हिंदी पट्टी के सवर्ण राष्ट्रवाद के चश्में से दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और दक्षिण भारत को न देखें

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क्या देश में हिंदुत्व नव-राष्ट्रवाद समग्र भारत का ‘स्थायी भाव व चरित्र’ बन चुका है? क्या हिंदी भारत में राजनैतिक हिंदुत्व उफान को शेष देश का भी हिंदुत्व उफान माना जाना चाहिए? क्या सांप्रदायिकता के सांचे में देश का बहुसंख्यक समाज ढल चुका है? और क्या भारतीय राज्य की परिवर्तित राजनैतिक आर्थिकी का तथाकथित नव-राष्ट्रवाद व भाषा के साथ कोई रिश्ता नहीं है?

ये चंद सवाल हैं जिनकी दिमाग़ पर दस्तकें गोष्ठी में रह रह कर सुनाई दे रही थीं। 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती के अवसर पर मासिक पत्रिका हंस ने ‘नव-राष्ट्रवादी दौर में भाषा’ विषय पर गोष्ठी का आयोजन किया था। वक्ता थे भाषा शास्त्री गणेश देवी, वैज्ञानिक और एक्टिविस्ट गौहर रज़ा, इतिहासकार सुधीरचंद और शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार। विभिन्न क्षेत्रों के चारों वक्ताओं ने निर्धारित विषय पर अपने अपने अंदाज़ में राष्ट्रवाद, नव-राष्ट्रवाद, भाषा और वर्तमान यथार्थ पर विचार रखे। विषय के साथ न्याय करने की कोशिश भी की।

निश्चित ही गणेश देवी व रज़ा के विचार अपेक्षाकृत अधिक साफगोई वाले और मारक थे। जनता की मनोदशा और मौज़ूदा राजनैतिक दौर की गूंजें दोनों के व्याख्यानों में थीं। लेकिन, इस लेखक को यह एहसास शिद्दत के साथ झकझोर रहा था कि हिंदी भारत के कुछ प्रदेशों में राजनैतिक हिंदुत्व के उफान को स्थायी भाव और राष्ट्रवाद व नव-राष्ट्रवाद के रूप में पेश किया जा रहा है। हिंदी भारत के बौद्धिक इस दंभ से ग्रस्त हैं कि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों के राजनैतिक परिवर्तन ही शेष भारत का यथार्थ हैं। हिंदी क्षेत्रों द्वारा प्रतिपादित व निर्धारित राष्ट्रवाद या तथाकथित नव-राष्ट्रवाद शेष देश के मार्गदर्शक हैं। हिंदी राज्यों की सांप्रदायिकता ही शेष भारतीय हिन्दू समाज का सामाजिक+सांस्कृतिक+ राजनैतिक यथार्थ है।

हिंदी भारत की विकृत व कुत्सित प्रवृत्तियों का दक्षिण, पश्चिम और उत्तर-पूर्व भारत में ‘प्रवृत्ति निर्यात’ को व्यापक स्तर पर प्रसारित व प्रचारित किया जाता है। पिछले एक दशक में राज्य के संरक्षण में निर्यात की गति निश्चित ही तेज़ हुई है। लेकिन, इस कारोबार में राज्य के राजनैतिक कारिंदे जितने सक्रिय हैं, उससे कम अधिक हिंदी बुद्धिजीवी भी नहीं हैं। इतिहास की चंद घटनाओं और इक्के-दुक्के बुद्धिजीवियों की कृतियों के माध्यम से हिंदीदां बुद्धिजीवी (इतिहासकार, समाजशास्त्री, लेखकगण आदि) यह प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं कि ‘बहुसंख्यकवाद’ और ‘राष्ट्रवाद’  भारतीय मानस के अवचेतन में था जोकि इस दौर में चेतन में आ गया है, जिसका अवतार है  ‘नव-राष्ट्रवाद’। 

हिंदी पट्टी के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रतिपादित यह अवधारणा सरासर एक ‘प्रायोजित मिथ’ है जिसे गैर-हिंदी भारत पर सुनियोजित तरीक़े से थोपा जा रहा है। क्या उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत और उत्तर-पूर्व भारत में राष्ट्रवाद और नव-राष्ट्रवाद को लेकर तीखी बहसें सुनाई देती हैं? बिलकुल नहीं। एक सहज भाव से दक्षिण भारत चलता आ रहा है। यही चलन उत्तर-पूर्व में भी रहा है। लेकिन, राज्य द्वारा प्रायोजित-संरक्षित हिंदुत्ववादी शक्तियां गैर-उत्तर भारतीय प्रदेशों के परम्परागत ‘सहज-स्वाभाविक भाव’ को विखण्डित करने की कोशिशें ज़रूर करती रहती हैं। इन राज्यों में हिंदी भारत की प्रभुत्ववादी धार्मिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक और राजनैतिक अवधारणाओं को फैलाया जाता है। इन अवधारणाओं में मिश्रित रहता है आक्रामक नव-राष्ट्रवाद व हिन्दुत्ववाद।

जब राजनैतिक अखाड़े में केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध प्रदेश में उत्तर भारत का हिंदुत्व चारों खाने चित हो जाता है तब राष्ट्रवाद, देशद्रोह और सांप्रदायिकता के शस्त्रों का सहारा लिया जाता है। देश में ’उत्तर हिंदी भारत केंद्रित राष्ट्रवाद‘ का मिथ गढ़ा जाता है। इस मिथ को हिंदीजीवी बुद्धिजीवी एक वर्तमान यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करने लग जाते हैं। यहीं से अनेक समस्याएं पैदा होने लगती हैं। याद रखना चाहिए, हिंदी भारत का अवचेतन-चेतन मानस और हिंदीतेर भारत का अवचेतन-चेतन मानस समान रहे, ऐसी सोच या अवधारणा नितांत अवैज्ञानिक होगी। लेकिन, यह अवैज्ञानिकता हिंदी भारत के बौद्धिक मानस में गहरे तक फैली हुई है।

सवर्णवादी (अब नवसवर्णवादी) चश्मे से राष्ट्रवाद या नव-राष्ट्रवाद को देखा जाता है। यह मान लिए जाता है कि सवर्णवादी कसौटियां हीं गैर-सवर्ण भारत (दलित, पिछड़े और आदिवासी) की कसौटियां हैं। यह भी एक प्रकार से औपनिवेशिक मानसिकता का उत्तर औपनिवेशिक भारतीय मानसिकता का ही संस्करण हैं। हो सकता है कतिपय क्षेत्र उत्तेजित हों, लेकिन क्या दलित जातियां सवर्णों के ‘सामाजिक-आर्थिक उपनिवेश’ नहीं रहे हैं? इसी तरह, क्या आदिवासी भी तथा कथित मुख्यधारा के ‘आर्थिक उपनिवेश’ नहीं रहे हैं या नहीं हैं? क्या कभी राजनीतिक शास्त्रियों और इतिहासकारों ने इस असली भारत की नज़र से ‘राष्ट्र’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘नव-राष्ट्रवाद’ को देखने की कोशिश की है? हाशिये की मानवता का ‘राष्ट्रबोध’ और ‘राष्ट्रवाद बोध’ कैसा है, इसे समझा गया है? नहीं। 

अध्ययनों में उपलब्ध अधिकांश सन्दर्भ सामग्री सवर्ण भारत की बौद्धिक उपलब्धियों के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है। हिंदी भारत के  हाशिये के लोग गीता प्रेस गोरखपुर का साहित्य कितना पढ़ते हैं, कितना गीता-रामायण पढ़ते हैं, क्या हिंदी के समाज वैज्ञानियों के पास इसका कोई तुलनात्मक प्रामाणिक आंकड़ा है? इसी से जुड़ा सवाल यह भी है कि हिंदुत्व के सूत्रधार कौन लोग हैं? नव-राष्ट्रवाद में गुंजित हिंदुत्व या हिंदुत्व का प्रतिनिधि नव-राष्ट्रवाद के एंकर कौन हैं? निश्चित ही, हिंदुत्व और नव-राष्ट्रवाद की कमान दलित और आदिवासियों के हाथों में नहीं हैं। नवसवर्णों के पास है। फिर क्या अत्यंत सूक्ष्म वर्ग (सवर्ण 10 -12 ) के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रतिपादित मानदंडों को देश के शेष बहुसंख्यक समाज पर आरोपित करना कितना तर्कसंगत व न्यायसंगत होगा?

बेहतर होता, यदि इस गोष्ठी में दलित व सबलटर्न समाजों के बुद्धिजीवियों की शिरकत भी रहती। राष्ट्रवाद व भाषा के संबंध में वंचित-उत्पीड़ित समाजों की मानवता क्या सोचती है, यह भी ज्ञात हो जाता। अचेतन और सचेतन को लेकर एक बात और। सवर्ण अवचेतन-सचेतन और असवर्ण अवचेतन-सचेतन में परम्परागत विषमता रहती आई है। दोनों सामाजिक वर्गों की बोध-अवस्था का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। किस वर्ग में पहले राष्ट्रवाद जगा, किसमें बाद में, इतिहास से इसकी गवाही मिल जाती है। लेकिन, आज यह मान लेना कि सचेतन में सीमान्त मानवता भी हिंदुत्ववादी या नव-राष्ट्रवादी बन गई है, ऐसा निष्कर्ष सरासर गलत होगा।

हालांकि, हिंदुत्व के पेरोकारों द्वारा यह मिथ गढ़ा जा रहा है कि वंचित समाज भी हिंदुत्व के रंग में ढल चुका है। यह सच है कि गुजरात के 2002 के दंगों में कुछ दलित और आदिवासी सक्रिय थे। लेकिन, बाद में हिंसा से अलग हो गए। इतना ही नहीं, सवर्णों ने दलितों पर अत्याचार भी किए हैं। इसलिए, गोष्ठी में इस मानवता के प्रतिनिधित्व के होने से सन्देश जाता और ज़मीनी यथार्थ का पता भी चलता। सामाजिक वर्गीय दृष्टि से गोष्ठी में विचारों का एकांगी फ़लक़ ही नज़र आया। अलबत्ता गौहर रज़ा और देवी ने कुछ अलग ज़रूर कहा। लेकिन, सुधीर चंद्र और कृष्ण कुमार से ऐसा कुछ सुनने को नहीं मिला जिसमें झकझोरने वाली नवीनता रहे।

गोष्ठी की एक बात और अखरी है। किसी भी वक्ता ने नव-राष्ट्रवाद के दौर में भाषा को आर्थिक दृष्टि से नहीं समझाया। याद रखना चाहिए, राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और भाषा के संबंधों के निर्धारण में  राज्य की समकालीन राजनीतिक आर्थिकी (political economy) भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह अकारण नहीं है कि 2014 से मोदी-शासन काल में कॉर्पोरेट पूंजीवाद का अष्टभुजी विस्तार हुआ है। निजीकरण का फैलाव और सार्वजनिक क्षेत्रों का सिमटना हुआ है। इसी दौर में हिंदुत्व-शक्तियों का विस्फोट भी हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि कॉर्पोरेट पूंजीवाद और हिन्दुत्ववाद के मध्य किसी स्तर पर गठजोड़ है। इस गठजोड़ की कोख से जन्म लेते हुए दिखता है नव-राष्ट्रवाद का संजाल।

यदि पूंजी को राज्य द्वारा प्रेरित-संरक्षित धार्मिक-मज़हबी संरक्षण मिलता है तो इससे उसका मार्ग सुगम हो जाता है। वह आसानी से अपना विस्तार करती है। राष्ट्रवाद ‘हम और वो’ में विभाजित हो जाता है। ‘वो’ दोयम दर्ज़े के नागरिक बन जाते हैं। उनकी आर्थिक नाकेबंदी या बहिष्कार होने लगता है। और इसी संरक्षण में पूंजीवाद के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। पिछले नौ सालों में पूंजी का एकाधिकारवादीकरण ही हुआ है, और वहीं धर्म-सत्ता का भी। यदि राज्य की राजनीतिक आर्थिकी सामंजस्यवादी है तो  कट्टर धार्मिकता सुप्त रहेगी। ‘हम और वो’ की गरम हवाएं नहीं चलेंगी। नव-राष्ट्रवाद का अस्तित्व दिखाई नहीं देगा। इसलिए राजनीतिक आर्थिकी की भूमिका को कमतर नहीं समझा जाना चाहिए। राज्य की राजनीतिक आर्थिकी के महत्व से हिंदी क्षेत्र के अधिकांश बुद्धिजीवी अपरिचित हैं या परहेज़ करते हैं। बेहतर रहता, गोष्ठी में इस पहलू पर भी फोकस डाला जाता।

और अंत में,

राष्ट्रवाद कहें या नव-राष्ट्रवाद, दोनों का क्लाइमेक्स है राजसत्ता की प्राप्ति। इस दृष्टि से देखें तो हिंदुत्ववादी शक्तियों को आंशिक सफलता (37-38 % मत) मिली है। लेकिन, क्या यह स्थायी सफलता है? क्यों भूल जाते हैं, भाजपा उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों (दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में हारी है। चुनावों के एक बरस बाद भाजपा ने मध्य प्रदेश में तोड़फोड़ की और कांग्रेस की सरकार को ले भागी। इसी तरह हरियाणा में भी वह अपने दम पर नहीं है। यही करिश्मा उसने महाराष्ट्र में किया है। यह मान बैठना कि सम्पूर्ण हिंदी भारत में नव-राष्ट्रवाद का सैलाब आया हुआ है, सच के साथ सरासर नाइंसाफी होगी।

यह ठीक है, उत्तर प्रदेश में आक्रामकता बढ़ी है। लेकिन, इस सच्चाई को भी याद दिलाना समीचीन रहेगा कि तीन काले कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मोदी-राज को मज़बूर होना पड़ा था क्योंकि 2022 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे। यदि, उत्तर प्रदेश में  हिन्दुत्वजनित कोई -सा भी राष्ट्रवाद का प्रभुत्व रहा होता तो प्रधानमंत्री मोदी किसानों के सामने झुकते नहीं और कानूनों को वापस नहीं लेते। जबकि, तीनों क़ानून कॉर्पोरेट पूंजीवाद (अम्बानी घराना) को मज़बूत करने वाले थे। पिछले दिनों विपक्ष के 26 दलों का   महागठबंधन ’इंडिया’ अस्तित्व में आया। भाजपा घबरा उठी, बल्कि बौखला उठी। मोदी-नेतृत्व में आनन-फानन में 38 दलों की बैठक कर डाली। छोटे-से-छोटे दल से एनडीए की तोंद को फुला दिया।

यदि हिंदुत्व जाया राष्ट्रवाद या इसकी नई शाखाओं के टिकाऊपन से वह आश्वस्त रहती तो मोदी-शाह राजसत्ता राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक गठबंधन का बेमेल फैलाव नहीं करती। वह अपने ही दम पर अगले वर्ष चुनाव-समर में उतरती। लेकिन, वह जानती है कि उसका राष्ट्रवाद सर्वकालिक व सार्विक नहीं है। एक जेन्युइन राष्ट्रवाद नहीं है, मिथ है। इसलिए, चुनाव में उसे छोटी-मोटी-बड़ी बैसाखियों की आवश्यकता होगी। लेखक की समझदारी है कि हिंदी बुद्धिजीवियों को ‘कृत्रिम राष्ट्रवाद का मिथ’ गढ़ने से बचना चाहिए। वरना, उन्हें इतिहास  में ‘फेंस सीटर’ कहा जायेगा।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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