संस्मरण: नहीं रहे हरियाणा के जनबुद्धिजीवी डीआर चौधरी

Estimated read time 1 min read

शिक्षाविद, चिंतक, लेखक और हरियाणा लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष रहे दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर और ‘पींग’ साप्ताहिक के संस्थापक संपादक दौलत राम चौधरी  हमारे बीच नहीं रहे। उनका बीती रात रोहतक में उनके निवास पर निधन हो गया। वे डीआर चौधरी नाम से लोकप्रिय थे और 86 बरस के थे। वे दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे थे। 

उनके परिवार में पत्नी परमेश्वरी देवी, बेटी प्रोफेसर कमला चौधरी, पुत्र प्रोफेसर भूपेंद्र चौधरी और फिल्मकार पुत्र अश्विनी चौधरी शामिल हैं। कारगिल लड़ाई में शहीद सैनिकों के परिजन को पेट्रोल पंप आवंटित करने के तब की अटल बिहारी वाजपेई सरकार की योजना को लागू करने में भ्रष्टाचार पर 2003 में बनी बहुचर्चित फिल्म ‘धूप’ का निर्देशन करने वाले फिल्मकार अश्विनी चौधरी ही हैं। उन्होंन  इससे पहले 2000 में सामाजिक सरोकारों पर *लाडो नाम से बनी हरियाणवी फिल्म का निर्देशन किया था।

चौधरी साहब ने 1980 के दशक में हरियाणा अध्ययन केंद्र और ‘पींग’ नाम के विशिष्ट पाक्षिक हिंदी अखबार की स्थापना की थी। उन्होने  मौजूदा कई वरिष्ठ पत्रकारों को पींग से  पत्रकारिता की शुरुआत करने का अवसर दिया था। उनमें स्वयं हम भी शामिल हैं।

हरियाणा की औरतों और अन्य ने दिल्ली से लगे लामपुर बॉर्डर पर  देसी शराब के ठेकों के विरोध में आंदोलन शुरू किया तो डीआर चौधरी साहब ने उसका पूरा साथ दिया। उन्होंने दुनिया को इस आंदोलन को खबर देने के लिए मुझे लामपुर भेजा था और उसकी रिपोर्ट प्रमुखता से प्रकाशित किए। 

उन्होंने इस अखबार के जरिए हरियाणा के लोगों को आर्थिक  सामाजिक राजनीतिक सरोकारों से जोड़ने के लिए गूढ़ विषयों पर सरल भाषा में आलेख छापे । इनमें एक वह भी था जो उन्होंने काला धन के सारे पहलुओं को समेटते हुए मुझसे लेख  लिखवाया था। उर्दू और हिन्दी के मरहूम साहित्यकार हंसराज रहबर ने इस लेख को पींग के 16 मई 1985 के अंक में छापने के लिए सम्पादक के नाम पत्र लिख कर चौधरी साहब के संपादकीय कदमों की सराहना की थी।

इस पत्रिका का एक पेज कविताओं  के लिए समर्पित था। बहुत सारे नवोदित कवियों की कविताएं पहली बार पींग में ही छपीं। इस पेज के साथ ही अखबार का संपादन सहयोग का काम मौजूदा वरिष्ठ पत्रकार और कवि विमल कुमार संभालते थे। इसी पेज पर मेरे द्वारा नोबेल पुरस्कार विजेता ग्यूंटर ग्रास की दो कविताओं का मूल जर्मन से हिंदी अनुवाद छपा था। ये अनुवाद मैंने जेएनयू में जर्मन भाषा एवं साहित्य के छात्र रहे कश्मीरी मूल के इम्तियाज बक्शी मोंटी के सहयोग से किया था।

हमने पींग के लिए काला धन पर उपरोक्त  आलेख जवाहारलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) , नई दिल्ली के ओल्ड कैम्पस की लायब्रेरी में तैयार किया था। यही आलेख बाद में कुछ नवीनीकरण के साथ नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक ‘नेशनल दुनिया’ और मासिक पत्रिका ‘समयांतर’ के अलावा पत्रकार सीमा मुस्तफा की न्यूज पोर्टल, द सिटिज़न-हिंदी में भी छपा। 

 वो लेख वर्ष 2020 में नेताजी  सुभाष चन्द्र बोस की जयंती के उपलक्ष्य में आर्थिक विषयों पर छपी मेरी किताब ‘न्यू इंडिया में मंदी’ में इकोनोमिक टाइम्स के सलाहकार संपादक टी के अरुण और जेएनयू में पढ़े अर्थशास्त्री अहमद शाह  फिरोज के सुझाव पर ज्यों का त्यों प्रकशित किया गया। हम खुद अचरज में पड़ गये कि कालाधन पर तीन दशक से भी पहले के आलेख और उसकी मौजूदा स्थिति में मोदी राज की नोटबंदी की कष्टकारी बातों को छोड़ मूल प्रस्थापना में कोई ख़ास फर्क नहीं आया है। 

डीआर चौधरी का कविता प्रेम 

उस किताब के  आवरण चित्र का चुनाव हमने पींग में प्रकाशित  ग्युंटर ग्रास (16 अक्टूबर 1927-13 अप्रैल  2015 ) की घोंघा ( स्नेल ) शीर्षक कविता के हिंदी अनुवाद से ही प्रेरित होकर किया था। उन्हें 1959 में प्रकाशित उनके उपन्यास ‘ द टिन ड्रम’  के लिए 1999 में नोबेल साहित्य पुरस्कार प्रदान किया गया। इसमें उन्होंने नाजीवाद के उदय पर जर्मनीवासियों की प्रतिक्रिया, विश्वयुद्ध का खौफ और इसमें हार से उपजे अपराधबोध को दर्शाया है। बाद में इस किताब पर बनी फ़िल्म को ऑस्कर  पुरस्कार मिला। उनकी उक्त कविता में जो भाव उभरते हैx उनका कुछ हद तक साम्य भारत के मौजूदा हालात से किया जा सकता है। 

मैं जब भी रोहतक जाता था कवि मनमोहन के साथ डीआर चौधरी साहब से भेंट करने उनके घर जरूर जाता था। उनसे आखरी भेंट 2018 में हुई। उस भेंट के दौरान मौजूद उनकी पत्नी परमेश्वरी देवी का कहा एक वाक्य आज भी जेहन में गूंजता है। वो था आप लोगों के भेंट करने आने से चौधरी साहब को नशा सा हो जाता है।

(चंद्र प्रकाश झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author