केंद्र सरकार की ओर से पिछले सप्ताह खरीफ की फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि की घोषणा की गई। इसके अंतर्गत पिछले साल की तुलना में खरीफ की फसल पर 5-10% की मूल्य वृद्धि की घोषणा की गई है, जिसे सरकार की ओर से फसल उत्पादकों को उनके उत्पाद पर लाभकारी मूल्य प्रदान करना एवं फसलों में विविधता को बढ़ावा देना बताया गया है। लेकिन किसानों के प्रतिनिधि इस बढ़त पर अपनी नाखुशी जताते हुए इसे मामूली बढ़त बता रहे हैं।
किसानों का मानना है कि यह लाभकारी मूल्य प्रदान किये जाने के सरकार के उद्येश्य पर ही पानी फेरने के समान है। वहीं दूसरी तरफ, कृषि मामलों के विशेषज्ञ मान रहे हैं कि एमएसपी में बढ़त से किसानों को कुछ राहत अवश्य मिलेगी, लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि देश के विभिन्न हिस्सों में एमएसपी पर खरीद के लिए आवश्यक बाजार तंत्र के अभाव में “फसलों में विविधता” लाने का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है।
न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे काम करता है?
सरकार की कृषि मूल्य निर्धारण नीति के एक अहम अंग के तौर पर एमसीपी वह मूल्य है जिसे सरकार किसानों के उत्पाद के बदले फसली सीजन के दौरान प्रस्तावित करती है। इसके जरिये सरकार किसी फसल के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ-साथ उत्पाद के उपभोक्ता मूल्य को भी नियंत्रित करने में सक्षम रहती है। लेकिन आज भी देश में अधिकांश किसान अपने उत्पाद को एमएसपी पर बेच पाने में असमर्थ हैं।
एमएसपी पर फसल खरीद केंद्रों की कमी, कमीशन एजेंटों के हाथों शोषण, जो अधिकांश उत्पाद एमएसपी से निचले दर पर खरीदते हैं, और किसानों के बड़े हिस्से में आज भी एमएसपी के बारे में जानकारी का अभाव इत्यादि कुछ चुनौतियां आज भी कृषि उत्पादकों के सामने मुह बाए खड़ी हैं।
इन्हीं बाधाओं के मद्देनजर किसान एमएसपी को क़ानूनी दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि इसके लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों को ‘सुनिश्चित बाजार तंत्र’ की स्थापना करनी चाहिए। जब तक देश में किसानों का उत्पाद घोषित लाभकारी मूल्य पर नहीं खरीदा जाता, तो महज एमएसपी की घोषणा बेमानी हो जाती है।
भारत सरकार ने 7 जून को खरीफ मार्केटिंग सीजन के लिए 17 फसलों पर एमएसपी की घोषणा कर दी है। इनमें धान की दो किस्म, ज्वार की दो किस्म सहित बाजरा, रागी, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, नाइजरसीड सहित कपास की दो किस्में शामिल हैं। धान की खरीद में पिछले वर्ष की एमएसपी मूल्य (2,040 रुपये प्रति कुंतल) की तुलना में 2023 के लिए मूल्य (2,183 रुपये) निर्धारित किये गये हैं। किसान की लागत को 1,455 रुपये निर्धारित किया गया है। इस लागत के आधार पर प्रस्तावित एमएसपी 150% बैठती है।
अर्थात सरकार ने कागज पर सब कुछ जमा दिया है, और उसके पास इसके अपने तर्क हैं। सरकार ने फसल की लागत के विषय में दावा किया है कि इसमें किराये पर मजदूर, हल, बैल, ट्रैक्टर, लीज पर ली गई कृषि भूमि, बीज, खाद, गोबर, सिंचाई पर होने वाला खर्च, औजार एवं भवन, कार्यशील पूंजी पर ब्याज, पंपिंग सेट के लिए डीजल/बिजली सहित पारिवारिक श्रम को ही जोड़कर तैयार किया गया है।
2014-15 के दौरान धान पर सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,360 रुपये था। अब यदि 2014 से 2023 की तुलना करें तो इन 9 वर्षों में धान की खरीद मूल्य में 823 रुपये की सरकारी वृद्धि हुई है। लेकिन यदि मुद्रास्फीति से इसकी तुलना करें तो भारत में इन 10 वर्षों में औसतन 5% की वृद्धि दर दर्ज की गई है। 2014 में मुद्रास्फीति की दर 6.35% थी और 2023 में औसत 5.79% है।
इसके आधार पर कहा जा सकता है कि एमएसपी में मूल्य वृद्धि भी इसी अनुपात में 55% बढ़कर (2014 के 1,360 रुपये+748 रुपये मुद्रास्फीति= 2,108 रुपये हो जाती है)। आज मोदी सरकार दावा कर रही है कि वह लागत में सभी पहलुओं को शामिल कर किसानों को 50% ऊंचे दाम पर लाभकारी मूल्य प्रदान कर रही है, तो यह आंकड़ों की बाजीगरी से अधिक कुछ नहीं है।
धान की एमएसपी 2,183 रुपये प्रति कुंतल का अर्थ है 2014 के स्थिर दाम पर 75 रुपये की वृद्धि की गई है, जो एक किलो धान पर 75 पैसे बैठती है। यदि डीजल के दाम को ही ले लें तो 2014 में डीजल 55.48 रुपये प्रति लीटर पर किसानों को उपलब्ध था, जिसके माध्यम से ट्रैक्टर, ट्यूबवेल का इस्तेमाल खेती में किया जाता है। 2023 से यदि इसकी तुलना करें तो डीजल का भाव 87 रुपये प्रति लीटर है, जो 2014 की तुलना में 158% है। इसी प्रकार यूरिया खाद की कीमत 2014 में 238 रुपये प्रति 50 किलो थी, जबकि 2023 में यह 787 रुपये है, जिसे 300% की भारी वृद्धि के रूप में आंका जाना चाहिए।
ऐसे में भारत सरकार किस आधार पर स्वामीनाथन आयोग की सी2+50% की सिफारिशों को लागू कर रही है? लेकिन खाद्य मंत्री पीयूष गोयल की मानें तो देश में किसानों को उनकी लागत+50% लाभकारी मूल्य पर एमएसपी दी जा रही है, और इस वर्ष तो रिकॉर्ड तोड़ बढ़ोत्तरी की गई है।
500 किसान संगठनों के संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) से जुड़े भारतीय किसान यूनियन (उग्रहा गुट) के नेता सुखदेव सिंह कोरीकलां का इस बारे में कहना है कि यह सिर्फ आंखों में धूल झोंकने की कवायद है और एमएसपी का निर्धारण स्वामीनाथन आयोग की सी2+50% फार्मूले के आधार पर ही किया जाना चाहिए। इसके साथ ही उनका कहना था कि सरकार को एमएसपी को किसानों का संवैधानिक अधिकार घोषित करना चाहिए। इसके तहत देश में कृषि उपज एमएसपी से कम दर पर बिकने की कोई संभावना न रहे, तभी आज किसान खुद को जिंदा बनाये रख सकता है। अन्यथा कृषि क्षेत्र आज आर्थिक रूप से पूरी तरह से व्यवहार्य नहीं रह गया है।
पिछले एक सप्ताह से हरियाणा के किसान सूरजमुखी तेल की खरीद एमएसपी पर कराने के लिए आंदोलित हैं। किसानों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर चक्काजाम कर जहां अपनी मांग को सरकार के सामने रखा, वहीं बड़ी संख्या में किसान नेताओं की गिरफ्तारी और आंदोलन पर लाठीचार्ज ने दिखा दिया है कि सरकार खुद अपने द्वारा निर्धारित दाम पर खरीद के लिए कोई सुचिंतित प्रयास से पीछे खड़ी है।
किसानों को सूरजमुखी के दाम में भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है, क्योंकि भारत में बड़ी मात्रा में यूक्रेन से सूरजमुखी तेल का आयात किया जा रहा है। किसानों को एमएसपी की तुलना में 10% कम दाम पर तेल के भाव मिल रहे हैं। देश सालाना 20 से 25 लाख टन सूरजमुखी तेल का आयात करता है, लेकिन पिछले साल जब तेल के दाम आसमान छू रहे थे जिसे देखते हुए किसानों ने बड़ी संख्या में सूरजमुखी की खेती की है, तो भारत सरकार एमएसपी पर खरीद करने से क्यों कतरा रही है।
इसी प्रकार आलू, प्याज और टमाटर के उत्पादकों को हर वर्ष अपनी फसलों पर भारी घाटा उठाना पड़ता है। हर साल इन उत्पादों को सड़कों पर फेंके जाने की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम से देश देखता है। इसी वर्ष की शुरुआत में पंजाब में शिमला मिर्च की खेती कुछ जिलों में बड़े पैमाने पर की गई थी। नतीजा किसान 1-2 रुपये प्रति किलो शिमला मिर्च बेचने के लिए बाध्य थे। किसानों ने अपने खेतों में ही फसल पर ट्रैक्टर जोतकर शिमला मिर्च की फसल को नष्ट करना बेहतर समझा।
विख्यात अर्थशास्त्री डॉ रणजीत सिंह घुम्मन के अनुसार पिछला ट्रैक रिकॉर्ड भी इसी बात की गवाही देता है कि गेंहू, धान, कपास एवं कुछ दालों पर एमएसपी के अलावा अधिकांश उत्पादों पर एमएसपी का प्रावधान नहीं है। किसान बाजार की ताकतों के आगे बेबस है जहां उसे अक्सर बेहद कम कीमत पर अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
सभी उत्पादों पर एमएसपी न होने के कारण ही किसानों के लिए धान और गेंहू की उपज एक बाध्यकारी जरूरत बन जाती है, और फसलों में विविधता लाने की सरकार की कोशिश नाकाम होने के लिए बाध्य है। सरकार द्वारा फसलों पर एमएसपी को क़ानूनी दर्जा दिए जाने की जरूरत है। जरूरी नहीं कि सरकार सारा उत्पाद खुद खरीदे, बल्कि उसे इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि देश में व्यापारी एमएसपी से कम कीमत पर कृषि उत्पाद न खरीद सकें।
2022-23 में खाद्यान्न उत्पादन को 33.05 करोड़ टन अनुमानित किया गया है, जो 2021-22 की तुलना में 1.49 करोड़ टन अधिक है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यह 5 वर्षों में सबसे अधिक वृद्धि दर है। 1 मई 2023 तक एफसीआई एवं राज्य एजेंसियों के पास करीब 5.55 करोड़ टन का स्टॉक मौजूद था, जिसमें 2.65 करोड़ टन चावल और 2.90 करोड़ टन गेंहू का स्टॉक मौजूद था। लेकिन इस वर्ष अल-नीनो के चलते मानसून में कमी देश में करीब 51% भूभाग जो बरसात पर निर्भर है, की खेती पर असर पड़ सकता है। लेकिन फिलहाल खाद्यान्न का स्टॉक देश में पर्याप्त है, इसलिए कोई ख़ास चिंता की वजह सरकार को नहीं दिखती है।
सरकार एक तरफ तो पंजाब एवं हरियाणा के किसानों को धान की खेती की जगह कम पानी की जरूरत वाली फसलों को उगाने के लिए प्रेरित कर रही है, लेकिन यदि इनके लिए लाभकारी मूल्य पर खरीद का ढांचा ही तैयार नहीं किया जाता तो किसानों के पास गेंहू और चावल की खेती के अलावा चारा ही क्या बचता है। इसी प्रकार यूपी, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में आलू उत्पादकों को इसी वर्ष भारी नुकसान उठाना पड़ा, जिसमें उसे भारी निवेश की जरूरत पड़ती है।
गुजरात में मूंगफली, महाराष्ट्र में प्याज सहित अन्य फसलें में सरकारी संरक्षण के अभाव में हर वर्ष हजारों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। यह सिलसिला कब खत्म होगा, इसके लिए सरकार को गंभीरता से विचारकर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को अक्षरशः लागू करने और एमएसपी को क़ानूनी दर्जा दिए जाने की महती आवश्यकता है, तभी कृषि में विविधता को सही मायने में फलितार्थ करना संभव होगा।
(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)