गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तकें बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों के स्टाल पर बिकती हुई मिल जायेंगी। इन पुस्तकों की दो विशेषताएं हैं, एक तो ये इतनी सस्ती हैं कि लागत कीमत से भी कम में बेची जाती हैं। दूसरे, इसकी विशेषता है कि इस प्रकाशन से छपी पुस्तकों को धार्मिक माना जाता है। प्रकाशन के संचालक भी इसे धार्मिक साहित्य के तौर पर ही प्रस्तुत करते हैं, इसलिए इसके शीर्षक भी इसी तरह के रखे जाते हैं कि वे प्रथमत: धार्मिक दिखाई दें, यद्यपि यह किसी भी दृष्टि से धार्मिक साहित्य नहीं होता। धर्म की आड़ में ये समाज में निहायत पिछड़ापन, रूढिवादिता, अंधिवश्वास व अमानवीयता को प्रसारित कर रही है। इसको धर्म का आवरण इसलिए ही दिया जाता है कि लोगों की धर्म में आस्था होती है उसके आधार पर इसमें दी गई घोर मानव विरोधी सामग्री भी स्वीकार्य बनाई जा सकती है।
इस प्रकाशन ने समाज के विभिन्न वर्गों को ध्यान में रखते हुए विशेष सामग्री तैयार की है। बच्चों के लिए तथा स्त्रियों के लिए विशेष आचार-संहिता पेश की है, जो किसी भी तरह से धार्मिक तो है ही नहीं, बल्कि इन वर्गों के खिलाफ है। स्त्रियां कुल आबादी का आधा हिस्सा हैं, जो अन्य अन्य कारणों से कम हो रही हैं। भारतीय समाज में आधुनिकता की जब शुरुआत हुई और आधुनिक विचारों को ग्रहण किया जाने लगा तो सबसे पहले स्त्री से जुड़े सवालों को ही समाज सुधारकों ने उठाया। स्त्री से जुड़े सवालों को पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में रखकर टटोला गया कि उसके प्रति भेदभावपूर्ण रवैये व नजरिये में कितनी अमानवीयता छुपी हुई है। जो क्रूर व बर्बर परम्पराएं-प्रथाएं-मान्यताएं दिखाई दीं उनके खिलाफ संघर्ष छेड़कर समाज में नवजागरण की जमीन तैयार की, इस कार्य में सैंकड़ों संस्थाओं और व्यक्तियों ने योगदान दिया।
फिर चाहे राजाराम मोहनराय हों, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हों, देवेन्द्रनाथ ठाकुर हों, जोतिबा फुले हों, सावित्री बाई फुले हों, स्वामी दयानन्द हों या भीमराव आम्बेडकर हों सभी ने दकियानूसी व अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ मुहिम चलाई। सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा व स्त्री-स्वतंत्रता जैसे तमाम सवालों पर समाज में बहस चली और गहन मंथन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक स्त्री और पुरुष के प्रति समान रुख नहीं अपनाया जायेगा, तब तक समाज न तो प्रगति कर सकता है और न ही मानवता की कसौटी पर खरा उतरा जा सकता है।
समाज सुधारकों ने इन बुराइयों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया, लेकिन जो लोग सदियों तक दूसरों को अज्ञानी रखकर अपना वर्चस्व स्थापित किए हुए थे उनको यह रास नहीं आया और इसके विरोध में खड़े हुए। इन्होंनें अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए पुरातनपंथी व रूढ़िवादी विचारों को पुनर्स्थापित करने के लिए पूरी शक्ति लगा दी। गीता प्रेस, गोरखपुर की पुस्तकों पर एक नजर डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह समाज में पिछड़ेपन, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, असमानता, अज्ञानता व अवैज्ञानिकता को ही बढावा देना चाहता है और राष्ट्र-विरोधी भी है। यहां इस प्रकाशन द्वारा स्त्रियों के लिए प्रकाशित की गई विशेष सामग्री ‘नारी शिक्षा’, ‘नारी धर्म’, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’, ‘स्त्री-धर्म प्रश्नोतरी’, ‘दाम्पत्य जीवन का आदर्श’ आदि पुस्तकों पर ही चर्चा करेंगें।
नारी-शिक्षा
“प्राय: सभी धार्मिक तथा विद्वान् महानुभावों का यह मत है कि वर्तमान धर्महीन शिक्षा-प्रणाली हिन्दू-नारियों के आदर्श के सर्वथा प्रतिकूल है, फिर जवान लड़के-लड़कियों का एक साथ पढ़ना तो और भी अधिक हानिकर है। इस सहशिक्षा का भीषण परिणाम प्रत्यक्ष देखने पर भी मोहवश आज उसी मार्ग पर चलने का आग्रह किया जा रहा है।” (नारी शिक्षा-पृष्ठ-82)
“पहले ‘समान शिक्षा’ पर कुछ विचार करें। शिक्षा का साधारण उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई पवित्र तथा अभ्युदयकारिणी शक्तियों का उचित विकास करना। परन्तु क्या पुरुष और स्त्री में शक्ति एक सी है? क्या पुरुष और स्त्री की शक्ति के विकास करने की आवश्यकता है? गहराई से विचार करने पर स्पष्ट उतर मिलता है ‘नहीं’। दोनों की शरीर रचना में भेद है, दोनों के हृदयों में भेद है और दोनों के कर्मक्षेत्र भी विभिन्न हैं। अत: इस भेद को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। इस प्रकृति-वैचित्रय को मिटाकर आज हम प्रमादवश स्त्री-पुरुष को सभी कार्यों में समान देखना चाहते हैं।” ( नारी शिक्षा -पृ. 83)
“आज की यूनिवर्सिटियों की शिक्षा नारी जाति के लिए निरर्थक ही नहीं वरन अत्यन्त हानिकारक है। जो शिक्षा स्त्रियों के स्वाभाविक गुण मातृत्व, सतीत्व, सदगृहिणीपन, शिष्टाचार और स्त्रियोचित हार्दिक उपयोगी सौन्दर्य-माधुर्य को नष्ट कर देती है, उसे उच्च शिक्षा कहना सचमुच बड़े आश्चर्य की बात है।’’ (नारी शिक्षा- पृ. 85)
वर्तमान उच्च शिक्षा को स्त्री के स्वाभाविक गुणों को नष्ट करने वाली बताना व इसलिए इससे दूर रहने की सलाह देना तो हास्यास्पद ही है। स्त्री को केवल मातृत्व, सतीत्व, सदगृहिणीपन, शिष्टाचार (सेवा-टहल) जैसे मनगढ़ंत गुणों तक सीमित करना उसकी क्षमताओं को न केवल कम करके आंकना है बल्कि उसके वजूद को ही अपमानित करना है। दूसरी, विचार करने की बात है कि जिन गुणों को स्त्री के स्वाभाविक गुण बताकर उनका विकास करने की ‘नेक’ सलाह दी गई है, क्या उन गुणों की पुरुष को आवश्यकता नही है? स्त्री और पुरुष में ऊपरी तौर पर जो भिन्नता दिखाई देती है उसके आधार पर स्त्री व पुरुष की क्षमताओं में, प्रतिभा में स्वाभाविक तौर पर अन्तर मान लेना सही नहीं है। महिला और पुरुष में जो जैवकीय भिन्नता है, शारीरिक भिन्नता है वह प्राकृतिक है, लेकिन जो सामाजिक भिन्नता है वह प्राकृतिक नहीं है। वह समाज निर्मित है। पितृसत्ता की व्यवस्था के कारण है।
स्त्री-शिक्षा के खिलाफ यहां तीन पैंतरे लिए गए हैं- (क) लैगिक भेद को आधार बनाकर पुरुष के समान शिक्षा न देना। (ख) नैतिकता की दुहाई देकर सह-शिक्षा न देना (ग) कथित धर्म की आड़ लेकर शिक्षा-प्रणाली को ही खारिज करना।
किसी भी समाज, वर्ग व समुदाय की तरक्की में शिक्षा व ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका है। स्त्रियों की लगभग आधी आबादी है। आश्चर्य की बात है कि स्वयं को धार्मिकता का चैंपियन कहने वाले इस प्रकाशन ने स्त्रियों को शिक्षा से दूर ही रखने की वकालत की है। वर्तमान शिक्षा को ‘धर्महीन’ करार देकर निषिद्ध करने की साजिश बनाई है।
समाज में गैर बराबरी बनाए रखना ही इस प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य लगता है। गैर बराबरी के समाज में उनकी मौज व भला होता है जो समाज के ऊंचे दर्जे पर होते हैं। समाज में असमानता तभी कायम रहती है जब कि हर स्तर पर असमानता व्याप्त रहे और उसको बनाकर रखने के लिए नए-नए आधार गढ़े जाएं। जाति व लिंग के नाम पर कायम की गई असमानता से तो सभी परिचित हैं।
असमानता को उचित ठहराने का कोई तार्किक व वैज्ञानिक आधार तो है नहीं, इसलिए असमानता की समर्थक शक्तियां हमेशा प्राकृतिक विषमताओं का हवाला देने की कोशिश करती हैं। वे बड़ी चतुराई से प्राकृतिक विषमताओं को मानव-निर्मित सामाजिक विषमताओं पर थोंपने की कोशिश करते हैं। स्त्री-पुरुष के मामले में अलग-अलग क्षमताओं की बात करके अलग-अलग शिक्षा की वकालत करना भी उनको शिक्षा से वंचित करना ही है। यदि देखा जाए तो स्त्री और पुरुष में जननांगों को छोड़कर किस चीज का अन्तर है। दोनों का हृदय एक जैसे ही धड़कता है, दोनों में बराबर क्षमताएं हैं। जो काम पुरुष कर सकता है वो काम स्त्री भी कर सकती है।
स्त्रियां सभी काम कर सकती हैं। बड़े से बड़ा व सूक्ष्म से सूक्ष्म। उनकी क्षमताओं पर संदेह करना भी पुरुष-प्रधान मानसिकता का परिचायक है। जहां-जहां भी स्त्री को अपनी प्रतिभा का विकास करने और उसे व्यक्त करने के अवसर मिले हैं, वहां-वहां उन्होंने पुरुषों से आगे बढ़कर भी दिखाया है। अपनी मेहनत व लगन से वे हर क्षेत्र में ज्यादा कुशल व अव्वल आ रही हैं। पढ़ाई व ज्ञान के क्षेत्र में पहले दस में लड़कियों की संख्या अधिक है। वे विमान चालक हैं। ड्राइवर हैं। राजनीतिज्ञ, इंजीनियर, पत्रकार, चिंतक, अध्यापक हैं। सभी क्षेत्रों व पेशों में हैं। वे किसी क्षेत्र में पुरुष से पीछे नहीं हैं।
नारी-स्वतंत्रता
“स्त्री जाति के लिए स्वतन्त्र न होना ही सब प्रकार से मंगलदायक है। स्त्रियों में काम, क्रोध, दु:साहस, हठ, बुद्धि की कमी, झूठ, कपट, कठोरता, द्रोह, ओछापन, चपलता, अशौच, दयाहीनता आदि विशेष अवगुण होने के कारण स्वतंत्रता के योग्य नहीं है।” (नारी धर्म-पृ. 1)
“अतएव उनके स्वतन्त्र हो जाने से- अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार आदि दोषों की वृद्धि होकर देश, जाति, समाज को बहुत ही हानि पहुंच सकती है” (नारी धर्म-पृ.2)। “यह बात प्रत्यक्ष भी देखने में आती है कि जो स्त्रियां स्वतंत्र होकर रहती हैं, वे प्राय: नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के कारण भी स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।” (नारी धर्म- पृ. 2)
“स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतन्त्र न रहने के लिए कहा गया है, वह इसी दृष्टि से कि उसके शरीर का नैसर्गिक संघटन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की जरूरत है। यह उसका पद-गौरव है न कि पारतन्त्रय।’’ (नारी शिक्षा-पृ. 14)
विधवाओं के बारे में कहते हुए लिखा “ससुराल में या पीहर में जहां कहीं रहना हो, अपने घर के पुरुषों की आज्ञा में ही रहना चाहिए, घर के बाहर तो बिना आज्ञा के जाना ही न चाहिए, परन्तु घर में रहकर भी उनके आज्ञानुसार ही कार्य करना चाहिए, क्योंकि स्त्रियों के लिए स्वतन्त्रता सर्वथा निषिद्ध है। स्वतन्त्रता से उनका पतन हो जाता है। जो स्त्री बाहर फिरती है, वह दूषित वातावरण को पाकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है।” (नारी धर्म- पृ. 39)
प्रश्न- आजकल मंहगाई के जमाने में स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है?
उत्तर- स्त्री का हृदय कोमल होता है, अत: वह नौकरी का कष्ट, ताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी भी विपरीत बात आते ही उसके आंसू आ जाते हैं। नौकरी को चाहे गुलामी कहो, चाहे दासता कहो, चाहे तुच्छता कहो, एक ही बात है। गुलामी को पुरुष तो सह सकता है, पर स्त्री नहीं सह सकती। अत: नौकरी, खेती, व्यापार आदि का काम पुरुषों के जिम्मे है और घर का काम स्त्रियों के जिम्मे है। अत: स्त्रियों की प्रतिष्ठा, आदर घर का काम करने में ही है। बाहर का काम करने में स्त्रियों का तिरस्कार है। यदि स्त्री प्रतिष्ठा सहित उपार्जन करे तो कोई हर्ज नहीं है अर्थात वह अपने घर में ही रहकर जीविका उपार्जन कर सकती है। जैसे – स्वेटर आदि बनाना, कपड़े सीना, पिरोना, बेलपत्ती आदि निकालना, भगवान के चित्र सजाना आदि। ऐसा काम करने से वह किसी की गुलाम, पराधीन नहीं रहेगी। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 78)
प्रश्न- आजकल स्त्री को पुरुष के समान अधिकार देने की बात कही जाती है, क्या यह ठीक है?
उत्तर- यह ठीक नहीं है।
स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करने की बजाए पुरुष के साथ ही उसकी पहचान की जाती है। इसलिए वह उसका परिचय किसी की मां, बहन, पत्नी व बेटी के रूप में ही दिया जाता है। स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व व पहचान को समाप्त करने के लिए ही बचपन में पिता का, जवानी में पति का और बुढापे में बेटे के संरक्षण में रहने की व्यवस्था की गई। इसी कारण यौन-शुचिता की अवधारणा विकसित हुई। बेटी को ‘पराया धन’ व ‘अमानत’ समझा गया, जिसे पिता को उसके पति को सौंपना है। पिता को उसकी सुरक्षा करनी है।
समानता की विरोधी शक्तियों को स्वतंत्रता से सबसे बड़ा खतरा दिखाई देता है, क्योंकि स्वतंत्र व्यक्ति असमानता को स्वीकार नहीं करता। समाज में असमानता को बनाए रखने के लिए गुलाम बनाए रखना आवश्यक है, इसलिए कभी किसी चीज का वास्ता देकर तो कभी किसी चीज का वास्ता देकर गुलाम बनाए रखना चाहते हैं। स्त्री को गुलाम बनाए रखने के लिए उसमें ऐसे-ऐसे दुर्गण ढूंढ निकाले हैं कि सोचकर ही इस प्रकाशन से घृणा हो जाए। अभी तक तो स्त्री को ममता, विनम्रता व सहनशीलता की साक्षात मूर्ति कहा जाता था, लेकिन इस प्रकाशन ने उसे अवगुणों की खान बना दिया है। ऐसा तो कोई घोर स्त्री विरोधी ही कर सकता है।
घर की चारदीवारी स्त्री के लिए बंधन रही है। यदि वह घर से बाहर काम करने के लिए जाती है तो उसे कुछ न कुछ स्वतंत्रता अवश्य हासिल होती है। इसलिए उसको बाहर न जाने का ही फतवा दे दिया। घर में परम्परागत कामों को ही करने व उन्हीं से अपना गुजारा चलाने की सलाह स्त्रियों के हमेशा परतंत्र रहने के इंतजाम करने के अलावा क्या है? क्योंकि जिन चालाक लोगों ने परतंत्र रखने की सोची है वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी समाज या वर्ग को तभी तक परतंत्र रखा जा सकता है जब तक कि वह आर्थिक रूप से उन पर निर्भर रहे और तमाम आर्थिक संसाधनों पर वर्चस्वशाली लोगों का कब्जा बना रहे।
ध्यान देने की बात है कि ‘नारी शिक्षा’ पुस्तक में तो उसके लिए शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने की मनाही कर दी थी। उसे इस योग्य नहीं माना कि वह शिक्षा पा सके और ‘नारी धर्म’ पुस्तक में ‘विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के‘ कारण उसे स्वतंत्रता के अयोग्य और गुलामी के योग्य ठहरा दिया है। स्त्री की गुलामी को ‘पद-गौरव’ की संज्ञा देकर उसे छलने की कोशिश की गई है।
स्त्री का पुरुष के लिए और पुरुष का स्त्री के लिए साथ सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन में प्रेम व आनंद का संचार है। यह समानता की नींव पर ही संभव है। समानता का अर्थ इतना ही है कि स्त्री को कानूनी, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व पारिवारिक मामलों में पुरुष के बराबर अधिकार हो।
पतिव्रत-धर्म
“विवाहिता स्त्री के लिए पतिव्रत धर्म के समान कुछ भी नहीं है, इसलिए मनसा, वाचा, कर्मणा पति के सेवापरायण होना चाहिए। स्त्री के लिए पतिपरायणता ही मुख्य धर्म है। इसके सिवा सब धर्म गौण हैं। (नारी धर्म-पृ. 26)
“इसलिए पति की आज्ञा के बिना यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत आदि भी नहीं करने चाहिए, दूसरे लौकिक कर्मों की तो बात ही क्या है। स्त्री के लिए पति ही तीर्थ है, पति ही व्रत है, पति ही देवता एवं परम पूजनीय गुरु भी पति ही है। ऐसा होते हुए भी जो स्त्रियां दूसरे को गुरु बनाती हैं, वे घोर नरक को प्राप्त होती हैं। (नारी धर्म- पृ. 27)
“पति यदि कामी हो, शील एवं गुणों से रहित हो तो भी साधवी यानि पतिव्रता को ईश्वर के समान मानकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए।
विशील: कामवृतो वा गुणैर्वा परिर्विजत:।
उपचर्य: स्त्रिया साधव्या सततं देववत् पति:।। (मनु. 5/154)” (नारी धर्म -पृ. 29)
“जो काम पति की इच्छा के विरुद्ध हो उसको कभी न करो, चाहे वह काम तुमको कितना ही प्यारा क्यों न हो। पति की जैसी इच्छा देखो वैसा ही बरतो। जहां पति कहे, वहीं बैठो, जब कहे, तभी उठो, जो कहे, सो ही करो, अपने मन से किसी भी दूसरी बात को बनाकर पति की इच्छा को न बिगाड़ो।’’ (स्त्री-धर्म प्रश्नोतरी- पृ. 24)
“पति कैसा ही रोगी, कुकर्मी और दुराचारी हो तुम तो उसे ईश्वर के नाम जानो और नित्य उसकी दासी बनी रहो।” (स्त्री-धर्म प्रश्नोतरी- पृ. 24)
“यदि पति परस्त्रीगामी है तो भी उससे चिढ़कर बुरा व्यवहार न करो और न सौत से ईर्ष्या या डाह करो। तुम तो अपना धर्म समझकर पति की सेवा ही करती रहो।” (स्त्री-धर्म प्रश्नोतरी- पृ. 25)
पितृसत्ता या पुरुष-प्रधान व्यवस्था में पुरुष का दर्जा औरत से ऊंचा है। वह औरत का स्वामी है। औरत से अपेक्षा की जाती है कि वह पुरुष के नियंत्रण में रहे। स्त्री को पति की सेवा करने का, पति का वंश चलाने के लिए पुत्रों को जन्म देने वाला साधन माना जाता है। समर्पण, त्याग व सहनशीलता स्त्री का सबसे बड़ा गुण माना जाता है और ‘पति परमेश्वर’ की सेवा उसके जीवन का मार्गदर्शक। पति की ‘सेवा’ को स्त्री के जीवन का लक्ष्य माना गया है। वही उसका सौभाग्य है।
पति जैसा भी हो (रोगी, परस्त्रीगामी), उसकी सेवा ही उसके धर्म के रूप में प्रचारित करने वाला यह प्रकाशन इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए तरह-तरह के भय दर्शाता है। पतिव्रत-धर्म को स्त्री के लिए आदर्श मानने वाली रूढिवादी विचारधारा समाज को अत्यधिक पीछे ले जाने की साजिश रच रही है। इससे सम्बधित विचार देखना उचित होगा, जिनमें स्त्री-विरोधी मानसिकता स्वत: ही व्याख्यायित है।
औरत को ‘दीर्घायु’, ‘चिरंजीव हो’ का आशीर्वाद नहीं दिया जाता बल्कि ‘सौभाग्यवती भव’ आशीर्वाद दिया जाता है। उसका सौभाग्य सिर्फ पति के साथ ही होता है। उसे सदा सुहागिन रहने का आशीर्वाद दिया जाता है और सुहागिन का परम कर्तव्य है कि वह अपने तन-मन से पति की ‘सेवा’ करे। उसकी इच्छाओं का ख्याल रखे। पति की संतुष्टि करना व सेवा ही उसके जीवन का लक्ष्य है, मुक्ति का मार्ग है। पति ही उसका परमेश्वर है उसी की पूजा उसका ‘धर्म’ है। पति चाहे कितना ही क्रूर, निर्दयी व अत्याचारी क्यों न हो उसकी आज्ञा पालन ही उसके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा गुण माना गया है।
पति से अलग स्त्री की पहचान नहीं की गई, इसलिए शादी के बाद वह पति का नाम ही धारण करती है। पत्नी को ‘अर्धांगिनी’ कहा जाता है यानी कि पुरुष का आधा अंग। जब स्त्री स्वयं पूर्ण इकाई नहीं है और वह पति का आधा अंग है तो आध अंग जलने के कारण उसकी ‘मुक्ति’ नहीं हो सकती। इस मान्यता के कारण ही पत्नी को बिना मौत के ही मरना पड़ता था और बिना मरे ही जलना पड़ता था। उसकी करूण पुकार न सुनाई दे, इसलिए उत्सव का माहौल बनाया जाता रहा।
पर्दा-प्रथा
“लज्जाशीलता से सतीत्व और पतिव्रत्य का पोषण और संरक्षण होता है। इसीलिए लज्जा को स्त्री का भूषण बतलाया गया है।” (नारी शिक्षा- पृ. 73)
”स्त्रियों के लिए पर्दा रखना एक लज्जा का अंग है। बहुत से भाई लोग इसको स्वास्थ्य,सभ्यता और उन्नति में बाधक समझकर हटाने की जी तोड़ कोशिश करते है, यह समझना उनकी दृष्टि में ही ठीक हो सकता है, किन्तु वास्तव में पर्दे की प्रथा अच्छी है और पूर्वकाल से चली आती है। राजपूताना आदि देशों में जहां पर्दे की प्रथा है, वहां की स्त्रियों के स्वास्थ्य को देखते हुए कौन कह सकता है कि पर्दे से स्वास्थ्य बिगड़ता है। स्वास्थ्य बिगड़ने में स्त्रियों की अकर्मण्यता प्रधान है, न कि पर्दा। स्त्रियों की सभ्यता तो लज्जा में है, न कि पर्दा उठाकर पुरुषों के साथ घूमने-फिरने में, मोटर आदि में बैठने या थियेटर-सिनेमा आदि में जाने में। जो स्त्रियां सदा से पर्दा रखती आयी हैं, उनमें उसके त्याग से निर्लज्जता की वृद्धि होकर, व्यभिचार आदि दोष आकर नष्ट-भ्रष्ट होने की संभावना है जो महान् अवनति या पतन है।’’ (नारी-धर्म, पृ.-23)
“जिस प्रकार स्त्रियों के जेल की काल-कोठरी की तरह बन्द रहना उनके लिए हानिकर है, उसी प्रकार वरन् उससे भी कहीं बढ़कर हानिकर उनका स्त्रियोचित लज्जा को छोड़कर पुरुषों के साथ निरंकुश रूप से घूमना-फिरना, पार्टियों में शामिल होना, पर पुरुषों से नि:संकोच मिलना, सिनेमा तथा गन्दे खेल तमाशों में जाना, सिनेमा में नटी बनना, पर पुरुषों के साथ खान-पान तथा नृत्य-गीतादि करना आदि है। नारी के पास सबसे मूल्यवान तथा आदरणीय संपति है उसका सतीत्व। सतीत्व की रक्षा ही उसके जीवन का सर्वोच्च ध्येय है। इसीलिए वह बाहर न घूमकर घर की रानी बनी घर में रहती है। इसी कारण से उसके लिए अवरोध प्रथा का विधान है।’’ (नारी शिक्षा- पृ. 73)
“यह लज्जा का आदर्श है। वस्तुत: हिन्दुओं में वैसे पर्दा है ही नहीं, यह तो शील संकोच का सुन्दर निदर्शन है। यह तो बड़ों के सत्कार के लिये एक शील-संकोच का पवित्र भाव है, जो होना ही चाहिए।’’ (नारी शिक्षा- पृ. 74)
“जिन स्त्रियों ने घर छोड़कर स्वछन्द पुरुष वर्ग में विचरण किया है, वे अन्यान्य बाहरी कार्यों में चाहे कितनी ही सुख्याति प्राप्त क्यों न कर लें, पर यदि वे अन्तर्मुखी होकर अपने चरित्र पर दृष्टिपात करेंगी तो उनमें से अधिकांश को यह अनुभव होगा कि उनके मन में बहुत बार विकार आया है और किसी का तो पतन भी हो गया है। बताइये, पतिव्रता स्त्री के लिये यह कितनी बड़ी हानि है।’’ (नारी शिक्षा – पृ. 77)
”आजकल जो स्त्रियों को साथ लेकर घूमने-फिरने तथा एक ही टेबल पर एक साथ खाने-पीने की प्रथा बढ़ रही है, यह वस्तुत: दोषयुक्त न दिखने पर भी महान् दोष उत्पन्न करने वाली है।’’ (नारी शिक्षा- पृ. 79)
समाज-सुधारकों ने पर्दा की प्रथा को न केवल स्त्री के विकास में बाधक माना था, बल्कि मानव जाति पर एक कलंक बताया था। इस सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए आधुनिक विचारकों ने मुहिम चलाई थी। परंतु हैरानी होती है कि 21वीं शताब्दी में भी इसको लज्जा का, सम्मान का प्रतीक मानकर न केवल उचित ठहराया जा रहा है बल्कि महिमामंडित भी किया जा रहा है। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह के दकियानूसी विचारों को धर्म के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
व्यायाम
“शरीर में बल बढ़ाने के लिए बरतन आदि का मलना, घर को झाड़ना-बुहारना, आटा पीसना, चावल कूटना, जल भरना, बड़ों की सेवा-सुश्रुषा आदि परिश्रम के काम करने चाहिये। कन्याओं के लिए यही उतम व्यायाम है, इनसे शरीर में बल की वृद्धि एवं मन की पवित्रता भी होती है। शारीरिक और मानसिक कष्ट सहने आदि की आदत डालनी चाहिए। पूर्व में बताए हुए पुरुषों के और स्त्री-जाति के सामान्य धर्मों को सीखने की कोशिश करनी चाहिये। बड़ों और दूसरों के कहे हुए कठोर वचनों को भी शिक्षा मानकर प्रसन्नता से सुनना और उनमें शिक्षा हो तो ग्रहण करनी चाहिए। दूसरों के कहे हुए कड़वे और अप्रिय वचनों को भी हित खोजना चाहिए।’’ (नारी-धर्म- पृ़.-25)
विधवा
“स्त्री विधवा क्यों होती है? इसका कारण है- स्त्री के पूर्वजन्म का असदाचार।” (नारी शिक्षा- पृ. 102)
“पवित्र पुष्प, मूल, फलों के द्वारा निर्वाह करते हुए अपनी देह को दुर्बल भले ही कर दे, परंतु पति के मरने पर दूसरे का नाम भी न ले। पतिव्रता स्त्रियों के सर्वोतम धर्म को चाहने वाली विधवा स्त्री मरणपर्यन्त क्षमायुक्त नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य से रहें।” (नारी धर्म- पृ. 35)
“उत्सव और मंगलादि कार्यों में शामिल न हो। सधवा और युवती स्त्रियों की बात न देखे और न सुने, आभूषण और श्रृंगार त्याग दे, बाल संवारना, पान खाना और सुगन्धित पदार्थों का सेवन करना छोड़ दे।” (स्त्री धर्मप्रश्नोतरी- पृ. 21)
“जहां तक हो सके धरती पर सोवे, कोमल बिछौना न बिछावे, एक समय भोजन करे, उतेजक पदार्थ न खाए, महीन, रेशमी और फैशन वाले वस्त्रों को त्याग दे, जहां तक हो सके पवित्र, मोटे हाथ से बुने हुए देशी वस्त्र काम में लावे, यथासाध्य रंगीन वस्त्र न बरते।” (स्त्री धर्मप्रश्नोतरी- पृ. 21)
“अत: विधवा स्त्रियों को निष्कामभाव से पतिव्रता स्त्रियों की भांति पति के मरने के बाद में भी पति को जिस कार्य में संतोष होता था, वही कार्य करके अपना काल व्यतीत करना चाहिये। वर्तमान समय में कोई भाई, जिनको शास्त्र का अनुभव नहीं है, विधवा स्त्रियों को फुसलाकर उनका दूसरा विवाह करवा देते हैं, किन्तु शास्त्रों में कहीं विधवा विवाह की विधि नहीं है।’’ (नारी धर्म- पृ.36)
“भारी पाप का फल पति की मृत्यु है और पाप के फल के उपभोग से पाप शान्त होता है। ईश्वर ने भारी पाप से मुक्त होने के लिए एवं भविष्य में पाप से बचने के लिए तथा नाशवान क्षणभंगुर भोगों से मुक्ति पाने के लिए और अपने में अनन्य भक्ति करने के लिये एवं हमारे हित के लिए ही हमें यह दण्ड देकर हम पर अनुग्रह किया है।” (नारी धर्म- पृ. 37)
प्रश्न– यदि युवा स्त्री विधवा हो जाए तो उसको क्या करना चाहिए?
उत्तर- जीवित अवस्था में पति जिन बातों को अच्छा मानते थे और उनके अनुकूल थीं, उनकी मृत्यु के बाद भी विधवा स्त्री को उन्हीं के अनुसार आचरण करते रहना चाहिये। उसको ऐसा विचार करना चाहिए कि भगवान ने जो प्रतिकूलता भेजी है, यह मेरी तपस्या के लिए है। जान-बूझकर की गई तपस्या से यह तपस्या बहुत ऊंची है। भगवान के विधान के अनुसार किये तप, संयम की बहुत महिमा है। ऐसा विचार करके उसको मन में हर समय उत्साह रखना चाहिए कि मैं कैसी भाग्यशालिनी हूं कि भगवान ने मेरे को ऐसा तप करने का सुन्दर अवसर दिया है।” (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 75)
विधवा का अर्थ था- अपमान भरा जीवन, जिसमें कोई रस नहीं। विधवा को उस दण्ड की सजा मिलती जो उसने किया ही नहीं। किसी के मरने पर किसी का अधिकार नहीं। मृत्यु हुई पुरुष की और जीवन छिना स्त्री का। यद्यपि झगड़े तो सम्पति के थे। उसी से वंचित करने के लिए विधवा के लिए ऐसी आचार-संहिता बनाई कि वह उसका प्रयोग ही ना कर सके और स्वत: उसे छोड़ दे। आधुनिक काल में समाज सुधारकों ने विधवाओं की दुर्दशा देखकर इस तरफ ध्यान दिया था, लेकिन गीता प्रैस, गोरखपुर ने विधवा के लिए उसी व्यवस्था को ही उचित ठहराने को अपना ‘धर्म’ मान लिया है। इस बारे में उनके विचारों पर नजर डालना उचित रहेगा।
घरेलू-हिंसा
प्रश्न- पति मार-पीट करे, दु:ख दे तो पत्नी क्या करना चाहिए?
उत्तर– पत्नी को तो यही समझना चाहिए कि मेरे पूर्वजन्म का कोई बदला है, ऋण है, जो इस रूप में चुकाया जा रहा है, अत: मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूं। पीहरवालों को पता लगने पर वे उसको अपने घर ले जा सकते हैं, क्योंकि उन्होंने मार-पीट के लिये अपनी कन्या थोड़े ही दी थी।’’ (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 70)
प्रश्न- अगर पीहरवाले भी उसको अपने घर न ले जाएं तो वह क्या करें?
उत्तर– फिर तो उसको अपने पुराने कर्मों का फल भोग लेना चाहिए, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है। उसको पति की मार-पीट धैर्यपूर्वक सह लेनी चाहिए। सहने से पाप कट जायेंगें और आगे संभव है कि पति स्नेह भी करने लग जाए। यदि वह पति की मार-पीट न सह सके तो अपने पति से कहकर उसको अलग हो जाना चाहिए और अलग रहकर अपनी जीविका-संबधी काम करते हुए एवं भगवान का भजन-स्मरण करते हुए निधड़क रहना चाहिए।
विपत्ति आने पर आत्महत्या करने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए, क्योंकि आत्महत्या करने का बड़ा भारी पाप लगता है। किसी मनुष्य की हत्या का जो पाप लगता है वही आत्महत्या का लगता है। मनुष्य सोचता है कि आत्महत्या करने से मेरा दु:ख मिट जाएगा, मैं सुखी हो जाऊंगा। यह बिल्कुल मूर्खता की बात है, क्योंकि पहले के पाप तो कटे नहीं, नया पाप और कर लिया। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 70)
औरत की पिटाई करने वाले मानसिक रूप से बीमार नहीं होते। अच्छे खासे पढ़े-लिखे व ऊंचे ओहदों पर काम करने लोगों द्वारा भी स्त्री को पीटने के काफी मामले प्रकाश में आए हैं। आमतौर पर पति और पत्नी के विवाद-झगड़े को उनका आपसी मामला ही माना जाता है। जिसमें बाहरी किसी आदमी को कोई दखल देने की इजाजत नहीं हैं। जब झगड़ा व्यक्तिगत श्रेणी का है तो स्वाभाविक है कि पति द्वारा पत्नी की पिटाई भी व्यक्तिगत ही मानी जायेगी। इसका परिणाम यह निकलता है कि जब कोई पुरुष अपनी पत्नी को पीटता है तो कोई उसको छुड़ाने की भी नहीं सोचता। औरत के पास चुपचाप पिटने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। यदि वह पिटाई का विरोध करती है तो समाज की प्रताडऩा का शिकार होती है।
कोई भी सुसभ्य व्यक्ति पुरुष द्वारा स्त्री की पिटाई को उचित नहीं ठहरा सकता और न ही पिटाई को सहन करने की सलाह दे सकता है और इस पिटाई को ‘धर्मसंगत’ तो कदापि न कहेगा। कोई सैडिस्ट ही ऐसा कर सकता है। गीता प्रेस, गोरखपुर की पुस्तकें इसे न केवल उचित ठहराती हैं बल्कि इसका जिम्मेवार भी स्वयं स्त्री को ही मानती हैं। पिटाई को सहन करने को अपने पाप ‘काटने’ के लिए कहना निहायत बर्बर विचारधारा है। इससे छुटकारे की भी कोई आशा या उपाय ये नहीं बताते। स्त्री को हमेशा ही जुल्म सहते जाने को ही ‘आदर्श-गृहस्थी’ का आधार बताया।
स्त्री-पुनर्विवाह
प्रश्न- स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं कर सकती?
उत्तर– माता-पिता ने कन्यादान कर दिया तो अब उसकी कन्या संज्ञा ही नहीं रही, अत: उसका पुन: दान कैसे हो सकता है? अब उसका पुनर्विवाह करना तो पशु धर्म ही है। शास्त्रीय,धार्मिक, शारीरिक और व्यावहारिक- चारों ही दृष्टियों से स्त्री के लिए पुनर्विवाह अनुचित है। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ.75)
प्रश्न- अगर पति त्याग कर दे तो स्त्री को क्या करना चाहिए?
उत्तर– वह अपने पिता के घर पर रहे। पिता के घर पर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालों के नजदीक किराये का कमरा लेकर रहे और मर्यादा, संयम, ब्रह्मचर्यपूर्वक अपने धर्म का पालन करे, भगवान का भजन स्मरण करे। पिता से या ससुराल से जो कुछ मिला है, उससे अपना जीवन निर्वाह करे। अगर धन पास में न हो तो घर में रहकर ही अपने हाथों से कातना-गूंथना, सीना-पिरोना आदि काम करके अपना जीवन-निर्वाह करे। यद्यपि इसमें कठिनता होती है, पर तप में कठिनता ही होती है, आराम नहीं होता। इस तप से उसमें आधयात्मिक तेज बढ़ेगा, उसका अन्त:करण शुद्ध होगा। (गृहस्थ में कैसे रहें, पृ. 72)
स्त्री को न केवल पुनर्विवाह न करने को स्त्री का धर्म बताया है बल्कि ‘शास्त्रीय, धार्मिक, शारीरिक और व्यावहारिक दृष्टि से अनुचित बताया है। इन चारों आधारों पर इसे किसी भी रूप में अनुचित नहीं ठहराया जा सकता। इस तरह के दकियानूसी व घोर पुरुषवादी विचारों को किसी भी समाज के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता। लेकिन समाज में पिछड़ेपन को थोंपने की कोशिश में लगा यह प्रकाशन लगातार समाज में ऐसे विचारों को प्रचारित व प्रसारित कर रहा है।
सम्पत्ति का अधिकार
प्रश्न- भाई और बहन का आपस में कैसा व्यवहार होना चाहिये?
उत्तर– सरकार ने पिता की सम्पत्ति में बहन के हिस्से का जो कानून बनाया है, उससे भाई-बहन में लड़ाई हो सकती है, मनमुटाव होना तो मामूली बात है। वह जब अपना हिस्सा मांगेगी, तब बहन-भाई में प्रेम नहीं रहेगा। हिस्सा पाने के लिए जब भाई-भाई में भी खटपट हो जाती है, तो फिर भाई-बहन में खटपट हो जाए, इसमें कहना ही क्या है। अत: इसमें बहनों को हमारी पुरानी रिवाज (पिता की सम्पत्ति का हिस्सा न लेना) ही पकड़नी चाहिए, जो कि धार्मिक और शुद्ध है। धन आदि पदार्थ कोई महत्व की वस्तुएं नहीं है। ये तो केवल व्यवहार के लिए ही है।
व्यवहार भी प्रेम को महत्व देने से ही अच्छा होगा, धन को महत्व देने से नहीं। धन आदि पदार्थों का महत्व वर्तमान में कलह कराने वाला और परिणाम में नरकों में ले जाने वाला है। इसमें मनुष्यता नहीं है। जैसे, कुत्ते आपस में बड़े प्रेम से खेलते हैं, पर उनका खेल तभी तक है जब तक उनके सामने रोटी नहीं आती। रोटी सामने आते ही उनके बीच लड़ाई शुरू हो जाती है। अगर मनुष्य भी ऐसा ही करे तो फिर उसमें मनुष्यता क्या रही? (गृहस्थ में कैसे रहें, पृ. 22)
स्त्री को सम्पत्ति से बेदखल करके ही पुरुषवादी स्त्री-विरोधी विचारधारा फली फूली है। सम्पति को हथियाने के लिए ही तरह तरह की प्रथाएं व रिवाज बनाए गए। किसी को अपने अधीन बनाए रखने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी रहा है कि उसे आर्थिक दृष्टि से अपने ऊपर निर्भर कर लिया जाए। महिला संगठनों ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र किए बिना न तो उसका विकास हो सकता हे और न ही समाज सुखी रह सकता है।
नसबन्दी
प्रश्न- नसबन्दी करवाने से क्या हानि है?
उत्तर- जो नसबन्दी के द्वारा अपना पुरुषत्व नष्ट कर देते हैं, वे नपुसंक (हिजड़े) हैं। उनके द्वारा पिण्ड-पितरों को पानी नहीं मिलता। ऐसे पुरुष को देखना भी अशुभ माना गया है। जो स्त्रियां नसबन्दी ऑपरेशन करा लेती हैं, उनका स्त्रीत्व अर्थात गर्भ-धारण करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसी स्त्रियों का दर्शन भी अशुभ है, अपशकुन है। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 88-89)
प्रश्न- एक-दो बार संतान होने से स्त्री मां बन ही गई, अब वह नसबन्दी ऑपरेशन करवा ले तो क्या हर्ज है?
उत्तर- वह मां तो पहले थी, अब तो नसबन्दी करवा लेने पर उसकी ‘स्त्री’ संज्ञा ही नहीं रही। कारण कि शुक्र-शोषित मिलकर जिसके उदर में गर्भ का रूप धारण करते हैं, उसका नाम स्त्री है। जो गर्भ धारण न कर सके, उसका नाम स्त्री नहीं है। जो गर्भ स्थापन न कर सके, उसका नाम पुरुष नहीं है। ऑपरेशन के द्वारा सन्तानोत्पति करने की शक्ति नष्ट करने पर पुरुष का नाम तो हिजड़ा होगा, पर स्त्री का क्या नाम होगा- इसका हमें पता नहीं।
परिवार नियोजन नारी जाति का घोर अपमान है, क्योंकि इससे नारी जाति केवल भोग्या बनकर रह जाती है। कोई आदमी वेश्या के पास जाता है तो क्या वह संतान प्राप्ति के लिए जाता है? अगर कोई आदमी स्त्री से संतान नहीं चाहता, प्रत्युत केवल भोग करता है तो उसने स्त्री को वेश्या ही तो बनाया। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 91)
प्रश्न- परिवार नियोजन नहीं करेंगें तो जनसंख्या बहुत बढ़ जायेगी, जिससे लोगों को अन्न नहीं मिलेगा फिर लोग जियेंगें कैसे?
उत्तर- यह प्रश्न सर्वथा अनुपयुक्त है, युक्तियुक्त नहीं है। कारण कि जहां मनुष्य पैदा होते हैं, वहां अन्न भी पैदा होता है। भगवान के यहां ऐसा अंधेरा नहीं है कि मनुष्य पैदा हो और अन्न पैदा न हो। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 91)
जनसंख्या बढ़ोतरी पर नियंत्रण हमारे देश के लिए आजादी के बाद से ही समस्या बनी हुई है। उसके के लिए तरह तरह की योजनाएं बनाई गईं। परिवार नियोजन के लिए लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए कई कार्यक्रम बनाए गए, जिस पर काफी धन खर्च हुआ। इसमें सबसे बड़ी बाधा वैचारिक पिछड़ापन ही रहा। इस कारण तमाम प्रयासों के बाद भी वांछित नतीजे नहीं निकल सके।
लेकिन गीता प्रेस, गोरखपुर ने राष्ट्र हित को तिलांजलि देकर लोगों को अंधिवश्वासी बनाना ही अपना धार्मिक कर्तव्य समझा। परिवार नियोजन अपनाने वाली महिला को महिला ही मानने से इनकार कर दिया, उसके दर्शन करना भी अपशकुन व अशुभ माना, और यहां तक कि उसे वेश्या तक की संज्ञा तक देने में कोई हिचकिाहट नहीं समझी। राष्टीय समस्याओं को भगवान के जिम्मे छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लिया।
बलात्कार
“इस प्रकार पातिव्रत-धर्म का अधिक समय तक पालन करने पर नारी में अपूर्व शक्ति आ जाती है, फिर तो देवता भी उससे डरते हैं। कोई कामी पुरुष बलात्कार करने जाकर जीवित नहीं रह सकता। पतिव्रता एक अग्नि है, जहां पापी तिनके के समान भस्म हो जाते हैं। ऐसी स्त्री किसी पापी के बलात्कार से अशुद्ध नहीं होती। यदि वह अपने मन में पाप की वासना जरा भी न आने दे तो उसके शरीर को कोई पापी बलपूर्वक स्पर्श कर देता तो भी वह वास्तव में ‘असती’ नहीं मानी जाती। वह शास्त्रीय प्रायश्चित करके अपनी दैहिक अशुद्धि को दूर करके फिर पूर्ववत शुद्ध हो जाती है।” (दाम्पत्य जीवन का आदर्श, पृ.-79)
प्रश्न- यदि कोई विवाहिता स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाए तो क्या करना चाहिए?
उत्तर- जहां तक बने, स्त्री के लिए चुप रहना ही बढिया है। पति को पता लग जाए तो उसको भी चुप रहना चाहिए। दोनों के चुप रहने में ही फायदा है। वास्तव में पहले से ही ध्यान रखना चाहिये, जिससे ऐसी घटना हो ही नहीं। (गृहस्थ में कैसे रहें पृ. 88)
पुरुष प्रधान समाज में महिला पर तरह तरह के जुल्म किए जाते हैं, जिसमें बलात्कार सबसे घिनौना है। आज कल इस तरह की खबरें बहुत अधिक आ रही हैं। भिन्न-भिन्न कारणों से छोटी-छोटी बच्चियों और वृद्धाओं पर भी इस तरह की घटनाएं घट रही हैं। किसी परिवार से बदला लेने के लिए भी ऐसे घिनौने कृत्य हो रहे हैं, लेकिन इस स्त्री व मानव विरोधी प्रकाशन इसके लिए बलात्कारियों को दोषी न ठहराकर स्त्री को ही दोषी ठहराता है जैसे कि वह स्वयं बलात्कार को आमंत्रित करती है। दोषी लोगों को सजा दिलाने के लिए उनको प्रोत्साहित तो क्या करना बल्कि यदि कोई ऐसा करती है तो उसे चुप रहने की ही सलाह देना अपराध को बढावा देना ही है।
कोई धर्म और सच्चा धार्मिक व्यक्ति अन्याय और अनाचार को सहन करने की सलाह नहीं देगा। इससे ही स्पष्ट है कि यह किस तरह के धर्म और संस्कृति को बढावा दे रहे हैं। मात्र ‘शास्त्रीय प्रायश्चित’ करके ‘शुद्ध’ होने की सलाह उसे फिर से ऐसे कुकर्म को सहन करने के लिए तैयार करने के अलावा क्या है। यह कहना कि सच्ची ‘पतिव्रता’ से बलात्कार करने वाला स्वयं ही भस्म हो जाएगा, असल में बलात्कार को नकारना और स्त्री पर संदेह करके उसका अपमान करना है। इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं करेगा कि ताकतवर ही कमजोर पर ऐसे अत्याचार करता है और उसका बचाव करना असल में ताकवर का पक्ष लेना है, इसका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।
यौन-उत्पीडि़त व हिंसा की शिकार महिला के लिए कोई सहानुभूति समाज से नहीं मिलती। वह समाज की घृणा का ही व प्रताडऩा का ही शिकार होती है। पुरुष-प्रधान समाज में पीड़ित महिला को सहानुभूति नहीं मिलती। जिस स्त्री से बलात्कार हो जाता है। वह समाज में उपहास का पात्र बन जाती है। उसी को चरित्रहीन कहा जाता है। उसकी शादी में दिक्कत आती है। यदि शादी शुदा है तो पति उसको छोड़ देता है। जबकि उसका इसमें कोई कसूर नहीं होता। उसके साथ अन्याय होता है और वही दोषी घोषित कर दी जाती है।
जब तक बलात्कार को ‘इज्जत लुटने’ के साथ जोड़कर देखा जाता है तब तक पीड़ित स्त्री को ही दोषी माना जाता रहेगा। क्योंकि ‘इज्जत’ तो स्त्री की ही लुटती है, ऐसा माना जाता है, और उसका सारा खामियाजा स्त्री को भुगतना पड़ता है। पुरुष-प्रधान समाज में परिवार की इज्जत को बचाने की जिम्मेवारी स्त्रियों पर होगी तब तक वह निर्दोष होकर भी सजा पाती रहेंगी। परिवार की ‘इज्जत’ को यौन-शुचिता के साथ जोड़ना व इसका पूरा दायित्व स्त्री पर डाल देने की धारणा को बदलने की जरूरत है।
इस मान्यता के कारण ही सारा दोष स्त्री पर आता है, जब लड़का और लड़की में प्रेम होने से और समाज की अस्वीकार्यता के कारण घर से भाग जाते हैं। तो आमतौर पर यही सुनने में आता है कि फलां कि लड़की भाग गई। कभी यह नहीं कहा जाता कि फलां का लड़का भाग गया। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इज्जत लुट गई है या इज्जत खत्म हो गई है, इसलिए स्त्री कई बार आत्महत्या तक कर लेती हैं। यदि कोई लड़की परिवार की इच्छा के विरूद्ध अपनी पसन्द से शादी कर लेती है तो परिवार के लोग अपनी इज्जत के नाम पर उसकी हत्या कर देते हैं। इसके विपरीत स्त्री पर अत्याचार या हिंसा या उसको किसी भी रूप में पीड़ा पहुंचाने वाले पुरुष को समाज कभी कठोर दण्ड नहीं देता। ऐसा माना जाता है कि जैसे यह तो उसका स्वाभाविक कार्य है।
कहा जा सकता है कि ये पुस्तकें किसी धर्म तथा धार्मिक मूल्यों को बढावा नहीं देतीं, बल्कि धर्म के नाम पर पिछड़े विचारों का पोषण करती हैं ताकि गरीब आदमी इन में फंसा रहे और जिन लोगों के पास समाज की सत्ता, शक्ति और संसाधन हैं वे आराम से ऐश-विलास का जीवन जी सकें। कुछ समझदार व विवेकवान लोग इन को ‘पागल’ कहकर छोड़ देते हैं। असल में ये पागलों के विचार नहीं हैं, बल्कि यह एक सुविचारित मुहिम है, इसलिए इनकी इस कुचेष्टा को विफल करने के लिए इनका भण्डाफोड़ करने की जरूरत है। धार्मिक खोल में एक ऐसी फासीवादी विचारधारा लिए हुए है जो समाज में शोषण को मान्यता प्रदान करती है, असमानता को बढावा देती है, एक वर्ग के दूसरे पर शासन को उचित ठहराता है, अन्याय के विरोध को कुन्द करता है।
(सुभाष सैनी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर है।)
Shut up
Mr so called great man ,
Like a dog snifs shit in a beautiful park,
Some meanminded tightcornered only find faults everywhere .be it Shri Ram Charit Manas.ji.
It happens,when software is outdated .
Calibration recommended.
सैनी साहब, बकचो$याँ कम करो और अन्य धर्म के मामलों पर भी ऐसे कॉलम लिखो। हिंदू धर्म और उससे जुड़ी संस्था पर तुमको ज्ञान देने का कोई हक नहीं जब तुम खुद उस धर्म के विशेषज्ञ नहीं हो।
महिला हितों से संबंधित उत्तम लेख
केवल कुछ श्लोक को संदर्भित कर आप किसी संस्था विशेष की तपस्या को कटघरे में नहीं रख सकते
Who is this fucking so called professor 🤬🤬🤬 tell.this type of fake Stories about Gita press ..
Ye aadmi pagal hai isko professor kisne banaya
Jis rudiwaad se ambedkar ji ne mehnat krke niqalaa ye wapas usi me jaana chahte hai 5 kg raashan ke badle to koi kya kare jaye achha hai.
Bahan ke Lund gend maari jagi kise n fas gya to ,sale gandve Lund ka bera h tne ,tu Marva le gend loga p ar gend ka gudgama banva liye at fer uske fotu taar-taar k akhbar m chhpwa diye ar tera blog p post kr diye
Sale gandu
ये लेख बताता हैं की आज हमारे कॉलेज में कितने घटिया और अयोग्य लोग आ गए हैं तभी कॉलेज में शैक्षिक स्थिति घटिया हों गई है। आज कल के तथाकथित बुद्धिजीवी के पास ज्ञान कम और बकलोली ज्यादा है। जो इस लेख में दिख भी रहा है