्दू अतिवादी अन्य धर्मों के लोगों पर बिना किसी भय के हमले करते हैं और कुछ इलाकों में उन्होंने गंभीर हिंसा की है…बड़ी संख्या में राज्य सरकारें धर्मांतरण-विरोधी कानून लागू कर रही हैं जिनका घोषित उद्देश्य हिन्दुओं का जबरदस्ती दूसरे धर्मों में परिवर्तन रोकना है मगर असल में उनके बहाने ईसाइयों को धमकाया और प्रताड़ित किया जाता है…पास्टर होना इस देश में सबसे ज्यादा जोखिम वाला काम बन गया है। हिन्दू अतिवादी पास्टरों पर हिंसक हमले करते हैं ताकि आम ईसाईयों के मन में डर का भाव बैठाया जा सके।”

ईसाई समुदाय की वर्तमान स्थिति की जड़ में है हिन्दू राष्ट्रवादी आख्यान जिसमें इस्लाम और ईसाइयत को विदेशी धर्म माना जाता है। आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “बंच ऑफ़ थॉट्स” में लिखा है कि ईसाई और कम्युनिस्ट, हिन्दू राष्ट्र के आतंरिक शत्रु हैं।

आरएसएस की शाखाओं में भी इसी आशय की बातें सिखाई जातीं हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी गतिविधियों में उछाल के साथ ईसाइयों के खिलाफ हिंसा सबसे पहले देश के आदिवासी इलाकों में शुरू हुई। प्रचार यह किया गया कि ईसाई मिशनरीज़ ज़बरिया, धोखाधड़ी और लोभ-लालच से आदिवासियों को ईसाई बना रही हैं।

ईसाई धर्म भारत के सबसे पुराने धर्मों में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि सेंट थॉमस मालाबार के तट पर उतरे और 52 ईस्वी में उन्होंने वहां देश के पहले चर्च की स्थापना की। कुछ अन्य स्त्रोतों के अनुसार वे चौथी सदी में मालाबार आये थे। सन 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की कुल आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत 2.3 है। मजे की बात यह है कि सन 1971 से इसमें लगातार गिरावट आ रही है: 1971- 2.60%, 1981-2.44%, 1991-2.34%, 2001-2.30%, 2011-2.30% (सभी आकंड़े जनगणना से)।

मगर बेसिर-पैर के दुष्प्रचार के नतीजे में गुजरात के डांग में सबसे पहले (25 दिसंबर 1998 से लेकर 3 जनवरी 1999 तक) ईसाई-विरोधी हिंसा हुई। इसकी बाद, 22 जनवरी 1999 की रात आरएसएस के अनुषांगिक संगठन बजरंग दल के कार्यकर्ता राजेंद्र पाल उर्फ़ दारासिंह ने पास्टर ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम पुत्रों को जिंदा जला दिया। दारा सिंह इस समय उम्र कैद की सज़ा काट रहा है।

इस घटना को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ के.आर. नारायणन ने “दुनिया के काले कारनामों की सूची का हिस्सा” बताया। स्टेंस ऑस्ट्रलियाई मिशनरी थे और ओडिशा के क्योंझर, मनोहरपुर में काम करते थे। जब वे अपने दो बच्चों टिमोथी और फिलिप के साथ एक खुली जीप में सो रहे थे तब दारा सिंह ने कुछ लोगों के साथ मिलकर तीनों को जिंदा जला दिया। आरोप यह लगाया कि कुष्ठ रोगियों की सेवा के बहाने वे धर्मपरिवर्तन करवा रहे थे।

घटना की जांच के लिए नियुक्त वाधवा आयोग ने पाया कि पास्टर स्टेंस धर्मपरिवर्तन में संलग्न नहीं थे और जिस इलाके में वे काम कर रहे थे वहां की ईसाई आबादी में कोई बढोत्तरी नहीं हुई थी। इसके बाद से दूर-दराज के इलाकों में ईसाई-विरोधी हिंसा जारी रही। अधिकांश मामलों में इस तरह की हिंसा क्रिसमस के आसपास होती थी। फिर 25 अगस्त 2008 को ओडिशा के कंधमाल में भयावह हिंसा शुरू हुई जिसमें 100 से ज्यादा ईसाई मारे गए, ईसाई महिलाओं के साथ दिल दहलाने वाली बलात्कार की घटनाएं हुईं और कई चर्चों को आग के हवाले कर दिया गया।

तबसे ईसाई-विरोधी हिंसा चल ही रही है यद्यपि यह सुनिश्चित किया जाता है कि उस पर ज्यादा शोरशराबा न हो। अक्सर दूरदराज के इलाकों में काम रहे पादरियों को तब घेरा जाता है जब वे प्रेयर मीटिंग संचालित कर रहे हों। बजरंग दल और उसके जैसे अन्य संगठनों के सदस्य प्रेयर मीटिंग्स में बाधा डालते हैं। पादरियों को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाता है और उन्हें परेशान किया जाता है।

मणिपुर में ईसाइयों के खिलाफ करीब सात महीनों से हिंसा चल रही थी। कुकी, जिनमें से अधिकांश ईसाई हैं, डबल इंजन सरकार के निशाने पर हैं। मणिपुर और दिल्ली दोनों में भाजपा की सरकारें हैं। प्रधानमंत्री ने साफ़ कर दिया है कि इस ईसाई-विरोधी हिंसा को रोकना उनकी सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है। वे दुनिया भर में जा रहे हैं मगर मणिपुर के लिए उनके पास वक्त नहीं है। कुछ हिम्मतवर सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने इस इलाके में भ्रमण कर हिंसा की आग को बुझाने का प्रयास किया लेकिन सरकार की उदासीनता के चलते इस खाई को भरना मुश्किल होगा।

इस समय प्रधानमंत्री मोदी जो कर रहे हैं, वह केवल छवि बनाने की कवायद है। केरल में कई धनी ईसाई इस हिन्दू बहुसंख्यकवादी राजनीति के जाल में फंस रहे हैं। यह भी सच है कि ईडी, इनकम टैक्स आदि के कहर से बचने के लिए ईसाई समुदाय के शीर्ष धार्मिक नेतृत्व का एक हिस्सा सरकार के साथ खड़ा होने को आतुर है।

हमें यह समझना होगा कि मोदी एंड कंपनी एक तरफ तो ईसाई समुदाय को हाशिये पर धकेल देना चाहते हैं तो दूसरी ओर वे चुनावों में उनके वोट भी हासिल करना चाहते हैं।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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