Thursday, March 28, 2024

दलित: मौत के बाद भी अपमान का अन्त नहीं !

क्या कोई जानता है 21 वीं सदी की शुरुआत में चकवारा के दलितों के एक अहम संघर्ष को। याद है जयपुर से बमुश्किल पचास किलोमीटर दूर चकवारा के दलितों ने गांव के सार्वजनिक तालाब पर समान हक पाने के लिए इस संघर्ष को आगे बढ़ाया था। अठारह साल का वक्त गुजर गया जब दलितों ने इस संघर्ष में जीत हासिल की, जिसमें उन्हें तमाम मानवाधिकार संगठनों एवं प्रगतिशील लोगों ने भी साथ दिया था। (सितम्बर 2002)

विश्लेषकों को याद होगा कि इस संघर्ष में तमाम लोगों को डॉ. अम्बेडकर द्वारा शुरू किए गए ऐतिहासिक महाड़ सत्याग्रह की झलक दिखायी दी थी जब मार्च 1927 में हजारों दलित एवं अन्य मानवाधिकार प्रेमी महाड़ के चवदार तालाब पर जुलूस की शक्ल में गए थे और वहां उन्होंने पानी पीया था। जानवरों को वहां पानी पीने से कोई मना नहीं करता था, मगर दलितों को रोका जाता था।( (For further details see : Mahad – The Making of the First Dalit Revolt – Dr Anand Teltumbde, Navayana)

चकवारा में बाद में क्या हुआ इसके बारे में तो अधिकतर लोग नहीं जानते होंगे।जब दलितों ने सार्वजनिक तालाब से पानी का उपयोग शुरू किया, कथित ऊंची जाति के लोगों ने रफ्ता-रफ्ता इसके प्रयोग को बन्द कर दिया, क्योंकि उनका कहना था कि अब पानी अशुद्ध हो गया है। मामला वहीं तक नहीं रुका। दलितों द्वारा अपने अधिकारों पर इस दावेदारी से क्षुब्ध और उन्हें और अपमानित करने के लिए सवर्णों ने एक सुनियोजित ढंग से इस तालाब को गांव के सीवर में तब्दील कर दिया। ‘कुछ लोगों ने तो बाकायदा अपने घरों से गंदे पानी की निकासी के लिए नालियां बनवायीं और उनका मुंह तालाब की दिशा में मोड़ दिया। (salmanusmani.blogspot.com)

इसे एक विचित्र संयोग कहा जा सकता है कि एक गांव के तालाब के सीवर में रूपांतरण – जिसे कभी ऊंची जाति के लोग पवित्र कहते थे – की इस घटना की खास किस्म की प्रतिध्वनि लगभग 800 किलोमीटर दूर वीरम गाम जो अहमदाबाद से बमुश्किल 50 किलोमीटर दूर स्थित है, सुनायी दी।

यहां दलितों के विशेष इस्तेमाल के लिए बना गांव का एक श्मशान जहां मृतकों को गाड़ा जाता था और उनके लिए एक किस्म की पवित्र जगह थी साथ ही जहां वे आकर प्रार्थना करते थे,  एक बड़े सीवर नाले में तब्दील कर दिया गया। इसे अंजाम देने वाले गांव वाले नहीं थे बल्कि अगल-बगल की नयी नयी बनी हाउसिंग सोसायटीज के अपार्टमेण्ट के निवासी थे, जिनमें से अधिकतर शिक्षित मध्यम वर्गीय परिवारों से सम्बद्ध थे। छह माह का अरसा गुजर गया जबसे वनकर, चमार, रोहित, दंगासिया, शेतवा आदि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित जातियों के आत्मीयों की मुक्तिधाम में बनी कब्रें/समाधियां गंदे पानी में डूबी हैं। स्थितियां इतनी ख़राब हैं कि जब पिछले दिनों एक दलित बुजुर्ग की मौत हुई, तब उसके रिश्तेदारों को उनकी लाश पांच किलोमीटर दूर बने किसी अन्य श्मशान में ले जानी पड़ी। (justicenews.co.in)

यह अधिक विचलित करने वाली बात है कि दलितों द्वारा बार-बार की गयी शिकायतों के बावजूद जिला प्रशासन ने इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है। शायद उनके लिए मृत्यु के बाद गरिमा का प्रश्न – खासकर वंचित तबकों के लिए – उठता ही नहीं है।

एक मीडियाकर्मी से बात करते हुए दलित आन्दोलन के एक कार्यकर्ता ने बेहद उद्विग्न मन से कहा। ‘उन्हें तब अपमानित किया गया जब वह जिन्दा थे। और अब जब वे मर गए हैं तब ऊंची जाति के लोग सचेतन तौर पर हमारे श्मशान में गंदे ठोस एवं तरल पदार्थ डाल रहे हैं।’’(वही)

अब जबकि मामला सुर्खियों में आया है यह देखना समीचीन होगा कि क्या विजय रूपानी सरकार इस मामले में उचित कार्रवाई करेगी और इस योजना के अमलकर्ताओं के खिलाफ अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 (संशोधित) के प्रावधानों के तहत कार्रवाई करेगी।

इसके पहले कि हम इस गलतफहमी का शिकार हो जाएं, इस बात पर जोर डालना मौजूं होगा कि वीरमगाम की घटना कोई अपवाद नहीं है। गुजरात खुद एक क्लासकीय केस प्रस्तुत करता है। वर्ष 2001 की बात है जब नरेश सोलंकी के ढाई साल के भतीजे की मौत हुई।

बनासकांठा जिले के पालनपुर ब्लॉक के हुडा ग्राम के पीड़ित परिवार ने उसे समुदाय के श्मशान में जाकर दफना दिया। जब तक वह घर पहुंचते ख़बर आयी कि गांव के पटेल समुदाय के लोगों ने ट्रैक्टर से बाकायदा उस लाश को कब्र से बाहर निकाला है। दरअसल दबंग पटेल जिन्होंने श्मशान के एक हिस्से पर कब्जा किया था वह इस बात से क्षुब्ध थे कि वहां दलितों ने अपनी लाश दफनायी है।

इस घटना के डेढ़ दशक बाद तक – जब तक इस मामले की रिपोर्ट मिली थी – हुडा गांव के दलित आज भी कलेक्टर तथा गांव पंचायत की तरफ से जमीन के एक टुकड़े के आवंटन के इन्तज़ार में है, जहां वह अपने मृतकों को दफना सकें।

आज से एक दशक से अधिक समय पहले मेल टुडे अख़बार ने फरवरी के पहले सप्ताह में (2009) इस मुद्दे पर विस्तृत स्टोरी की थी। रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया था कि किस तरह दलितों को श्मशान की साझा जमीनों को इस्तेमाल करने नहीं दिया जाता और अक्सर उन्हें गांव के पास की किसी गंदी जमीन में अपने मृतकों का अंतिम संस्कार करना पड़ता है। और अक्सर ऐसा होता है कि दलित जब इस टुकड़े का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं तो वर्चस्व शाली जातियां इन जमीनों पर कब्जा करती हैं। 

गुजरात राज्य ग्राम पंचायत सामाजिक न्याय समिति मंच द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया था कि ‘‘गुजरात के 657 गांवों में से 397 गांवों में दलितों के अंतिम संस्कार के लिए कोई अलग जमीन नहीं है। जिन 260 गांवों में ऐसी जमीन आवंटित की गयी है, 94 गांवों की जमीनों पर वर्चस्वशाली जातियों ने कब्जा किया है और 26 गांवों में वह जमीन निचली सतह पर है इसलिए अक्सर वहां पानी भर जाता है।’’

एक क्षेपक के तौर पर यहां इस बात को जोड़ा जा सकता है कि जब मृतकों को दफनाने का प्रश्न उठता है तब दलितों एवं मुसलमानों के बीच एक विचित्र साझा पन दिखता है। वर्चस्व शाली तबकों द्वारा जब उनके कब्रगाहों पर कब्जा जमाया जाता है तो मुसलमानों एवं दलितों का अनुभव एक जैसा ही होता है। कुछ साल पहले गुजरात उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा था और राज्य सरकार को यह निर्देश देना पड़ा था कि वह पाटन जिले में जहां मुसलमानों के कब्रगाह पर दबंग तबकों द्वारा कब्जा जमाया जा रहा है, वहां पुलिस तैनात करे। 

अभी पिछले अगस्त की बात है जब तमिलनाडु के वेल्लोर जिले का वनियामबादी तालुक राष्ट्रीय सुर्खियों में आया जब एक वीडियो वायरल हुआ जहां एक मृतक की लाश को लोग रस्सी से बांधे हुए एक पुल के नीचे पहुंचाते दिख रहे थे। (indiatoday.in)  

दरअसल 46 वर्ष के दलित व्यक्ति एन कुप्पम की अंतिम यात्रा को ऊंची जातियों ने रोक दिया था। उनका कहना था कि वह उनके इलाकों से नहीं जाएगी, जिस वजह से उन्हें उस लाश को पुल से नीचे रस्सी बांध कर पहुंचाना पड़ रहा था।बमुश्किल तीन माह बाद उसी किस्म की ख़बर कोयम्बटूर जिले के विधि गांव से सुनायी दी। (news18.com/news) यहां भी एक विडियो वायरल हुआ जिसमें दिखाया गया था कि श्मशान तक मृतक व्यक्ति को ले जा रहे दलित समुदाय के लोग सीवर के रास्ते या कूड़ादान के रास्ते आगे बढ़ रहे हैं, पता चला कि उनकी बस्ती से श्मशान तक जाता रास्ता ऊंची जाति बहुल इलाकों से गुजरता था और इसी वजह से उन्होंने रास्ता रोक दिया था। गौरतलब है कि इस दिक्कत के बारे में गांव के 1,500 दलित परिवारों ने जिला प्रशासन को बार-बार लिखा है मगर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

महज चार माह पहले सबरंग इंडिया ने इस परिघटना की अखिल भारतीय मौजूदगी पर नज़र डाली थी।

रिपोर्ट का शीर्षक था ‘दलित, ओबीसीज फोर्सड टू बरी देअर डिसीज्ड बाई द रोडसाइड’ (अर्थात सड़क किनारे अंतिम संस्कार के लिए मजबूर दलित, ओबीसी) जिसमें रेखांकित किया गया था कि किस तरह ‘जाति आधारित भेदभाव और कार्पोरेट द्वारा जमीनों पर कब्जा करने के चलते, कथित ऊंची जाति के लोग समुदाय के मृतकों की गरिमा तक छीन रहे हैं। (https://sabrangindia.in)

प्रस्तुत रिपोर्ट में उद्धृत दो अलग-अलग राज्यों के दो उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि किस तरह आज़ादी के सत्तर से अधिक साल बीत जाने के बावजूद, जाति और उससे सम्बद्ध भेदभाव अभी भी समूचे उपमहाद्वीप में मिलते हैं।

इस रिपोर्ट में वर्ष 2011 की डीएनए की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि महाराष्ट्र के सामाजिक न्याय मंत्रालय ने खुद बताया था कि ‘दलित श्मशानों पर 43,722 गांवों में से 72.13 फीसदी गांवों में कब्जा हो चुका है।’ इसमें इस बात का भी उल्लेख था कि दलितों की एक अंतिम संस्कार यात्रा पर पुरोहित की अगुआई में ऊंची जातियों द्वारा हमला किया गया था और ‘अंततः दलितों को मृतक की लाश को तयशुदा श्मशान में दफनाने के बजाय रोड के किनारे दफनाना पड़ा था।’

इस रिपोर्ट में उद्धृत एक और उदाहरण पंजाब से जुड़ा था।

इसमें इस बात को रेखांकित किया गया था कि ‘दलित जो राज्य की आबादी का लगभग 30 फीसदी हिस्सा है उन्हें राज्य के पश्चिमी हिस्से में झुग्गियों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है ताकि उनकी बस्ती से आने वाली हवाएं ऊंची जातियों का छुआछूत न करें। इतना ही नहीं कि दलितों को मुख्य श्मशान में जलाने से मना करने के साथ-साथ उन्हें इस बात के लिए भी मजबूर किया जाता है कि वह अलग गुरुद्वारा बनाएं।’ (वही)

महाराष्ट्र की तरह – जहां 19 वीं सदी के मध्य से समाज सुधार आन्दोलन चले हैं – केरल में भी नारायण गुरू, अय्यनकली जैसों की अगुआई में आन्दोलन चले हैं ; अलबत्ता विडम्बना यह है कि जब दलितों का सवाल आता है तो आज भी चीजें गुणात्मक तौर पर अलग नहीं हैं।

‘द न्यूजमिनट’ के मुताबिक सानु कुम्मिल, एक पत्राकार ने इस विषय पर एक डाक्युमेंट्री तैयार की है जिसका नाम है ‘सिक्स फीट अंडर’। (www.thenewsminute.com) सानु ने बताया कि सार्वजनिक श्मशानों में स्थान की कमी के चलते लोग अपनी ही जमीनों पर अपने मृतकों को दफनाने के लिए मजबूर हो रहे हैं और जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है, वह अपने घरों को तोड़ने तथा वहीं अपने आत्मीयों को दफना रहे हैं।  (www.thenewsminute.com)

वीरमगाम, गुजरात, वनियामबाड़ी तालुक, कोयम्बटूर जिले का विधी गांव, सूबा महाराष्ट्र, पंजाब, केरल … हम इस फेहरिस्त को बढ़ा सकते हैं ताकि यह जाना जाए कि शुद्धता एवं प्रदूषण के तर्क पर टिका समाज किस तरह आज भी विभिन्न तरीकों से उन तबकों को अपमानित करने में मुब्तिला रहता है जिन्हें वह ‘अन्य’ मानता है। यह इस कड़वी सच्चाई को उजागर करता है कि भारत के गणतंत्र बनने के सत्तर साल बाद तथा जाति, लिंग, नस्ल आदि आधारों पर भेदभाव की समाप्ति के ऐलान के बाद भी जमीनी स्तर पर कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है।

शायद इस मामले में डॉ. अम्बेडकर को पूर्वानुमान था जिन्होंने भारत की जनता के नाम संविधान अर्पित करते हुए कहा था, ‘‘हम राजनीतिक जनतंत्र के युग में पहुंच गए हैं – ऐसा युग जहां एक व्यक्ति को एक मत/वोट हासिल है, लेकिन जो सामाजिक जनतंत्र के दौर में – एक व्यक्ति एक मूल्य – अभी तक नहीं पहुंच सके हैं।’

इसीलिए शायद उन्होंने एक ऐसे जनतंत्र की कल्पना की थी ‘जो महज सरकार का रूप नहीं होगा। उनके लिए इसके मायने थे मुख्यतः सहजीवन का रूप ; मुख्यतः एक सामुदायिक अनुभव का साझापन। सारतः यह अपने ही लोगों के प्रति सम्मान की भावना से जुड़ा होगा। ’(‘primarily a form of associated living, of conjoint communicated experience. It is essentially an attitude of respect and reverence towards our fellow men’)

(सुभाष गाताडे लेखक और चिंतक हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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