Saturday, April 27, 2024

काशी विश्वनाथ धाम कोरिडोर: धर्म क्षेत्र का कारपोरेटीकरण

प्रथमचरण

30 वर्ष पहले उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियां भारत में लागू की गईं। जहां से भारत के विविध क्षेत्रों का निजीकरण यानी कॉरपोरेटाइजेशन शुरू हुआ। पहली प्राथमिकता थी कि इन नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अब तक चल रहे कानूनों और संवैधानिक प्रावधानों को बदल देना। जिससे भारत के संस्थानों और प्राकृतिक संसाधनों का कॉरपोरेटाइजेशन शुरू हो सके। इसकी शुरुआत 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा गाजे-बाजे के साथ की गई। उस समय भारत गहरे आर्थिक संकट में घिरा था। इस संकट से भारत  को बाहर ले जाने के लिए इन नीतियों को पुरजोर समर्थन शासक वर्गों द्वारा मिला। उस दौर में अकेले बाम जनवादी ताकतों ने डब्ल्यूटीओ आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियां जो भारत में एलपीजी के नाम पर लागू की जा रही थी उनका पुरजोर विरोध इस आधार परकिया कि ये नीतियां भविष्य मैं किसान छात्र श्रमिक और आम नागरिक के साथ ही लोकतंत्र के लिए भी खतरनाक होगी। लेकिन भारत की राजनीति के कांग्रेसोत्तर दौर में मूल विमर्श को ही बदल दिया गया। हिंदुत्व की ताकतों के उभार और उनकी बढ़ती सामाजिक राजनीतिक मान्यता के लिए बाजारीकरण एक अवसर बना। राम मंदिर निर्माण आंदोलन की आड़ में हिंदू राष्ट्रवादी परियोजनाओं के अधीन भारत को लाने का अथक प्रयास हुआ। उदारीकरण के पहले चरण में बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया गया। इस घटना से स्पष्ट था कि भारत अब दक्षिण दिशा की तरफ बढ़ने के लिए पूर्णतया तैयार हो चुका है। जिसे कारपोरेट लॉबी का पूर्ण समर्थन मिलने जा रहा है।

 सामाजिक न्याय काल

इस स्थिति का विकल्प हिंदुत्व की वर्ण व्यवस्था के अन्दर अंतर्निहित अंतर्विरोध को केंद्र कर मंडल की राजनीति सामाजिक न्याय के नारे के साथ आयी। जिसे पिछड़ी और कुछ दलित जातियों के निम्न पूंजीवादी नेतृत्व द्वारा आगे बठाया गया। लेकिन मंडल और मंदिर दोनों के विमर्श में नीतिगत यानी एलपीजी की नीतियों का विरोध कहीं नहीं था। यहां तक कि कुछ दलित बुद्धिजीवी उदारीकरण को दलितों और पिछड़ों के उत्थान के संदर्भ में देखने लगे थे। इस लिए दोनों धाराओं में भारत के पुनर्निर्माण के लिए लागू की जा रही आर्थिक नीतियों पर पूर्णतया सहमति थी। जिसके कारण इस दौर में आर्थिक सवाल यानी बुनियादी मुद्दे गौड़ ही रहे।

 एलपीजी पर आम सहमति

धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे ही इस दौर में विमर्श के केंद्र में बने रहे। संयुक्त मोर्चे की सरकार से शुरू होकर अटल बिहारी बाजपेयी की एनडीए की सरकार और उसके बाद 10 वर्षों तक चले UPA की सरकारों में विकास के मॉडल पर नीतिगत समानता दिखी। मानव संसाधनों से लेकर प्राकृतिक संसाधनों को बाजार की शक्तियों के लिए सुलभ बनाने और सुधारों को गति देने में सभी ने मनमोहन मॉडल को ही स्वीकार किया। इन सुधारों को अटल बिहारी जी की सरकार द्वारा व्यापार पर लगे प्रतिबंधों को हटाने के साथ आवेग मिला। जिसके दूरगामी परिणाम सामने आए ।

सत्ता और पूंजी का केंद्रीकरण

इस दौर की विशेषता थी कि आर्थिक गतिविधियों को पूर्णतया बाजार के हाथों में दे दिया जाए। बाजारीकरण से पूंजी का केंद्रीकरण शुरू हुआ। भारत के उद्योगों वित्तीय संस्थानों यहां तक कि कृषि बाजार को कारपोरेट के हाथ कौड़ी के भाव देने की विनाशकारी कोशिश की गई।

प्रारंभिक दौर में इन आर्थिक नीतियों से विकास के कॉरपोरेट रास्ते को आवेग मिला और भारत में मध्यवर्गीय समाज के इनकम में वृद्धि हुई और जीवन स्तर थोड़ा उन्नत हुआ। जिससे उनकी उपभोक्ता क्षमता में भारी वृद्धि हुई ।

विकास की यह गति कुछ समय बाद ठहर गयी। मनमोहन सिंह के दूसरे काल के अब भारत के औद्योगिक विकास के लिए समावेशी-पारदर्शी और जनकल्याणकारी योजनाएं या नीतियों के लिए जो संयुक्त मोर्चा सरकार और यूपीए के काल में बनाई गई थी कोई जगह नहीं रह गई थी। कारपोरेट विकास की बर्बरता को छिपाने के लिए मानवीय चेहरा की जरूरत नहीं रही।

कारपोरेट जगत शुरुआती दौर में मनमोहन सिंह नीतियों का समर्थक था। वह अब इन नीतियों का आलोचक बन गया। अंत में उसने मनमोहन सरकार को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सांप्रदायिकता का राजनीति के केंद्र में आना

दूसरी तरफ भारत में सांप्रदायिक विभाजन और उसका हिंसक अभियान बाबरी मस्जिद के विध्वंस गुजरात नरसंहार से गुजरते हुए वाजपेई काल में हुई आतंकवादी घटनाओं के बीच चरम पर पहुंच गया था। इस अराजक परिस्थिति का फायदा उठाकर भारत के लिए कठोर और मजबूत नेतृत्व और राजनीतिक संस्था की जरूरत को कारपोरेट नियंत्रित मीडिया द्वारा लगातार आवश्यक ठहराया जाने लगा। वाह्य और आंतरिक संकट के खतरे का सामना करने के लिए दृढ़ निर्णय लेने वाला नेतृत्व चाहिए। जो भारत के विकास की गति को आगे ले जा सकता है। इस समय तक बाजार वाद के लिए जन कल्याणकारी आवरण की भी जरूरत  नहीं रह गई थी।

सत्ता का मोदी के हाथ में केंद्रित होना

2012-13 के दौर में कॉरपोरेट मीडिया के आक्रामक प्रचार अभियान के तहत  मोदी को एक राष्ट्र नायक के रूप में भारत के नागरिकों के सामने प्रस्तुत किया गया और घोषणा करते हुए उन्हें दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया गया। यहां से भारत में नग्न कापोरेटीकरण और क्रोनीकैपटलिज्म का दौर शुरू हुआ।

मोदी जी ने स्वयं कहा था कि व्यापार उनके खून में है। दूसरा कोरोना महामारी के दौर में उन्होंने ऐलान किया कि हमें आपदा को अवसर में बदल देना है।

हम यहां से मोदी के विकास की क्रोनोलाजी समझने की कोशिश करते हैं। सबसे पहले 2013 के भूमि अधिग्रहण संशोधन कानून को अध्यादेश के द्वारा पलटने का प्रयास हुआ। कहा गया कि इस कानून से भूमि अधिग्रहण की विकास मूलक परियोजना संकट में चली गई है। इस कारण औद्योगिक विकास की गति को तेज करने के लिए 2013 के कानून को बदलने की जरूरत है। जो मनमोहन काल में  दुष्ट वामपंथियों के दबाव में लाया गया था ।

निजीकरण यानी कारपोरेट के हाथ में राष्ट्रीय संपदा को सौंपना

काले धन के नाम पर नोटबंदी की गई। जिसने मुद्रा के केंद्रीकरण को भारी गति प्रदान की। दूसरा एक देश एक टैक्स के नाम पर गाजे-बाजे के साथ जीएसटी का ऐलान हुआ। उसके बाद विकास के जुमलों की बरसात शुरू हुई। मॉडर्न इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्टअप , मेक इन इंडिया, बुलेट ट्रेन और डिजिटल इंडिया के साथ अंत में आत्मनिर्भर भारत का ऐलान हुआ। भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन इकोनामी बनाने का ढोल पीटा गय। पूंजी निवेश और विनिवेशीकरण के रास्ते राष्ट्रीय संपदा को बेचने का अभियान शुरू हुआ। सभी बड़े मुनाफा वाले सरकारी संस्थानों को निजी हाथों में देने की घोषणा विनिवेश के द्वारा पूंजी इकट्ठा करने के नाम पर की गई। रिजर्व बैंकों में रखे हुए सुरक्षित धन को विकास के नाम पर लूटने का काम किया गया। जिसके असहमत रिजर्व बैंक के गवर्नर इस्तीफा देते रहे। कुछ समय तक अर्थव्यवस्था की विकास गति टिकी रही। लेकिन 2 साल गुजरते गुजरते इसने गोता लगाना शुरू कर दिया। अब मोदी जी के लिए आवश्यक था कि अपने मित्र पूंजीपतियों के फायदे के लिए वह इधर-उधर बिखरे देश के संसाधनों की तरफ मुंह मारे। उन्होंने जंगल, नदी, पानी, पहाड़ और कृषि भूमि की तरफ अपनी मुनाफा लोलुप जीभ फैलाना शुरू कर दिया। नीतिगत निर्णय लिए बिना ही एफसीआई के गोदामों को अडानी के हवाले करने का अघोषित अपराध किया गया। बड़े-बड़े साइलो जगह जगह बनकर तैयार हो गए।

नवरत्न कही जाने वाली कंपनियों को बाजार में बिक्री के लिए लिस्टेड कर दी गई। एलआईसी के धन को शेयर बाजार में लगाने के नाम पर निजी बीमा कंपनियों के हवाले किया जाने लगा। सरकार खुद ही एलआईसी से पैसा दूहने लगी। बैंकों के विलय के नाम पर निजीकरण के अभियान को गति दी गई। जो भी राष्ट्रीय संपदा दिखाई दी उस सब को कारपोरेट मित्रों के हाथ में देने का अभियान उसी तरह से चलता रहा जैसे भारत में मॉब लिंचिंग सांप्रदायिक तनाव प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों  की हत्याएं और फर्जी मुकदमों में उन्हें कैद करने के काम और राम मंदिर के बनाने का सरकारी अभियान चल रहा था। इन सभी अभियानों की अगुवाई मोदी जी स्वयं रामनामी चादर ओढ़ कर करते रहे। भूमि पूजन से लेकर हवन तक के काम में निर्लज्जता पूर्वक एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रधानमंत्री उतर पड़ा। भारत के नागरिक खासतौर से हिंदू समझता रहा कि यह हिंदुत्व के उत्थान और गौरव का महान अभियान चल रहा है। लेकिन पर्दे के पीछे एक नया खेल शुरू हो चुका था। उसी तरह से जैसे कोरोना महामारी के सबसे बुरे दिन के दौर में चार श्रम कोड आए और अंत में किसानों की आमदनी दूना करने के नाम पर तीन कृषि  कानून लाए गए थे।

धर्म धंधा और निर्लज्ज भ्रष्टाचार

हिंदू समाज के गौरव और उसके सांस्कृतिक गरिमा की वापसी और राम राज्य  की संस्थापना के भीतर छिपी फासिस्ट शासन की योजना  और इसके अंदर छिपे  अदृश्य खेल को जरूर देखना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व हिंदू परिषद और भाजपा के द्वारा खड़े किए गए राम मंदिर विवाद के बाद कौन सी ताकतें शक्तिशाली और समृद्धि हुईं । इसके साथ ही हमें जानकारी करना चाहिए कि इस अभियान में कितने धन कहां कहां से आए। आन्दोलन के संचालक आज तक उस धन का सार्वजनिक विवरण दैने के लिए तैयार नहीं हैं। आप ने पिछले दिनों महान राष्ट्रभक्त संत चंपत राय और उनके भाई बंसल साहब जो आरएसएस के उत्तर प्रदेश के प्रचारक हैं ,के कारनामे खबरों में देखा जरुर होगा। तब ढिठाई से उन्होंने कहा था कि हमारे ऊपर गांधी की हत्या का भी तो आरोप लगा था। अभी दो दिन से नये नये भूमि घोटाले की खबरें सामने आ रही हैं। राम मंदिर आंदोलन के संचालकों के इरादों कि पवित्रता अब राष्ट्र के समक्ष आने लगी है। यानी यह लोग राम मंदिर निर्माण के लिए आये चंदे की लूट और षड्यंत्रकारी विध्वंसकारी कार्यों में मगरुरियत के साथ संलिप्त हैं ।

धर्म क्षेत्र का हिंसक होना

आदिकाल से हमारे देश में शिव की उपासना की परंपरा रही है। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर तक शायद ही कोई गांव हो जहां शिव मंदिर न हों। शिव मंदिरों की देखरेख करने वाले गिरी लोग दान या जन सहयोग पर अपना जीवन गुजारते थे। हमने बचपन में ऐसे गुसाईंयों को देखा है। जो शिव मंदिरों की देखभाल करते थे और वह घरों में रखे चुटकी और जजमानों के दान पर आश्रित होते थे। वह सामान्यतः शालीन और बहुत ही सरल जीवन जीने वाले मृदुभाषी लोग हुआ करते थे।

लेकिन आज धर्म के जितने भी प्रवक्ता है, संचालक हैं उनकी भाषा किसी भी धार्मिक गरिमा के दायरे में नहीं आती। यहां उद्दंड भाषा में लोगों को धमकाने डराने और हत्या कर देने तक की धमकी देते हुए आपको मिल जाएंगे।

भारत के 70 वर्षों का इतिहास बताता है कि छोटे-मोटे लंपट घरों से भागे हुए अपढ़ धूर्त लोग बहुत आराम से धर्म का बाना धारण करके अरबों खरबों के मठ मंदिर बना लेते हैं। जय गुरुदेव आसाराम राम रहीम और कलि भगवान से लेकर धीरेन्द्र ब्रम्हचारी, रामदेव, चिन्मयानंद, साक्षी महाराज जैसे न जाने कितने नाम मिल जाएंगे जो अपने शुरुआती दौर में कोई ज्ञानी लोग नहीं थे। लेकिन धर्म उद्योग में आने के बाद उन्होंने आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया है। धर्म क्षेत्र में पैसे की आवक बढ़ने से पंडे पुजारियों कथा वाचकों प्रचारकों की भीड़ में बृद्धि हुई है।

भारत का ग्रामीण समाज मूलतः आस्थावान समाज है। आस्था के नाम पर गांव में सोखा ओझा झाड़-फूंक करने वाले हजारों लाखों धूर्त रहते हैं और जनता का बड़ा समूह झाड़-फूंक करने वालों के इर्द-गिर्द इकट्ठा होता रहता है। शहरी मध्य वर्ग के लोग भी बच्चे औरतों के साथ वहां जाते हैं और इनके जाल में फंस जाते हैं। धन अर्जन का यह सबसे आसान रास्ता है। जहां अपराधी लंपट तत्वों की भरमार हो चुकी है। ये हमारी आस्था के दोहन में भी दक्ष होते हैं।

 संघ और कारपोरेट पूंजी गठजोड़

अपनी संस्थापना के काल से ही संघ परिवार भारत को फासीवादी नीतियों के  तहत नियोजित करने का सपना पाले था। सत्ता में आने के बाद संघ नीति  सरकारों ने हर संभव तरीके से जनता की आस्था और विश्वासों का रणनीतिक इस्तेमाल किया। जब भी इन्हें मौका मिला समाज के अंदर मौजूद जातीय और धार्मिक विभाजन जनित चेतना को आक्रामक बनाकर सामाजिक तनाव और विघटन को बढ़ावा दिया। यहां तक कि दंगों और नरसंहारों को सचेतन अंजाम दिया गया। मोदी सरकार इन प्रवृत्तियों की सर्वोच्च प्रतिनिधि है। पूंजीवादी सभ्यता में सत्ता पाने के लिए कारपोरेट पूंजी का समर्थन बुर्जुवा पार्टियों के लिए आवश्यक होता है। इसलिए आज हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ के दौर में धर्म व्यक्ति के आस्था का सवाल नहीं रह गयाहै। यह मूलतः अर्थव्यवस्था और राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने काहथियार बन गया है। आज का समय हृदयहीन बाजारीकरण का बदतरीन दौर है। जैसे-जैसे बाजार की ताकतों और कारपोरेट पूंजी का भारत में दखल बढ़ता गया वैसे वैसे भारत के हर क्षेत्रों की चिन्हित किया जाने लगा जहां से भी पूंजी का प्रवाह कारपोरेट घरानों की तरफ हो सके। उन सभी क्षेत्रों के लिए पूंजी की लूट को सुगम बनाने के लिए नीतियां और योजनायें बनीं। संघ परिवार के साथ मिलकर पूंजीपतियों द्वारा धर्म उद्योग में भारी निवेश किया गया। राम मंदिर निर्माण के आंदोलन में देसी विदेशी पैसे का भारी प्रवाह विश्व हिंदू परिषद के खाते में हुआ। अब जब राम मंदिर का लक्ष्य हासिल कर लिया गया है तो इस उपलब्धि के आभामंडल में पूंजी को कारपोरेट घरानों के हाथों में देने की रणनीतियां बननी शुरू हो गई हैं। भव्य राम मंदिर के रखरखाव और पर्यटन के विकास के नाम पर धीरे-से किसी कंपनी के हाथ में इसे दे दिया जाएगा। सरकार इस काम को कानूनन अंजाम देगी। हम जानते हैं की पुरातत्व विरासत का सबसे  प्रतिष्ठित संस्थान लाल किला आज डालमिया को सौंप दिया गया है।

तीर्थ स्थलों को कारपोरेट के हाथ में सौंपना

उत्तराखंड नदियों का उद्गम स्थल ही नहीं है यह धार्मिक स्थलों का केंद्र भी है। अपने बेहतरीन प्राकृतिक परिवेश के चलते यह क्षेत्र पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, कर्णप्रयाग ,देवप्रयाग ,गंगोत्री,  यमुनोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार और मसूरी नैनीताल जैसे खूबसूरत इलाके इन क्षेत्रों में स्थित है। पिछले दिनों भाजपा सरकार ने देवस्थानम बोर्ड बनाकर इन सभी तीर्थ स्थलों को एक ट्रस्ट के अधीन लाने की कोशिश की। जिसका उद्देश्य था किसी बड़ी कंपनी के हवाले इन तीर्थ स्थलों को कर दिया जाए और इस पर आश्रित पंडे पुजारियों साधु संतों और वहां जीवन यापन करने वाले लाखों लोगों को कंपनियों के कर्मचारी में तब्दील कर दिया जाय। जिससे कंपनियां भारी मुनाफा कमा सकें। चुनावों में लगातार पराजय को देखते हुए और बद्रीनाथ केदारनाथ धाम के पुजारियों का मुख्यमंत्री रावत के कार्यक्रम का बहिष्कार करने के कारण फौरी तौर पर सरकार ने जनाक्रोश को देखते हुए अपना कदम पीछे खींच लिया है। लेकिन धर्मक्षेत्र में बड़ी कमाई होने के कारण संघ परिवार और कारपोरेट घराने की निगाह इन पर हमेशा लगी रहेगी।

काशी करतब

इसलिए हमें पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ धाम कोरिडोर के इवेंट को इसी अर्थ में देखना होगा। जब वह रंग-बिरंगे वस्त्रों कैमरों प्रचार माध्यमों के बीच गंगा में डुबकी लगाने का खेल खेल रहे थे। 900 करोड़ से ज्यादा जनता की पूंजी लगाकर और 400 से ज्यादा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पौराणिक धार्मिक स्थलों को,  जिसमें प्रथम उपन्यास कार देवकीनंदन खत्री का घर भी था, ढहा कर बनाए गए काशी कोरिडोर के पीछे धर्म इतिहास और अर्थशास्त्र की यही दृष्टि काम कर रही है। आने वाले समय में खबर आयगी काशी विश्वनाथ धाम कोरिडोर को पर्यटन विकास और रखरखाव के लिए किसी कंपनी के हवाले किया जा रहा है। जहां प्रसाद, आरती, मंदिर, दर्शन नदी के किनारे घूमना नवका बिहार से लेकर पर्यटन की गतिविधियों पर भारी टैक्स वसूला जाएगा। हमारे देश में प्रयागराज, काशी विश्वनाथ धाम, विंध्यवासिनी देवी धाम, अयोध्या धाम, जगन्नाथ पुरी, हरिद्वार, गंगासागर, दक्षिण पूरब पश्चिम यानी गुजरात से लेकर बंगाल तक लाखों मठ मंदिर धाम है जहां 100 करोड़ से ऊपर श्रद्धालु भारतीय अपने जीवन में एक बार पहुंचने की कोशिश करते हैं। वे इन तीर्थ स्थलों पर पहुंचकर यथाशक्ति दान दक्षिणा अर्पित करते हैं। बात यही है कि धर्म क्षेत्र में भारी धन प्रवाह हो रहा है। करोड़ों लोग इससे जुड़े हैं। इस क्षेत्र के दक्ष खिलाड़ी अरबों खरबों का वारा-न्यारा प्रतिवर्ष करते हैं। रातों रात हम अनेक चमत्कारी बाबाओं को अरबों खरबों का साम्राज्य खड़ा करते देखते रहे हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था के लगातार सिकुड़ते जाने, उद्योग धंधों और कारोबार के दिन प्रतिदिन कमजोर होने तथा कृषि क्षेत्र के कारपोरेट लूट की लिप्सा को किसानों द्वारा असफल कर देने के बाद कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ सरकार को पूंजी निवेश और दोहन के लिए धर्म क्षेत्र सबसे सुरक्षित क्षेत्र लग रहा है। अपने अथक प्रयास से संघ और मोदी सरकार ने भारतीय समाज में एक हद तक धार्मिक उन्माद खड़ा करने में सफलता हासिल कर ली है । संघ का हिंदू धर्म के नाम पर समाज को संगठित करने बांटने का एक समृद्ध अनुभव है। जिससे यह जीवन की वास्तविक समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाकर हिन्दू धर्म के ऊपर काल्पनिक खतरे को उन्माद के अस्तर पर उन्नत कर देने में सक्षम हैं। इसलिए हिंदू धर्म और संस्कृति के नाम पर बने भव्य मंदिर कॉरिडोर बड़े-बड़े पर्यटन स्थल भारतीय नागरिकों को चमत्कृत उत्साहित सम्मोहित कर देने के लिए काफी हैं। साथ ही धर्म और संस्कृति के प्रति जो लगाव है उसकी आड़ में धर्म क्षेत्र में कॉरपोरेट पूंजी का निवेश  कम जोखिम वाला धंधा है। अभी तक विकेंद्रित रूप में धन धर्म के क्षेत्र में आ रहा है।

 विरासत के साथ विकास

मोदी सरकार ने लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को धता बताते हुए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और काशी विश्वनाथ धाम कोरिडोर के उद्घाटन को सरकारी आयोजन बना दिया है। साथ ही देवस्थानम बोर्ड बनाकर सारे धर्म स्थलों को एक जगह नियंत्रण में लाने की कोशिश की है। इसके पीछे किसी मानवीय धार्मिक मूल्यों और आस्थाओं वाला समाज नहीं बनाना है। बल्कि अपने कारपोरेट मित्रों को धीरे-धीरे धर्म क्षेत्र में आने वाली पूंजी  को उनके हाथ में सौंपना ही एकमात्र उद्देश्य है। इसलिए जो तार्किक बहस इन सवालों पर प्रचार तंत्रों और भारत के बौद्धिक जगत में होनी चाहिए तथा सरकार के इस अवैज्ञानिक कृत्य पर जिस तरह के विचार विमर्श केंद्रित किए जाने चाहिए वह नहीं होने दिया जा रहा है।साथ ही भारत के सांस्कृतिक विविधता की विरासत को एकांगी ब्राह्मणवादी परंपराओं के केंद्र में लाने की हर संभव कोशिश चल रही है स्थिति स्पष्ट है अब भारत के धर्म क्षेत्र को कारपोरेट जगत के हवाले करने का बड़ा लक्ष्य हासिल करने की तरफ मोदी सरकार आगे बढ़ चुकी है । करोड़ों रुपए खर्च कर के गंगा तट के किनारे खड़ा किए गए इस इवेंट का और कोई उद्देश्य नहीं था।

अलावा इसके कि धर्म क्षेत्र को कारपोरेट जगत के हवाले कर दिया जाए। जिससे वह भारी मुनाफा लूट सके। आने वाले समय में हमारे तीर्थस्थल देवस्थान हमारी आस्था और पवित्रता की नदियां मंदिर और देवालय कारपोरेट पूंजी के नियंत्रण में होंगे। जहां हिंदू धर्म की आस्था से निकलने वाली पूंजी का निर्मम दोहन होगा। धर्म क्षेत्र में लगे पुजारी पंडित बटुक देवकन्याएं तथा अनेकानेक कारोबार में लगे हुए लोग हृदय हीन कारपोरेट मित्र पूंजीपतियों के कर्मचारी में बदल दिए जाएंगे। यह संघ और मोदी सरकार के हिंदुत्व राष्ट्र के गौरव की सर्वोच्च उपलब्धि होगी। काशी विश्वनाथ धाम कारीडोर के भव्य नाटकीय टेक्नोलॉजी के प्रयोग से चमत्कृत कर देने वाले प्रोग्राम के खत्म होने के 2 दिन बाद मोदी जी ने कहा कि मां गंगा काशी की अर्थव्यवस्था का आधार बनेगी। अब आप इस संकेत से समझ लीजिए कि आगे क्या होने वाला है। मार्क्स ने कहा था की पूंजी सारे पवित्र संबंधों को खत्म कर देगी और अंततोगत्वा उसे आना कौड़ी पाई के हृदय हीन संबधों में बदल देगी। मोदी राज में यह सच नग्न रुप में हमारे सामने है। काशी विश्वनाथ धाम कोरिडोर निर्माण के साथ धर्म क्षेत्र का कारपोरेटीकरण लगभग पूरा होने की तरफ बढ़ गया है। यही विरासत के साथ विकास का मोदी मॉडल है। और आप के हिस्से में ज़ोर ज़ोर से भारत माता की जय बोलने का राष्ट्र भक्ति का महान कर्तव्य तो अभी बचा ही है।

   (जयप्रकाश नारायण सीपीआईएमएल उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता हैं।)

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