Tuesday, March 19, 2024

पीपुल्स डेमोक्रेसी के लेख पर लिबरेशन का जवाब: पश्चिम बंगाल को फासीवाद से बचाने की चुनौती

(पश्चिम बंगाल में बीजेपी को लेकर राजनीतिक लाइन के सवाल पर वामपंथी दलों में बहस छिड़ गयी है। सीपीएम इस मामले में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस को किसी भी रूप में कम करके नहीं देखना चाहती है। जबकि सीपीआई (एमएल) लिबरेशन का मानना है कि बीजेपी फासिस्ट पार्टी है और पश्चिम बंगाल के सिर पर एक फासिस्ट खतरा मंडरा रहा है। इसलिए वामपंथ को बीजेपी को सबसे बड़े खतरे के तौर पर चिन्हित करना चाहिए। इसी मसले पर पीपुल्स डेमोक्रेसी में एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें सीपीएम ने लिबरेशन की लाइन की आलोचना की है। लिबरेशन की ओर से उसी का जवाब दिया गया है। पेश है उसका पूरा जवाब-संपादक)

माकपा की साप्ताहिक पत्रिका ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ (पीडी) के 14 मार्च 2021 अंक में एक राजनीतिक टिप्पणी छपी है जिसमें भाकपा (माले) पर पश्चिम बंगाल में ‘गलत दिशा’ अख्तियार करने का आरोप लगाया गया है। उसी अंक में माकपा पोलित ब्यूरो की 11 मार्च 2021 को हुई ऑनलाइन बैठक के बाद जारी एक ‘पीबी विज्ञप्ति’ भी छपी है। केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम व पुदुच्चेरी के आगामी विधान सभा और त्रिपुरा के स्वायत्त जिला परिषद (एडीसी) के चुनावों के संदर्भ में उस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ‘भाजपा को हराना माकपा का केंद्रीय लक्ष्य होगा’। तब, माकपा क्यों और कहां यह सोचती है कि भाकपा (माले) पश्चिम बंगाल में गलत कर रही है?

हम अपने पाठकों को पहले यह बता दें कि भाकपा(माले) ने इन चुनावों में क्या स्थिति अख्तियार की है। भाकपा (माले) केरल और त्रिपुरा में चुनाव नहीं लड़ रही है, तथा वह केरल में एलडीएफ को और त्रिपुरा एडीसी में वाम मोर्चा को समर्थन दे रही है। तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में भाकपा(माले) स्वतंत्र ढंग से चंद सीटों (तमिलनाडु में 12 और पुदुच्चेरी में 1) पर अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है, और भाजपा व इसके संश्रयकारियों के मुख्य विरोधियों को समर्थन दे रही है। असम में भाकपा(माले) और माकपा एक ही विपक्षी गठबंधन के हिस्से हैं (बेशक, कार्बी अंग्लांग में सीट बटवारे के प्रस्ताव पर कांग्रेस के पीछे हट जाने की वजह से भाकपा(माले) उस पर्वतीय जिले में स्वतंत्र ढंग से चुनाव लड़ेगी)।

पश्चिम बंगाल में, भाकपा(माले) स्वतंत्र रूप से 12 सीटों पर लड़ रही है। कोई यह न सोच ले कि भाकपा(माले) ने पश्चिम बंगाल में माकपा से नाता तोड़ लिया है, हम यह स्पष्ट कर दें कि भाकपा(माले) इस राज्य में कभी भी वाम मोर्चा का हिस्सा नहीं रही है और अतीत में माकपा के साथ उसने कभी भी कोई चुनावी समझौता नहीं किया है; हालांकि कई चुनावों में, खासकर 2011 के बाद, जब वाम मोर्चा सत्ता में नहीं रहा, भाकपा(माले) ने आम तौर पर वाम मोर्चा के उम्मीदवारों का समर्थन किया है। भाकपा(माले) जिन 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उसके परे पार्टी ने उन तमाम सीटों पर वामपंथी उम्मीदवारों को समर्थन देने की खुली घोषणा की है जहां उन्होंने 2016 में जीत दर्ज कराई है और जहां विधायक वाम पार्टियों को छोड़कर टीएमसी अथवा भाजपा में शामिल नहीं हो गए हैं (जीते हुए 32 विधायकों में से 8 ने दल-बदल किया है)। यकीनन, माकपा को इस स्थिति से कोई उज्र नहीं हो सकता है।

संभवतः, उनको शेष बंगाल के लिए भाकपा(माले) की स्थिति से समस्या है, जहां पार्टी ने मतदाताओं से किसी पार्टी अथवा उम्मीदवार विशेष के लिए वोट करने को न कहकर उनसे भाजपा को हराने की अपील की है। हैरानी की बात है कि पीडी की टिप्पणी में इस स्थिति की व्याख्या इस ‘संकेत’ के रूप में की गई है कि ‘200 से ज्यादा सीटों पर वे [भाकपा(माले)] टीएमसी को समर्थन दे रहे हैं’! क्या इसका यह मतलब है कि माकपा खुद भी यही समझती है कि इन 200 से ज्यादा सीटों पर सचमुच टीएमसी और भाजपा के बीच ही लड़ाई है? पीडी टिप्पणी फिर निष्कर्ष निकालती है: “ यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भाकपा(माले) गलत ढंग से पश्चिम बंगाल में भाजपा से लड़ने के लिए वाम मोर्चा की तुलना में टीएमसी को बेहतर राजनीतिक शक्ति समझती है”।

भाकपा(माले) की स्थिति से भला कोई यह निष्कर्ष कैसे निकाल सकता है? यद्यपि कि भाकपा(माले) वाम मोर्चा, कांग्रेस और नवगठित इंडियन सेकुलर फ्रंट को लेकर बने वृहत्तर चुनावी ब्लॉक पर वाम मोर्चा का हिस्सा नहीं है, भाकपा(माले) ने लगभग दो दर्जन सीटों पर वाम मोर्चा के उम्मीदवारों को समर्थन दिया है, जबकि माकपा ने एक भी सीट पर इसका प्रत्युत्तर नहीं दिया। तब हम माकपा से पूछें कि क्या वह भाजपा से लड़ने के लिए भाकपा(माले) की बनिस्पत कांग्रेस या आईएसएफ को ‘बेहतर’ शक्ति मानती है? जाहिरन, माकपा का जवाब होगा कि उनकी राजनीति पर ध्यान न दिया जाए तो वे ‘ज्यादा मजबूत’ शक्तियां हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा के सत्ता में आने के खतरे को समझने वाली अधिकांश ताकतों के लिए चुनावी शक्ति मुख्य बात है। जहां कई विपक्षी पार्टियों ने भाजपा के खिलाफ टीएमसी को खुला समर्थन दिया है, वहीं पश्चिम बंगाल में ‘भाजपा को वोट नहीं’ (‘No Vote to BJP’) अभियान और भाजपा के खिलाफ मुहिम में उतरे संयुक्त किसान मोर्चा ने पर इस सवाल को मतदाताओं के विवेक और पसंद पर खुला छोड़ दिया है।

माकपा की असल समस्या इस तथ्य से है कि भाकपा(माले) ने भारतीय लोकतंत्र के लिए इस अत्यंत संकटपूर्ण घड़ी में माकपा की कार्यनीतिक दिशा की जबर्दस्त कमजोरियों और पश्चिम बंगाल में उसकी राजनीतिक भूमिका को उजागर किया है और उनपर सवाल खड़े किए हैं। यह देख पाने में कोई दिक्कत नहीं कि अगर पश्चिम बंगाल में भाजपा सत्ता में आ जाती है तो उससे संघ-भाजपा का फासिस्ट हमला कितना ज्यादा बढ़ जाएगा (प्रसंगवश, हमने फासिस्ट शब्द को कभी कोटेशन चिन्ह के अंतर्गत नहीं रखा है, जबकि पीडी की टिप्पणी में नियमित रूप से ऐसा किया गया है — इसका कारण तो लेखक/संपादक ही बेहतर जानते होंगे)। जो पार्टी पश्चिम बंगाल में महज एक दशक पहले तक सत्ता में रही हो और जो आजादी के बाद दशकों की अवधि में इस राज्य में कम्युनिस्ट आधार और प्रभाव के सबसे बड़े वारिस के बतौर ऐतिहासिक रूप से उभरी हो, वह माकपा सिर्फ टीएमसी पर आरोप मढ़कर भाजपा की खतरनाक बढ़त की व्याख्या नहीं कर सकती है। अगर पश्चिम बंगाल में भाजपा की बढ़त के लिए एकमात्र टीएमसी को जिम्मेदार माना जाए, तो उसी तर्ज पर त्रिपुरा में भाजपा की बढ़त के लिए कोई माकपा को भी जिम्मेदार ठहरा दे सकता है।

निस्संदेह, पश्चिम बंगाल में टीएमसी शासन एक ओर आतंक, हिंसा और भ्रष्टाचार से, तो दूसरी ओर ढेर सारे लोकलुभावने नारों व कल्याणकारी योजनाओं से जाना जाता रहा है। भाजपा की ओर माकपा की कतारों और यहां तक कि विधायकों के खिसक जाने को शुरू में टीएमसी आतंक के प्रत्युत्तर के रूप में देखा जाता था, क्योंकि माकपा के बारे में यह नहीं समझा जाता था कि वह इसका कोई असरदार प्रतिरोध कर पाएगी। लेकिन 2016 के बाद माकपा के आधार में क्षरण खतरनाक हद तक जाने लगा, और 2019 में माकपा के केवल एक उम्मीदवार अपनी जमानत बचा सके और माकपा की वोट हिस्सेदारी गिर कर ईकाई के आँकड़े में (7 प्रतिशत) सिमट गई। त्रिपुरा का अनुभव पश्चिम बंगाल में माकपा के लिए एक चेतावनी बन जाना चाहिए था, किंतु पश्चिम बंगाल में उसका बड़ा हिस्सा ‘पहले राम, बाद में वाम’ जाल में फंस गया। 2019 में खतरनाक गिरावट के बाद भी “2021 में राम, 2026 में वाम” के आत्मघाती फार्मूले का मुकाबला करने के लिए माकपा की तरफ से कोई प्रयास नहीं दिख रहा है।

पीडी टिप्पणी हमें बताती है कि पश्चिम बंगाल में लोगों का ध्यान खींचने के लिए आपको पहले टीएमसी-विरोधी साख अर्जित करनी होगी। बेशक, माकपा के पास इस साख की कोई कमी नहीं है! फिर भी अगर माकपा के मतदाता टीएमसी के खिलाफ अधिक मजबूत व सक्षम विकल्प के बतौर भाजपा की ओर खिसकते रहे हैं, तो क्या यह माकपा के लिए उपयुक्त समय नहीं है कि वह अपने रुख पर पुनर्विचार करे और अपने रास्ते को दुरुस्त करे? टीएमसी-विरोधी साख की बजाय जरूरत यह है कि आपके अभियान में भाजपा-विरोधी धार मौजूद हो। पीडी टिप्पणी हमें कहती है कि माकपा कभी भाजपा को कम करके नहीं आंकती है अथवा भाजपा और टीएमसी को बराबर करके नहीं तौलती है। फिर भी, माकपा के विमर्श पर नजर रखने वाले किसी भी पर्यवेक्षक को माकपा नेताओं के ढेरों बयान व भाषण तथा माकपा की रैलियों में ढेर सारे नारे मिल जाएंगे जिनमें टीएमसी और भाजपा को बराबर करके देखा जाता है।

चूंकि टीएमसी वाजपेई शासन के दौरान कुछ समय के लिए एनडीए में शामिल रही थी, इसीलिए माकपा टीएमसी को आज भी एनडीए का एक वर्चुअल घटक मान लेना चाहती है। तथ्य तो यह है कि टीएमसी-भाजपा गठबंधन पश्चिम बंगाल में कभी उस तरह का असर नहीं डाल सका। सच कहें तो 2004 के लोकसभा चुनावों और 2006 के विधानसभा चुनावों में भाजपा और टीएमसी, दोनों को सबसे कम उपलब्धि मिली थी, जबकि 2006 में माकपा का प्रदर्शन सर्वोत्तम रहा था। पीडी टिप्पणी में हमें स्मरण दिलाया गया है कि 2014 तक मोदी ने टीएमसी को एक संभावित संश्रयकारी बताया था। यह तो सच है, लेकिन वास्तविक जीवन ने एक भिन्न मोड़ ले लिया। पड़ोसी राज्य बिहार में जहां नीतीश कुमार पुनः एनडीए की पकड़ में चले गए, वहीं पश्चिम बंगाल सरकार ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। आज जब परिस्थितियों ने शिव सेना और अकाली दल जैसे भाजपा के पुराने संश्रयकारियों को भाजपा से परे धकेल दिया है, तो टीएमसी को भाजपा के साथ नत्थी करने का क्या लाभ है?

भाजपा के खिलाफ संघर्ष में टीएमसी को ढुलमुल ताकत के बतौर उजागर करना और भाजपा-विरोधी लड़ाई में वामपंथ को सुसंगत अगुवा के बतौर स्थापित करना एक बात है, लेकिन टीएमसी को भाजपा के साथ नत्थी करना और यहां तक कि उन दोनों को ‘भाजमूल’ के बतौर एकमएक कर देना बिल्कुल भिन्न प्रस्थापना है। यहां तक कि 2019 में पुलवामा के बाद पैदा की गई उन्मादपूर्ण मुहिम के दौरान भी टीएमसी को 43 प्रतिशत से ज्यादा वोट हिस्सेदारी मिली थी। ये मतदाता कौन हैं? ये पश्चिम बंगाल की ग्रामीण व शहरी गरीब आबादी के बड़े हिस्से हैं, दसियों लाख महिलाएं हैं और बेशक राज्य के अधिकांश मुस्लिम मतदाता ही हैं। इनमें से कई तो अतीत में वामपंथ के वोटर और समर्थक रहे हैं, और वे आज भी भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे और कॉरपोरेट नियंत्रण को स्वीकार करने से इन्कार कर रहे हैं। इस जनाधार को जनता के उस हिस्से के साथ खड़ा करने का क्या फयदा, जो भाजपा के जहरीले सांप्रदायिक अभियान से प्रलोभित व दिग्भ्रमित किए जा चुके हैं?

पीडी टिप्पणी हमें याद दिलाती है कि पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। बेशक यह विधान सभा चुनाव है और राज्य सरकार को जवाबदेह मानना होगा। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि यह विधान सभा चुनाव 2021 में हो रहा है, जब मोदी सरकार तमाम शक्तियों को तेजी से केंद्रीकृत कर रही है और वह संविधान तथा धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व विविधता के उन विचारों को रौंद रही है जो हमारे संवैधानिक मूल्यों की सारवस्तु हैं। पश्चिम बंगाल अभी मौजूद अंतिम विपक्ष-शासित राज्यों में एक है, और भाजपा इसे जीतने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। पश्चिम बंगाल के समावेशी मूल्य और प्रगतिशील विरासत दांव पर लगे हैं, और पश्चिम बंगाल को अगर भाजपा जीत लेती है तो विपक्ष का दायरा और भी सिकुड़ जाएगा तथा देश के संघीय ढांचे में और गहरी सेंध लग जाएगी। इसीलिए पूरा देश पश्चिम बंगाल के चुनावों को इतनी उत्सुकता से देख रहा है। इस मोड़ पर पश्चिम बंगाल के चुनावों के असाधारण अखिल भारतीय महत्व को कम करके आंकना सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण यांत्रिक प्रतिक्रिया ही होगी।

यकीनन, यह भाजपा ही है जो पश्चिम बंगाल के चुनावों को येन-केन-प्रकारेण राज्य के संदर्भों तक ही सीमित बनाकर रखना चाहती है। वह जानती है कि आज पश्चिम बंगाल में परिवर्तन का शोरगुल सबसे पहले भाजपा के ही पक्ष में जाएगा। गहराता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और नई पार्टी को मौका देने का आह्वान, ये दोनों बातें भाजपा के हक में ही काम कर रही हैं। वामपंथी चुनावी मुहिम के दौरान हमें निश्चय ही पश्चिम बंगाल को राष्ट्रीय संदर्भ से विच्छिन्न करने के इस भाजपा-प्रायोजित सामान्य बोध को चुनौती देनी होगी और मोदी सरकार व भाजपा को सीधे सीधी कठघरे में खड़ा करना होगा। लेकिन 28 फरवरी को वाम मोर्चा-कांग्रेस-आईएसएफ की संयुक्त ब्रिगेड रैली ने बिल्कुल भिन्न संदेश दिया है। ऐतिहासिक किसान आन्दोलन तथा अभूतपूर्व महंगाई, बेरोजगारी व कॉरपोरेट हमले से चिन्हित होनेवाली चरम आर्थिक संकट की इस असाधारण पृष्ठभूमि में भी उस रैली में पश्चिम बंगाल को भाजपा के हाथों में जाने से बचाने की बजाय टीएमसी को सत्ता से हटाने के लक्ष्य को ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया। जिस आईएसएफ के लिए यह रैली वास्तव में आगे बढ़ने का मंच बनी, उसकी घोषणाएं लगभग पूरी तरह राज्य सरकार के विरुद्ध ही निर्देशित थीं। 

पीडी टिप्पणी ने हमें स्मरण कराया है कि टीएमसी कोई राजद नहीं है। स्वतंत्र विपक्ष की भूमिका अदा करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर हमें अपने लगभग तमाम प्रमुख राज्यों में भारी कीमत चुकानी पड़ी है, चाहे वह राजद-शासित बिहार हो या कांग्रेस-शासित असम अथवा भाजपा-शासित झारखंड या फिर वाम-शासित पश्चिम बंगाल ही क्यों न हो। बिहार में हमें न जाने कितने जन-संहार झेलने पड़े हैं, लेकिन वाम-शासित पश्चिम बंगाल में 1993 का करंदा जन-संहार और त्रिपुरा में 1978 का हुरुआ संहार भी कोई कम बर्बर जन-संहार नहीं थे। बिहार में तथा असम, झारखंड और पश्चिम बंगाल में भी हमने सामंती भूस्वामियों और अपने राजनीतिक विरोधियों द्वारा संचालित राजनीतिक हिंसा में अनेक नेताओं को खोया है। राजद-शासित बिहार में कामरेड मणि सिंह, चंद्रशेखर, और मंजू देवी; भाजपा-शासित झारखंड में का। महेंद्र सिंह; कांग्रेस-शासित असम में का. अनिल बरुआ व गंगाराम कोल और वाम-शासित पश्चिम बंगाल में का. अब्दुल हलीम हमारे चंद सर्वाधिक प्रमुख व उभरते नेता थे जिन्हें हमारे राजनीतिक विरोधियों ने मार डाला। लेकिन इस सबने हमें यह देखने से नहीं रोका कि भाजपा वाम आन्दोलन के लिए और भारत में लोकतंत्र की बुनियाद के लिए सर्वप्रमुख खतरा है। राज्य और राज्येतर एजेंसियों की ओर से अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत, भेदभाव और हिंसा फैलाना दुनिया भर में फासिस्ट ताकतों की निर्धारक विशेषता रही है। भाजपा द्वारा भारत को हिंदू-वर्चस्ववादी राष्ट्र में तब्दील करने के इसके प्रयास ही भारत में लोकतंत्र के लिए फासिस्ट खतरे की मूल वजह है।

एक स्वतंत्र कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर बिहार में राजद शासन और पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों के वाम शासन के दौरान हमने उन राज्यों में सुसंगत विपक्ष की भूमिका अदा की। फिर भी, भाजपा के साथ हाथ मिला लेने के बाद नीतीश कुमार की हमने कभी मदद नहीं की। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के बाहर हम ही एकमात्र वामपंथी पार्टी हैं जिसका टीएमसी के साथ सहयोग का कोई इतिहास नहीं है। आपको एक भी उदाहरण याद नहीं होगा कि माकपा को बेदखल कर सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने हमें कभी कोई धन्यवाद दिया हो। आज अगर वे हमारी दृढ़ भाजपा-विरोधी स्थिति के लिए हमें धन्यवाद देती हैं तो इससे यही संकेत मिलता है कि हालात बिल्कुल बदल गए हैं। और हैरानी है कि जहां पीडी की टिप्पणी में ममता बनर्जी द्वारा भाकपा(माले) को धन्यवाद दिये जाने का तो जिक्र है, किंतु उसमें इस बात का कोई उल्लेख नहीं है कि भाजपा 2019 में मदद देने के लिए माकपा कतारों को खुलेआम शुक्रिया कह रही है और 2021 में और भी बड़ी मदद के लिए उनसे अपील भी कर रही है। आज जब पश्चिम बंगाल पर सीधेसीधी फासिस्ट कब्जे का चरम खतरा मंडरा रहा है, तो कम्युनिस्ट पार्टी के बतौर इस खतरे से इस राज्य को बचाना हमारा प्राथमिक सरोकार बन जाता है।

हमें आशा थी कि 2011, और खासकर 2014 के बाद तो और भी, पश्चिम बंगाल में राजनीतिक समीकरण वृहत्तर वाम एकता के विकास और मजबूती के लिए ज्यादा अनुकूल हो जाएगी। लेकिन पहले तो कांग्रेस और अब नव-गठित आईएसएफ के साथ गठबंधन बनाने के जरिये सत्ता में वापस आने पर माकपा का ध्यान केंद्रित हो जाने से वामपंथ को पुनर्जीवित करने पर जोर शिथिल हो गया है। पश्चिम बंगाल में आज वामपंथ तभी पुनर्जीवित हो सकता है जब वह जमीन पर मजबूत भाजपा-विरोधी भूमिका अदा करे। दुर्भाग्यवश, जब संपूर्ण भारत में वाम और लोकतांत्रिक ताकतें पश्चिम बंगाल में वामपंथ से यह आशा कर रही थीं कि वह फासीवाद के खिलाफ एक मजबूत दीवार के बतौर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाएगा, तो माकपा अपनी टीएमसी-विरोधी साख को लेकर ही ज्यादा चिंतित नजर आ रही है। हमें अभी भी आशा है कि पश्चिम बंगाल की जनता भाजपा की ‘डबल इंजन मुहिम’ को रोक देगी और उसके फासीवादी हमले को मुंहतेाड़ जवाब देगी, तथा पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र के चैंपियन के बतौर फिर से आगे बढ़ने के लिए वामपंथ अपनी साहसपूर्ण आवाज हासिल कर लेगा।

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