दाभोलकर की वैचारिक दुनिया: भारतीय समाज को विवेकपूर्ण बनाने का संघर्ष

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मैं उम्मीद करता हूं आप डॉ नरेंद्र दाभोलकर को भूले नहीं होंगे। आज से दस साल पहले, तारीख 20 अगस्त 2013 को, उनकी निर्मम हत्या कर दी गई थी। वह महाराष्ट्र के पुणे शहर के थे। पेशे से फिजिशियन और ‘साधना’ पत्रिका के यशस्वी संपादक। उनकी खास पहचान सामाजिक अन्धविश्वास के खिलाफ उनके द्वारा चलाए गए अभियान को लेकर था। वह विद्वान और निर्भीक लेखक के साथ समाजवैज्ञानिक भी थे, जिनकी राय थी कि वैज्ञानिक परिदृष्टि के साथ ही लोकतान्त्रिक समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है।

आस्था और अन्धविश्वास समाज में कई तरह के अवगुंठन पैदा करते हैं, जिससे समाज की विवेक-शक्ति मारी जाती है और फिर पूरा समाज पतनशील होता है। उनके विचारों से एक तबका इतना भयभीत हुआ कि उन्हें उनकी हत्या से कम कोई दंड वाजिब नहीं लगा। यह कोई संयोग नहीं था कि उनकी हत्या के बाद गोविन्द पनसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या हुई।

पिछले अगस्त 2023 में डॉ दाभोलकर की बेटी मुक्ता दाभोलकर ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ये तमाम हत्याएं एक ही कड़ी में की गई हैं। इनका अन्तर्सम्बन्ध है। वर्ष 2020 में कोल्हापुर सेशन कोर्ट में स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हर्षद नीलाम्बर ने बताया कि ये तमाम हत्याएं ‘सनातन’ नामक एक संस्था से जुड़े लोगों द्वारा की गई है। इसे लेकर भारतीय समाज में जो चिंता होनी चाहिए थी, वह नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।

मैं डॉ दाभोलकर पर अपनी बात केंद्रित करना चाहूंगा। 1945 में पुणे शहर में जन्मे नरेंद्र अच्युत दाभोलकर ने मेडिकल साइंस की पढाई की। वह सामाजिक सुधारों के समर्थक भी थे, जिसकी महाराष्ट्र में सुदीर्घ परम्परा रही है। समाज सुधार के ख्याल से प्रसिद्ध समाजवादी लेखक-चिन्तक साने गुरूजी (सदाशिव पांडुरंग साने, 1899 -1950 ) ‘साधना’ नाम से एक पत्रिका निकालते थे। यह पत्रिका 1948 में आरम्भ हुई थी। 1998 में इस पत्रिका के पचास साल होने के अवसर पर डॉ नरेंद्र दाभोलकर और जयदेव डोले को इस पत्रिका का संपादक बनाया गया। डोले तो छह महीने बाद ही इस पत्रिका से अलग हो गए, लेकिन दाभोलकर ने मृत्युपर्यन्त सम्पादकीय जिम्मेदारी निभाई। उनके सम्पादकीय लेखों के संकलन पुस्तक रूप में प्रकाशित और मराठी में खूब प्रशंसित भी हुए। मुझे प्रसन्नता है कि राजकमल प्रकाशन के सार्थक उपक्रम ने इनका हिंदी अनुवाद एक त्रयी में खूबसूरत जिल्दों में प्रकाशित किया है। ये किताबें हैं-

1- अंधश्रद्धा की गुत्थी

2 – सोचिये तो सही

3 – विचार से विवेक

ये किताबें जब मेरे पास आई हैं, तब हमारे उत्तर भारतीय हिंदी समाज में रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा-उत्सव का शोर व्याप्त है। इस पर कोई टिप्पणी बेमानी है। एक तबके द्वारा कोशिश यही हो रही है कि आस्था और अन्धविश्वास का ऐसा तूफ़ान खड़ा कर दिया जाय कि लोकतंत्र का चिराग बुझ जाय। आस्था के नाम पर अन्धविश्वास की प्रतियोगिता चल रही है, जिस में विवेक और विमर्श की कोई संभावना नहीं बनती।

विवेक बुद्धि ने धार्मिक आस्थाओं का भी परिमार्जन किया है और उसकी आंच पर पग कर उसने आध्यात्मिकता का स्वरूप ले लिया है। बुद्ध, कबीर से लेकर इस ज़माने तक के अनेक आध्यात्मिक संतों ने धर्म को अंधविश्वासों से मुक्त कर मानवीय और लौकिक बनाने का वंदनीय प्रयास किया है। लेकिन यह हक़ीक़त है कि हमारे देश में हाल के दिनों में पाखण्ड और मिथ्याचार का जोर बढ़ा है।

कभी इसी भारतीय समाज में जवाहरलाल नेहरू ने साइंटिफिक टेम्पर की वकालत की थी। आज उस परिवार से जुड़े राहुल गांधी भी जनेऊ चमकाने की कवायद में शामिल होते हैं। कोई यह समझता है कि विकलांग श्रद्धा का दौर केवल बजरंगियों में होता है तो वह गलती पर हैं। समाजवादियों में भी यह व्याधि व्याप गई है। आम्बेडकर से लेकर कांशीराम, लालू, मुलायम सब के भक्तों की एक अंध-किरतनिया मन्डली है, जो दूसरों के अवगुण तो देखते हैं, अपने नहीं देखते।

हां, इस मामले में बजरंगियों का पलड़ा बहुत भारी होता है। उन्होंने ताकत मिलते ही मुल्क के इतिहास, दर्शन-परंपरा और संस्कृति को उलट-पुलट कर रख दिया है। वे मिथक को इतिहास और इतिहास का परिहास करने पर तुले हैं। अब देखिए मंदिर मामले में उन्होने बुद्धकालीन प्रसेनजित के कोसल नगर को पूरी तरह राममय बना दिया है। क्या कोई अब यह कह सकता है कि इस नगर में कभी बुद्ध का भी डेरा लगता था। कभी-कभी अपने धुर-विरोधी से लड़ते-लड़ते हम उसी के रंग में रंग जाते हैं। अपने हिंदुत्व का विस्तार करते-करते हम कुछ और ही बनते जा रहे हैं। ऐसे में दाभोलकर प्रणीत इन किताबों से गुजरना एक अलग अनुभव से गुजरना है।

‘सोचिए तो सही’ शीर्षक पुस्तक मुझे कुछ कारणों से बेहद पसंद आई। इसे लेखक ने अपने बच्चों मुक्ता और हमीद को समर्पित किया है। पुस्तक दो खण्डों में विभाजित है। पहले खंड में दो लेख हैं- वैज्ञानिक दृष्टिकोण और धर्म-चिकित्सा एवं विवेकवाद। दूसरे खंड में कुल अट्ठाइस लेख संकलित हैं। लेकिन पहले खंड के दोनों लेख कुछ अधिक महत्व के हैं। इन्हें तो किशोर बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।

‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ शीर्षक लेख में दाभोलकर उन स्थितियों पर प्रकाश डालते हैं, जिनके कारण उन्हें अंधविश्वासों के विरुद्ध एक आंदोलन चलाना पड़ा। एक समय इन्हीं अंधविश्वासों के विरुद्ध जोतिबा फुले ने ‘सत्यशोधक’ संस्था बनाई थी। उनका पूरा लेखन पुरोहिती पाखण्ड के विरुद्ध वैचारिक युद्ध की घोषणा है। इन पाखंडों-अंधविश्वासों के कारण किसान-मजदूर वर्ग पुरोहित-वर्ग द्वारा लगातार छले जा रहे हैं।

दाभोलकर बताते है कि यूरोप के देशों में लम्बे समय तक तर्क और विवेक के साथ ज्ञान की वकालत वहां के प्रबुद्धजनों ने की थी। आज का यूरोप पादरियों की बदौलत नहीं, इन पादरियों के विचारों का विरोध करने वाले विद्वानों और वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित है। पादरियों ने यूरोपीय देशों में भी कम दमन नहीं किया था। कोपरनिकस ने जब कहा कि सूर्य नहीं, पृथ्वी ही सूर्य का चक्कर लगाती है, तब उसका यह विचार बाइबिल के विचार से मेल नहीं खाता था।

कोपरनिकस के विचारों के समर्थन के लिए कोर्ट के आदेश से ब्रूनो को जिन्दा जला दिया गया। गैलीलियो को नाक रगड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया और एकांतवास की सजा दी गई। वह अंधा बना दिया गया, और इसी अंधेपन में लगभग पचीस साल जीकर यातनाओं के बीच वह मरा। आज पूरी दुनिया उसके विचारों के साथ है। क्योंकि उसने सत्य का संधान किया था। यह ठीक है कि बहुत सारे लोग वहां दण्डित-प्रताड़ित किए गए, किन्तु ज्ञान की आंधी वहां आई और समाज भी बदला। यह सब इस कारण हुआ की वहां रेनेसां और प्रबोधन युग आया। फिर इसके कारण औद्योगिक क्रांति हुई। उत्पादन के तरीके बदले, समाज गतिशील हुआ और लोकतंत्र की चादर पूरे यूरोप पर बिछ गई। रजवाड़ी -सामंती समाज हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

हमारे देश-समाज में भी यूरोप की तरह ही रजवाड़ी- सामंती प्रवृत्तियों को पुरोहितवाद बल देता है। उसकी कोशिश होती है कि जनता के दिमाग में ज्ञान-विज्ञान की रौशनी प्रवेश न करे। आप कह सकते हैं पूरे एशियाई समाज को इस्लाम, बौद्ध और हिन्दू मत ने आच्छादित किया हुआ है। इन धर्मों में पुरोहितवाद और अन्धविश्वास के विरुद्ध अपेक्षित आंदोलन नहीं हुआ। इसका नतीजा हुआ इन देशों में ज्ञान-विज्ञान का अपेक्षित विकास नहीं हुआ। इस कारण समाज में वैज्ञानिक-परिदृष्टि भी विकसित नहीं हुई।

बौद्ध अपनी वैचारिकता में एक विवेकवान धर्म-विचार है, लेकिन बौद्धों के बीच भी लामावाद के रूप में पाखण्ड बहुत है। जापान में झेन मत प्रभावी है। इसलिए अपेक्षाकृत वहां पाखण्ड कम है। इस्लाम की वैचारिकता समतावादी तो है, लेकिन उसका अल्ला (ईश्वर) इतना ताकतवर है कि विवेक के लिए वहां जगह बहुत कम रह जाती है। इसलिए इस्लाम बहुल देशों में सामाजिक पिछड़ापन कुछ ज्यादा ही है।

विवेकहीन समत्व का कोई अर्थ नहीं होता। क्योंकि समतावादी आचरण तो सबसे अधिक चोर-डाकुओं में होते हैं। लूट के धन चोरों में बराबरी के आदर्श पर बंटते हैं। भारतीय समाज में धर्म का वह रूप नहीं था, जो इसाई और इस्लाम धर्म में था। यहां सनातन धर्म से जैन, बौद्ध, लोकायत और सिख विचारों का विकास हुआ। और इन धर्मों ने मूल सनातनी विचारों को भी बहुत कुछ बदल दिया।

सनातन अपने मूल में वैष्णव या भागवत धर्म हो गया, जिसकी विनम्रता का कोई सानी नहीं रहा। लेकिन पुरोहितवाद अपने ब्राह्मणवादी-मनुवादी स्थापनाओं को होशियारी से थोपने की जुगत में रहता है। मध्यकाल में इस्लाम और हिन्दू धर्म एक दूसरे के निकट आए। इस्लाम ने हिन्दुओं से जाति-वर्ण का सामाजिक विभाजन स्वीकारा और हिन्दुओं ने खलीफा का आदर्श।

यह अकारण नहीं था कि वेदांत की अवधारणा, जिसमें निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा है, को दरकिनार कर मूर्त राम की अवधारणा मजबूत की गई, जो राजा भी है और ईश्वर भी। सगुण राम मध्यकाल में अकारण ही मजबूत होते नहीं चले गए। निरगुण ब्रह्म पुरोहितवाद को अधिक खाद-पानी नहीं दे सकता, यह सगुण राम ही दे सकता है। अंधविश्वासों की गुंजाइश यहां अधिक होती है। इन अंधविश्वासों के बल पर ही बेलगाम पुरोहितवाद का विकास संभव है। पुरोहितवाद की यह प्राण-प्रतिष्ठा हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन को पीछे ले जाएगा।

लोकतान्त्रिक समाज का धर्म-केंद्रित होना खतरनाक संकेत है। इसे ज्ञान-केंद्रित बनना ही चाहिए। जो देश-समाज ज्ञान-केंद्रित नहीं होगा, वह अंततः मिट जाएगा। आज पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों की स्थिति हम देख रहे हैं। नेपाल ने कायांतरण किया है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत धर्म-केंद्रित होता जा रहा है। यह विकट स्थिति है।

भारतीय समाज को अभियान चला कर विवेकपूर्ण बनाना होगा। दाभोलकर, कलबुर्गी, पनसारे, गौरी लंकेश और उनके जैसे लेखकों-विचारकों की चिंता और संघर्ष इसीलिए है कि हमारा देश-समाज आगे बढ़ने की जगह पीछे अतीत में चलने न लगे। यह बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे उन लोगों ने अपनी जान देकर निभाई। दाभोलकर की ये तीन किताबें हमारे हिंदी भाषी समाज का जरूरी पाठ्य होना चाहिए, क्योंकि हमारा समाज कुछ अधिक पिछड़ा हुआ है।

(प्रेमकुमार मणि लेखक-साहित्यकार हैं।)

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