संसद का मानसून सत्र शुरू हुए 20 दिन हो गए हैं और चार दिन बाद उसका समापन हो जाएगा। अभी तक के 20 दिनों में संसद का तीन चौथाई से भी ज्यादा हंगामा और नारेबाजी में जाया हुआ है। संसद की कार्यवाही सही तरीके से नहीं चले और किसी न किसी मसले को लेकर विवाद तथा शोर-शराबा चलता रहे, यह विपक्ष के लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए बेहद सुविधाजनक होता है। ऐसी स्थिति में सरकार कई मुश्किल सवालों के जवाब देने से बच जाती है, विपक्ष आम जन-जीवन से जुड़े मुद्दे नहीं उठा पाता है या नियमों की मनमानी व्याख्या कर उसे मुद्दे उठाने की अनुमति नहीं दी जाती है।
पिछले कुछ सालों के दौरान तो यह भी पूरी तरह साफ हो गया है कि संसद के हर सत्र से पहले सरकार की ओर से ही यह इंतजाम कर लिया जाता है कि विपक्ष के उठाए किसी भी मुद्दे पर चर्चा नहीं होने दी जाए, जिससे गतिरोध बने, दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से न चले और शोरशराबे में पूरा सत्र बीत जाए।
अब इस बात का किसी के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर देश के आम आदमी की कमाई का कितना पैसा खर्च होता है। वैसे अनुमान है कि संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट 2.5 लाख रुपए खर्च होते हैं और हर सत्र पर करीब 150 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। सरकार यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है। संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले, यह जिम्मेदारी मूल रूप से सरकार की है, लेकिन उसके लिए यह जिम्मेदारी निभाना कुछ खास परिस्थिति में राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा होता है, लिहाजा वह खुद ही नहीं चाहती है कि संसद में सुचारू रूप से काम हो।
आमतौर पर हर सत्र से पहले कोई न कोई ऐसी घटना हो जाती है या ऐसी कोई खबर आ जाती है, जिसे लेकर न तो विपक्ष को बोलने दिया जाता है और न ही सरकार की ओर से कुछ कहा जाता है। हंगामा और नारेबाजी होती रहती है। जहां तक विधायी कामकाज का सवाल है, वह तो सरकार लोकसभा में अपने बहुमत के बूते और राज्यसभा में जोड़-तोड़ के सहारे पूरे कर लेती है।
हालांकि राज्यसभा में सरकार का बहुमत नहीं लेकिन वहां सरकार ने विपक्ष के संख्याबल से निबटने और विधेयक पारित कराने के लिए एक नया रास्ता खोज लिया है। कुछ क्षेत्रीय दलों को बहला कर तो कुछ को डरा कर अपने साथ कर लेती है। इसके अलावा हर सत्र सरकार के ओर से विपक्ष के कुछ सांसदों पर सदन की कार्यवाही को बाधित करने का आरोप लगा कर उन्हें एक सप्ताह अथवा पूरे सत्र के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव पेश किया जाता है, जो हो-हल्ले में ‘पारित’ हो जाता है और सभापति उन सांसदों को निलंबित करने का ऐलान कर देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि सरकार संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जिसमें वही पक रहा है जो सरकार चाह रही है।
पिछले कई सत्रों से यह भी देखने को मिला है कि सत्र निर्धारित समय से पहले समाप्त हुए हैं भले एक दिन पहले ही समाप्त हुआ लेकिन सत्र पहले समाप्त हुआ है। संसद सत्र का एक फीचर यह भी हो गया है कि विपक्षी पार्टियां संसद के परिसर में प्रदर्शन करती हैं और सरकार बिना बहस के बिल पास करा लेती है। सवाल है कि ऐसा सहज रूप से हो रहा है या इसके पीछे कोई राजनीति है? दिवंगत हो चुके भाजपा नेता अरुण जेटली विपक्ष में रहते हुए अक्सर कहा करते थे कि संसद को बाधित करना भी संसदीय राजनीति का एक तरीका है। पता नहीं, हर सत्र में जो गतिरोध बनता है और अभी जो टकराव चल रहा है वह विपक्ष की राजनीति का हिस्सा है या सरकार की राजनीति का?
वैसे संसद का हर सत्र शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री मोदी और उनके अन्य मंत्री कहते हैं कि सरकार हर मुद्दे पर बहस के लिए तैयार है, लेकिन जब सत्र शुरू होता है तो सरकार की यह तैयारी बिल्कुल भी नहीं दिखती। विपक्ष महत्वपूर्ण मसलों पर बहस की मांग करता रहता है और सरकार उसकी अनदेखी करते हुए अपने बहुमत के दम पर शोर-शराबे के बीच विधेयक पारित कराती रहती है। इसी सबके बीच प्रधानमंत्री विपक्ष के व्यवहार को अलोकतांत्रिक बताते रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि संसद को अप्रसांगिक बनाने वाले जितने काम पिछले नौ साल के दौरान हुए हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए।
नौ साल पहले प्रधानमंत्री का पद संभालते वक्त जब नरेंद्र मोदी ने संसद के प्रति सम्मान जताते हुए उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका था और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर संविधान के आगे शीश झुकाया था तो उनकी खूब वाह-वाही हुई थी, लेकिन आम तौर पर उनका व्यवहार उनकी उस भावना के विपरीत ही रहा है। खुद प्रधानमंत्री संसद सत्र के दौरान ज्यादातर समय संसद से बाहर ही रहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा में वे उसी दिन आते हैं जिस दिन उन्हें भाषण देना होता है। पिछले नौ साल के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले उन्होंने संसद की मंजूरी के बगैर ही किए हैं। कई कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू करने में अनावश्यक जल्दबाजी की है और कई विधेयकों, यहां तक कि संविधान संशोधन विधेयकों को भी स्थापित संसदीय प्रक्रिया और मान्य परंपराओं को नजरअंदाज कर बिना बहस के पारित कराया है।
संसद का मौजूदा मानसून सत्र 19 जुलाई को शुरू हुआ था। विपक्षी पार्टियां शुरू दिन से मणिपुर के मसले पर प्रधानमंत्री से बयान देने की मांग करती रहीं लेकिन बयान देना तो दूर प्रधानमंत्री संसद में आए ही नहीं। हंगामा होता रहा और सत्र के पहले सात दिन में सरकार ने लोकसभा से पांच और राज्यसभा से तीन विधेयक पास करा लिए। ये विधेयक देश के करोड़ों लोगों के जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर डालने वाले हैं। इनमें से सिर्फ एक विधेयक पर जरूर ढाई घंटे की चर्चा हुई, जबकि विधेयक नौ मिनट से लेकर 42 मिनट तक पारित हो गए। सरकार ने मल्टी स्टेट कोऑपरेटिव अमेंडमेंट बिल पास करा लिया और विपक्ष ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया।
सरकार ने वन संरक्षण (संशोधन) बिल पास करा लिया लेकिन विपक्षी पार्टियां संसद के बाहर प्रदर्शन करती रहीं। वन संरक्षण व आदिवासी अधिकारों के जानकारों का मानना है कि यह बिल आदिवासी अधिकारों को कम करेगा क्योंकि इसमें सरकारी परियोजनाओं के लिए बिना स्थानीय ग्राम सभा की मंजूरी के ही भूमि अधिग्रहण का प्रावधान है।
इसी तरह जन विश्वास अमेंडमेंट ऑफ प्रोविजन बिल, 2022 को सिर्फ 42 मिनट में लोकसभा से पास कराया गया। इस कानून में यह प्रावधान है कि घटिया या नकली दवा से मौत होने पर दवा कंपनियां जुर्माना चुका कर राहत हासिल कर सकेंगी। इसके अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण विधेयक भी लोकसभा और राज्यसभा में पारित हुए। इस दौरान विपक्षी पार्टियां मणिपुर के मसले पर विरोध प्रदर्शन करती रहीं या फिर दिल्ली के सेवा वाले विधेयक को लेकर रणनीति बनाती रहीं।
सरकार माइंस एंड मिनरल्स बिल लाने वाली है, जिसमें यह प्रावधान है कि वह जरूरी और कीमती माइंस एंड मिनरल्स की खदानें निजी क्षेत्र को दे सकती है। सरकार आईआईएम की स्वायत्तता घटाने का बिल भी ला रही है, जिसमें राष्ट्रपति को सभी आईआईएम का विजिटर बनाने का प्रस्ताव है और इसमें यह भी प्रावधान है कि सारे आईआईएम में नियुक्ति बोर्ड की बजाय राष्ट्रपति की मंजूरी से होगी। सरकार डाटा प्रोटेक्शन बिल लाने वाली है, जिससे सूचना के अधिकार पर प्रहार होना है। लेकिन ऐसा लग नहीं रहा है कि विपक्षी पार्टियां इन विधेयकों को लेकर जरा भी गंभीर हैं। वे अपने एकसूत्री एजेंडे के पीछे लगी हुई हैं।
दरअसल संसद की गरिमा और सम्मान तो इस बात में है कि उसकी नियमित बैठकें हों। उन बैठकों में दोनों सदनों के नेता ज्यादा से ज्यादा समय मौजूद रहे, विधायी मामलों की ज्यादा से ज्यादा चर्चा हो और आम सहमति बनाने के प्रयास हों। अगर आम सहमति नहीं बने तो ऐसे विषय संसदीय समितियों को भेजे जाएं और अगर राष्ट्रीय महत्व का कोई मुद्दा हो तो उस पर विचार के लिए दोनों सदनों की प्रवर समिति बने या संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। इन समितियों की नियमित बैठक हो और इन बैठकों में सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विषय के विशेषज्ञों की राय सुनें और वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी राय बनाएं।
उल्लेखनीय है कि इन संसदीय समितियों का काम कोई फैसला करना नहीं होता है, बल्कि जिन मसलों पर संसद में ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हो सकती, उन विषयों को या विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजा जाता है, जहां विषय के विशेषज्ञ उस मसले के बारे में समझाते हैं। उसके हर पहलू पर विचार किया जाता है। फिर उस आधार पर समिति एक रिपोर्ट तैयार करके संसद को देती है। अंतिम फैसला संसद को ही करना होता है। लेकिन मौजूदा सरकार ने इन संसदीय समितियों को लगभग अप्रासंगिक या गैरजरूरी बना दिया है।
अव्वल तो लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय की ओर से किसी न किसी बहाने समिति की बैठक ही नहीं होने दी जाती है। अगर किसी समिति की बैठक होती भी हैं तो उसके सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विचार नहीं करते हैं। सत्तापक्ष अपने बहुमत के दम पर संसद की स्थायी समितियों के काम में बाधा डालता है और रिपोर्ट मंजूर नहीं होने देता है। साल 2020 के बाद से संसद मे पेश किया गया कोई भी विधेयक संबंधित मंत्रालय की संसदीय समिति को नहीं भेजा गया था। इस साल भी अभी तक यही स्थिति है।
इसमे कोई संदेह नहीं है कि संसद का सुचारू संचालन सरकार की जिम्मेदारी होती है, लेकिन सरकार के साथ-साथ विपक्ष की भी कुछ जिम्मेदारी होती है। पता नहीं विपक्षी पार्टियां इस तथ्य को क्यों भूल जाती हैं कि चुनावों में जनता सिर्फ सरकार ही नहीं चुनती है, वह विपक्ष भी चुनती है। अगर उसकी चुनी सरकार की कुछ जिम्मेदारी है तो उसके द्बारा चुने गए विपक्ष की भी कुछ जिम्मेदारी बनती है। कोई एक मुद्दा चाहे वह कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, उस पर संसद को पूरे सत्र में ठप किए रखना किसी भी तरह से अच्छी संसदीय राजनीति नहीं कही जा सकती।
विपक्षी पार्टियों को सत्र से ठीक पहले ‘संयोग’ से उपलब्ध होने वाले या उपलब्ध कराए गए मुद्दों पर अड़े रहने की बजाय समग्रता में अपनी रणनीति बनानी चाहिए। मणिपुर के मुद्दे पर विरोध जारी रखते हुए भी विपक्षी पार्टियां सरकार की ओर से पेश किए जा रहे विधेयकों पर चर्चा में हिस्सा ले सकती है। विपक्ष के ऐसा नहीं करने से सरकार को अपनी मनमानी करने की खुली छूट मिली हुई है और वह इस तरह के कानून पारित करा रही है, जो देश के आम लोगों के हितों का हनन करने वाले हैं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
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