क्या भारत की कमजोरी का फायदा उठा रहा है अमेरिका?

भारत की विदेश नीति एक बंद गली में पहुंच गई लगती है। अभी हाल तक भारतीय विदेश नीति के कर्ता-धर्ता यह दावा करते थे कि सबसे जुड़ कर चलने का उनका रुख अपने देश के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। कहा जाता था कि जी-7 और ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) समूहों के बीच बंटती दुनिया में भारत किसी गुट विशेष के साथ नहीं है। उसके संबंध दोनों गुटों से हैं। यह भी कहा जाता था कि भारतीय विदेश नीति का मकसद अपने राष्ट्रीय हित को साधना है। ऐसा जिस मुद्दे पर- जिस रूप में होता हो, भारत वैसी ही नीति अपनाता है। इस बीच भारत के ग्लोबल साउथ का नेता होने का दावा भी अक्सर किया जाता था।

मगर हर जगह से लाभ उठाने का दौर अब संभवतः गुजर चुका है। गुजरे वर्षों में अमेरिका से अपने रिश्ते को सर्वोच्च प्राथमिकता देने के बावजूद यूक्रेन के मामले में भारत ने अमेरिकी खेमे से अलग रुख अपनाया। इससे अमेरिका असहज हुआ, लेकिन उसने भारत के प्रति रियायती रुख अपनाए रखा।

उधर यूक्रेन युद्ध के दौरान तटस्थ रुख अपनाए रख कर- यानी “हमले के लिए” रूस की निंदा ना कर- भारत ने ग्लोबल साउथ (जिसका प्रतिनिधित्व आज ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन जैसे समूह कर रहे हैं) में अपने लिए एक विशेष स्थान बना लिया। ऐसे रुख के बावजूद अमेरिकी नेतृत्व वाले जी-7 समूह ने भारत के प्रति सख्त रुख नहीं अपनाया, तो इसकी वजहें थीं। स्पष्टतः इसका कारण यह था कि चीन को घेरने की अपनी रणनीति में यह समूह भारत की प्रमुख भूमिका मानता रहा है। इसके लिए खासकर अमेरिका ने भारत में अपना बहुत बड़ा रणनीतिक निवेश कर रखा है। एक झटके से वह इसे नहीं गंवाना चाहता था। तो कुल मिला कर यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद बनी विशेष परिस्थितियों में भारत की सबसे “समान रिश्ता रखने” नीति अपने सबसे अनुकूल दौर में नजर आई थी।

लेकिन दो घटनाओं ने भारत के अनुकूल अंतरराष्ट्रीय स्थितियों को लगभग पूरी तरह पलट दिया है। इनमें पहली घटना यह आरोप है कि भारत की खुफिया एजेंसियों ने अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में खालिस्तानी उग्रवादियों की हत्या की योजना पर अमल किया। दूसरी घटना गजा में इजराइल का नरसंहार है। इजराइल की ताजा कार्रवाई बीते सात अक्टूबर को उस पर हमास के हमलों के साथ हुई। इस घटनाक्रम में भारत ने इजराइल को पूरा समर्थन दिया है, जबकि ग्लोबल साउथ लगभग एकजुट रूप में फिलस्तीन के पक्ष में खड़ा है। इस तरह इस समूह में भारत अलग-थलग पड़ा नजर आया है।

विदेशी जमीन पर खालिस्तानी उग्रवादियों के खिलाफ भारतीय खुफिया एजेंसियों की कार्रवाई का पहला मामला सितंबर में उठा, जब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने भारत पर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में शामिल होने का इल्जाम मढ़ा। उसके बाद सामने आए तथ्यों से यह साफ है कि वो आरोप एक बड़े घटनाक्रम की सिर्फ शुरुआत भर था। अब तक जाहिर हुए तथ्यों के मुताबिक,

  • इस वर्ष जून में हुई निज्जर की हत्या के बारे में कनाडा ने जो आरोप लगाया, वह आपस में खुफिया सूचनाओं को साझा करने वाले पांच देशों (अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड) के साझा निष्कर्ष के आधार पर किया गया था।
  • मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक जून में ही अमेरिकी जांच एजेंसियों को यह भनक लगी थी कि अमेरिका में रहने वाले गुरपतवंत सिंह पन्नूं एवं अन्य खालिस्तानी उग्रवादियों की जान खतरे में है। एक वेबसाइट पर आई खबर के मुताबिक एफबीआई एवं अन्य अमेरिकी एजेंसियों ने इन उग्रवादियों को आगाह किया था कि उनकी जान खतरे में है। बताया जाता है कि इन एजेंसियों ने उन्हें सुरक्षा भी प्रदान की थी।
  • इसी क्रम में पिछले महीने एक ब्रिटिश अखबार ने खबर दी कि अमेरिकी एजेंसियों ने पन्नूं की हत्या की योजना को नाकाम कर दिया था और इस बारे में अमेरिका ने भारत को चेतावनी दी थी।
  • यह खबर आने के हफ्ते भर के अंदर यह एलान हुआ कि अमेरिका के न्याय मंत्रालय, वहां की मादक पदार्थ प्रवर्तन एजेंसी, और एफबीआई ने पन्नूं के मामले में भारतीय नागरिक निखिल गुप्ता के खिलाफ अभियोग पत्र तैयार किया है, जिसके आधार पर उस पर न्यूयॉर्क में मुकदमा चलाया जाएगा। आरोप है कि गुप्ता ने पन्नूं की हत्या के लिए अमेरिका में एक व्यक्ति को सुपारी दी, लेकिन वह व्यक्ति अमेरिकी एजेंसियों का जासूस निकला। इस तरह इस मामले का भंडाफोड़ हो गया। उस जासूस को गुप्ता ने बताया था कि यह कार्रवाई वो किसी भारतीय अधिकारी के इशारे पर कर रहा है।

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका ने

  • बीते जुलाई में भारत को पन्नूं और निज्जर के मामलों में आगाह किया था और इन मामलों की जांच कराने को कहा था। लेकिन भारत सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।
  • बताया जाता है कि अगस्त में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीएआई के निदेशक विलियम बर्न्स ने भारतीय अधिकारियों से इस मामले में संपर्क किया था।
  • सितंबर में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान भारत आए अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया ने नेताओं ने साझा तौर पर यह मामला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने रखा। लेकिन संभवतः भारत की “मर्दाना विदेश नीति” के अनुरूप भारत सरकार ने इन आरोपों को सिरे से ठुकरा दिया।
  • इसके बाद जस्टिन ट्रुडो ने कनाडा की संसद में खड़े होकर निज्जर हत्याकांड में भारत का हाथ होने का आरोप लगाया। इस पर भारत ने अत्यंत कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
  • मगर अमेरिका ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह इस विवाद में पूरी तरह कनाडा के साथ है। फिर भी भारत अपने सख्त रुख पर कायम रहा।
  • तब नवंबर में खुद अमेरिका ने पन्नूं के मामले में भारत को घेरने का फैसला कर लिया।  

निखिल गुप्ता के खिलाफ अभियोग तैयार करने के बाद से अमेरिका ने कई बार यह साफ किया है कि पन्नूं की हत्या की कथित कोशिश के मामले में वह भारत के प्रति कोई रियायत बरतने के मूड में नहीं है। समझा जाता है कि अमेरिका ने इस मामले में भारत में किए गए अपने रणनीतिक निवेश को भी दांव पर लगा देने का मन बनाया हुआ है। या फिर इस सख्त रुख के पीछे अमेरिका यह आकलन हो सकता है कि ताजा वैश्विक समीकरणों के बीच भारत के विकल्प बहुत सिमट गए हैं और इस कारण वह अमेरिका के खिलाफ जाने की स्थिति में अब नहीं है।

यह तो बहुत साफ है कि भारत ने एक जैसे आरोपों के बावजूद कनाडा और अमेरिका के प्रति अलग-अलग रुख अपनाया है। कनाडा के मामले में भारत ने गुस्से से भरा रुख अपनाया था और सख्त जवाबी कार्रवाइयां भी की थीं। जबकि अमेरिका ने जब इल्जाम लगाया, तो भारत ने उसे गंभीरता से लेने की बात कही। अभियोग पत्र की खबर आने से पहले ही भारत ने अपने यहां इस मामले की जांच का एलान कर दिया। जाहिर है, दुनिया भर में भारत के रुख में इस अंतर पर ध्यान दिया गया है।

इस बीच लगभग रोजमर्रा के स्तर पर अमेरिकी सरकारी अधिकारी या प्रवक्ता ऐसे बयान दे रहे हैं, जिनका सार यह होता है कि अमेरिका इस मामले में दबाव बनाए रखेगा।

  • सबसे ताजा बयान अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर का है। बुधवार को उन्होंने कहा कि अमेरिका ने यह मसला भारत सरकार के साथ सबसे वरिष्ठ स्तरों पर उठाया है। मिलर ने यह भी साफ कर दिया कि अमेरिका पन्नूं के मामले को कनाडा में हुई निज्जर की हत्या के मामले से जोड़ कर देख रहा है। उन्होंने ध्यान दिलाया कि अमेरिका ने भारत से कनाडा की जांच में सहयोग करने का ‘अनुरोध’ किया है।
  • इस मामले में भारत में कराई जा रही जांच का स्वागत करते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कह चुके हैं कि उन्हें इस जांच के नतीजे का इंतजार रहेगा। मिलर ने भी कहा- ‘भारत ने इस मामले की जांच का सार्वजनिक एलान किया है। हम इसके नतीजों का इंतजार करेंगे। यह एक ऐसा मामला है, जिसे हम बहुत गंभीरता से लेते हैँ।’
  • इसके पहले अमेरिका के प्रमुख उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन फाइनर भारत आए। हालांकि उनकी यात्रा का घोषित मकसद महत्त्वपूर्ण एवं उभरती तकनीक के मामले में भारत-अमेरिका पहल की समीक्षा करना था, लेकिन अमेरिका ने अपने आधिकारिक वक्तव्य में इस बात का उल्लेख किया कि इस दौरान पन्नूं मामले को भी फाइनर ने उठाया।
  • इसी बीच यह खबर भी आई है कि अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई के निदेशक क्रिस्टोफर ए व्रे इस जांच की समीक्षा करने के लिए 11-12 दिसंबर को भारत की यात्रा करेंगे। इस दौरान मुलाकात एनआईए के प्रमुख दिनकर गुप्ता से होगी।

निष्कर्ष यह कि अमेरिका इस मामले को लेकर भारत पर शिकंजा कसे रखने की कोशिश में है। मतलब यह कि भारत सरकार की तरफ से जांच का एलान कर दिए भर से वह संतुष्ट नहीं है। उसने साफ किया है कि वह जांच की प्रगति की निगरानी करेगा।

उधर देखने की बात यह होगी की अमेरिकी अदालती कार्यवाही के दौरान निखिल गुप्ता की गवाही से क्या तथ्य सामने आते हैं।

यह तय है कि भारतीय जांच और अमेरिकी अदालती कार्यवाही के नतीजों का भारत-अमेरिका संबंधों पर गहरा असर होगा। यानी भारत सरकार के सामने उस संबंध को संभालने की कठिन एवं गंभीर चुनौती खड़ी हो गई है, जिसे उसने अपनी विदेश नीति में केंद्रीय स्थान दिया हुआ है। अमेरिका से संबंध को लगातार गहराई देने की कोशिश में भारत सरकार ने ग्लोबल साउथ में अपने कुछ रिश्तों तक को दांव पर लगाया हुआ है। इसीलिए यह आशंका खड़ी हुई है कि अब कहीं दोनों तरफ ही प्रतिकूल स्थितियां ना खड़ी हो जाएं।

ग्लोबल साउथ के हो रहे ध्रुवीकरण में दो मौकों पर भारत का अलगाव इस वर्ष सामने आया है। पहला मौका शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन का था, जिसकी मेजबानी भारत ने की। भारत ने ऐन वक्त पर इस बैठक को ऑनलाइन माध्यम से करने का फैसला किया, जिस पर संगठन के सदस्य कुछ देशों में नकारात्मक प्रतिक्रिया देखने को मिली। बैठक के दौरान चीन की परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के प्रति रुख को लेकर भारत के बाकी सदस्य देशों से मतभेद उभर कर सामने आए।

अभी हाल में गजा में इजराइली कार्रवाइयों के खिलाफ ब्रिक्स के मौजूदा अध्यक्ष एवं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा ने ऑनलाइन शिखर बैठक आयोजित की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसमें भाग नहीं लिया। उस बैठक में भारत की नुमाइंदगी विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने की, जबकि ब्रिक्स और उसमें नए शामिल हो रहे अधिकांश देशों के सर्वोच्च नेता इसमें शामिल हुए। बैठक में भारत का रुख भी आम राय से अलग रही। जाहिर है, इस मामले में भारत वहां अलग-थलग नजर आया।

भू-राजनीति के तमाम विशेषज्ञों में इस बात लगभग आम राय है कि यूक्रेन युद्ध और मौजूदा इजराइल-फिलस्तीन युद्ध विश्व शक्ति-संतुलन को बदलने वाली घटनाएं साबित हो रही हैं। इन घटनाओं ने ग्लोबल साउथ को समान राय बनाने और एकजुट होने के लिए प्रेरित किया है। निर्विवाद रूप से इस परिघटना का नेतृत्व रूस और चीन कर रहे हैं, जबकि दक्षिण अफ्रीका, ईरान, और ब्राजील जैसे देश में इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। 

दूसरी तरफ एक समय विकासशील दुनिया को नेतृत्व देने वाला भारत इस दौर में जी-7 के अधिक निकट चला गया है, जबकि इस साम्राज्यवादी समूह की दुनिया पर पकड़ टूट रही है। इस रूप में भारत ऐतिहासिक धारा के विपरीत दिशा में चला गया है। आशंका है कि इसकी महंगी कीमत भारत को चुकानी पड़ सकती है।

भारत ने जो दिशा चुनी है, उसका स्वाभाविक परिणाम है कि ग्लोबल साउथ की नेतृत्वकारी भूमिका से वह वंचित हो गया है। चीन से खराब संबंध के कारण इस समूह में भारत के लिए विपरीत स्थितियां बनी हुई हैं। इस बीच रूस के रुख में भी कुछ ऐसे बदलाव आए हैं, जो भारत को असहज करने वाले हैं। मसलन, ऐसी खबर है कि रूस पाकिस्तान को ब्रिक्स में शामिल करने का समर्थन कर रहा है, जबकि ये भारत को कतई पसंद नहीं आ सकती।  

बेशक, इस स्थिति का लाभ अमेरिका और जी-7 के देश उठा सकते हैं। पन्नूं और निज्जर के मामलों में उन्होंने भारत के प्रति जिस तरह का कड़ा रुख दिखाया है, उसे इस संदर्भ से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इस कयास में दम है कि अमेरिका ने इन दोनों मामलों को भारत पर दबाव बनाने और उसे अपने खेमे में पूरी तरह आने के लिए मजबूर करने का जरिया बना लिया है। भारत की कमजोर प्रतिक्रिया से उसका मनोबल और बढ़ा हो सकता है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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