यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के काल में जब मनुष्यता के अस्तित्व पर ख़तरा महसूस किया जाने लगा था, तब बौद्धिक जगत में प्लेग और हैज़ा जैसी महामारियों से जूझते हुए इंसान के अस्तित्वीय संकट के वक़्त को याद किया गया था । क़ामू और काफ़्का का आज अमर माना जाने वाला लेखन उन्हीं भय और उससे जूझने की व्यक्तिगत और सामूहिक अनुभूतियों की उपज था ।
नई मानवता के अस्तित्ववादी दर्शन का जन्म भी उसी पृष्ठभूमि में हुआ था जिसमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये जूझते मनुष्य में श्रेष्ठतम नैतिक मूल्यों के उदय को देखा गया था । साफ़ कहा गया था कि मनुष्य की प्राणी सत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा के क्रम में ही नए मानव मूल्यों का सृजन करने के लिए प्रेरित होती है । व्यक्ति के आत्मबल को ही समाज और पूरी मानवता के आत्मबल के रूप में देखा गया था।
तब उस समय के मार्क्सवादियों ने नये मनुष्य के निर्माण में उसकी अन्त: प्रेरणा के तत्व को प्रमुखता देने के कारण इस दर्शन की आलोचना की थी। इसे सामाजिक अन्तर्विरोधों पर आधारित परिवर्तन के सत्य का परिपंथी माना था। और, इसी आधार पर इसे वर्ग-संघर्ष पर टिके समाजवाद के लिये संघर्षों का विरोधी बताते हुए मानव-विरोधी तक कहा गया। जनवादी लेखक संघ जैसे संगठन के घोषणापत्र में भी कोई इस प्रकार के सूत्रीकरण को देख सकता है।
लेकिन ज़्याँ पॉल सार्त्र सहित तमाम आधुनिक अस्तित्ववादियों ने अपने जीवन और राजनीतिक विचारों से भी बार-बार यह साबित किया कि हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में शामिल होने से उन्होंने कभी परहेज़ नहीं किया। वियतनाम युद्ध से लेकर अनेक मौक़ों पर वे वामपंथी क्रांतिकारियों के भी विश्वस्त मित्र साबित हुए थे ।
यह मानव-केंद्रित एक ऐसी सोच थी जिसमें जीवन को बनाने में मनुष्यों के आत्म की भूमिका को प्रमुखता प्रदान की गई थी। इसके प्रणेता माने गये किर्केगार्द आदमी के अपने आत्म को ही उसके जीवन के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार मानते थे । हाइडेगर और नित्शे, जिनके विचारों में हिटलर के व्यक्तिवाद की प्रेरणा देखी जाती थी, वे भी प्राणी सत्ता की तात्विकता पर बल देने के नाते अस्तित्ववादी माने गये। सार्त्र इस धारा के सबसे मुखर सामाजिक प्रतिनिधि हुए ।
बहरहाल, आज कोरोना वायरस के इस काल में अस्तित्ववादी सोच का महत्व कुछ अजीब प्रकार से सामने आ रहा है। वायरस मानव शरीर की आंतरिक प्रक्रियाओं की उपज होता है ; मनुष्य के अपने शरीर के अंदर के एक प्राकृतिक उत्पादन-चक्र का परिणाम। शरीर के भौतिक अस्तित्व से उत्पन्न चुनौती । इसके कारण किसी बाहरी कीटाणु में नहीं होते हैं। इसकी संक्रामकता के बावजूद अक्सर इसका शरीर के अंदर ही स्वत: शमन हो जाता है ।
लेकिन जब किसी भी वजह से यह शरीर की प्रतिरोध-शक्ति को परास्त करने लगता है, तब यह जानलेवा बन जाता है । कोरोना एक ऐसा ही वायरस है जिसका संक्रमण कल्पनातीत गति से हो रहा है और यह अनेक लोगों के लिए प्राण घाती भी साबित हो रहा है।
कोरोना के चलते आज जो बात फिर एक बार बिल्कुल साफ़ तौर पर सामने आई है वह यह कि आदमी का यह भौतिक शरीर अजर-अमर नहीं है । बल्कि यह अपने स्वयं के कारणों से ही क्षणभंगुर है । इसीलिये सिर्फ़ इसके भौतिक अस्तित्व के भरोसे पूरी तरह से नहीं चला जा सकता है, बल्कि इसकी रक्षा के लिये ही जितनी इसकी अपनी प्रतिरोधक क्षमता को साधने की ज़रूरत है, उतनी ही एक भिन्न प्रकार के आत्म-बल की, मनुष्यों के बीच परस्पर सहयोग और समर्थन की भी ज़रूरत है ।
यह मनुष्य के प्रयत्नों के एक व्यापक सामूहिक आयोजन की माँग करता है, जैसा कि अब तक चीन, वियतनाम, क्यूबा ने दिखाया है । चीन के डाक्टरों के जत्थे इटली की मदद के लिये चल पड़े हैं, तो क्यूबा अपने तट पर इंग्लैंड के कोरोना पीड़ित जहाज़ के यात्रियों की सहायता कर रहा है । सारी दुनिया में कोरोना के परीक्षण की मुफ़्त व्यवस्था है । दुनिया के कोने-कोने में हर रोज़ ऐसे तमाम प्रेरक उदाहरण सामने आ रहे हैं । इसने एक भिन्न प्रकार से, मानव-समाज के आत्म बल को साधने की, अस्तित्ववादी दर्शन की सामाजिक भूमिका को सामने रखा है ।
आज हम एक बदली हुई, परस्पर-निर्भर, आपस में गुँथी हुई दुनिया में रह रहे हैं । इसमें सभी मनुष्यों के सामूहिक सहयोग मूलक प्रयत्नों के बिना, जब तक इसका प्रतिषेधक तैयार नहीं हो जाता, इस प्रकार के वायरस का मुक़ाबला संभव नहीं है । और क्रमश: यह भी साफ़ है कि इससे मुक़ाबले का कहीं भी और कोई भी प्रतिषेधक विकसित होने पर वह सारी दुनिया के लोगों को मुफ़्त में ही उपलब्ध कराया जाएगा ।
अमेरिका में जो ट्रंप वहाँ की जन-स्वास्थ्य व्यवस्था को ख़त्म करने पर उतारू था, कोरोना ने उसकी अमानवीय मूर्खतापूर्ण सोच की सीमाओं को बेपर्द कर दिया है । डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बर्नी सैन्डर्स की यह माँग कि मुफ़्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का सिर्फ़ राष्ट्रीय नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय ढाँचा तैयार किया जाना चाहिए, कोरोना की चुनौती के सम्मुख मानव समाज की एक सबसे ज़रूरी और प्रमुख माँग दिखाई पड़ती है ।
कोरोना की चुनौती ने सचमुच राष्ट्रीय राज्यों के सीमित सोच की व्यर्थता को उजागर कर दिया है । यह न धनी-गरीब में भेद करेगा, न हिंदू, मुसलमान, बौद्ध और ईसाई में । महाकाय अमेरिकी बहु-राष्ट्रीय निगम भी अमेरिका को इसके प्रकोप से बचाने में असमर्थ है । इसने मनुष्यों के अस्तित्व की रक्षा के लिये ही पूरे मानव समाज की एकजुट सामूहिक पहल की ज़रूरत को रेखांकित किया है । इसीलिये जो भी ताकतें स्वास्थ्य और शिक्षा की तरह के विषय की समस्याओं का निदान इनके व्यवसायीकरण में देखती हैं, वे मानव-विरोधी ताकते हैं। हमारे शास्त्रों तक में न्याय, शिक्षा और स्वास्थ्य को पाशुपत धर्म के तहत, मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त अधिकार माना गया है । आज कोरोना से पैदा हुआ अस्तित्व का यह संकट शुद्ध रूप से निजी या संकीर्ण राष्ट्रीय स्वार्थों के लिये भी आपसी खींचतान की व्यर्थता को ज़ाहिर करता है ।
आदमी का अपने भौतिक अस्तित्व की चुनौतियों से जूझना ही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है और इसी संघर्ष की आत्मिक परिणतियों का एक नाम अस्तित्ववाद है । सच्चा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद आदमी के आत्म को भी उसकी भौतिक सत्ता से अभिन्न रूप में जोड़ कर देखता है । जीवन का सत्य इन दोनों स्तरों पर ही, शरीर और भाषा दोनों स्तरों पर, अपने को प्रकट किया करता है।
(अरुण माहेश्वरी विरष्ठ लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं आप आजकल कोलकाता में रहते हैं।)