देश बेचने की शर्त पर ही बनेगा हिंदू राष्ट्र!

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देश के किसानों के साथ वादाखिलाफी करते हुए उचित पारिश्रमिक और सम्मानजनक न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी (MSP) नहीं देने वाली सरकार अब NMP लेकर आ गयी है।  किसानों के जमीन को गिरबी रखने के कानून के विरुद्ध पिछले 9 महीने से एक मजबूत आंदोलन चल रहा है। परंतु केंद्र सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही है।  किसान अपनी मांगों पर अड़े हुए हैं और आने वाले चुनाव में अपनी ताकत दिखाने की बात कह रहे हैं। नेशनल मॉनिटाइजेशन पाइपलाइन द्वारा (NMP)  सार्वजनिक संपत्ति  रेल, नेशनल हाईवे, हवाई अड्डा, पोर्ट, पावर स्टेशन, वेयर हाउस, भारत नेट फाइबर ऑप्टिकल, बीएसनल, एमटीनल टॉवर, पावर स्टेशन, माइनिंग और नेशनल स्टेडियम  को बेच कर 6 लाख करोड़ रुपया जुटाने का प्लान है। 

इस प्रक्रिया की शुरुआत लालकिला को निजी हांथों में बेच कर हुआ था। इस  राष्ट्रीय धरोहर पर जहाँ ख़ुद प्रधानमंत्री आजादी का झंडा फहराते हैं,  ताज़महल कोई खरीदने नहीं आया उसे भी बेचने की योजना थी। भारतीय पुरातत्व विभाग के अंतर्गत 10 रुपये के टिकट पर लालकिला में घूम लेने  और अपने इतिहास से रूबरू होने वाले पर्यटक को अब 70 से 100 रुपया खर्च करना पड़ता है।  निजीकरण का यही सच है।

 सरकार का यह तर्क है कि यह योजना केवल संस्थान को संचालन के लिए दिया जा रहा है जबकि सरकार इस पर निगरानी और नियंत्रण रखेगी।

 अब सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार सार्वजनिक  संस्थानों को संचालित करने की क्षमता नहीं रखती जो  निजी हाथों में दे रही है। तो फिर सरकारें जनता का वोट क्यों लेती हैं? एक तरफ कर्मचारियों की छटनी  दूसरे तरफ बेरोजगार युवाओं की फौज भारत में खड़ी हो गयी है। 46 सालों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी अभी भारत झेल रहा है। शिक्षित युवा रोज़गार के लिए आंदोलन कर रहे हैं, और सरकारें लाठी के दम पर बेरोजगारों के आंदोलन को कुचल रही हैं। भर्तियां निकलती भी हैं तो सैकड़ों में और अभ्यर्थी लाखों में होते हैं, लेटलतीफी और परीक्षा में अनियमितता एक अलग समस्या है। रोजगार देना सरकार की जिम्मेदारी है, परंतु अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए सरकार निजीकरण के विचार को प्रोपेगेंडा बना रही है।  जबकि निजी कंपनियां केवल अपने मुनाफे के लिए कार्य करती हैं और उसकी कोई जिम्मेदारी  समाज के प्रति नहीं होती। जनता सरकार इसलिए चुनती है कि उसका जीवन बदलेगा, सुविधाएं बढ़ेंगी, जीवन स्तर सुधरेगा, जनता अपने मेहनत से सरकारों को टैक्स देती है, परंतु इसके एवज में दिनों दिन सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही है और टैक्स बढ़ा रही है, महंगाई बढ़ा रही है, रोजगार खत्म हो गया है।  एक तो सरकार देश की सार्वजनिक संपत्ति बेच रही है दूसरा आधारभूत सुविधाओं रेल और सड़क पर चलने के लिए निजी कंपनी मनमाना वसूली करेगी।  जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के प्राइवेटाइजेशन के कारण हुआ है।   बिजली के प्राइवेटाइजेशन से बिजली महँगी हुई।

मेरा स्पस्ट मानना है कि सरकारें जनता को गरीब रखना चाहती हैं और आपके मेहनत की कमाई का अधिकांश हिस्सा टैक्स से वसूल लेती हैं।

जनहितैषी सरकार आपके जीवन को सुलभ बनाती हैं आपको लाभदायक  सुविधा उपलब्ध करवाती हैं, रोजगार उपलब्ध करवाती हैं। आधारभूत आवश्यकताओं की जिम्मेदारी लेती हैं। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली  दिल्ली सरकार इसका बेहतरीन उदाहरण है। विश्वस्तरीय  शिक्षा, स्वास्थ्य की मुफ्त सुविधा एवं बिजली,पानी  सुरक्षा के दृष्टि से सीसीटीवी कैमरा और महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा तक उपलब्ध करवाना अद्भुत है।

क्या यह जिम्मेदारी कोई निजी कंपनी ले सकती है?

दिल्ली की प्रतिव्यक्ति आय पिछले 5 सालों में दुगुनी हुई है। रोजगार प्रदान करने में भी दिल्ली दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर है।  अपने बजट को मात्र 4 सालों में दुगुना 64000 करोड़ ₹ कर दिल्ली की जनता को सुविधाओं से लैश कर रही है। किसानों को 50000 रू/हेक्टेयर मुआवजा राशि भी दे रही है तो कोरोना संकट में सबसे सफ़ल/ जिम्मेदार सरकार साबित हुई।  कोरोना मृतकों के आश्रितों को मुआवजा और पेंशन देने वाली पहली सरकार बन गयी है। 

 सुरक्षा के दृष्टि से विश्व की सबसे सघन सीसीटीवी कैमरा लगाने वाला राज्य की उपलब्धि भी दिल्ली ने प्राप्त किया है।

 जनता को अपनी सरकारों और पार्टियों से सवाल पूछना चाहिए कि वोट लेते समय लोकलुभावन वादे करने वाले राजनेता बाकी समय में जनता के खून के प्यासे क्यों हो जाते हैं?

देश की 70% आबादी आज भी कृषि  क्षेत्र पर निर्भर है और देश की 65% आबादी 35 वर्ष से नीचे की है, इसके 50% आबादी को रोजगार की सख्त जरूरत होती है। 

 भारत की 80% आबादी हिन्दू है। चुनाव के समय में हिन्दू-मुसलमान करने वाली पार्टी इन किसानों और नौजवानों को  रोजगार और MSP क्यों उपलब्ध नहीं करवाती ?  

जनता अपने मुद्दों पर तार्किक आंदोलन क्यों नहीं कर पाती क्योंकि शिक्षा के नाम पर ठगने का काम किया गया है, और राजनीतिक दल जाति, धर्म और क्षेत्र की राजनीति करते हैं। दूरदृष्टि के अभाव के कारण नीतिगत मामलों में विरोध न कर पाने के कारण आज यह स्थिति बन गयी है।

 अपरिपक्व नीति और बेरोजगारी

 नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने मूर्खतापूर्ण नोटबन्दी ( demonetization) की नीति को  मीडिया और संगठन के माध्यम से जनता के दिमाग में उचित कदम ठहरा कर मानसिकता का आकलन कर लिया।  2014 से  पूर्ण बहुमत की सरकार के बाद नोटबन्दी बेवकूफानापूर्ण आर्थिक नीति का पहला प्रमाण था उसके बाद जीएसटी को लागू करना देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ देने वाला कदम ठहरा।   

आर्थिक मंदी की अवस्था में पहुँच चूंकि  भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कॉरपोरेट टैक्स में 10% की कटौती की गई। इस कदम से भी न तो रोजगार में वृद्धि हुई, ना ही  निवेश आया न जीडीपी बढ़ी ,परंतु  2021 तक आते आते कॉरपोरेट क्षेत्र की आमदनी में 105% की बृद्धि हुई।  जबकि 30 मई के  CMIE के सर्वे के अनुसार  97% भारतीयों की आमदनी घटी है एवं   शहरी बेरोजगारी दर 18% और राष्ट्रीय बेरोजगारी दर 12.15 % है।

पेट्रोल डीज़ल, टैक्स का सच और महंगाई

 आइये अब आपको कमरतोड़ महंगाई और टैक्स की सच्चाई बताते हैं।

 मई-जून में जारी आँकड़े के अनुसार  खुदरा महंगाई दर 6.37% (RBI के दायरे से बाहर)  और थोक महंगाई दर 12.94% है।   पेट्रोल-डीजल की बेतहासा कीमत, दाल, सब्जी,खाद्य तेल, खाद्यान्न की महंगाई ने आम आदमी का जीना मुश्किल कर दिया है। और किसानों को अब भी इसका उचित मूल्य नहीं मिलता।

 केंद्र सरकार  क्रूड ऑयल की कीमत बहुत कम होने के बावजूद एक्साइज ड्यूटी 300% बढ़ा कर  जनता से टैक्स वसूल रही है। जिसके कारण बेतहाशा महंगाई बढ़ी है। विपक्ष और जनता के दबाव के बावजूद सरकार पेट्रोल डीजल पर टैक्स घटाने का नाम नहीं ले रही है और पिछली UPA सरकार के ऑयल बॉण्ड  का हवाला दे कर बढ़ी हुई कीमतों का जिम्मेदार ठहरा रही है।   ऑयल बॉण्ड की शुरुआत वाजपेयी सरकार में हुआ था।  2002 में  9000 करोड़ का ऑयल बॉन्ड लाया गया था। 2008 में जब क्रूड ऑयल की कीमत 145 डॉलर प्रति बैरल था तब भारत की सरकार ने महंगाई और पेट्रोल की क़ीमत पर नियंत्रण के दृष्टिकोण से ऑयल बॉन्ड जारी किया था। जिसकी 2010 तक कुल कीमत 1.31 लाख करोड़ है, इस पर ब्याज की राशि मिला कर 2026 तक सरकार को चुकाना है।  2021 के अंत तक 10हज़ार करोड़ चुकाना है जो कि अभी तक मात्र 3500 करोड़ ही चुकाया गया है।

अब आप पेट्रोल डीज़ल से वर्तमान सरकार की आमदनी के बारे में भी जान लीजिए।  2020-21 के वित्तवर्ष में 4 लाख  करोड़ की कमाई हो चुकी है, 5 लाख करोड़ की संभावना है। जो कि एक साल में ही  ऑयल बॉन्ड से कई गुना ज्यादा है।  2014 से अब तक 14 लाख  करोड़ की टैक्स केंद्र सरकार केवल डीज़ल पेट्रोल से कमाई कर चुकी है।

अपरिपक्व आर्थिक नीति

असफ़ल नोटबन्दी, जीएसटी, इंसोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड 2016,  बेतहाशा कॉरपोरेट NPA के कारण बैंक का दिवालिया होना, बैंक में करप्शन  और फिर कॉरपोरेट टैक्स में छूट के माध्यम से पूरे देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी। 2021 का कॉरपोरेट टैक्स 6% की गिरावट के साथ 21 साल में पहली बार 4.57 लाख करोड़ ही है।  सरकार  ने 1 लाख 46 हज़ार करोड़ का कॉरपोरेट टैक्स माफ़ किया और 1 लाख करोड़ का घाटा भी हुआ।

जबकि पर्सनल इनकम टैक्स 4.69 लाख करोड़ है।

वस्तुतः मोदी सरकार अपनी अदूरदर्शी और अपरिपक्व आर्थिक नीतियों के कारण गंभीर आर्थिक समस्याओं में फंस चुकी है। सरकार की फिसिकल डेफिसिट (सरकारी व्यय- आय) 14%  हो चुकी है जबकि  पिछली सरकारों का लक्ष्य इसे 3% से शून्य करने का था।

भारत का जीडीपी ग्रोथ 2016 के लगातार नीचे गिरते हुए 2020  में  माईनस -23.4% हो गया था जो  और इसके तुलना में  2021का जीडीपी -7.3% है जो पिछले 40 सालों में सबसे बुरी स्थिति है।

अब भारत सरकार अपने खर्च को जुटाने के लिए देश की सार्वजनिक संपत्ति को धड़ल्ले से बेच रही है। अब सड़क और रेल पर चलने के लिए देश की जनता को 3-4 गुना कीमत चुकानी पड़ेगी, बेरोजगारी और महंगाई की मार अलग, अगर यही सिलसिला चलता रहा तो सांस लेने पर भी टैक्स लगाया जा सकता है।

कॉरपोरेट नेक्सस और पॉलिटिकल फंडिंग

वस्तुतः वर्तमान  सरकार कॉरपोरेट मीडिया और  दक्षिणपंथी पार्टियों के गठजोड़ का परिणाम है। दक्षिणपंथी सोच उग्र राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देकर इतिहास को सुधारने की सोच रखता है जबकि यह संभव नहीं है,  सरकार और वर्तमान नेतृत्व वर्तमान परिस्थितियों को दूरदर्शी नीतियों से सामंजस्य बैठा कर बेहतर भविष्य निर्माण कर सकती है। परंतु  इस दृष्टि का अभाव दिखता है। आर्थिक नीति की समझ नगण्य होने के कारण  कॉरपोरेट अपने लिए लाभकारी सौदा सरकार से करती है। चुनावी फंड उपलब्ध करवा कर सरकार बनने के बाद कौड़ियों के भाव में सरकारी और सार्वजनिक संपत्तियों को खरीदने का वातावरण बनाती है और कॉरपोरेट की ऋणी पार्टियाँ उनके पक्ष में नीतियाँ बनाती हैं। ऐसी कौन सी बात है कि  2012 तक 99 करोड़ की कॉरपोरेट फंडिंग  नहीं जुटाने वाली पार्टियाँ 2012 -14 के बीच  हजारों करोड़ की पॉलिटिकल फंडिंग पाने लगीं। साल 2014-2018 के बीच 2 हज़ार 88 करोड़ ₹ पॉलिटिकल फंडिंग  प्राप्त हुआ, और आँकड़े बताते हैं कि पॉलिटिकल फंडिंग का 90% केवल बीजेपी को ही प्राप्त होता है। 2018 में वित्तमंत्री अरुण जेटली के द्वारा एलेक्टोरल बॉन्ड  का प्रावधान लाया गया और कानून बना दिया गया।  इसके माध्यम से 20 हज़ार से ऊपर की राशि पार्टियों को चंदा देने पर भी पहचान बताना जरूरी नहीं रह गया।  2018 में 7 हजार 380 करोड़ इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए, जिसका 90% बीजेपी को चंदा मिला। आँकड़े को और गंभीरता से देखें तो बीजेपी को 6 करोड़ 15 लाख  रुपया प्रतिदिन और 185 करोड़ प्रत्येक महीना चंदा प्राप्त होता है। 

इसके अलावे देश के 8 पॉलिटिकल ट्रस्ट जिसमें ‘प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट ‘और प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट के माध्यम से हजारों करोड़ BJP को चंदा मिलता है यह चंदा भी कॉरपोरेट ही देता है। ट्रस्ट के माध्यम से 2019- 20 में प्रतिदिन 3.5करोड़ रुपया चंदा बॉण्ड के अलावे प्राप्त हुआ।

यही कारण है कि चुनिंदा क्षेत्र जिसमें चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों का व्यवसायिक हित है उस क्षेत्र को NMP में रखा गया है।  टेलीकॉम, गैस, पेट्रोल, रेल, सड़क,  एयरपोर्ट,  बिजली उत्पादन और वितरण,  अनाज के गोदाम, माइनिंग, पोर्ट इत्यादि।

एक सच यह भी है जबकि देश की आर्थिक स्थिति बहुत बुरी है गौतम अडानी की  संपत्ति 600% बढ़ी है तो मुकेश अम्बानी की संपत्ति 50% बढ़ी जो विश्व के 8 वें अमीर व्यक्ति हैं।

वाजपेयी सरकार में विनिवेश की प्रक्रिया से मात्र 24 हज़ार 600 करोड़ का डिसइन्वेस्टमेंट किया गया था। और मनमोहन सरकार के 10 साल में 1 लाख 13 हज़ार करोड़ का विनिवेश हुआ। मोदी सरकार के पहले 5 साल में ही 

2लाख 80490 करोड़ का विनिवेश हुआ और अब  6 लाख करोड़ के सार्वजनिक संपत्ति की नीलामी शुरू कर दी गयी है।

 मुख्य धारा की मीडिया को  प्रत्येक वर्ष 10 हज़ार करोड़ के लगभग पैकेज केंद्र सरकार के तरफ से दिया जाता है। फिर राज्य सरकारें और कॉरपोरेट। यही कारण है कि जनता को सरकार की जनता विरोधी नीतियों की भी प्रशस्ति गायन मीडिया करती है, और जनता को बेवकूफ बनाती है।  

परंतु सबसे बड़ी पाठशाला भूख, गरीबी और जिल्लत की जिंदगी है।

 सवाल यह उठता है, अनियंत्रित  महंगाई एवं बेरोजगारी देने वाली सरकार, असफ़ल आर्थिक नीति, असफ़ल विदेश नीति, असफ़ल घरेलू नीति वाली सरकार से क्या देश की जनता  अपने ही टैक्स के पैसे से यदा कदा हज़ार/2000₹ मुआवजा और 5 किलो/ महीना अनाज लेकर जिंदा रहेगी और हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए वोट देने के लिए लाइन में खड़ी होगी या अपने हक के लिए आवाज़ उठाएगी!

(अंगेश कुमार आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों के जानकार हैं।)

  

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