मोहन भागवत जी, आपके लिए रामंदिर प्राण प्रतिष्ठा दिवस (22 जनवरी) सच्ची स्वतंत्रता का दिवस होगा, हमारे लिए यह ब्राह्मणवाद के विजय, धर्मनिपेक्षता के अंत और संविधान पर सबसे बड़े हमले का दिवस है।
22 जनवरी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा और ब्राह्मणवादियों-हिंदुत्वादियों के लिए सच्ची स्वतंत्रता का दिवस हो सकता है, उनके लिए है भी, लेकिन इस देश के दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए और संविधान-लोकतंत्र को स्वीकार करने वालों के लिए 22 जनवरी (राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा दिवस) राष्ट्रीय शर्म और शोक का दिवस है।
किसी भी लोकतांत्रिक एवं आधुनिक मानस के व्यक्ति के लिए यह राष्ट्रीय शर्म एवं शोक का दिवस होना चाहिए। क्योंकि यह वह दिन है, जब भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता के झीने आवरण या मुखौटे का अंतिम संस्कार होगा गया था।
इसके साथ उसी दिन धर्मनिरपेक्षता के सभी मूल्यों को दफन कर दिया गया। राममंदिर के ध्वज की पताका फहराने के साथ ही भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का संघ (आरएसएस) का करीब 100 वर्षों का पुराना स्वप्न भी करीब-करीब पूरा हो गया। इस संदर्भ में मोहन भागवत का यह कहना सही है कि हर मनुवादी-ब्राह्मणवादी के लिए यह सच्ची स्वतंत्रता का दिवस है।
दशरथ पुत्र राम मनुवादियों-ब्राह्मणवादियों और हिंदुत्वादियों के लिए भारतीय सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक पुरूष हैं। इसलिए सभी ने एक स्वर से उनका गुणगान किया है।
उनको केंद्र में रखकर महाकाव्य और काव्य लिखे गए हैं, आधुनिक युग में रामचंद्र शुक्ल से लेकर आज तक के करीब सभी सवर्ण लेखक राम को अन्याय के प्रतीक के रूप में अपने महाकाव्य का नायक बनाने वाले तुलसी दास को महाकवि या महान कवि के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
कुछ वर्ष पहले रामचरित मानस पर बहस के दौरान उनका यह रूप खुलकर सामने आया था। लेकिन दलित-बहुजन (बहुजन-श्रमण) के लिए दशरथ पुत्र राम ब्राह्मणवाद, ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठता, वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की स्थापना के प्रतीक पुरूष हैं।
जहां बहुलांश सवर्ण राम को न्याय का प्रतीक बनाते हैं, वहीं बहुजन उन्हें अन्याय का प्रतीक। बहुजन नायकों ने दशरथ पुत्र राम को आर्य श्रेष्ठता, ब्राह्मण श्रेष्ठता, पुरूष श्रेष्ठता के प्रतीक पुरूष के रूप में ही देखा है।
पेरियार अपनी किताब ‘सच्ची रामायण’ में राम को आर्य श्रेष्ठता, ब्राह्मण श्रेष्ठता, पुरूष श्रेष्ठता और दक्षिण पर आर्य पट्टी (हिंदी पट्टी) के वर्चस्व के उपकरण के रूप में देखा है। उन्हें ईश्वर, महापुरूष तो छोड़िए एक बेहतर इंसान मानने से इंकार कर दिया है। बल्कि उन्हें एक अन्यायी और अत्याचारी के रूप में चित्रित किया है।
यही स्थिति आंबेडकर की भी है। उन्होंने अपनी किताब ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ में एक अध्याय ‘राम की पहेली’ लिखी है, जिसमें उन्होंने रामकथा और राम के चरित्र पर विस्तार से लिखा है।
उन्होंने दशरथ पुत्र राम के आचरण के आधार पर यह साबित किया है कि वे किसी भी तरह मर्यादा पुरूषोत्तम या महान नायक कहे जाने योग्य नहीं है। उनकी 22 प्रतिज्ञाओं में पहली और दूसरी प्रतीज्ञा राम को पूरी तरह इंकार और अस्वीकार करने की है।
रामकथा के बारे में ई.वी.रामसामी पेरियार, डॉ. आंबेडकर, पेरियार ललई सिंह यादव, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, अमर शहीद जगदेव प्रसाद, संतराम बी.ए., मोतीराम शास्त्री, रजनीकांत शास्त्री, भदन्त आनंद कौशल्यायन, कंवल भारती और तुलसीराम आदि चिंतकों-लेखकों ने विस्तार से लिखा है।
इन सभी ने एक स्वर से रामायण और राम को शूद्रों (पिछड़ों), अतिशूद्रों (दलितों), महिलाओं और आदिवासियों पर वर्चस्व कायम करने की विचारधारा वाला काल्पनिक चरित्र और ग्रंथ कहा है तथा यह भी बताया है कि कैसे अनार्यों को ही राक्षस-राक्षसी कहकर राम ने उनका कत्लेआम किया।
पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’, डॉ. आंबेडकर ने ‘राम और कृष्ण की पहेली’ (‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ किताब में), स्वामी अछूतानंद ने ‘रामराज्य न्याय’, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने ‘ईश्वर और उनके गुड्डे’, पेरियार ललई सिंह यादव ने ‘शंबूक बध’, मोतीराम शास्त्री ने ‘रावण तथागत’, रजनीकांत शास्त्री ने ‘हिंदू जाति का उत्थान और पतन’, भदन्त आनंद कौशल्यायन ने ‘राम की कहानी राम की जुबानी’, कंवल भारती ने ‘त्रेता युग का महा हत्यारा’, और तुलसीराम ने ‘क्या अयोध्या बौद्ध नगरी थी?’ में रामकथा व राम के पिछड़े, दलित, आदिवासी तथा महिला विरोधी चरित्र को उजागर किया है।
मोहन भागवत भी राममय भारत के निर्माण का आह्वान करते हैं, जिसके मायने आर्य श्रेष्ठता, ब्राह्मण श्रेष्ठता, द्विज श्रेष्ठता, मर्द श्रेष्ठता के विचार और दक्षिण पर हिंदी पट्टी के वर्चस्व को स्थापित करना ही है। इस जीत को उन्होंने भारत की सच्ची स्वतंत्रता कहा है।
यह सच में उनके लिए सच्ची स्वतंत्रता है, क्योंकि उनके आनुषांगिक संगठनों (भाजपा आदि) ने भारतीय राज्य और संविधान पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है।
22 जनवरी न केवल दलित-बहुजनों के लिए पराजय और शोक का दिवस है, बल्कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी दोयम दर्जे का ठहराने का दिवस है। उनसे उनके संवैधानिक अधिकारों के छीनने का दिवस है।
इस दिन अंतिम तौर पर देश के मुसलमानों को यह बता दिया जाएगा कि यह देश हिंदुओं का देश है, आप दोयम दर्जे के नागरिक हैं और आपको हिंदुओं के रहमो-करम कर जीने के लिए पूरी तरह तैयार हो जाना चाहिए।
कोई पूछ सकता है कि भाई जिस दिन सुप्रीमकोर्ट ने हिंदू बहुमत की आस्थाओं का ख्याल करते हुए मंदिर बनाने के पक्ष में निर्णय दे दिया था, उसी दिन उस कोर्ट ने संविधान के धर्मनिरपेक्षता के मूल्य की ऐसी-तैसी कर दी थी।
इस पूरे मामले में सबसे शर्मनाक यह था कि धर्मनिरपेक्षता के इस अंतिम संस्कार में भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया भूमिका। कार्यपालिका के प्रधान के तौर पर प्रधानमंत्री ने धर्मनिरपेक्षता का यह अंतिम संस्कार खुद अपने हाथों संपन्न किया था।
सर्वोच्च न्यायपालिका तो हिंदू बहुमत की आस्थाओं का ख्याल करते हुए बाबरी मस्जिद को राममंदिर घोषित करके हिंदू राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य पहले ही कर चुकी थी, और मीडिया का जश्न तो देखते ही बन रहा था।
सर्वोच्च न्यायालय ने आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भाजपा के इस तर्क के आगे घुटने टेक दिए कि “बाबरी मस्जिद ही रामजन्मभूमि है या नहीं, यह प्रश्न तथ्य एवं तर्क का प्रश्न नहीं, बल्कि हिंदुओं की आस्था का प्रश्न है।”
9 नवबंर 2019 को पांच न्यायाधीशों की बेंच ने सर्वसम्मति से कहा कि “हिंदू श्रद्धालुओं की आस्था और विश्वास के अनुसार विवादित स्थल भगवान राम का जन्मस्थान है।”
अपने निर्णय का आधार अदालत ने दस्तावेजों और मौखिक प्रमाणों को बनाया। अदालत ने कहा कि “इसलिए अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिंदुओं की यह आस्था और विश्वास है कि मस्जिद और उससे संबंधित अन्य चीजों के बनने से पहले यह स्थान भगवान राम का जन्मस्थान रहा है, जहां बाबरी मस्जिद बनाई गई। हिंदुओं की यह आस्था और विश्वास दस्तावेजों और मौखिक प्रमाणों से पुष्ट होता है।”
ज्यादातर दस्तावेजी प्रमाणों के रूप में धार्मिक ग्रंथों को प्रस्तुत किया गया है और हम सभी जानते हैं कि मौखिक प्रमाणों की जमीनी मालिकाने के हक का निर्धारण करने में कोई भूमिका नहीं होती है।
लेकिन अदालत ने मुख्य धार्मिक ग्रंथों के दस्तावेजी प्रमाणों और अप्रासंगिक मौखिक प्रमाणों को ठोस सबूत मानते हुए हिंदुओं की इस आस्था एवं विश्वास को सही ठहराया कि सन् 1527 में बनी बाबरी मस्जिद स्थल ही भगवान राम का जन्मस्थान है और इस तरह हिंदू राष्ट्र की परियोजना के सामने घुटने टेक दिए या राम जी के सामने साष्टांग हो गए।
वैसे यह सबकुछ नया भी नहीं हैं। बाबरी मस्जिद में रातों-रात मूर्तियां रखने (22 दिसंबर 1949), ताला खोलने (1986), शिलान्यास की इजाजत (1989) देने और मस्जिद तोड़ने (6 दिसंबर 1992) में करीब-करीब कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सभी किसी न किसी रूप में अपनी-अपनी भूमिका निभाती रही हैं।
नेहरू युग में मूर्ति रखी गई, राजीव गांधी की ताला खुलवाने और शिलान्यास की इजाजत देने में अहम भूमिका रही है, संघ-भाजपा के गुंडों ने मस्जिद तोड़ी और कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की मौन सहमति ने इसे अंजाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। इस सब का जश्न मीडिया के बहुलांश हिस्से ने मनाया और न्यायपालिका ने भी अपनी भूमिका चढ़-बढ़ कर निभाई।
सच तो यह है कि बाबरी मस्जिद का धीरे-धीरे राममंदिर बनते जाना और अंत में बाबरी मस्जिद का नामोनिशान मिट जाना भारतीय लोकतंत्र के हिंदू राष्ट्र बनने की यात्रा के विविध पड़ाव रहे हैं, जिसकी अंतिम मंजिल है उस जगह पर भव्य राममंदिर के निर्माण लिए गाजे-बाजे के साथ राष्ट्रीय स्तर पर जश्न मनाते हुए 22 जनवरी की प्राण प्रतिष्ठा थी।
भले ही यह तथ्य कितना भी डरावना एवं दुखद लगे, लेकिन सबसे भयावह एवं शर्मनाक यह है कि बाबरी मस्जिद को धीरे-धीरे राममंदिर में बदलने की 74 वर्षों की यात्रा को भारतीय जनता के भी एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त होता रहा है और आज भी प्राप्त है।
भाजपा के उभार, विस्तार और भारी बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने में राममंदिर आंदोलन की एक अहम भूमिका रही है। जनता का यह बहुमत कैसे और किस तरह प्राप्त किया गया है, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन कड़वा सत्य यही है कि जिस जनता में भारत की संप्रभुता निहित है और जिसके भरोसे लोकतंत्र के कायम रहने की उम्मीद की जाती है, उसके भी एक बड़े हिस्से का समर्थन और सक्रिय सहयोग धर्मनिपेक्षता के अंतिम संस्कार को प्राप्त हुआ।
शर्म और शोक का एक अन्य कारण यह है कि राममंदिर प्राण-प्रतिष्ठा दिवस, इस देश को प्रगतिशील, आधुनिक, लोकतांत्रिक और समता आधारित धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के स्वप्न की भारी पराजय का दिवस था।
यह पराजय कितनी तात्कालिक या दीर्घकालिक है, यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सच यह है कि आधुनिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित धर्मनिरपेक्ष भारत की परियोजना का फिलहाल अंत हो गया है।
इसका प्रमाण यह है कि देश की सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का हिंदूकरण हो चुका है और सभी ने बहुसंख्यकवाद की हिंदू परिजोयजना के सामने समर्पण कर दिया है। इसमें सत्ताधारी दल के साथ विपक्षी पार्टियां, बौद्धिक वर्ग का बड़ा हिस्सा, सर्वोच्च न्यायालय और मीडिया भी शामिल है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तो हिंदू राष्ट्र का भोंपू ही बन गया है।
इसका निहितार्थ यह भी है कि आधुनिक लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न देखने वाले उदारवादी, वामपंथी और बहुजन-दलित संगठनों-पार्टियों एवं समूहों की वैचारिक एवं राजनीतिक धाराएं फिलहाल पराजित हो चुकी हैं और हिंदुत्व के अश्वमेध का घोड़ा बेलगाम अपने विजय-अभियान पर निकला हुआ है।
फिलहाल अभी तो कोई उसकी नकेल कसने वाला दिखाई नहीं दे रहा है और यह घोड़ा सबको रौंदता हुआ आगे बढ़ रहा है और अधिकांश ने उसके सामने समर्पण कर दिया है।
ऊपर हिंदू राष्ट्र को मुसलमानों के संदर्भ में देखने का मतलब यह नहीं है कि मैं हिंदू राष्ट्र के असल निहितार्थ से मुंह मोड़ रहा हूं या उसके असल सच पता नहीं है। मेरे लिए हमेशा हिंदू राष्ट्र का मतलब सर्वण हिंदू मर्दों का राष्ट्र रहा है, जिसे मैं ब्राह्मणवादी-वर्ण-जातिवादी एवं पितृसत्तावादी राष्ट्र कहता हूं।
मुसलमानों एवं ईसाइयों के प्रति हिंदू राष्ट्रवादियों की घृणा हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है। सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उतना ही वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है।
यह उन आदिवासियों के लिए भी उतना ही खतरनाक है, जो अपने प्राकृतिक धर्म का पालन करते हैं और काफी हद तक समता की जिंदगी जीते हैं, जिनका हिंदूकरण करने और वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की असमानता की व्यवस्था के भीतर जिन्हें लाने की कोशिश संघ निरंतर कर रहा है। यह उसके हिंदू राष्ट्र की परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
इसीलिए डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म पर टिके हिंदू राष्ट्र को हर तरह की स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा मानते थे और इसे पूर्णतया लोकतंत्र के खिलाफ मानते थे।
डॉ. आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निहितार्थ शूद्रों-अतिशूद्रों (आज के पिछड़ों-दलितों) पर द्विजों के वर्चस्व और नियंत्रण को स्वीकृति और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व और नियंत्रण को मान्यता प्रदान करना है। दशरथ-पुत्र राम सवर्ण हिंदू मर्दों के हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक पुरुष हैं।
संघ के हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना के नायक राम हिंदू राष्ट्र के आधार स्तंभ हैं। राममंदिर आंदोलन का रथ हिंदू राष्ट्र के निर्माण का आंदोलन साबित हुआ। उसने जहां एक ओर भाजपा को चुनावी सफलता दिलाई, वहीं दूसरी ओर दलित-बहुजनों के उभार को नियंत्रित करने और उनका हिंदुत्वीकरण करने में मदद किया।
मंडल की राजनीति को नियंत्रित करने में कंमडल की राजनीति ने एक अहम भूमिका अदा किया। राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से भाजपा ने कई निशाने एक साथ साधे।
इस पूरे शोरगुल में कब देश को कार्पोरेट के हवाले कर दिया गया, यह गंभीर बहस-विमर्श का विषय नहीं बन पाया। राममंदिर का भूमिपूजन इन सभी विजयों का शंखनाद है।
अकारण नहीं है कि जय श्रीराम का नारा भारत की सत्ता पर द्विजों के कब्जे का नारा बन गया है। इस नारे के माध्यम से संघ-भाजपा ने हिंदू राष्ट्र की अपनी कल्पना को साकार किया है। यह प्रच्छन्न तौर पर ब्राह्मणवाद, वर्ण-जाति व्यवस्था और स्त्रियों पर पुरुषों के प्रभुत्व का नारा भी बन गया है।
इस नारे ने गैर-हिंदुओं (मुसलमानों-ईसाइयों) को आधुनिक युग का राक्षस यानि म्लेच्छ घोषित कर दिया है और उनके सफाए के घोषित या अघोषित अभियान को राष्टीय गौरव और हिंदू स्वाभिमान के साथ जोड़ दिया है।
इस नारे के साथ ही बाबरी मस्जिद तोड़ी गई; इसी नारे के साथ गुजरात नरसंहार, मुजफ्फरनगर के दंगे और मुस्लिम महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और आज भी इसी नारे के साथ मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों की मॉब लिंचिंग की जाती है।
दशरथ-पुत्र राम का मिथक अपने जन्म के साथ ही अपने से भिन्न जीवन पद्धतियों के लोगों को अनार्य, असुर और राक्षस ठहराकर उनकी हत्या को प्रोत्साहित और गौरवान्वित करता रहा है। यह नारा हर आधुनिक मूल्य का विरोधी है।
निष्कर्ष रूप में यह कहना है कि राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा आधुनिकता का सबसे बुनियादी लक्षण है-आस्था पर तर्क की जीत। यदि किसी समाज में व्यापक पैमाने और शीर्ष स्तर पर तर्क की जगह आस्था जीत रही है, तो यह तथ्य इस बात का सबूत है कि समाज मध्यकालीन अंधकार युग की ओर बढ़ रहा है।
यदि यह परिघटना किसी लोकतांत्रिक देश की शीर्ष संस्थाओं के स्तर पर घटित हो रही है, तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि उस देश ने आधुनिकता, वैज्ञानिकता, तर्कशीलता, सहिष्णुता और भाईचारे का पथ छोड़कर आस्थाजनित और घृणा-आधारित मध्यकालीन बर्बरता के मूल्यों को चुन लिया है।
भारत के मध्यकालीन बर्बरता के युग में प्रवेश पर शर्म करने और दुख प्रकट करने के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।
सच में 22 जनवरी आरएसस और उसके आनुषंगिक संगठनों के लिए सच्ची स्वतंत्रता का दिवस है, लेकिन बहुजनों के लिए यह ब्राह्मणवाद-मनुवाद के विजय का दिवस है। दशरथ पुत्र राम मनुवाद-ब्राह्मणवाद के प्रतीक पुरूष हैं।
बहुजनों को तो 22 जनवरी को राष्ट्रीय शर्म एवं शोक के दिवस के रूप में मनाना चाहिए।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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