डॉ आंबेडकर और सनातन संस्कृति-1: अमित शाह के गले में किसकी आवाज? 

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बीते 17 दिसंबर यानी मंगलवार को भारत के गृह मंत्री अमित शाह द्वारा राज्यसभा में दिए गए डॉ भीमराव आंबेडकर संबंधी बयान को लेकर इन दिनों विपक्ष बेहद आक्रोशित है। शाह के बयान को लेकर चौतरफा निंदा हो रही है, जो कि स्वाभाविक है। बदले में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से भी तरह-तरह की दिखावटी और बनावटी पैंतरेबाजी की जा रही है।

शाह के बयान का दूरगामी नतीजा क्या होगा, हम आगे चलकर इसका भी विश्लेषण करेंगे। फिलहाल, हमें यह समझ लेना जरूरी है कि गृह मंत्री अमित शाह जिस हिंदूवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, आंबेडकर का उससे रिश्ता क्या है?

हम पाते हैं कि आजादी के फौरन बाद संसद में कानून मंत्री के तौर पर आंबेडकर द्वारा पेश किए गए हिंदू विधेयक के पहले और बाद में भी जनसंघ (जिसे बाद में बदलकर भारतीय जनता पार्टी नाम दिया गया) ने कभी भी उनका समर्थन नहीं किया।

इसके अनगिनत ऐतिहासिक प्रमाण लिखित रूप से मौजूद हैं। संघ परिवार और उससे जुड़े दूसरे संगठन तथा उसका राजनीतिक मुखौटा बनी भारतीय जनता पार्टी का आंबेडकर के विचारों से छत्तीस का ही आंकड़ा रहा है।

यही वजह रही कि ‘बजरंगी पत्रकार’ कहे जाने वाले और वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे अरुण शौरी ने worshiping false God ( झूठे भगवान की पूजा करना) नामक पुस्तक लिखकर आंबेडकर के कद को छोटा करने की कोशिश की।

इस पुस्तक में शौरी ने कई आधे-अधूरे और अप्रमाणित तथ्यों के आधार पर आंबेडकर की प्रतिमा को खंडित करने का भरसक प्रयास किया।

इस पुस्तक की एक गहरी समीक्षा भारतीय गणेशा ने लिखी, जिसमें उन्होंने शौरी द्वारा प्रतिपादित एक अंश का खुलासा इस तरह किया है-, ‘भारत की जाति व्यवस्था पर आधारित आंबेडकर की पुस्तक ‘जाति का विनाश’  ‘उच्च’ जातियों’ (ब्राह्मणों और बनिया) के खिलाफ तोते की औपनिवेशिक और मिशनरी तर्कों की बयानबाजी जैसी थी।

उन्होंने अंग्रेजों को यह विश्वास दिलाया कि वह हरिजनों के एकमात्र प्रतिनिधि हैं, ठीक वैसे ही जैसे जिन्ना मुसलमानों के लिए थे। अपने संगठन को दलित वर्गों का एकमात्र प्रतिनिधि बनाने के लिए उनकी निरंतर कोशिशों के बावजूद, अंग्रेजों ने उन्हें अहमियत नहीं दी।

आंबेडकर ने कभी कोई चुनाव नहीं जीता। उनकी पार्टी हरिजन निर्वाचन क्षेत्रों में भी बुरी तरह से कांग्रेस से हार गई थी।’ इसमें कुछ तथ्य ठीक हैं लेकिन उनकी व्याख्या का उद्देश्य और चुनाव सतही और मूर्तिभंजन तक सीमित है। 

इस पुस्तक के प्रकाशन से यह तथ्य भी सामने आया कि संघ परिवार और भाजपा शायद यह भांप गए कि आने वाले समय में आंबेडकर का प्रभाव और उनकी विचारधारा बलवती होने वाली है। इसलिए, भाजपा के बौद्धिकों ने तय किया कि आंबेडकर की विचारधारा को फलने-फूलने से पहले ही कुचल दिया जाए।

यह कहना शायद अभी जल्दबाजी होगी कि भाजपा को इससे कितना और कैसा लाभ हुआ। लेकिन यह साफ तौर पर दिख रहा है कि उगते सूरज की लालिमा को नजरअंदाज उसके बस में नहीं रहा।

बल्कि, यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि उल्टे भाजपा ने जब देख लिया कि आंबेडकर की विचारधारा को कुचलना उसके वश की बात नहीं है तो दबे गले से सही उसने उन्हें अपने खेमे में खींचने की कोशिश की। जिन आंबेडकर की विचारधारा को संघ परिवार और भाजपा, चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करते थे, वे धीरे-धीरे अपने कार्यक्रमों में आंबेडकर की तस्वीरें टांगने लगे।

लेकिन, अमित शाह के बयान से भाजपा की वह मिट्टी की हंडिया फूट गई, जिसे वह गले से लटकाने का स्वांग कर रही थी। कह सकते हैं, इंदीवर लिखित ‘कामचोर’ फिल्म के गाने का सहारा लेने में कोई बुराई नहीं है, जिसमें कहा गया है- जुबां पर दिल की बात आ गई। 

दरअसल, अमित शाह जिस संस्कृति और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस खांचे में आंबेडकर को पचाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इसलिए दलित वोट बैंक की सतही राजनीति करने, दिखावटी कार्यक्रम गढ़ने और औने-पौने किसी को कोई पद दे देने से आंबेडकर का अंगीकरण नहीं हो सकता।

क्योंकि, आंबेडकर जिस भाव-भूमि पर खड़े हैं, उसका कोई तार संघ परिवार से मिलता ही नहीं है। हिंदू राष्ट्र और सनातन संस्कृति की जिस आधार-शिला पर भाजपा अपना पैर टिकाना चाहती है, आंबेडकर उसे छिन्नमूल करना चाहते हैं। आंबेडकर सिर्फ हिंदूवादी विचारधारा से छत्तीस का आंकड़ा नहीं रखते, बल्कि उसे धूलिसात करना चाहते थे।

जहां इतना वैषम्य हो, वहां भाजपा का बर्ताव उनके प्रति नरम कैसे हो सकता है। इसीलिए, अमित शाह के बयानों में इतनी कटुता और उपेक्षा परिलक्षित हुई है।

सनातन का विरोध यानी कटुता की जड़ें

आंबेडकर के परिनिर्वाण के कई दशक बाद यानी 1987 में महाराष्ट्र सरकार के तब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण के कार्यकाल में अंग्रेजी भाषा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक  RIDDLES IN HINDUISM ( हिंदूवाद या हिंदू धर्म की गुत्थियां) में कटुता की जड़ों को स्पष्टतौर पर दर्शाया गया है।

आंबेडकर द्वारा लिखित कई किताबों में इसका बहुमूल्य स्थान है। इस पुस्तक में आंबेडकर ने सनातन की चट्टान को ढहा दिया है।

पुस्तक के परिचय में ही वह लिखते हैं, “ब्राह्मणों ने यह प्रचारित किया कि हिंदू सभ्यता सनातन है, मतलब अपरिवर्तनीय है। बहुत से यूरोपीय विद्वानों ने भी यही राग अलापा है, जिनका कहना है कि हिंदू सभ्यता अडिग-अटल है। इस पुस्तक में मैंने यही बताने की चेष्ठा की है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है और हिंदू सभ्यता समय-समय पर बदलती रही है तथा अक्सर इसमें भारी बुनियादी परिवर्तन हुए हैं”।

“मैं लोगों को यह एहसास कराना चाहता हूं कि हिंदू धर्म सनातन नहीं है।…यह सब कमाई का धंधा है, धर्म जाए भाड़ में। ब्राह्मण को सिर्फ दक्षिणा से गरज है। दरअसल, ब्राह्मणों ने धर्म को व्यापार बना रखा है।…..जिन्हें अंधकार का एहसास ही नहीं है, वे प्रकाश की खोज क्यों करेंगे?”

इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं, “परंतु, ब्राह्मणों ने संदेह की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी से एक मंत्र फूंक दिया, लोगों के भीतर एक ढकोसला डाल दिया कि वेद इंसान की रचना नहीं हैं।

यदि हिंदू मनीषा जड़ हो गई है और हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति एक सड़े हुए बदबूदार पोखर की तरह हो गई है तो यह ढकोसला जड़ मूल खत्म करना होगा, यदि भारत को प्रगति करनी है तो।

वेद बेकार की रचनाएं हैं, उन्हें पवित्र और संदेह से परे बताने में कोई तर्क नहीं है।

ब्राह्मणों ने इन्हें केवल इसलिए पवित्र और संदेहातीत बना दिया क्योंकि उन्होंने इनमें पुरुष सूक्त के नाम से एक क्षेपक जोड़ दिया था, जिसने ब्राह्मण को भूदेव (पृथ्वी का देवता) बना दिया। कोई यह पूछने का साहस नहीं करता कि जिन पुस्तकों में कबीलाई देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वे शत्रु का नाश कर दें, उनकी संपत्ति लूट लें और अपने अनुयायियों में बांट दें, वे संदेहातीत कैसे हो गईं?

लेकिन अब समय आ गया है कि हिंदू इस अंधे कुएं से बाहर निकलें। उन सड़ियल विचारों को तिलांजलि दे दें जो ब्राह्मणों ने फैलाए हैं। इनसे मुक्ति पाए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। मैंने हर तरह की जोखिम जान कर यह रचना की है। मैं इसके परिणामों से नहीं डरता। यदि मैं लोगों की आंखें खोलने में सफल होता हूं तो मुझे प्रसन्नता मिलेगी। बी-आर. आंबेडकर।’ ( जारी)

(राम पाठक लेखक और पत्रकार हैं।)

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