Saturday, April 27, 2024

पतन के अपने चरम पर पहुंच गयी है हिंदी पट्टी

एक स्वस्थ समाज या देश के लिए चार तत्व ज़रूरी हैं: “ बुद्धिमत्ता, साहस, अनुशासन और न्याय”। (प्लेटो:रिपब्लिक )

आज भारतीय समाज, विशेषतः उत्तर भारतीय बहुसंख्यक समाज, चरम विरोधाभास, विद्रूपता, मध्ययुगीनता, पाखण्ड जैसी प्रवृत्तियों की गहरी गिरफ़्त में है; एक तरफ हाई-टेक या उच्चतम टेक्नोलॉजी का विस्फोट है, वहीं  नवसवर्ण आक्रामक मानसिकता का भी ज्वार उमड़ा हुआ है; एक ओर नये भारत-आत्मनिर्भर भारत और विश्वगुरु -महत्वाकांक्षा का बिगुल गुंजायमान है, वहीं अखंड भारत, हिन्दू राष्ट्र और हिंदुत्व का शंखनाद चारों दिशाओं में सुनाई दे रहा है; और एक तरफ गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, टेसला के मालिकों- शिखर अधिकारियों से बात की जाती है, वहीं भव्य धार्मिक अनुष्ठानों के साथ नए संसद भवन का उद्घाटन और मध्ययुगीन मानसिक-मूल्यों व यथास्थितिवाद के पोषक गीता प्रेस गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार भी दिया जाता है। 

इन प्रतिगामी- विनाशक प्रवृत्तियों के विद्रूप कोलॉज़ की ‘आक्रामक चमक’ भाजपा कार्यकर्ता प्रवेश शुक्ला की लघुशंका में दिखाई देती है। मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले के प्रवेश शुक्ला ने एक आदिवासी युवक पर सरेआम पेशाब करके अपनी जातीय श्रेष्ठता व प्रभुत्व का निर्लज्जता के साथ प्रदर्शन किया था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने निवास पर उक्त पीड़ित युवक आदिवासी के चरण धोकर और कृष्ण मित्र ‘सुदामा’ की पदवी से नमाज़ कर अपने दल के शुक्ला के पाप व कानूनी अपराध के प्रक्षालन की कोशिश ज़रूरी की। प्रवेश शुक्ला को गिरफ्तार भी किया गया।

वास्तव में, व्यक्ति के रूप में युवक प्रवेश शुक्ला नगण्य है। लेकिन, दो कारणों के आधार पर वह हमें अपनी विशिष्टता का बोध भी कराता है। पहला, वह सवर्ण वर्ग और ब्राह्मण जाति से है; दूसरा, वह शासक दल भारतीय जनता पार्टी का सदस्य व स्थानीय भाजपा विधायक केदारनाथ शुक्ला का कथित प्रतिनिधि है। इतना ही नहीं, प्रवेश शुक्ला ज़िले के कुछवाही मंडल युवा विंग का उपाध्यक्ष भी है। इससे स्वतः स्पष्ट है कि युवा शुक्ला का मानस जाति और दल सापेक्ष है। किसी भी व्यक्ति के मानस या बोध व क्रिया जगत के गढ़ने में परिवार व संपर्क- समाज और विचारधारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किसी व्यक्ति या इंसान के विचार व कर्म जगत का निर्माण शून्य में नहीं होता है।

उसे सांचा विशेष में ढालने के लिए परिवार के साथ बाह्य सामाजिक -सांस्कृतिक-आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों का गहरा योगदान भी रहता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि प्रवेश शुक्ला का वैयक्तिक इकाई के रूप में महत्व नहीं है। यदि वह एक सामान्य नागरिक और गैर-सवर्ण वर्ग से रहता, तो उसके कृत्य की पड़ताल के औज़ार भी दूसरे रहते। लेकिन वह एक ऐसी जातीय पृष्ठभूमि से है जिसकी मिथकीय व ऐतिहासिक भूमिका समतावादी नहीं रही है, अन्यायपूर्ण रही है। इस भूमिका ने समाज में जाति-श्रेणीतंत्र व विषमता को जन्म ही नहीं दिया है बल्कि इसके दुर्ग को मज़बूत भी किया है। यह कारोबार आज भी बेसाख़्ता ज़ारी है। 

हाशिया ग्रस्त आदिवासी युवक पर प्रवेश शुक्ला द्वारा पेशाब विसर्जन एक एकाकी या अपवाद-घटना नहीं है। इसकी जड़ें दूर-दूर तक फैली हुई हैं। इसकी पड़ताल व्यापक परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिए। सीधी का पेशाब प्रकरण तो सिर्फ सतही लक्षण है। गंभीरता से देखें तो ऐसी प्रवृत्तियों का गटर तथाकथित सभ्य समाज और आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सदियों से बहता चला आ रहा है। इसकी मिसाल है आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का ताज़ातरीन अनुभव। विगत 20 जून को राष्ट्रपति जी दिल्ली के हौज़ खास क्षेत्र स्थित जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों के दर्शन के लिए सुबह साढ़े छह बजे पहुंच गई थीं। लेकिन, महामहिम गर्भगृह में प्रवेश और पूजा-अर्चना से वंचित रहीं। इसके विपरीत अन्य मंत्रियों (धर्मेंद्र प्रधान, अश्विनी वैष्णव और अन्य मंत्री) के साथ ऐसा नहीं हुआ।

उन्हें गर्भगृह में पूजा-अर्चना की अनुमति दी गई। राष्ट्रपति जी को वार्षिक रथ- यात्रा का उद्घाटन भी करना था। हालांकि, मंदिर के अधिकारियों ने इस घटना का खंडन किया। लेकिन, जिस प्रकार के चित्र सामने आये हैं उनसे स्पष्ट है कि महामहिम द्रौपदी जी गर्भगृह की सीमा के बाहर ही खड़ी रह कर मूर्तियों को हाथ जोड़ रही हैं। दावा यही किया गया है कि उन्हें गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई थी। ब्राह्मणवादी या सवर्णवादी व्यवस्था की शिकार अकेली मुर्मू जी ही नहीं हैं, दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी स्वयं इसकी शिकार हो चुकी हैं। 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पुरी गई हुई थीं। वे प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर में मूर्तियों के दर्शन व पूजा-अर्चना करना चाहती थीं। उन्हें भी मंदिर के सेवकों ने इस आधार पर अनुमति नहीं दी क्योंकि वे हिन्दू नहीं हैं। उन्होंने गैर-हिन्दू पारसी से शादी की है। अतः वे हिन्दू नहीं रहीं। वे विधर्मी हो गईं। धर्म के आधार पर विदेशी पर्यटकों को भी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाती है। 

मंदिर या गर्भ गृह में प्रवेश का ही सवाल नहीं है। सवाल है आधुनिक लोकतान्त्रिक-गणतांत्रिक देश में ‘शुद्धता -निषेध संस्कृति’ का  जीवंतता के साथ सक्रिय रहना। इस सन्दर्भ में एक घटना याद आ रही है। 1977 में जनता पार्टी के शासन  के समय मोरारजी देसाई-सरकार के उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम बनारस में संस्कृत विश्वविद्यालय में डॉ. सम्पूर्णानन्द की मूर्ति का लोकार्पण  करना चाहते थे। लेकिन,  स्थानीय कतिपय ब्राह्मणों ने जाति के आधार पर विवाद खड़ा कर दिया। चूंकि, जगजीवनराम दलित पृष्ठभूमि से थे इसलिए उनके हाथों से मूर्ति का लोकार्पण नहीं होना चाहिए। यद्यपि, विवाद-विरोध के बीच उन्होंने मूर्ति का अनावरण किया था। लेकिन,घटना की विडंबना यह है कि  लोकार्पण के पश्चात गंगा के जल से सम्पूर्णानन्द की मूर्ति को धोया गया था। जब देश के शिखरस्थ व शक्तिशाली नेता ‘पुश्तैनी निषेध – वचन संस्कृति’ की चपेट में आ सकते हैं, तब साधारण दलित या गैर-हिन्दू व्यक्ति की तो औकात ही क्या है कि वह भगवान की मूर्तियों और निवास गृह की तरफ नज़र भी उठा कर देखे?

इसे प्रचार न समझा जाए। यह लेखक स्वयं भी अयोध्या के एक मंदिर में अपने गोरे रंग व दाढ़ी के कारण मार खा चुका है, मंदिर से बाहर धकेला जा चुका है। घटना 1972 की है। तब यह युवा लेखक अयोध्या की यात्रा पर था। तब लम्बी दाढ़ी हुआ करती थी। रंग बिलकुल गोरा  था। एक मंदिर में प्रवेश करते ही मंदिर-सेवकों के हमलों का शिकार हो गया और बाहर धकेल दिया गया। लोग चिल्लाने लगे- ईसाई है, मुसलमान है, मलेच्छ है। धकेले जाने के बाद जब लेखक ने अपना असली परिचय पत्र दिखाया तो स्थिति बिल्कुल ही बदल गई।  हमलावर क्षमा याचना करने लगे-ब्राह्मण पुत्र को पीटने का पाप चढ़ेगा। फिर क्षमा के साथ प्रसाद की बरसात होने लगी।

निश्चित ही इस दृश्य परिवर्तन की पटकथा मंदिर सेवकों द्वारा नहीं लिखी गई थी। इसके लेखक व सूत्रधार सदियों पुराने हैं जिनके वर्तमान किरदारों को प्रवेश शुक्ला और जगन्नाथ मंदिर के सेवकों में देखा जा सकता है। इन्हीं किरदारों के विभिन्न भाईबंदों को ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षक’, ‘भीड़ लिंचक’, ‘बाबरी मस्जिद विध्वंसक’, ’स्वयंभू मोरल हवलदार’, ‘धर्म-संस्कृति रक्षक’, ‘इतिहास सुधारक’, ‘घृणा प्रचारक-विक्रेता’, ‘अखंड भारत स्वप्न-तिज़ारती ’, ‘विश्व गुरु उद्घोषक’, ‘ धर्म-जाति अपराधी रक्षक’ आदि-इत्यादि में देखा जा सकता है। सूट-बूट पोशाकों में इन्हें गोदी मीडिया और सोशल मीडिया के मंचों पर भी देखा जा सकता है। शिक्षण संस्थानों की सत्ता बुर्ज़ों पर इनकी तैनाती देखी जा सकती है। 

लेकिन इन सनातनी किरदारों को सार्वजनिक जन-कार्रवाई में हमेशा नदारद पायेंगे। मसलन, सरेआम किसी की हत्या हो रही होगी तो उसे नहीं बचाएंगे, लेकिन उसका वीडियो ज़रूर बनाएंगे; कोई पेट्रोल छिड़क कर खुदकुशी कर रहा होगा तो ये किरदार तमाशबीन बन कर वीडियो उतारेंगे; मर्दानगी की शिकार युवती की खिल्लियां उड़ाते हुए इन्हें देखा जा सकता है; ‘हिंसा की शिकार हो रही युवती के रक्षक नहीं बनेंगे; ‘गांव में दरख्तों से लटकी दलित लड़कियों के शवों पर खामोश रहेंगे’, ‘बलात्कार के अपराधियों का स्वागत करेंगे, अपराधों को विस्मृत करेंगे; सड़क किनारे दुर्घटना में हताहत व्यक्तियों को अस्पताल पहुंचाने के बजाए उन पर मोबाइल लेकर टूट पड़ेंगे; सड़कों पर धूं-धूं जलते वाहन के यात्रियों को बचाव के लिए चीखते हुए देखते रहेंगे; एम्बुलेंस के अभाव या आर्थिक तंगी के कारण शवों को बसों, नंगे कंधों, साइकिल, कूड़ा गाड़ी में ढोते देखते रहेंगे। मुख़्तसर में, हम घटना-सीरियल को किनारे पर तमाशबीन बने रह कर आत्म आनंद भोगते रहेंगे। 

हैरत यह है कि बहुसंख्यक समाज के नव  धनाढ्य मध्यवर्ग व नव सवर्ण वर्ग हर प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों में कतारबद्ध खड़े हो जाएंगे। ‘जय श्रीराम’ का बिगुल पंचम स्वर में बजायेंगे, हिंदुत्व के नाम पर ताण्डव करने से पीछे नहीं हटेंगे। लेकिन जब सामाजिक अन्याय और सार्वजनिक सवालों के मुद्दे उठते हैं तो ये किरदार शव संस्कृति की पोशाक को पहन लेंगे। शव-से बन जाएंगे। क्या वजह है कि अमेरिका में  एक सिपाही से एक ब्लैक की मृत्यु हो जाती है तो सड़कों पर लोग उतर आते हैं और ‘black lives matter‘ आंदोलन पूरे राष्ट्र को हिला कर रख देता है? क्या वजह है कि फ्रांस में पुलिस की गोली से एक व्यक्ति मर जाता है तो यह देश सत्ता के खिलाफ खड़ा हो जाता है। राष्ट्रपति को अपनी विदेश यात्रा को अधबीच छोड़ स्वदेश लौटना पड़ता है।

मणिपुर में सौ से अधिक लोग हिंसा का शिकार होते हैं, हज़ारों लोग बेघर-बार हो जाते हैं, लेकिन देश की मुख्यधारा के लोग शव-सी  ख़ामोशी में डूबे रहते हैं। कोई हरकत सुनाई नहीं देती है। हम बुलडोज़र शासन शैली को विधर्मी के साथ अपराध से जोड़ देते हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय मंच पर जिस बेहयाई के साथ निर्वाचित सरकारों का अपहरण-तोड़फोड़, निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फ़रोख़्त जैसे नाटकों का मंचन किया जा रहा है, हम लोग मूक-दर्शक बन कर अनुशासित ख़ामोशी के साथ दृश्यों -किरदारों को देखते रहते हैं। एक परोक्ष धार्मिक रिश्ता जोड़ लेते हैं उनके साथ। क्या इसे दर्शकों की नपुंसकता नहीं कहा जाएगा? जिस आधुनिक समाज से साहस के साथ  नागरिक बुद्धिमत्ता अपेक्षित रहती है, वह सिरे से गोल रहती है।

जब लोकवृत में नागरिक समाज की हस्तक्षेप धर्मिता अनुपस्थित रहेगी तब   भारत जैसे देश में स्वस्थ लोकतांत्रिक व न्यायपूर्ण व्यवस्था की कल्पना कैसे की जा सकती है? ऐसी स्थिति में सत्ताधारी वर्ग और उसके  पूंजीपति संरक्षक निरंकुशता के साथ अपनी हुक़ूमत चलाते रहेंगे। हुक्मरां कभी नहीं चाहेंगे कि देश की जनता चेतनशील व हस्तक्षेपधर्मी नागरिक में तब्दील हो। उनकी कोशिश तो जनता को ‘मध्यकालीन प्रजा मानसिकता’ में क़ैद रखने की रहेगी। यह मानसिकता निर्वाचित तानाशाही के काल में और भी अधिक सघन व गहन हो गई है। इसकी शिनाख़्त गर्भगृह निषेध, मूत्र-प्रकरण जैसी घटनाओं से की जा सकती है। इसीलिए देश में सदियों से जीवित प्रवेश शुक्ला -किरदारों से ध्रुवीकरण को बुलेट-रफ़्तार मिल रही है। पर देश का लोकतंत्र व संविधान निर्जीव गति को प्राप्त होता हुआ दिखाई दे रहा है। 

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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