‘मनुवादी तालिबानों का घोषणापत्र’ है गीता प्रेस से प्रकाशित ‘कल्याण’ का नारी विशेषांक  

उन्नीसवीं सदी में नारी विषयक लेखन के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि उस समय के नारी विमर्श की अपनी सीमाएं थीं, अपनी विशेषताएं थीं, लेकिन बीसवीं सदी में साहित्य और पत्रकारिता में नारी उत्थान पर बहुत कुछ आगे बढ़ा हुआ मिलता है। 1909 में इलाहाबाद से पहली बार रामेश्वरी नेहरू ने स्त्री संबंधी एक गंभीर पत्रिका ‘स्त्री दर्पण’ निकालना प्रारंभ किया। दूसरी महत्वपूर्ण स्त्री पत्रिका ‘गृह लक्ष्मी’ थी। स्त्रियों से संबंधित तीसरी पत्रिका ‘आर्य महिला’ बनारस से छपती थी। बाद में ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’ और ‘प्रभा’ आदि पत्रिकाओं में स्त्री संबंधी लेख प्रचुर मात्रा में मिलते थे।

स्त्री आंदोलन की एक और उल्लेखनीय पत्रिका ‘महिला सर्वस्व’ थी, जो अलीगढ़ से निकलती थी और जिसके संपादक पं. देवदत्त शर्मा थे। ‘चांद’ महिलाओं की एक लोकप्रिय पत्रिका थी। इन पत्रिकाओं में उन सभी विषयों को उठाया गया है, जिन पर विगत उन्नीसवीं सदी में विचार-विमर्श हुआ है। इस समय तक आते-आते ‘मृतस्त्रीक ‘विवाह’ पर भी चर्चा होने लगी थी। इसमें मृतस्त्रीक विवाह को स्त्री जाति के बेकदरी का सबसे बड़ा कारण माना गया है। साहित्य में भी नारी के प्रति दृष्टिकोण में पर्याप्त अंतर दिखाई देता है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरि औध’ ने ‘प्रियप्रवास’ में राधा का पहले के साहित्य से एकदम हटकर वर्णन किया है। यहां राधा एक समाज सेविका के रूप में दिखाई देती है और श्रीकृष्ण से भी वह यही चाहती है कि ‘प्यारे जीवें जगहित करें, गेह चाहे न आवें।’ मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को मात्र अबला नहीं माना। ‘साकेत’ में सीता बहुत से सामाजिक कार्यों में हाथ बटाती है। वनबास के समय में भी वह वनबालाओं को पढ़ाती हैं तथा उन्हें कढ़ाई, बुनाई आदि भी सिखाती हैं। इतना ही नहीं सूत कातने के लिए भी उन भी वन बालाओं को प्रेरित करती हैं।

उनका नारी-चित्रण आधुनिक है और अपने युग से काफी प्रभावित है। साहित्य में उपेक्षित स्त्री पात्रों को भी आपने बहुत महत्त्व दिया। उर्मिला का नवीन और विशद वर्णन, कैकेयी का पश्चाताप, यशोधरा का उपालम्भ आदि गुप्त जी के काव्य में ही मिलता है। द्वापर में विघृता जैसे स्त्री पात्र की सर्जना करके नारी के बदलते रूप का प्रमाण मिलता है। विघृता का यह कथन इसका उदाहरण है-‘नर के तो सौ दोष क्षमा हैं, स्वामी है वह घर का।’ इसलिए गुप्तजी यहां से स्त्री को पुरुष की अपेक्षा अधिक महत्व देते हैं। ‘एक नहीं दो दो मात्राएं नर से भारी नारी।’

छायावाद में नारी एक नए उन्मुक्त वातावरण में आती है। प्रसाद नारी में श्रद्धा का रूप देखते हैं। उनके नाटकों में ध्रुवस्वामिनी जैसे विद्रोही पात्र तथा कोमा और देवसेना जैसी स्वाभिमानी तथा राष्ट्र को विदेशी आततायियों से आजाद कराने के लिए संघर्ष में पुरुषों की तरह बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली साहसी नारियां हैं। जयशंकर प्रसाद की नारी का आदर्श उनके सामाजिक उपन्यास ‘तितली’ में मिलता है। इस उपन्यास की नायिका तितली सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में हाथ बटाती है। वह गृह स्वामिनी है, पर मात्र नहीं है। इसमें प्रसाद जी स्त्री की एक नई और बड़ी भूमिका तय करते हैं, गृहलक्ष्मी जिसे तितली बखूबी निभाती है।

महादेवी वर्मा के काव्य में नारी करुणा की मूर्ति है तो उनके गद्य में वह कहीं अधिक यथार्थ के धरातल पर खड़ी है। ‘श्रृंखला की कड़ियां’ नामक संग्रह तो नारी मुक्ति का घोषणा-पत्र ही दिखाई देता है। पंत नारी मुक्ति का करते हुए लिखते हैं; ‘मुक्त करो नारी को मानव, चिर बन्दिनी नारी को।’ आह्वान निराला उससे भी आगे बढ़ कर ‘वह तोड़ती पत्थर, मैंने देखा उसे इलाहाबाद के पथ पर।’ लिख कर नारी के सर्वहारा रूप को उजागर करते हैं। उनकी ‘विधवा’ कविता में नारी की दीन-हीन अवस्था का अंकन है। कविता के साथ-साथ कला साहित्य में विशेष रूप से तथा साहित्य की दूसरी विधाओं में सामान्य रूप से नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है।

नारी के संबंध में सबसे प्रगतिशील दृष्टिकोण रखने वाले प्रेमचन्द के लगभग सभी उपन्यासों और सैकड़ों कहानियों में नारी जीवन के कितने विविध रूप देखने को मिलते हैं, जितने किसी अन्य लेखक में नहीं। धनिया, निर्मला, मालती, सुमन, सोफिया, मुन्नी जैसी असंख्य नारियां स्त्री जीवन की त्रासदी, विडंबना और संघर्षशीलता को यथार्थवादी ढंग से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार स्त्री पुरुष में समानता, स्त्री स्वातंत्र्य इस युग में और साहित्य में अभी तक अपने चरम पर रहा। फिर भी यथार्थ जीवन में नारी को अभी बहुत लम्बी यात्रा करनी है।

बीसवीं सदी में साहित्य या साहित्येतर लेखन और सामाजिक जीवन में नारी ने बहुत तरक्की की है। सामाजिक जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में नारी ने प्रवेश कर लिया है। आज नारी पुरुष से किसी क्षेत्र में भी पीछे नहीं है। फिर भी स्त्रियों के प्रति पुरुष मानसिकता में विशेष बदलाव अभी तक नहीं आ पाया है। जन्म से लेकर मृत्यु तक स्त्री-पुरुष में असमानता जगह-जगह दिखाई देती है। फिर भी स्त्री ने जो यात्रा अब तक कर ली है, वह पहले से आगे है। आज जहां स्त्रियों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं, वहीं उसके विरुद्ध आवाज भी उठने लगी है।

एक तरफ नारी की सामाजिक स्थिति में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है और समाज के एक तबके में स्त्रियों के प्रति सोच में बदलाव आया है। वहीं यह भी साफ है कि चुनौतियां भी बनी हुई हैं। पचास साल से अधिक समय पहले के ‘कल्याण’ के ‘नारी अंक’ की आज की लोकप्रियता या नारी के लिये उपदेश देती पुस्तिकाओं की जोरदार बिक्री इस बात का एहसास करा देती है। मेरे सामने ‘कल्याण’ का ‘नारी अंक’ है, जो उसके ‘बाईसवें वर्ष (1948) का विशेषांक है। यह विशेषांक 800 पृष्ठों के विशालकाय आकार में है जो आजादी के साल भर बाद पहली बार प्रकाशित हुआ था। इसकी अब तक अलग-अलग संस्करण में एक लाख चालीस हजार प्रतियां छप चुकी हैं।

इसके साथ ही इसमें से कई छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी अलग से प्रकाशित हुईं जिनकी संख्या लाखों में है। उदाहरण के लिए ‘नारी शिक्षा’ (आठ लाख चौदह हजार), ‘नारी धर्म (ग्यारह लाख दस हजार दो सौ पचास), ‘स्त्रियों के लिए कर्त्तव्य शिक्षा’ (नौ लाख पचपन हजार) इत्यादि पुस्तकें मुख्य हैं। इन सबकी कुल प्रकाशित संख्या सैंतीस लाख से अधिक हैं। ये पुस्तकें हिन्दू संगठनों द्वारा आर्थिक सहायता से छापी जाती हैं, इसीलिए ये बहुत सस्ती होती हैं। आठ सौ पृष्ठों का सजिल्द ‘नारी अंक’ बड़े आकार की कुल कीमत मात्र सत्तर रुपए है। इसका कारण क्या है?

‘कल्याण— हिन्दी की एक मासिक पत्रिका है जो गीता प्रेस गोरखपुर से लगभग 100 सालों से अनवरत प्रकाशित हो रही है। गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना राजस्थान के एक व्यवसायी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने की थी, जिनका युवावस्था में किसी क्रांतिकारी संगठन से भी संबंध बताया जाता था। लेकिन थोड़े समय बाद ही वे आजादी की लड़ाई से अलग हो गए और अरविंद की तरह अध्यात्म की ओर लौट गए। हनुमान प्रसाद पोद्दार ने कलकत्ता में बसे कई अन्य मारवाड़ी सेठों के सहयोग से गीता प्रेस, गोरखपुर और ‘कल्याण’ की शुरुआत की। यह पत्रिका रूढ़िवादी हिन्दू सनातन धर्मियों का मुखपत्र कही जा सकती है और पिछले सात-आठ दशकों से यह हिन्दुओं में वर्णव्यवस्था तथा अन्य हिन्दू रूढ़ियों का प्रचार-प्रसार करती रही है।

यहां यह उल्लेखनीय है कि यह पत्रिका एक ओर जातिवाद की समर्थक है तो दूसरी ओर विधवा विवाह की विरोधी भी है। यह बाल विवाह की समर्थक है। सती होने वाली स्त्री को महिमा मंडित करने में आगे रहती है और पातिव्रत्य धर्म को वह सबसे बड़ा गुण मानती है। गौ और ब्राह्मणों की पूजा करना इसकी दृष्टि में हिन्दुओं का सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि लाखों की संख्या में प्रसारित होने वाली इस पत्रिका का और गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों के प्रभाव का विश्लेषण किया जाए। अफसोसजनक यह है कि हिन्दी के लेखक जिनमें बहुत संख्या हिन्दुओं की है और जिनमें कइयों के घर यह पत्रिका आती रही होगी, लेकिन वे हिन्दू समाज पर इसके प्रभाव को न जानने की कोशिश करते हैं, न समझने की। ‘कल्याण’ और गीता प्रेस द्वारा रूढ़िवादी हिन्दू समाज को और अधिक रूढ़िवादी बनाए रखने के इस मूक, लेकिन अत्यंत प्रभावशाली अभियान ने धर्मनिरपेक्षता को कितना आघात पहुंचाया है और हिन्दूवादी साम्प्रदायिकता ने संगठनों के लिए वैचारिक आधार तैयार करने में कितनी मदद की है, इसे कभी पहचानने की कोशिश नहीं की।

इस ‘नारी अंक’ में नारी का वही पुराना परम्परागत सनातन धर्मी रूप दिखाया गया है, जहां उसे हर हालत में पुरुष के आश्रय में रहना है। उसे किसी समय, किसी स्तर पर किसी भी तरह की आजादी नहीं है। यह विशेषांक भले ही 1948 में छपा हो, लेकिन इसका नवीनतम संस्करण 2003 ईसवी का है। राष्ट्रीय आन्दोलन में महिला का योगदान कमतर न था, लेकिन यह विशेषांक नारी की किसी प्रकार की राष्ट्रीय और सामाजिक भूमिका से इंकार करता है।

इस पूरे विशेषांक में ‘सती माहात्म्य’, ‘वरवधू अपनी इच्छा से विवाह नहीं कर सकते’, ‘नारी निंदा की सार्थकता’, ‘पुरुष की निंदा क्यों नहीं’ आदि ऐसे ही शीर्षकों द्वारा स्त्री-पुरुष असमानता की सार्थकता सिद्ध की है। इसमें जहां बाल विवाह का समर्थन किया गया है वहीं नारी स्वातंत्र्य को अस्वीकार किया गया है। लड़कियों को अनेक प्रकार की चेतावनियां दी गई हैं, नारी को न नौकरी और न तलाक की इजाजत, नारी जागरण नहीं नारी मरण, बौद्धकाल ने नारी को भ्रष्ट किया, लड़कियों की सीमित शिक्षा, सहशिक्षा की मनाही, स्त्रियों को विज्ञान नहीं गृह विज्ञान पढ़ना है, विधवा विवाह की मनाही, पर्दा प्रथा पर मध्यमार्ग, नारी जागरण का मजाक, नारी के भूषण और दूषण आदि को रेखांकित किया है। इस सबके लिए डॉ. क्षमा शर्मा ने उचित ही इसे ‘मनुवादी तालिबानों का घोषणापत्र’ का नाम दिया है। अध्ययन की सुविधा के लिए ‘कल्याण’ के इस ‘नारी अंक’ की हम कुछ विषयों के आधार पर जांच-पड़ताल करते हैं। मुख्यतः ये विषय हैं- सती प्रथा, स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, विधवा विवाह, स्त्री स्वातंत्र्य आदि।

सती प्रथा का समर्थन

इस विशेषांक के प्रारम्भ में ही सम्पादक ने ‘सती महात्म्य’ में सती की महत्ता बताते हुए उसे गौरवान्वित किया है। ‘स्कंदपुराण’ के ब्रह्म खण्ड से मूल को उद्धृत करते हुए उसका हिन्दी गद्य में अनुवाद इस प्रकार किया है :

‘जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई घर से श्मशान की ओर प्रसन्नता के साथ जाती है, वह पद-पद पर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करती है – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।’ तथा ‘सती प्रथा सहस्रों पुरुषों का उद्धार कर देती है।’ इसी अंक में ‘सहमरण या सती – चमत्कार’ शीर्षक लेख में सती प्रथा का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए, सती प्रथा को सही सिद्ध करने की कोशिश की है।

‘वेदों में सहमरण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। स्मृतियों और पुराणों में भी पाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि महाराज  पृथु की पत्नी अर्चि ने स्वामी के साथ चितारोहण किया था। महाभारत में पाण्डुपत्नी माद्री, वसुदेव जी की चार पत्नी देवकी, रोहिणी, भद्रा व मदिरा के सहमरण का प्रसंग आता है। धृतराष्ट्र पत्नी गांधारी ने भी पति का अनुगमन किया था। भगवान श्रीकृष्ण के परम धाम पधारने पर देवी रुक्मिणी, गांधारी, शैव्या, हेमवती, जाम्बवती आदि सती हुई थीं।’ इतना ‘इतिहास’ बताने के बाद राजा राममोहन राय द्वारा इस कुप्रथा के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर बन्द करा देने पर इस अंक में एक टिप्पणी है।”

सती होने की ये घटनाएं सर्वथा सत्य है। ऐसा होना असंभव नहीं है। फिर सती प्रथा को कानून द्वारा बंद क्यों किया गया? यह एक विचारणीय प्रश्न है।” सती प्रथा जैसी अमानवीय कुरीति के प्रतिबंध पर प्रश्नवाचक चिन्ह, वह भी बीसवीं सदी के मध्य में। यह सब उनके दिमाग के दिवालियेपन का ही द्योतक है। पुरुष सत्ता का वर्चस्व बनाए रखना भी उसका एक मुख्य उद्देश्य है। इस पूरे विशेषांक में सती संबंधी अनेक पौराणिक सूचनाओं को छोटे-छोटे लेखों के माध्यम से दर्शाया है। ऐसी ही एक कथा ‘पतिव्रता शाण्डिली’ की है, जिसे लेखक ने ‘आदर्श नारी’ माना है। ‘जिसने अपने कुष्ट रोग से पीड़ित पति को भी ईश्वर मानकर सेवा की। जो व्यक्ति स्वयं चल नहीं सकता और जो ‘घृणित रोग’ से पीड़ित है उसने एक दिन अपनी पत्नी से कहा—“धर्मज्ञे उस दिन मैंने घर पर बैठे हुए सड़क पर जाती हुई वेश्या को देखा था, उसके घर आज मुझे ले चलो। मुझे उससे मिला दो। वही मेरे हृदय में बसी हुई है।” अपने कामातुर स्वामी का यह वचन सुनकर उत्तम कुल में उत्पन्न हुई इस परम सौभाग्यशालिनी व पतिव्रता पत्नी ने अपनी कमर खूब कस ली और अधिक शुल्क लेकर पति को कंधे पर चढ़ा लिया। फिर धीरे-धीरे वेश्या के घर की ओर प्रस्थान किया। क्या आदर्श पत्नी है! ऐसा शायद ही विश्व में कहीं देखने-सुनने को मिलेगा कि पत्नी पति को कंधे पर लाद कर साथ धन लेकर वेश्या के पास अपने कोढ़ी पति को ले जाए। यह है हमारी महान भारतीय संस्कृति। क्या यही आदर्श महिलाओं और समाज के सामने ‘कल्याण’ और उसके ‘विद्वान’ सम्पादक रखना चाहते हैं?

स्पष्ट है कि कल्याण के संपादक, शाण्डिली जैसी पतिव्रता ही चाहते हैं जो पति से किसी प्रकार का प्रश्न न पूछे। पति कुछ भी कर सकता है, यदि वह कर सकने की स्थिति में नहीं है तो ‘पतिव्रता’ का धर्म है कि ऐसे ‘धार्मिक’ (वेश्या गमन) कार्य में वह अपने पति की सहायता करे। वेश्या न हो गई लुकमान हकीम या धन्वन्तरि वैद्य हों जिनके पास जाते ही रोगी ठीक हो जाता है। शाण्डिली जैसी स्त्रियां ही पतिव्रताओं का आदर्श हैं। इसी ‘नारी अंक’ में शाण्डिली को पांच पतिव्रताओं में गिना है।

‘सती, पार्वती, अरुन्धती जी, अनुसूया, शाण्डिली सुजान। पतिव्रता नारी रत्नों में इन, पांचों का नाम प्रधान है। 

महिलाओं को कम से कम शिक्षा दी जाए 

स्त्री शिक्षा से संबंधित विशेषांक में तीन लेख हैं। ‘लड़कियों की शिक्षा’, ‘स्त्री शिक्षा और सहशिक्षा’, ‘वर्तमान स्त्री शिक्षा में परिवर्तन की आवश्यकता’। पहला ‘लेख ‘लड़कियों की शिक्षा’ प्रमुख भाषाशास्त्री किशोरीदास वाजपेई ने लिखा है। इस लेख के पहले ही वाक्य में लेखक ने बता दिया है, ‘लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की शिक्षा में विशेष सावधानी अपेक्षित है।’ लड़कियां सामान्यतः शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उच्च शिक्षा का भार उठाने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए, ‘शक्ति के अनुसार ही काम अच्छा होता है। हां साधारणतः मैट्रिक, सम्मेलन की प्रथमा अथवा महिला विद्यापीठ की ‘विद्या विनोदिनी’ परीक्षा तो प्रत्येक लड़की के लिए एक तरह से जरूरी ही है।’ उच्च शिक्षा को लेखक व्यावहारिक भी नहीं समझता क्योंकि ‘बी.ए. तथा एम. ए पास लड़कियों के लिए वर मिलना प्रायः कठिन हो जाता है और तब इच्छा या अनिच्छा से उन्हें अविवाहित जीवन ही बिताना पड़ता है।’

दूसरे लेख ‘स्त्री शिक्षा और सहशिक्षा’ के प्रारम्भ में ही लेखक सहशिक्षा के विरोध में अपना मंतव्य दे देता हैः ‘प्रायः सभी धार्मिक और विद्वान महानुभावों का यह मत है कि वर्तमान धर्महीन शिक्षा प्रणाली हिन्दू नारियों के आदर्श के सर्वथा प्रतिकूल है। फिर जवान लड़के-लड़कियों का एक साथ पढ़ना तो और भी अधिक हानिकर है।’ लेखक यहां एक अजीबोगरीब तर्क देता है कि उच्च शिक्षा से उनके मातृत्व का नाश होता है। “जिस उच्च शिक्षा के पीछे हम आज व्याकुल हैं, जिस सभ्यता का प्रभाव आज की हमारी स्त्रीशिक्षा को संचालित कर रहा है, उस सभ्यता के मातृत्व नाश का तो यही नमूना है।” लेखक की समझ यहां स्पष्ट रूप से प्रतिगामी और स्त्री विरोधी है, जो कि आगे के वाक्यों से और अधिक उजागर होती है।

उन्होंने पतिव्रता के जो मानदण्ड निर्धारित किए हैं, उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्री उन पर कितना चल सकेगी इस पर उन्हें संदेह है। लेखक के शब्दों में ‘“इससे हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि स्त्रियों को पढ़ना-पढ़ाना नहीं चाहिए । द्रौपदी बहुत बड़ी विदुषी थी, राज्य संचालन कर सकती थी… परन्तु वह आदर्श गृहिणी थी। अहल्या बाई विदुषी और धर्मशीला थी अतएव सद्गृहिणी होकर ही स्त्रियां विदुषी बनें। ऐसी ही पढ़ाई की आवश्यकता है।” उनके विचार में उच्चशिक्षा प्राप्त स्त्रियां सद्गृहस्थ नहीं हो सकती । इस दृष्टि से आज की यूनिवर्सिटियों की शिक्षा नारी जाति के लिए निरर्थक ही नहीं, वरन अत्यंत हानिकर है। जो शिक्षा स्त्रियों के स्वाभाविक गुण, मातृत्व, सतीत्व, सद्गृहिणीपन, शिष्टाचार और स्त्रियोचित हार्दिक उपयोगी सौन्दर्य- माधुर्य को नष्ट कर देती है, उसे उच्च शिक्षा कहना सचमुच बड़े ही आश्चर्य की बात है।”

सहशिक्षा

सहशिक्षा पर विचार करते समय लेखक को स्त्री के चरित्र की रक्षा का स्मरण हो आता है। लड़की अगर लड़कों के साथ पढ़ेगी तो वह अपने चरित्र को ‘पवित्र’ नहीं रख पाएगी। इसलिए लेखक सह-शिक्षा का विरोध करता है: ” स्त्री पुरुष के शरीर की रचना ही ऐसी है कि उनमें एक दूसरे को आकर्षित करने की विलक्षण शक्ति मौजूद है। नित्य समीप रहकर संयम रखना असंभव सा है। प्राचीन काल के तपोवन में निर्मल वातावरण में रहने वाले जैमिनि सौभरि, पराशर सरीखे महर्षि और न्यूटन और मिल्टन जैसे विवेकी पुरुष और वर्तमान काल के बड़े-बड़े साधक पुरुष भी जब संसर्ग दोष से इन्द्रिय संयम न कर सके, तब विलास भवन रूप सिनेमाओं में जाने वाले, गन्दे उपन्यास पढ़ने वाले, भोगवाद को प्रश्रय देने वाली केवल अर्थवादी विद्या के क्षेत्र, कॉलेजों में पढ़ने वाले और यथेच्छ आचरण के केन्द्र स्थान छात्रावासों में निवास करने वाले विलासिता के पुतले युवक युवतियों से शुक देव के सदृश इन्द्रिय निग्रह की आशा करना तो जानबूझकर अपने आपको धोखा देना है।”

बिना यह समझे हुए स्त्री का चरित्र क्या उसकी शारीरिक पवित्रता ही में निहित है, अगर बड़े-बड़े ‘महर्षि’ और ‘साधक’ भी इन्द्रियलोलुप हो जाते हैं, तो उसके लिए स्त्रियां कैसे दोषी हैं? ईश्वर को सर्वोपरि मानने वाले ये लेखक स्त्री-पुरुष के बीच सहज मानवीय संबंधों को सदैव शारीरिक शुद्धता के दृष्टिकोण से देखकर ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध ही काम कर रहे होते हैं। जाहिर है कि यह ईश्वर की इच्छा नहीं है, उनकी अपनी इच्छा है- पुरुष की इच्छा जो स्त्रियों को धर्म का सहारा लेकर गुलाम बनाए रखना चाहता है और इस तरह उसे मनुष्य होने के अधिकार से भी वंचित रखता है। स्त्री शिक्षा संबंधी अगला लेख श्रीमती कु. शकुंतला गुप्ता (बी.ए.-हिन्दी ऑनर्स) ने ‘वर्तमान शिक्षा में परिवर्तन की आवश्यकता’ शीर्षक से लिखा है।

स्त्री होने के नाते और स्वयं उच्च शिक्षित होने के कारण लेखिका को स्त्रियों की शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझना चाहिए था। लेकिन इस लेख से ऐसा कुछ भी आभास नहीं होता है। इसके विपरीत लेखिका स्त्रियों को घर गृहस्थी की चारदीवारी में ही बंद रखना चाहती है। वह स्त्रियों को विज्ञान की जगह गृह विज्ञान पढ़ाने की नेक सलाह देती है। ‘“स्त्री पुरुषों की शिक्षा में दिन रात का भेद होना चाहिए। स्त्रियों के लिए गृह विज्ञान की शिक्षा जितनी आवश्यक होगी, उतनी साइंस की नहीं। गृहस्थी के प्रत्येक पक्ष की जानकारी और काम करने की आदत उनके लिए आवश्यक है।” स्पष्ट है लेखिका स्त्री होकर स्त्री और पुरुष में समानता नहीं देख पाती, इसलिए वह स्त्रियों के लिए केवल घर गृहस्थी सुचारू रूप से चला सके, वैसी ही शिक्षा की हिमायती है: “अब वह समय है जब युवतियों को पत्नी और गृहिणी के कर्तव्य तथा शिशु पालन आदि की शिक्षा दी जाए।” इसके लिए लेखिका शिक्षा शास्त्रियों और शिक्षा संस्थानों का आह्वान करती है कि जल्दी ही स्त्रियोपयोगी पाठ्यक्रम तैयार किए जाएं।

“स्त्री शिक्षा संस्थाओं तथा संचालकों का कर्त्तव्य है कि वे शिक्षा प्रणाली पर गंभीरता से अध्ययन करें। अन्य पाठ्य विषयों के साथ स्त्रियों के योग्य विषयों का, जो उनको प्रतिदिन के क्रियात्मक कार्यों में सदुपयोगी हैं, समावेश अवश्य करें।” पाश्चात्य भाषा को दूर कर भारतीय भाषा से प्रेम बढ़ाकर लेखिका स्त्रियों को प्राचीन “पतिव्रताओं के आदर्श को प्रस्तुत करने वाली शिक्षा जिसमें स्त्रियों का खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त हो सके”, दिलाना चाहती है : “स्त्री शिक्षा के सूत्रधारों के दृष्टिकोण में पर्याप्त परिवर्तन होना आवश्यक है। हमारी शिक्षा भारतीय देवियों को विस्मृत एवं खोए हुए गौरव को पुनः प्राप्त करा देने वाली, हमारी भारतीय संस्कृति की संरक्षिका तथा देश के मंगल को उज्ज्वल करने वाली होनी चाहिए।”

बीसवीं सदी के मध्य में लेखिका का, जो स्वयं विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल किए है, दूसरी स्त्रियों को ‘घरेलू शिक्षा’ तक ही सीमित रखना, संपूर्ण स्त्री समाज के प्रति नाइंसाफी है। उनकी यह सोच स्त्री विरोधी भी है। उन्नीसवीं सदी के मध्य में श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा ‘भाग्यवती’ नामक उपन्यास की नायिका भाग्यवती भाषा ज्ञान के अतिरिक्त गणित, भूगोल, चिकित्सा आदि विषयों का अध्ययन करती है और दूसरी स्त्रियों को आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती है। भाग्यवती के पिता के यह पूछने पर पिछले दो वर्षों में भाग्यवती को क्या-क्या सिखाया है? उसकी मां बताती है “पंडितानी ने कहा, सहस्त्रनाम गीता तो आप उससे सुन लेते हैं पर उसके पीछे मैंने उसको भाषा ऋतु पाठ, हितोपदेश और शिक्षामंजरी पढ़ाई। और इतिहास, भूगोल, खगोल नामक ग्रंथ पढ़ रही है और फिर मेरी इच्छा है कि थोड़ी सी गणित विद्या पढ़ाने से आत्मचिकित्सा का आरम्भ करा दूंगी, क्योंकि उसके पढ़ने से प्राणी को लोक परलोक दोनों के व्यवहार प्रतीत हो जाते हैं और गृहस्थ कार्य और मनुष्य धर्म को वह सर्व प्रकार से जान लेता है।” याद रखने की बात है उपर्युक्त उपन्यास 1877 में प्रकाशित हुआ था। दोनों को साथ-साथ पढ़कर स्त्री की पक्षधरता किसके साथ है, यह स्पष्ट है।

बाल विवाह का समर्थन

इस नारी अंक में परम्परा से हटकर बाल विवाह का समर्थन किया गया है। उन्नीसवीं सदी में समाज सुधारक बाल विवाह के विरोध में खड़े नजर आते हैं, यहां तक कि बहुत से कट्टर सनातनी तो विवाह के ही पक्षधर न थे। वे सरकार के हस्तक्षेप के विरोधी थे। इस विशेषांक में बाल विवाह के बारे में लेखक ने अपने ही तर्क गढ़े हैं। यहां लड़कियों का विवाह रजस्वला से पूर्व करने की बात की गई है:

“अतएव रज निर्गत होना आरंभ होते ही यह समझ लेना चाहिए कि वे मां बनने योग्य हो गयी हैं। सभी स्त्री जन्तु उसी समय से कामोपभोग करती और गर्भवती होती हैं- वे उसके बाद थोड़े समय भी अपेक्षा नहीं करतीं। अतएव प्रकृति का यही निर्देश है कि स्त्रियों को रजोदर्शन के समय से ही काम और मातृत्व के अंगों का व्यवहार कर देना चाहिये।” तथा “रजोदर्शन के बाद स्त्रियों को बहुत काल तक काम के और मातृत्व के अंगों का व्यवहार न करने देना उन पर अत्याचार करना होता है और इसी से देखा जाता है कि उस समय अविवाहित कन्याओं को हिस्टीरिया, रज संबंधी बहुत सी व्याधियां, अजीर्ण, सिरदर्द, सिर घूमना आदि भांति-भांति के रोग और बहुत बार अत्यंत दूषित रक्त हीनता और दृत पिण्ड की बीमारी हो जाती है।

इसीलिए हमारे यहां रजोदर्शन के आरंभ से ही कामोपभोग और मातृत्व अंगों का व्यवहार हो सके और ऐसा होने में किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े- कम उम्र में कन्याओं के विवाह की प्रथा है। ऐसा न किया जाता तो उन पर अत्याचार करना होता। इस अत्याचार का निवारण भी कम उम्र में बाल विवाह करने का एक प्रधान उद्देश्य है। सुधारक लोग जो इस प्रकार को दूषित बतलाते हैं सो सर्वथा निरर्थक हैं। कम उम्र में विवाह होने से लड़कियां शिक्षा नहीं पा सकतीं – उनका यह कहना भ्रमात्मक है। “

इस ‘नारी अंक’ में इस तरह की बातें जगह-जगह आई हैं। एक अन्य स्थान पर उन्हीं बातों को इस तरह दोहराया गया है: “ऋतुकाल से पहले ही विवाह हो जाना अत्यंत आवश्यक है। आदर्श सती वही है जो या तो पति के सिवा किसी को पुरुष में देखती ही नहीं और यदि देखती है तो पिता, भ्राता या पुत्र के रूप में। पर ऐसा देखने वाली भी मध्यम श्रेणी की पतिव्रता मानी गई है।’ तथा ‘साधारणतया विवाह के समय कन्या की उम्र तेरह और वर की उम्र कम से कम अट्ठारह होनी चाहिए। विवाह करना आवश्यक है और वह भी बहुत बड़ी उम्र होने के पहले ही कर लेना चाहिए।”

‘कल्याण’ के इस ‘नारी अंक’ के लेखक जहां चाहते हैं वहां प्राकृतिक नियमों की बात करने लगते हैं और जहां चाहते हैं उसको भूल जाते हैं। अगर प्राकृतिक रूप से यह सही है कि रजस्वला होने के बाद स्त्री में कामोपयोग और मातृत्व की इच्छा जागृत हो जाती है और इसीलिए उसका विवाह किया जाना जरूरी है तो ऐसी बाल-विधवा के विवाह पर रोक क्यों? क्या विधवा हो जाने के बाद वह स्त्री रजस्वला नहीं होती, क्या उसमें कामोपभोग और मातृत्व की इच्छा समाप्त हो जाती है। यदि नहीं तो बाल विवाह का समर्थन और विधवा विवाह का विरोध दोनों नहीं चल सकते।

बाल-विवाह को स्त्री के रजस्वला से जोड़ना सिर्फ यह बताता है कि इन ‘महानुभावों’ की नजर में स्त्री सिर्फ एक मादा है। ऐसी मादा जो उनकी काम इच्छाओं को पूरा करती है और उनकी वंश परंपरा को बनाए रखने के लिए बच्चे पैदा करती है। जिस उम्र में लड़कियां रजस्वला होती है उस उम्र का यह कितना भी बड़ा सत्य हो, संपूर्ण सत्य नहीं है। स्त्री की चेतना इसी से निर्धारित नहीं होती, जीवन के और भी बहुत से पक्षों में वह सक्रिय रहती है। स्त्रियां भी अपनी इच्छाओं और जरूरतों को निर्धारित और नियंत्रित कर सकती हैं और उचित समय पर विवाह कर मातृत्व का भार भी वहन कर सकती हैं, उनका शरीर तब भी इस काम के लिए उपयुक्त रहता है। ‘कल्याण’ के लेखकों के तर्क अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण हैं। स्त्री विरोधी तो हैं ही।

बाल विवाह के विरोध में उन्नीसवीं सदी के सभी सुधारकों और लेखकों ने आवाज उठायी थी। भारतेन्दु मण्डल के सभी लेखकों ने बाल विवाह का विरोध किया था। 1877 से प्रारंभ होने वाली ‘हिन्दी प्रदीप’ नामक मासिक पत्रिका तो मानो बाल विवाह के विरोध का ‘मुख पत्र’ था। इस पत्र के संपादक बालकृष्ण भट्ट लगभग प्रत्येक अंक में बाल विवाह से संबंधित लेख लिखते रहते थे।

बाल विवाह के इसी विरोध के कारण इस विशेषांक में वर वधू को आपस में बात करके विवाह करने की अनुमति नहीं है। छोटे बच्चों में इतनी समझ भी नहीं होती कि वे विवाह का सही अर्थ भी जान सके। स्वामी अखण्ड जी सरस्वती महाराज का एक लेख है-‘अध्यात्मवाद की कसौटी पर नारी धर्म’ यह लेख प्रश्नोत्तर शैली में है। एक प्रश्न है-“वर वधू का चुनाव एक दूसरे की रुचि से होना चाहिए या गुरुजनों की?” इसका दो टूक उत्तर है : “सर्वथा गुरुजनों की रुचि से।… गुरुजनों की आज्ञा मानकर धर्म को सामने रखकर ही विवाह करना चाहिए भोग वासना से नहीं। इस दृष्टि से विचार करने पर गृहस्थ धर्म में जिस स्त्री पुरुष के मिलन पर प्रतिबंध है, सुख भोग का नियंत्रण है, सबकी मुक्ति युक्तता सिद्ध हो जाएगी। पतिव्रता धर्म, विधवा धर्म आदि समस्त नारी धर्मों का मूल तत्व यही है।” स्पष्ट है कि स्त्रियों को किसी भी प्रकार के अधिकार वे देना नहीं चाहते। मनु की हां में हां मिलाकर स्त्री स्वतंत्रता के वे विरोधी हैं और समाज में अपनी कट्टरता की छवि देना चाहते हैं।

विधवा विवाह का विरोध

सन् 1856 ई. में बंगाल में ईश्वरचन्द विद्यासागर के सत्प्रयासों से विधवा पुनर्विवाह का कानून पास हुआ। उसके बाद अनेक लोगों ने इसका समर्थन किया और इसने एक आन्दोलन का रूप ले लिया। लेकिन हिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रसारित यह ‘कल्याण’ मासिक विधवा विवाह का लगातार विरोध करता रहा है। इस ‘नारी अंक’ में ‘दुखमय विधवा जीवन’ (एक बहिन) ‘मेरे जीवन में कैसे परिवर्तन हुआ’ (एक सुखी विधवा) ‘विधवा जीवन को पवित्र रखने का साधन’ आदि लेख विधवाओं से संबंधित है। इनमें से ‘दुखमय विधवा जीवन’ में एक बहिन ने समाज और परिवार में विधवाओं की दुरावस्था का कारुणिक चित्र खींचने का प्रयास किया है।

“आज विधवा की क्या दशा है- जरा विचार कीजिए। बारह-चौदह वर्ष की सुकुमार अवस्था है। जिसे ब्याह क्या चीज है-इसका भी पता नहीं, जो खेलकूद के क्षेत्र में रहने योग्य है। सास-ससुर आदि से जहां प्यार मिलना चाहिए, वहां वह दुत्कारी जाती है। पिशाचिन है, आते ही हमारे बच्चों को खा गई रांड़, कुभागिन है।” आदि-आदि। तथा “साधारण तथा घटिया भोजन, वस्त्र भी आवश्यकतानुसार समय पर नहीं मिलते। हिलना मिलना, हंसी-खुशी, त्यौहार, पर्व, विवाह, शादी सभी से बहिष्कार तथा बात-बात में कड़ाई। किसी मंगलकार्य पर छाई भी न पड़े।” “इसके साथ ही साथ आजकल घर-घर जो बाल विधवाओं की संख्या बढ़ रही है, उनमें बहुत सी ऐसी हैं, जो पवित्र वैधव्य का मर्म समझना तो दूर रहा, विवाह का शास्त्रीय आदर्श भी नहीं जानती। विषय सेवन के वातावरण में ब्याही गईं और विधवा होते ही अकस्मात संयम, तप की मूर्ति बन जाए, यह कैसे संभव है।”

इस संपूर्ण लेख में विधवा जीवन के दुखों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है लेकिन सवाल यह है कि ‘कल्याण’ विधवाओं को अपने दुःखों से मुक्त होने के लिए कौन सा रास्ता सुझाता है? दु:खी विधवा के यथार्थ से बिल्कुल उलट शिक्षा देने वाला एक लेख ‘एक सुखी विधवा’ का ‘मेरे जीवन में कैसे परिवर्तन हुआ’ शीर्षक लेख है। शीर्षक को पढ़ते हुए आश्चर्य होता है- भारतीय विधवा वह भी सुखी। क्या ऐसा भी संभव है? कदापि नहीं। निराला ने विधवा के बारे में यथार्थ अंकन करते हुए लिखा है- ‘वह क्रूर काल ताण्डव की स्मृति रेखा। वह टूटे तरु की छुटी लता सी दीन। दलित भगत की विधवा है।’

इसके विपरीत लेखिका सभी बातों को दार्शनिक और आध्यात्मिक धरातल पर रखती हुई बताती है : “भगवद् गीता में ‘काम’ को तो नरक का द्वार बतलाया है। मनुष्य भ्रमवश काम में सुख मानकर उसमें फंस जाता है।. काम सेवन में तो दुख ही दुख है। ..आहार, निद्रा, भय, मैथुन तो पशुओं में भी रहते हैं। अनादिकाल से जीव इन्हीं में तो रचता-पचता आया है। पता नहीं कितने लाखों करोड़ों जन्म यही करते बीते होंगे। विधवा न हो कोई सधवा रहती है तो क्या होता है? यही बाल बच्चे पैदा होते। फिर भगवान ने तुमको वैधव्य देकर इस प्रपंच से बचा लिया, बाल बच्चे नहीं पैदा हुए, पशुओं की तरह इन्द्रियों के भोगने को मिले, तो कौन सा नुकसान हो गया? एक जन्म में ऐसा न हुआ तो क्या बिगड़ गया? फिर यह विषयभोग तथा संतानादि का मोह तो मुक्ति में बाधक तथा बंधन कारक है। विषयासक्त पुरुष को करोड़ों जन्मों में भी भगवत्प्राप्ति मार्ग नहीं सूझता। यदि भगवान ने कृपा करके तुमको अपनी प्राप्ति का पथ दिखलाया है, संसार के आपात् रमणीय किंतु परिणाम में महान दुख देने वाले विषयों से अलग करके शीघ्र अपने पास आने की सुविधा कर दी है तो इसमें तो तुमको प्रफुल्लित होना चाहिए। विषयत्यागी ही वस्तुतः बड़भागी है। विषय सेवन में लगे हुए लोगों के तो भाग्य फूटे हुए हैं।” तथा लेखिका फिर लिखती है : “मैं अनुभव कर रही हूं कि सचमुच भगवान ने बड़ी ही दया की थी। मैं यदि संसार के विषयों में फंसी रहती तो पता नहीं मेरी किस नरक में जाने की भूमिका बनती। मैं अपनी विधवा बहनों से निवेदन करती हूं कि वे काम सुख को सुख मानकर उसके लिए लालायित न हों, दुखों को भगवान का आशीर्वाद मानकर सिर चढ़ावे और अपने जीवन को त्याग, वैराग्यमय, निवृत्तिपरक तथा अत्यंत सादा बनावें तथा दिन-रात भगवान की ओर चित्तवृत्ति का प्रवाह बहाने की चेष्टा करें।”

आठ सौ पृष्ठों के इस संपूर्ण विशेषांक में विधवा पुनर्विवाह की बात भूलकर भी नहीं की गई है। इसके विपरीत विधवा जीवन को ‘पवित्र’ तथा ‘सुखी’ रखने के लिए इसमें ‘सात साधन ́ बताए गए हैं। उपर्युक्त लेख का अंत सती प्रथा के समर्थकों की खबर लेते हुए होता है।

“वे महापापी हैं जो पवित्र विधवाओं को सती धर्म से च्युत करके पाप पङ्क में फंसाते हैं और उन बेचारी असहाय देवियों को दुःख की ज्वाला में जलने के लिए बाध्य करते हैं।”

ठीक ही तो है, यदि ये पहले ही ‘सती’ हो गई होती तो न रहता बांस न बजती बांसुरी। विधवा-पुनर्विवाह की चर्चा ही न होती। बाल विधवा का सारा जीवन एक योगी और तपस्वी जैसा बिताने की बात की जाती है, जबकि कितने ही तपस्वियों और योगियों के किस्से पढ़ने और सुनने को मिलते हैं: “इस प्रकार आर्य विधवाओं के लिए त्यागमय पवित्र जीवन ही निःश्रेयस का एक मात्र मार्ग है। पुरुषों को संन्यास के द्वारा जिस पद की प्राप्ति होती है तथा साध्वी सधवाओं को पातिव्रत्य के द्वारा जो गति मिलती है, वही स्थिति विधवाओं को इस पवित्र धर्म के द्वारा प्राप्त हो सकती है। घर में रहते हुए भी विधवाओं के लिए यह परम पवित्र संन्यास ही है।”

‘कल्याण’ के इन लेखों का सार यह है कि विधवाओं का विवाह किसी भी हालत में नहीं किया जाना चाहिए और विवाह के द्वारा जो इन्द्रिय भोग का सुख मिलता है उसको त्याज्य समझकर भूल जाना चाहिए और अपना समय त्याग और तपस्या में लगाना चाहिए। लेकिन ऐसा कहने वाले लेखक यह भूल जाते हैं कि जो कामेच्छा इतनी स्वाभाविक है, कि जिसे बड़े-बड़े ऋषि और मुनि नियंत्रित नहीं कर सके और जिनकी कामुकताओं से सभी पुराण भरे पड़े हैं, उनसे अलग रहने का यह उपदेश स्त्रियों को ही क्यों दिया जा रहा है? एक तरफ तो पुरुषों को वृद्धावस्था में भी बार-बार विवाह करने की छूट, यहां तक कि अपने से एक चौथाई उम्र की लड़की से भी विवाह करने में भी किसी तरह का संकोच नहीं।

दूसरी तरफ स्त्री को सहज स्वाभाविक मानवीय जीवन जीने से भी रोकने का यह प्रयत्न किस दृष्टि से न्यायोचित कहा जा सकता है। दुःखद यह भी है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ईश्वरचन्द विद्यासागर से लेकर हिन्दी के लेखकों तक ने विधवाओं के विवाह के समर्थन में जो अभियान छेड़ा था, ‘कल्याण’ का यह विशेषांक उसके विरुद्ध खड़ा है। राधाचरण गोस्वामी जिनका संबंध वृंदावन के ‘आर्थोडॉक्स’ गोस्वामी ब्राह्मण परिवार से था, उन्होंने जिस पीड़ा के साथ विधवाओं के जीवन का चित्र खींचा था और उनके पुनर्विवाह का समर्थन किया था, वह मानवीय दृष्टि इन धर्म के ठेकेदारों को छू भी नहीं गई। हिन्दी समाज का दुर्भाग्य यह है कि गोस्वामी जी जैसे लेखकों को उसने भुला दिया है, और ‘कल्याण’ के इस ‘नारी अंक’ को अभी तक अपने सिर पर धारण किए हुए है।

नारी स्वातंत्र्य का विरोध

इस ‘महाविशेषांक’ में नारी के लिए किसी तरह की स्वतंत्रता खोजना तो चील के घोंसले में मांस देखना है। इस संदर्भ में बार-बार मनु को याद किया गया है, जिन्होंने स्पष्ट लिखा है : ‘“स्त्री की बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र रक्षा करते हैं। स्त्री को कभी इनसे पृथक, स्वतंत्र रहने का विधान नहीं है।” धर्मशास्त्र के इस स्पष्ट आदेश के द्वारा यहीं तक उसे परतंत्र नहीं रखा, वरन उसको गुलाम बनाने का – रक्षा करने के नाम पर, अहसान भी जताता है।

“ध्यान रहे धर्मशास्त्र द्वारा यह कल्याणकारी नारी स्वातंत्र्य का अपहरण नहीं है। नारी को निर्बाध रूप से अपना स्वधर्म पालन कर सकने के लिए बाध्य आपत्तियों से उसकी रक्षा के हेतु पुरुष समाज पर यह भार दिया गया है। धर्मभीरू पुरुष इसे भार नहीं मानता, धर्मरूप में स्वीकार कर अपना कल्याणकारी कर्त्तव्य समझाता है।”

क्या महान उदारता है चोरी और सीना जोरी। स्त्री को गुलाम बनाओ और फिर ऊपर से अहसान भी जताओ। इसी मनु व्यवस्था के अन्तर्गत स्त्री को पुरुष शासन में रहने की ही आजादी है।

“स्त्रियों के स्वतंत्र और अरक्षित होने पर नाना प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं और उनकी रक्षा करने से अपनी और धर्म की रक्षा होती है। इसीलिए शास्त्रों में स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता का निषेध किया गया है और शास्त्रकार ऋषि महर्षि त्रिकालदर्शी, स्वार्थत्यागी, समदर्शी, अनुभवी थे, गहराई से सोचने वाले और संसार के परम हितैषी थे।”

उनके द्वारा नारी के गुण और दोषों को बताने पर स्पष्ट पता चल जाता है कि वे स्त्री को किस रूप में देखते हैं। नारी के ‘भूषण’ और ‘दूषण’ गिनाते समय स्त्रियों के प्रति उनकी मानसिकता का पता चलता है। उन्होंने नारी के भूषणों में सौन्दर्य, लज्जा, विनय, संयम, तप, संतोष, क्षमा, धीरता, वीरता, गंभीरता, समता, सहिष्णुता, सुव्यवस्था तथा सफाई, श्रमशीलता, निरभिमानता, मितव्ययिता, उदारता, पर दुख कातरता, सेवा-शुश्रूषा, संयुक्त परिवार, भक्ति, सादगी एवं सतीत्व गिनाये हैं। इन सभी गुण पर थोड़ा बहुत अलग से भी लिखा है तथा अंतिम गुण ‘सतीत्व’ को नारी के लिए सर्वोत्तम गुण माना है: “यह नारी का सर्वोत्तम और अनिवार्य आवश्यक गुण है। इसके बिना नारी प्राण रहित शव की भांति दोषमयी है।” इन भूषणों में कुछ को विस्तार से लिखा है। नारी सौंदर्य का बाह्य और आंतरिक सौंदर्य, दो श्रेणियों में रखा है: “सुंदर वर्ज सुडौल अंग-प्रत्यंग, मनोहर चाल, दृष्टि, भावभंगी तथा तोड़ मरोड़ आदि में सुहावनापन और वाणी में माधुर्य- यह बाहरी सौंदर्य है। क्षमा, प्रेम, उदारता, निरभिमानता, विनय, सहिष्णुता, समता, शांति और प्रभुशक्ति आदि सद्गुण तथा सद्भाव भीतरी सौंदर्य हैं। इसी तरह से सेवाशुश्रुषा में सात सेवा के अंग बताए हैं : पति की सेवा, सास-ससुर की सेवा, बच्चों की सेवा, अतिथि सेवा, देव सेवा, देश सेवा, रोगियों की तथा पीड़ितों की सेवा।”

नारी के दूषण भी कम ध्यान देने योग्य नहीं हैं : कलह, निंदा, हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या, भेद, विलासिता, शौकीनी, फिजूल खर्च गर्व-अभिमान, दिखावा, विषाद, हंसी-मजाक, वाचालता, स्वास्थ्य की लापरवाही तथा कुपथ्य, मोह, कुसंग, आलस्य, व्यभिचार ।

व्यभिचार के आगे लिखा है :- स्त्रियों के लिए यह सबसे बड़ा दोष है। इतना ही नहीं इस पंक्ति को लेखक ने रेखांकित भी किया है। इस पुस्तक के अगले अध्याय का शीर्षक है : ‘लज्जा नारी का भूषण है।’

 महिलाओं को नौकरी नहीं करनी चाहिए

नारी स्वातंत्र्य आर्थिक रूप से स्वावलंबी हुए बिना संभव नहीं है। इसके लिए नारी को केवल गृहस्थी में ही नहीं फंसे रहना चाहिए। उसे आर्थिक रूप से मुक्ति के लिए आर्थिक कार्यों में भी हाथ बंटाना होगा। यहीं सवाल आता है स्त्री के नौकरी करने का। यदि स्त्री कोई नौकरी करती है तो वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण, उसमें आत्म-विश्वास स्वतः ही आ जाता है इसलिए नौकरी या किसी दूसरे व्यवसाय आदि से धन कमाना स्त्री स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है। ‘कल्याण’ के इस ‘नारी अंक’ में ‘नारी और नौकरी’ नामक एक लेख है। पूरे लेख में स्त्री के लिए नौकरी की निरर्थकता सिद्ध करने का प्रयास है। नौकरी स्त्री के लिए किस प्रकार हानिकारक है। यह बताया गया है। इस लेख की शुरुआत ही यह अफसोस जताते हुए हुई है कि “आजकल अपने यहां की शिक्षित स्त्रियों को नौकरियों का बड़ा चस्का लग रहा है।” लेखक स्त्रियों को घर में ही रखने के पक्ष में है, क्योंकि यदि स्त्रियां भी बाहर कमाने के लिए जाने लगेंगी तो घर कौन संभालेगा: “स्त्रियां जब नौकरियों के पीछे पड़ती है, तब घर बिगड़ जाता है।”

सोवियत संघ का लेखक उदाहरण देता है और वहां लेखक की मान्यता है कि स्त्रियों को स्वतंत्रता मिल जाने से बच्चों की देखभाल सुचारू रूप से नहीं हो पाती। लेखक के शब्दों में: “पर बाद में देखा गया है कि इनमें भी पले हुए बच्चों में वह बात नहीं आती, जो घर के पले बच्चों में होती है। इसका अनुभव स्वयं लेनिन की पत्नी क्रुप्सकाया ने किया, जिनके हाथ में बहुत दिनों तक शिशुपालन विभाग का निरीक्षण रहा।” इससे पूर्व लेखक स्वीकार कर चुका है: “सोवियत रूस में स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता है। लेनिन की राय थी स्त्रियों को गृहस्थी के कार्य तथा बच्चों की परवरिश से मुक्त कर देना चाहिए जिससे वे देश की सेवा कर सकें।’ इसलिए बच्चों के पालन, पोषण और शिक्षा का भार राष्ट्र ने लिया। बच्चा जनने के लिए सरकारी सूतिका गृह खोले गए।

शिशु शालाओं में उनका पालन-पोषण होने लगा और बड़े होने पर स्कूलों में उनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया।” यह एक आदर्श व्यवस्था थी। लेकिन इस लेख का लेखक तो किसी भी तरह से स्त्री को घर से बाहर जाने ही नहीं देता, नहीं तो वह यह क्यों कहता, “यह समझना भूल है कि घर का काम राष्ट्र का काम नहीं है।” पूरे लेख में लेखक स्त्री द्वारा नौकरी करने की एक अच्छाई नहीं देख पाता। वह यह बात किसी भी हालत में मानने को तैयार नहीं है कि स्त्रियों का नौकरी करना आवश्यक है और उनकी नौकरी से स्वयं उनको, उनके परिवार को और समाज को लाभ हो सकता है। लेखक की तो मान्यता है: “भारत की स्त्रियों में नौकरी का शौक बढ़ने से विकट समस्यायें उपस्थित होने लगी हैं।” यह स्त्री के प्रति प्रतिगामी सोच का परिणाम है। मनुवादी समाज व्यवस्था में स्त्री को किसी तरह की आजादी की गुंजाइश नहीं है। उन्हें डर है कि अगर स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई तो वह पुरुष समाज की पराधीनता स्वीकार करने से मना कर देगी और सनातनी पुरुष समाज यही नहीं चाहेगा।

तलाक

कानूनन समाज में तलाक की स्वीकृति मिल जाने पर भी, यहां इसके लिए कोई स्थान नहीं हैं पति-पत्नी में कितना ही झगड़ा हो, मनमुटाव हो, दोनों ही एक-दूसरे से दुखी हों, फिर भी इनके अनुसार तलाक नहीं होना चाहिए। ऐसा न होने पर ज्यादा परेशानी स्त्री को ही उठानी पड़ती है, लेकिन इस ‘नारी अंक’ में विवाह बंधन में त्याग, प्रेम की बड़ी ऊंची बातें की गई हैं और इस तरह से अलग हो जाने को ‘पशुत्व’ की निशानी माना गया है: “विवाह, उत्सर्ग और प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप है। इसी से विवाह बंध भी नित्य और अच्छेद्य है। जहां विवाह विच्छेद की बात भी है, वहां तो मनुष्य के पशुत्व की सूचना है। विवाह में जहां विच्छेद की संभावना आ जाती है वहीं नर-नारी का पवित्र और मधुर संबंध अत्यंत जघन्य हो जाता है। फिर मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं रह जाता। विवाह विच्छेद की प्रथा चलाना मानवता को मारकर उसे कुत्ते कुतिया के रूप में परिणत कर देना है।”

यहां स्त्री और पुरुष के वैषम्य को शाश्वत माना गया है। नारी जागरण और उसके लिए होने वाले किसी भी आन्दोलन का विरोध यहां स्थान-स्थान पर मिलता है, क्योंकि इनका मानना तो यह है कि “पुरुष-पुरुष है, स्त्री-स्त्री है।.. उनका स्वाभाविक अंतर एक को दूसरे पर आश्रित रखने वाला ही है। ऐसी दशा में सनातन विचार का त्याग अशांति का ही विधायक है।” सही तो है सनातनता का नाम ही परिवर्तन विमुखता है। इसीलिए तो ये लोग नारीमुक्ति को नारी की मौत मानते हैं। “जो पुरानी जंजीरें पतिव्रत कर्म बंधन को दृढ़ रखे हुए हैं, उन्हें तोड़ देने का प्रयास ‘नारी जागरण’ नहीं उसे तो ‘नारी मरण’ कहा जा सकता है।” इस पूरे ‘नारी अंक’ में ऐसे ही विचारों की भरमार है। नारी विरोधी विचारों के कारण वे समाज में स्त्रियों के लिए किसी तरह का सुधार नहीं चाहते। लेखक के शब्दों में “स्त्रियों में जागरण नाम से संचालित आंदोलन से नारी जाति का कल्याण होने के स्थान पर हानि अधिक हो रही है। उनको दी जानी वाली शिक्षा उन्हें न घर का रखती है और न कहीं और का। मातृत्व के प्रति गौरव वृद्धि हट गई है। माता बनने से नारियां घबराने लगी हैं। गृहिणीत्व भी गर्हित है। उन्हें तो जीवन भर डार्लिंग बनने में अधिक लाभ दिखाई देता है।”

इतना ही नहीं, जहां बौद्ध धर्म में स्त्रियों और शूद्रों को समान अधिकार देने की बात थी, उसका भी इन्होंने पुरजोर विरोध किया और उन पर यह आरोप लगाया कि मनु कालीन ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ वाला सिद्धांत बौद्ध कालीन विहारों के स्वच्छंद जीवन द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था। 

नारी निंदा

नारी स्वातंत्र्य और समाजीकरण की बातें तो बहुत बाद की हैं। इस ‘नारी अंक’ की मनुवादी समझ तो नारी को इंसान मानने तक को तैयार नहीं है। उसे हर हालत में पुरुष की दासी बने रहना है। परंपरा से शास्त्रों, साहित्य में नारी को ‘नरक का द्वार’, ‘माया’ आदि अनेक नामों से पुकारा है। गोस्वामी तुलसीदास ने नारी को ‘ताड़न का अधिकारी’ और ‘अवगुणों की खान’ कहकर उसकी प्रताड़ना की है। (नारी सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं) आश्चर्य की बात तो यह है कि इसी ‘विशेषांक’ में नारी निंदा संबंधी इन सभी बातों को उचित ठहराते हुए ‘नारी निंदा की सार्थकता’ नाम से एक लेख लिख डाला है तथा इसी लेख में यह भी बता दिया है कि पुरुष निंदा क्यों नहीं। इस लेख में ‘नारी निंदा’ को उचित ठहराते हुए, उसे परमावश्यक माना है: “नारी निंदा किस हेतु से की गई है, इस पर शुद्ध भाव के साथ सूक्ष्म विचार करने पर तथा दीर्घ दृष्टि से उसका परिणाम देखने पर यह स्पष्ट दिखायी देता है कि शास्त्रों ने जो नारी निंदा की है, उसमें जरा भी अतिशयोक्ति या दूषित भाव नहीं है, बल्कि वह सर्वथा सार्थक, सत्य और परम आवश्यक ही है।” इस लेख में न केवल नारी निंदा का पक्ष लिया गया है, उस निंदा में और इजाफा करते हुए उसे प्रमाणित करने की कोशिश की गयी है। “नारी का दर्शन-स्पर्श तो दूर रहा, उनका श्रवण कथन भी पुरुष को गिराने के लिए काफी है।” नारी पर हर प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए हैं। हर क्षेत्र में स्त्री पुरुष के लिए अलग-अलग मानदण्ड हैं।

‘नारी निंदा’ की वकालत के साथ ‘पुरुष निंदा’ के लिए मनाही भी यहां की एक मुख्य बात है। एक प्रश्न “पुरुष निंदा क्यों नहीं?” के उत्तर में कहा गया है: “नारी धर्मानुसार एकमात्र अपने स्वामी में परमात्मबुद्धि रखती है और जीवन के समस्त कार्य स्वामी के प्रीत्यर्थ ही करती है। उसके लिए पर पुरुष का कोई प्रश्न ही नहीं, जिसकी निंदा करके उसके मन को उधर से हटाना आवश्यक हो, क्योंकि उसके मन में तो स्वामी के अतिरिक्त दूसरे पुरुष का अस्तित्व ही नहीं है- ‘सपनेहुं आन पुरुष जग नाहीं।’ पुरुष के लिए यह बात नहीं है। पुरुष अपनी पत्नी में व्यवहारतः परमात्मभाव नहीं रखता। व्यवहार में पत्नी उसके लिए पूजनीया नहीं है।” इसलिए वह व्यवहार में नारी को नारी भाव में ही देखता है। कहना न होगा कि यहां लेखक परंपरा से चले आ रहे मनुवादी कुसंस्कारों में रंचमात्र भी फेरबदल करने को तैयार नहीं है। पति को परमेश्वर गुरू, श्रद्धेय बने रहना है और स्त्री को उसी प्रकार से पददलित।

स्त्री पुरुष में विषमता मनुवादी सोच का परिणाम है। गीता प्रेस गोरखपुर की ही प्रश्नोत्तर शैली में लिखी एक पुस्तिका ‘गृहस्थ जीवन में कैसे रहें?’ में दो प्रश्नों के उत्तरों से स्पष्ट हो जाएगा कि हमारे यहां स्त्रियों के लिए एक मानदण्ड है तो पुरुषों के लिए दूसरा। मनुस्मृति में भी ऐसा ही है। उपर्युक्त पुस्तिका में एक प्रश्न है- “पत्नी अपनी इच्छा से कहीं चली जाए फिर लौट आए तो क्या करना चाहिए ?” उत्तर बड़ा विचित्र है: “उसे अपनी पत्नी नहीं मानना चाहिए, उसके साथ पत्नी जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए।” इसके विपरीत दूसरा प्रश्न है: “पति दुश्चरित्र हो तो पत्नी को क्या करना चाहिये ?” इसके उत्तर मात्र से स्पष्ट होता है कि हमारे समाज में स्त्री का क्या स्थान रहा है ? उत्तर है : “पत्नी को दुश्चरित्र पति का त्याग नहीं करना चाहिए, प्रत्युत्त अपने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए उसको समझाना चाहिए। जैसे मंदोदरी ने रावण को समझाया, पर उसका त्याग नहीं किया।”

अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मनुवादी समाज व्यवस्था में नारी स्वातंत्र्य के लिए कोई स्थान नहीं है। उसे तो सदैव एक गुलाम की जिंदगी ही बितानी है। स्त्री को हर हाल में पुरुष के आश्रय में, उसके रहमो करम पर जिंदा रहना है। गीता प्रेस गोरखपुर की ही ‘नारी धर्म’ नाम की एक पुस्तिका में जय दयाल गोयंदका ने एक शीर्षक दिया है: “स्वतंत्रता के लिए स्त्रियों की अयोग्यता।” इस लेख में लेखक के मुताबिक स्त्रियों के लिये परतंत्र रहना ही मंगलदायक है: “स्त्री जाति के लिए स्वतंत्र न होना ही सब प्रकार से मंगलदायक है। पूर्व में होने वाले ऋषि महात्माओं ने स्त्रियों के लिए पुरुषों के अधीन रहने की जो आज्ञा दी है, वह उनके लिए बहुत ही हितकर जान पड़ती है। ऋषिगण त्रिकालज्ञ और दूरदर्शी थे।” तथा “स्त्रियों में काम, क्रोध, दुःसाहस, हठ, बुद्धि की कमी, झूठ, कपट, कठोरता, द्रोह, ओछापन, चपलता, अशौच, दयाहीनता आदि विशेष अवगुण होने के कारण वे स्वतंत्रता के योग्य नहीं हैं।” जितनी भी गालियां संभव थीं, वह सब यहां इकट्ठी स्त्री जाति को दे दी हैं। देखने की बात यह है कि वह नारी मां भी है, बहन भी और न जाने कितने पारिवारिक सामाजिक रिश्ते उससे जुड़े हुए हैं। संपूर्ण समाज की ‘जननी’ के विषय में कितने उच्च विचार हैं- गोयंदका जी के, यह देखने की बात है। क्या यही है हमारी ‘भारतीय संस्कृति’ ?

नारी की गुलामी का यह प्रकांड दस्तावेज यह बताने के लिए काफी है कि किस तरह शिक्षित हिन्दू समाज में पिछले पचास सालों से स्त्री स्वतंत्रता के खिलाफ अभियान चलाया जाता रहा है। इस पुस्तक का स्पष्ट संदेश है कि नारी को हर स्थिति में पुरुषों के अधीन रहना चाहिए और हिंदू शास्त्रों ने जो नियम बना दिए हैं उनका बिना किसी विरोध के दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। क्योंकि ऐसी ही ईश्वर की आज्ञा है। शास्त्रों में लिखा हुआ है, जिनके रचयिता ऐसे महान ऋषि मुनि हैं, जो ‘त्रिकालज्ञ’ थे। हिन्दू शास्त्र के खोये गौरव को हासिल करने के लिए भी यही एकमात्र मार्ग है। नारी की पराधीनता का ऐसा गौरवगान और वह भी इतनी निर्लज्जता से इसीलिए पेश किया जा सका, क्योंकि उसे धर्म के आवरण में लपेटकर रखा गया है।

हिन्दू समाज को इस बात पर विचार करना चाहिए कि यह कब तक ऐसे मनुवादी तालिबानों के बोझ को ढोता रहेगा। केवल नारी की मुक्ति के संबंध में कुछ पत्र-पत्रिकाओं में लिखना ही पर्याप्त नहीं है, जिनका प्रसारण ‘कल्याण’ की प्रसारण संख्या के सामने नगण्य है, बल्कि उसे एक व्यापक जन अभियान बनाने की भी आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें ‘कल्याण’ के प्रभाव को बढ़ा-चढ़ा कर देखना चाहिए। इसका प्रभाव क्षेत्र उत्तर भारत के उच्च वर्णीय मध्यम वर्णीय हिन्दू समाज के बीच ही है। हिंदू समाज की अधिक संख्या इससे बाहर है लेकिन उच्च वर्णीय मध्यमवर्गी हिन्दू समाज ही अभी तक राजनीतिक और सामाजिक रूप से सबसे सक्रिय और वाचाल है और पूरे सामाजिक, राजनीतिक ढांचे को निर्णायक रूप से प्रभावित करने की स्थिति में है। इसलिए यह जरूरी है कि इस समाज पर नियंत्रण रखने वाले प्रतिक्रियावादी वैचारिक प्रभावों की पहचान कर उसके खिलाफ संघर्ष किया जाए। आज का यह सच है कि नारी मुक्ति आंदोलन को कोई शक्ति रोक नहीं पाएगी और स्त्री, समाज में अपना अधिकार पाकर रहेगी।

(भगवती प्रसाद शर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवा निवृत प्रोफेसर हैं))

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