Friday, April 19, 2024

कोविड के भ्रामक आंकड़े, भारतीय मध्य-वर्ग और पत्रकारिता

दुनिया में जब लॉकडाउन की शुरुआत हुई तो नागरिकों के दमन की ख़बरें सबसे ज्यादा केन्या व अन्य अफ्रीकी देशों से आईं।

उस समय ऐसा लगा था कि भारत का हाल बुरा अवश्य है लेकिन उन गरीब देशों की तुलना में हमारे लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। हमें उम्मीद थी कि हमारी सिविल सोसाइटी, जो कम से कम हमारे शहरों में मजबूत स्थिति में है, उस तरह के दमन की संभावना को धूमिल कर देगी।

लेकिन यह सब कुछ बालू की भीत ही था। आधुनिकता और नागरिकता अधिकार संबंधी हमारे नारे सिर्फ लबादे थे।

पिछले दिनों प्राय: सभी विदेशी मीडिया संस्थानों ने रेखांकित किया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत, नागरिक अधिकारों के अपमान में दुनिया में अव्वल रहा। दुनिया भौंचक होकर भारत की हालत देख रही है। एक पर्दा था, जाे हट गया है। तूफ़ानी हवा के एक झोंके ने हमें नंगा कर दिया है।

न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी 15 फरवरी, 2020 की रिपोर्ट में चीन के लॉकडाउन को माओ-स्टाइल का सामाजिक नियंत्रण बताते हुए दुनिया का सबसे कड़ा और व्यापक लॉकडाउन बताया था।

लेकिन भारत में लॉकडाउन के बाद विभिन्न समाचार-माध्यमों ने नोटिस किया कि“चीन और इटली नहीं, भारत का कोरोना वायरस लॉकडाउन दुनिया में सबसे कठोर है।.. भारत की संघीय सरकार ने पूरे देश के लिए समान नीति बनाई। जबकि चीन में लॉकडाउन के अलग-अलग स्तर थे।..भारत के विपरीत, बीजिंग में, बसें चल रहीं थीं..लॉकडाउन के एक सप्ताह बाद ही यात्री और ड्राइवर के बीच एक प्लास्टिक शीट लगाकर टैक्सी चलाने की इजाज़त दे दी गई थी। केवल कुछ प्रांतों से घरेलू उड़ानों और ट्रेनों की आवाजाही को रोक दिया गया था, सभी नहीं।”

जबकि भारत में न सिर्फ पूरे देश का आवागमन रोक दिया गया, बल्कि कई जगहों से पुलिस की पिटाई से होने वाली मौतों की भी खबरें आईं। पुलिस ने लॉकडाउन तोड़ने की सजा स्वरूप अलग-अलग 15 लोगों की हत्या कर दी। इनमें से 12 लोगों की मौत पिटाई से हुई, जबकि 3 व्यक्ति की मौत हिरासत के दौरान हुई।

जैसा कि बाद में वैश्विक अर्थशास्त्र और राजनीति पर लिखने वाले भारतीय निवेशक व फंड मैनेजर रूचिर शर्मा ने न्यूर्याक टाइम्स के अपने लेख में चिह्नित किया कि भारत के अमीरों ने लॉकडाउन को अपनी इच्छाओं के अनुरूप पाया, लेकिन ग़रीबों के लिए इसकी एक अलग ही दर्दनाक कहानी थी।

नरेंद्र मोदी को उनकी निरंकुश और हिंदुत्व केंद्रित कार्यशैली को लगातार कोसते रहने वाले भारत के कथित उदारवादी, अभिजात तबके ने संपूर्ण तालाबंदी के पक्ष में नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन के पीछे लामबंद होने में तनिक भी समय नहीं गंवाया।

प्रवासी मजदूर।

दरअसल, यह कोई नई बात नहीं थी। भारत के इस उदारवादी तबके के पास ‘सेकुलरिज्म’ के अतिरिक्त कोई ऐसा मूल्य नहीं रहा है, जिसके बूते वे लंबे समय तक हिंदुत्व के बहुआयामी वर्चस्ववाद से लड़ सके। सामाजिक न्याय, सामाजिक बंधुत्व जैसे मूल्य इस तबके में सिरे से नदारद रहे हैं। यह तबका आधुनिक शिक्षा प्रणाली से अत्यधिक आक्रांत है और औपचारिक शिक्षा के आधार पर विभेदात्मक श्रेणियों को वैधता देने की वकालत करता है।

कमोवेश यही हाल राजनीतिक विपक्ष का भी है। कांग्रेस का हिरावल दस्ता तो इसी उदारवादी अभिजात का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि समाजवाद और आम्बेडकरवाद जैसी विचारधाराओं के पैरोकारों ने भी नागरिक अधिकारों को लेकर कोई विश्व-दृष्टि विकसित नहीं की है।

यह भी एक कारण रहा कि काम की तलाश में अपने गृह-क्षेत्रों से दूर गए मज़दूरों व सेवा-क्षेत्र से जुडे अन्य कामगारों को, जिनमें से अधिकांश निरक्षर या बहुत कम पढ़े-लिखे हैं, ने जो अकथनीय पीड़ा झेली है, उसकी नृशंसता से यह उदारवादी वर्ग और मीडिया लगभग असंपृक्त बना रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने इन कामगारों को अविवेकी, राेग के वैज्ञानिक आधारों को न समझने वाली एक अराजक भीड़ के रूप में देखा, जो सिर्फ उनकी दया की पात्र हो सकती थी। वे इन्हें समान अधिकारों से संपन्न नागरिकों के रूप में देखने में अक्षम थे।

लॉकडाउन से कितने मरे?
हमारे पास इससे संबंधित कोई व्यवस्थित आँकड़ा नहीं है कि इस सख्त लॉकडाउन के कारण कितने लोग मारे गए। स्वाभाविक तौर पर सरकार कभी नहीं चाहेगी कि इससे संबंधित समेकित आँकड़े सामने आएं, जिससे उसकी मूर्खता और हिंसक क्रूरता सामने आए।

बेंगलुरु के स्वतंत्र शोधकर्ताओं – तेजेश जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने अपने स्तर पर इस प्रकार के आंकड़े विभिन्न समाचार-पत्रों-वेबपोर्टलों में छपी खबरों के आधार पर जुटाने की कोशिश की है। उनके अनुसार जून के पहले सप्ताह तक 740 लोग भूख से, महानगरों से अपने गांवों की ओर पैदल लौटने के दौरान थकान या बीमारी से, दुर्घटनाओं से, अस्पतालों में देखभाल की कमी या अस्पताल द्वारा इलाज से इंकार कर देने से, पुलिस की क्रूरता से और शराब के अचानक विदड्राल – के कारण मारे जा चुके हैं।

इन शोधकर्ताओं द्वारा जुटाई गई खबरों के अनुसार, पचास लोगों की मौत पैदल चलने के दौरान थकान से हुई, जबकि लगभग 150 लोग इस दौरान सड़क दुर्घटना व ट्रेन से कट कर मर गए।

श्रमिक ट्रेन।

हालांकि ये शोधकर्ता अपने संसाधनों की सीमाओं, भाषा संबंधी दिक़्क़तों और स्थानीय संस्करणों के भरमार के कारण सभी प्रकाशित खबरों को नहीं जुटा पाए हैं। लेकिन अगर सभी समाचार-माध्यमों में प्रकाशित खबरों के आधार पर आँकड़े जुटा भी लिए जाएं, तो क्या वे सच्चाई की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे?

लगभग दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता के अपने अनुभव के आधार कह सकता हूं कि – कतई नहीं ! लॉकडाउन द्वारा मार डाले गए लोगों की संख्या अखबारों में छपी खबरों की तुलना में कई गुना अधिक है।

इसे एक उदाहरण से समझें। भारत सरकार ने लॉकडाउन में ढील देकर अपने गांवों से दूर महानगरों में फंस गए कामगारों को घर पहुंचाने के लिए एक मई से “श्रमिक ट्रेनें” चलाने की शुरूआत की थी। इन श्रमिक ट्रेनों से 9 मई से 27 मई 2020 के बीच, महज 18 दिन में 80 लोगों की लाशें बरामद हुईं। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंचा। कोर्ट में सरकार ने कहा कि इनमें से एक भी श्रमिक भूख, दवा की कमी अथवा बदइंतजामी से नहीं मरा है, बल्कि मरने वाले पहले से ही ‘किसी’ बीमारी से पीड़ित थे ! सरकार चाहे जो कहे, लेकिन ये बात किसी से छुपी नहीं है कि ये मौतें किन कारणों से हुई हैं |

ट्रेन का सफर, बच्चों को गोद में लेकर गृहस्थी का सामान उठाए हजारों किलोमीटर के पैदल सफर की तुलना में निश्चित ही कम जानलेवा था। इन पैदल चलने वालों में हजारों बूढ़े-बुज़ुर्ग, महिलाएं (जिनमें बहुत सारी गर्भवती महिलाएं भी थीं), बच्चे-बच्चियां, दिव्यांग और बीमार लोग भी थे। भूखे पेट, न पानी का पता, न सोने का ठिकाना।

ट्रेन में सफर के दौरान महज 18 दिनों में जिस थकान और बदहवासी ने 80 लोगों से उनका जीवन छीन लिया, कल्पना भर की जा सकती है कि उससे कई गुना अधिक जानलेवा थकान और बदहवासी ने पिछले ढाई महीनों में पैदल चल रहे लाखों लोगों में से कितनों की जान ली होगी ? क्या वे सिर्फ़ उतने ही होंगे, जिनके मरने की सूचना मीडिया में आई है? निश्चित तौर पर उनकी संख्या इससे बहुत अधिक होगी।

जब देश भर की स्वास्थ्य सुविधाएँ कथित महामारी के नाम पर बंद कर दी गईं थीं तो कितने लोग तमाम बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण बिना इलाज के मरे होंगे ? इसकी भी कोई गिनती नहीं हो रही।

इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें यह देखना होगा कि पत्रकारिता कैसे काम करती है; ट्रेन में हुई मौतों के आंकड़े मीडिया संस्थानों को कैसे मिले? क्या ये आंकड़े मीडिया संस्थानों ने खुद जुटाए ? क्या उनके संवाददाताओं ने अलग-अलग जगहों से इन लाशों के मिलने की खबरें भेजीं ? उत्तर है – नहीं !

कश्मीर स्थित मीडिया सेंटर।

मीडिया-संस्थानों के पास न तो इतना व्यापक तंत्र है कि वे यह कर सकें, और न ही वे इसके लिए इच्छुक रहते हैं। हमारे मीडिया संस्थानों का काम राजनीतिक खबरों, राजनेताओं के वक्तव्यों और वाद-विवाद से संबंधित खबरों को जमा करने और प्रेस कांफ्रेंस आदि में कुछ प्रश्न करने तक सीमित भर रह गया है। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी प्रसारित होता है, वह सामान्यत: विभिन्न संगठनों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियाें या सरकारी अमले द्वारा उपलब्ध करवाई गई सूचनाओं की प्रस्तुति भर है। वास्तव में, बरखा दत्त जैसे कुछ स्वतंत्र पत्रकारों के अपवादों को छोड़ दें तो कोई भी संवाददाता ‘फील्ड’ में नहीं है।

समाचार माध्यम में अपने संवाददाताओं के बीच ‘बीटों’ का बंटवारा इस प्रकार करने की परिपाटी है, जिससे कि उनकी मुख्य भूमिका सरकारी विभागों के प्रवक्ता भर की होकर रह जाती है। जिला मुख्यालय और कस्बों से होने वाली पत्रकारिता भी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, पुलिस कप्तान, प्रखंड विकास पदाधिकारी या स्थानीय थानों द्वारा उपलब्ध कराए गए जूठन से संचालित होती है।

बहरहाल, ट्रेनों में हुई इन मौतों के आंकड़े रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) ने जारी किए। आरपीएफ ने मीडिया संस्थानों को बताया कि इन ट्रेनों में 23 मई 2020 को 10 मौतें, 24 मई को 9 मौतें, 25 मई को 9 मौतें, 26 मई को 13 मौतें, 27 मई को 8 मौतें हुईं। सभी मीडिया संस्थानों में ट्रेनों में हुई मौतों से संबंधित आप यही खबर पाएंगे। यहां तक कि उन सब ख़बरों के वाक्य विन्यास, प्रस्तुति सब एक तरह के होंगे।

चूंकि आरपीएफ ने 9 मई से 27 मई 2020 के बीच हुई मौतों के ही आँकड़े दिए तो सभी मीडिया संस्थानों ने उन्हें ही प्रसारित किया। आरपीएफ ने 01 मई से 9 मई 2020 के बीच और 27 मई 2020 के बाद श्रमिक ट्रेनों में हुई मौतों के आंकड़े नहीं जारी किए हैं। इसलिए मीडिया संस्थानों के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इस बीच ट्रेनों में कितने लोगों की मौत हुई !

इसी प्रकार, किसी पैदल सफर कर रहे व्यक्ति की मौत होने पर अगर संबंधित थाना, पत्रकारों को सूचित करता है तो उस मौत की खबर वहां के स्थानीय अखबारों में आ जाती है। अगर थाना पत्रकारों को ये सूचना न दे, तो सामान्यत: वह मौत मीडिया में दर्ज नहीं होती है। पत्रकार को कभी किसी अन्य स्रोत से सूचना मिल जाए और वह प्रकाशित भी हो जाए, यह अपवाद स्वरूप ही होता है। लॉकडाउन के दौरान तो इसकी संभावना नगण्य ही थी, क्योंकि पुलिस की पिटाई के भय से छोटे पत्रकार तो सड़कों पर निकलने की हिम्मत ही नहीं कर रहे थे।

बिहार में इलाज करती एक डॉक्टर।

इसलिए, ‘कर्फ्यू’ जैसे सख्त लॉकडाउन के कारण हुई मौतों से सम्बंधित जो खबरें मीडिया में आ सकीं, वे चाहें जितनी भी भयावह लगें, लेकिन वास्तविक हालात जितने भयावह थे, उसका वो एक बहुत छोटा हिस्सा मात्र थीं।


भय और भ्रम फैलाते कोविड के आँकड़े
कोविड-19 से अभी तक 7 हजार लोगों की मौत को सरकारी आंकड़ों में दर्ज किया गया है। हालांकि कोविड से हुई मौतों के इन आंकड़ों को जिस अंदाज में जनता को बताया जा रहा है, उससे सच कम मालूम चल रहा है और भ्रम और भय अधिक फैल रहा है।

इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की नई गाइड लाइन के अनुसार इनमें निमोनिया, हृदयाघात आदि से हुई मौतों के आंकड़े भी जोड़ दिए जा रहे हैं। सिर्फ कोविड से मरने वालों की संख्या इससे बहुत कम है।

इस नई गाइड-लाइन के अनुसार :

  • अगर कोई आदमी कोविड-19 पॉजिटिव निकलता है और उसके बाद उसकी मौत किसी भी बीमारी से होती हो, उसे कोविड से हुई मौत माना जाता है।
  • यानी, अगर कोई कोविड-19 पॉजिटिव है, और उसकी मौत सड़क दुर्घटना में हो जाती है तो उसे कोविड से हुई मृत्यु में गिना जाएगा। कई देशों से इस प्रकार की गिनती की सूचना आई है। 
  • अगर किसी व्यक्ति का कोविड-19 टेस्ट हुआ हो और वह निगेटिव निकला हो, लेकिन अगर उसमें किसी भी प्रकार के इंफ्लूएंजा या निमोनिया के लक्षण हों, और उसकी मौत हो जाए तो डॉक्टरों को निर्देश दिया गया है कि कोविड निगेटिव होने के बावजूद उसे क्लिीनकल इपीडिमीलॉजकली डायगनोस्ड (Clinically-epidemiologically diagnosed) कह कर “संभावित” रूप से कोविड-19 से हुई मौत के खाते में रखा जाए। यह रोग के लक्षण के आधार पर अनुमान लगाने की पद्धति है, जिसकी विशेषज्ञों ने पर्याप्त आलोचना की है। 
  • अगर मौत का कोई उचित कारण न पता चले लेकिन कोरोना वायरस के लक्षण, यानी खांसी-सर्दी, बुखार, सांस फूलना आदि हो तो  ऐसे मामले भी ‘‘संभावित कोविड-19’’ मृतक श्रेणी में दर्ज किए जाते हैं। 
  • किसी भी बीमारी का कोई मरीज हॉस्पिटल में एडमिट होता है और उसकी मौत हो जाती है, और यह पाया जाता है कि उसके हृदय पर चोट के निशान हैं या रक्त प्रवाह में थक्का जम गया है, तो उसे कोविड-19 से हुई मौत में गिना जा रहा है।

इस प्रकार न्यूमोनिया, इंफ्लूएंजा और हृदय रोग से मरने वाले अधिकांश लोगों को कोविड-19 के खाते में रख दिए जाने की संभावना है। भारत में हर साल न्यूमोनिया से 1.27 लाख लोग मरते हैं, जबकि हृदय संबंधी बीमारियों से हर साल भारत में 25 से 28 लाख लोगों की मौत होती है।

स्वाभाविक तौर पर अधिक उम्र में होने वाली अधिकांश मौतों का कारण हृदय का रूक जाना ही होता है। नई गाइड-लाइन के अनुसार इनमें से किसी भी मौत को कोविड-19 के खाते में दर्ज किया जा सकेगा। और जगह-जगह से सूचनाएं मिल रही हैं कि यह किया भी जा रहा है।

कोविड-19 से मरने वालों की लाशों के पोस्टमार्टम की मनाही कर दी गई है तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि मौत के बाद कोविड की जांच के लिए सैंपल न लिए जाएं। यानी, मौत कोविड-19 से हुई या नहीं, इसकी जांच पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई है।

कोविड के लक्षण न्यूमोनिया, इंफ्लूएंजा, मलेरिया व अन्य बुखार पैदा करने वाली बीमारियों के लक्षण न सिर्फ मिलते-जुलते हैं, बल्कि उनमें कोई दृश्य मौलिक भेद नहीं होता है। हर साल भारत में इस प्रकार की दर्जनों बीमारियों से, जिनमें बुखार और फ्लू के लक्षण होते हैं, मरने वालों की संख्या कई लाख है। ये रोग असाध्य नहीं हैं, इनकी चिकित्सा संभव है। इन चिकित्सा योग्य (curable) बीमारियों से अधिकांश वे ही लोग मरते हैं, जो महंगी दवाइयों और उपचार का खर्च वहन नहीं कर सकते। इनमें अधिकांश गरीब, मुसलमान, आदिवासी और हिंदू दलित-ओबीसी समुदाय के युवा, स्त्रियां और बच्चे होते हैं।

इलाज करते डाक्टर।

बिना जांच के इन रोगियों को कोविड से मृत बताने से जो अवधारणा बनेगी, उसका राजनीतिक और सामाजिक इस्तेमाल किस दिशा में होगा?

भारत में हर साल टीबी से लगभग 4.5  लाख लोगों की मौत होती है। भारत में हर साल मलेरिया से लगभग 2 लाख लोग मरते हैं, जिनमें ज्यादातर युवा आदिवासी होते हैं। हमारे देश में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मर जाते हैं।

इन आंकड़ों को प्रतिदिन के हिसाब से विभाजित कर लीजिए और कल्पना कीजिए कि रोज हो रही ये मौतें आपके सामने सुबह आने वाले अखबार के पहले पन्ने पर दर्ज हों और टीवी एंकर चीख कर बता रहे हों कि आज भारत में 1300 से अधिक लोग टीबी से मर गए और 350 बच्चे न्यूमोनिया से हलाक हो गए। (बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या मेरे एक अन्य लेख में यहां देखें)

लेकिन न तो ये सूचनाएं मीडिया पर मुद्दा बनती हैं, न ही चिकित्सा याेग्य इन बीमारियों से इतनी बड़ी संख्या में हो रही मौतों से भारतीय मध्यम वर्ग में कोई हलचल पैदा करती है।

कहा जा सकता है कि विश्व स्वास्थ संगठन के निर्देश के अनुरूप बनी उपरोक्त नई गाइड-लाइन कोविड-19 से होने वाली मौतों की अंडरकाउंटिंग (कम गिनने) की संभावना को बैलेंस करने के लिए जारी की गई है। लेकिन यह संभावना बेबुनियाद है क्योंकि अभी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था अन्य रोगों को छोड़कर सिर्फ कोविड-19 से लड़ रही है। यह गाइड-लाइन चिकित्सा-शास्त्र के आंतरिक अध्ययन के लिए उपयुक्त हो सकती है, लेकिन यह एक अपेक्षाकृत छोटी बीमारी को महामारी के रूप में स्थापित कर रही है।

यह आवश्यक है कि जनता के सामने सीधे और सरल आंकड़े रखे जाएं। उन्हें बताया जाए कि प्लेग, चेचक, हैजा आदि महामारियों की तुलना में इस बीमारी कुछ भी नहीं है। इन महमारियों में मृत्यु दर 50 से लेकर 100 प्रतिशत तक थी और वे शारीरिक रूप से बहुत पीड़ादायी भी थी। कोविड के मामले में ऐसा नहीं है।

अधिकांश भारतीय अखबारों का मानना है कि भारत में औसत से कुछ “अधिक मौतें” (excess deaths) होने की संभावना  हैं। “excess deaths” का अर्थ है कि आम दिनों में जितने भारतीय मरते हैं, उससे अधिक हुई संख्या। हालांकि इससे संबंधित कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भारत में excess deaths हुई है या नहीं, अगर हुई है तो कितनी।

लेकिन हम सोशल मीडिया पर या अपने आसपास भी इसके प्रमाण देख सकते हैं कि मौतें कोरोना से नहीं, बल्कि अन्य रोगों का इलाज लगभग बंद कर दिए जाने और सख्त लॉकडाउन से फैली अभूतपूर्व जानलेवा बदहवासी और अराजकता के कारण हो रही हैं।

इसके बावजूद, रोगों के  उपचार की जगह कोविड के मरीजों की गिनती पर इतना बल क्यों है?  शहरों के अस्पतालों में बेड खाली पड़े हैं। मरीजों को भर्ती करने से इंकार करने की सूचनाएं हमें मित्र-परिचितों से लगातार मिल रही हैं। कोरोना वायरस का संक्रमण गंभीर रोगों से पीड़ित व्यक्ति के लिए ही जानलेवा होता है, ऐसे में गंभीर रोगों से पीड़ित जिन लोगों को संक्रमण हो रहा है, उन्हें दर-दर भटकना पड़ रहा है, जिससे उनकी मौत हो जा रही है। यह प्रशासनिक लापरवाही के कारण हुई हत्या है न कि कथित महामारी से हुई मौत।

हमें यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि देश भर में सरकार ने दर्जनों नए कोरोना अस्पताल बनाए हैं, उनमें कितने मरीजों का इलाज किया जा रहा है? सरकार ने जो रेल के डब्बों में हजारों- हजार आइसोलेशन बेड बनाए थे, उनका क्या हुआ?

सरकार ने कहा है कि कोविड के संबंध में सुदृढ आंकड़ों का होना आवश्यक है, लेकिन क्या लॉकडाउन से हुई मौतों और तबाही, जिसके निशान दशकों तक रहेंगे, क्या उनसे संबंधित आंकड़ों की आवश्यकता नहीं है?

इन प्रश्नों के उत्तर  न सरकार देगी, न ही भारतीय मीडिया के अधिकांश हिस्से  को इनके उत्तर में कोई खास दिलचस्पी है।

(प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और आधुनिकता के विकास  में रही है। ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ और ‘शिमला-डायरी’ उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।) 

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