Saturday, September 23, 2023

द्रोहकाल में चुनाव और चुनाव में प्रार्थना

इतिहास अपने को दोहराता है। एक बार फ़िर संसार पिछली सदी के शुरूआती दिनों के दौर में पहुँच गया है। शासकों और शासितों में बंटे हुए समाज अब शासक समर्थक और शासक विरोधी समाजों में विभाजित हो गए हैं। नए सत्ता-समीकरण (निर्वाचित सरकार, सत्तारूढ़ दल, ‘विचार के स्तर पर उसकी नियामक शक्तियाँ’, बड़ी कॉरपोरेट पूँजी और इन सब को नियंत्रित करती साम्राज्यवादी शक्तियां) के तहत मोदी सरकार ने पिछले सात साल से एक आज्ञाकारी समाज बनाने की जो परियोजना चला रखी है उसमें भय का माहौल खड़ा करके भारतीय समाज का इस तरह से विभाजन किया गया है कि हरेक नागरिक की अपनी भारतीय होने की ‘पहचान’ कहीं बहुत पीछे छूट गयी है।

भारतीय होने से पहले उसे ‘हिन्दू’ या ‘मुस्लिम’ के रूप में ही नहीं बल्कि भाजपाई और गैर-भाजपाई के रूप में चिन्हित कर लिया गया है। असहमति को देशद्रोह करार दे दिया गया है। मनुष्य को मनुष्य होने से इतर कोई पहचान मिल जाये तो उसके मनुष्य होने के मूल तत्व नष्ट हो जाते हैं। वह हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सिख, यहूदी, हुतू, या तुत्सी तो हो जाता है मनुष्य नहीं रहता। (यही ‘पूर्वाग्रह’ या ‘विभेदीकरण’ भारत में वर्ण-व्यवस्था पर और पश्चिम में ‘रंगभेद’ पर भी लागू होता है।) पैदा होते ही बच्चे की देह में इस पूर्वाग्रह का टीका पूरे उत्सव आयोजन और धार्मिक रीत-रस्मों के साथ मुंडन, खतना, बैप्तिस्म वगैरह करके लगा दिया जाता है।

श्रेष्ठता के पूर्वाग्रह/भ्रम में लिपटी यह विशेष पहचान ही मनुष्य को इसका चयन करने की मनोवृति (सामान्यतः प्रतिकूल) पैदा करती है कि किससे घृणा की जाये, किसे नापसंद किया जाये। आहिस्ता-आहिस्ता मनुष्य अपने जैसों की वाली भीड़ का हिस्सा बनकर ‘हम’ हो जाती है तो दूसरे ‘वो’ वालों को हिकारत की नज़र से देखने लगता है और उसके अवचेतन में उसकी अपनी घृणा सामूहिक घृणा का रूप धारण करने लगती है। इस सामूहिक घृणा के ध्रुवीकरण और विभाजनकारी राजनीति का कुकर्म राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा से जुड़े तमाम संगठनों के नेतागण तन-मन-धन से कर रहे हैं। मिसाल के तौर पर एक नारे को ही लें- ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो……को’। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा नेता किन लोगों को ‘देश के गद्दार’ बताते हुए गोली मारने की बात कर रहे हैं।    

यह द्रोहकाल है, जिसमें भारत के पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। पिछले दिनों एक साल तक चले किसान आन्दोलन ने भाजपा के हिन्दू-राष्ट्र की विभाजनकारी परियोजना को गहरी चोट पहुंचाई है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों ने जिस सामाजिक-धार्मिक एकता का परिचय देते हुए इन्हें पीछे हटने पर मजबूर किया है उससे भाजपा और बौखलाई हुई है। दूसरा सिर मुंड़ाते ही ओलों की बौछार हो गई जब भाजपा के कई नेता पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। पेगासस की खरीद और अपने ही नागरिकों की जासूसी के मामले में भी भाजपा बुरी तरह से फँस गयी है। इसलिए भाजपा की ओर से चुनाव में दुगने दम-ख़म से नफरत की सियासत का खेल खेला जा रहा है।

महंत आदित्यनाथ सहित सभी नेताओं ने जिन्ना के जिन्न को कंधे पर उठा लिया है। चीन और पाकिस्तान के खतरे और कांग्रेस संबंधों का राग लगातार अलापा जा रहा है। पंजाब में अगर देखें तो कांग्रेस से खदेड़े गए अमरेन्द्र सिंह (जिन्होंने भाजपा को जादू की झप्पी दी है) भी पाकिस्तान से देश को खतरे की बात आये दिन कर देते हैं। बल्कि उन्होंने तो नवजोत सिद्धू पर पाकिस्तान से संबंधों के निराधार आरोप भी लगाये हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं कि अपनी ज़मीन खिसकती देखकर कोई भिवंडी या बालाकोट-पुलवामा जैसी कलंक कथा एक बार और दोहरा दी जाये। किसी धर्म-स्थल पर गाय की पूँछ या सूअर की मूँछ मिल जाये और लोग खून की होली खेलने लगें। भारत में चुनाव और नफरती हिंसा का चोली-दमन का साथ है। चुनाव से पहले या चुनाव के बाद भयावह हिंसा से सड़कों पर खून बहा कर ही हिंदुत्ववादी भगवा आतंकी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाते रहे हैं। धर्म के ठेकेदारों ने ऐसे कई तोहफ़े समाज को दिए हैं, उनमें से कुछेक का ज़िक्र करना तो बनता ही है।

11 मई, 1967 को निकाले गए शिवजयंती जुलूस के दौरान भिवंडी के इतिहास में पहला सांप्रदायिक दंगा हुआ था। पुलिस के रिकार्ड और न्यायमूर्ति डीपी मदान जाँच आयोग की रिपोर्ट में दिए गए विवरणों से यह स्पष्ट है कि यह दंगा जुलूस में शरीक लोगों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार का नतीजा था। पुलिस को अंत तक जुलूस के मार्ग और समय के मामले में अंधकार में रखने, रोकने पर उत्तेजक नारे लगाने और मस्जिदों पर गुलाल फेंकने से यह स्पष्ट था कि कुछ लोग दंगा कराना चाहते थे और वे अपने प्रयत्न में सफल भी हुए। इस प्रयत्न के पीछे कौन-सी शक्तियाँ थीं और किन्हें सफलता का पुरस्कार मिला, यह समझने के लिए न्यायमूर्ति मदान की यह टिप्पणी पर्याप्त होगी-1967 के म्यूनिसिपल चुनावों में, जहाँ तक हिंदू सभासदों का प्रश्न था, वे सभी लोग जीते, जिन्होंने शिवजयंती उत्सव में सक्रिय भाग लिया।

1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुए सिख नरसंहार के पीछे जो लोगों के मन में आक्रोश एक दिन में अचानक नहीं उठ खड़ा हुआ था। कई सालों से पंजाब में सियासतदानों द्वारा जो उग्रवादियों को मदद दी जा रही थी और हिंसा का तांडव खेला जा रहा था यह नरसंहार उसी का नतीजा था। यह नरसंहार कभी संभव न हो पाया होता अगर कांग्रेसी नेताओं की शह पर अलग-अलग नगरों में पुलिस द्वारा लापरवाही न बरती गई होती। अनेक जगहों पर तो यह लापरवाही बलवाइयों के साथ सक्रिय सहयोग के रूप में भी देखने को मिली। नतीजा यह हुआ कि राजीव गाँधी को अगले चुनाव में इतने वोट मिले जितने कभी नेहरु को भी नहीं मिले थे। ऐसे में भाजपा के पूर्व मुख्य रणनीतिकार और रामजन्म भूमि आन्दोलन के प्रणेता गोविन्दाचार्य की सलाह याद आती है कि ‘कांग्रेस और भाजपा को मिलकर एक गठबंधन बना लेना चाहिए।’

2002 में गुजरात में जो हुआ उसे कौन भूल सकता है। अरुंधती रॉय लिखती हैं- ‘फ़रवरी 2002 में ट्रेन के एक डिब्बे में आग लगा दिए जाने के बाद, जिसमें अयोध्या से आ रहे 58 हिन्दू तीर्थ यात्री जिन्दा जल गए, तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात की भाजपा सरकार ने राज्य में सुनियोजित ढंग से मुसलमानों का कत्लेआम करवाया…..2000 से ज्यादा लोग क़त्ल किये गए। औरतों को सामूहिक बलात्कार के बाद जिन्दा जला दिया गया। डेढ़ लाख मुसलमान बेघर हो गए।’ जनसंहार के बाद चुनाव हुए तो जनता ने मोदी को सत्ता की कुर्सी पर ऐसा बिठाया कि वह मुख्यमंत्री तो हुए-हुए फ़िर प्रधानमंत्री भी हो गए।     

2019 के चुनावों की बात करें तो इसमें पुलवामा में हुए आतंकी हमले (जिसके बारे में कहा जाता है कि चुनावों के चलते यह हमला हो जाने दिया गया) में हुई 44 जवानों की शहादत के बाद जिस तरह से राष्ट्रवाद की लहर उठी और स्वयं मोदी ने शहीद जवानों के नाम पर वोट मांगे इसने उन्हें दोबारा सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त किया। फारुख अब्दुल्ला ने तो बड़े स्पष्ट शब्दों में यह बात कही थी कि पुलवामा हमले के पीछे मोदी का हाथ था। सच्चाई क्या है ख़ुदा जाने या मोदी जाने पर यह तो सच है कि सत्ता पाने के लिए सियासतदान कुछ भी कर सकते हैं।

इस बार फ़िर भाजपा को लुटिया डूबती नज़र आ रही है। पाँच राज्यों के इन चुनावों को 2024 का सेमी फाइनल कहा जा रहा है। इसलिए यह बुद्धिजीवियों द्वारा आशंका व्यक्त की जा रही है कि फ़िर कहीं कोई बड़ा धमाका हो सकता है। ना हो तो अच्छा है लेकिन अगर हुआ तो स्मृतियों में शामिल कलंक कथाओं की फेहरिस्त में एक कथा और शामिल हो जाएगी। लोग उसे भी नहीं भूल पाएंगे। मिलान कुंदेरा की कही सयानी बातों में से एक बात यह भी है कि ‘सत्ता के खिलाफ व्यक्ति का संघर्ष दरअसल भूलने के खिलाफ़ यादाश्त का संघर्ष है।’

वैसे खौफज़दा लोग सिर्फ़ प्रार्थना करते हैं।  

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल पंजाब में रहते हैं।)

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