Saturday, April 20, 2024

सरकार का नहीं अब जमाखोरों का होगा राज!

8 दिसंबर, को किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में भारत बंद का आह्वान किया था। बंद सफल रहा। सबसे उल्लेखनीय बात थी कि, इस बंद में देश में कहीं से भी हिंसा के समाचार नहीं मिले। लंबे समय के बाद, देश में जनहित के मुद्दे पर जनता जागरूक दिखी और उसने अपने हक़ के लिये आवाज़ उठाई। सभी विरोधी दल, कुछ को छोड़ कर किसानों के इस बंद के साथ थे। जो बंद के साथ नहीं थे, वे भी किसान आंदोलन के ही पक्ष में खड़े रहे। बंद की सफलता का सरकार पर प्रभाव, केवल इसी से लगाया जा सकता है कि बंद के ही दिन गृहमंत्री अमित शाह ने किसान संगठनों को बातचीत के लिये बुलाया। किसान संगठनों का एक प्रतिनिमंडल सीपीएम नेता हन्नान मोल्ला के नेतृत्व में अमित शाह से मिला भी। पर वहां भी बात नहीं बनी। किसानों ने एक और केवल एक ही मांग रख दी, कि पहले यह तीनों कृषि कानून सरकार वापस ले तब आगे की बात हो। 

सरकार ने 9 दिसम्बर को होने वाली सरकार-किसान वार्ता टाल दी और किसानों को समस्या के समाधान हेतु एक प्रस्ताव दिया, जिसमें यह भी अंकित था कि सरकार एमएसपी को सुनिश्चित करेगी। लेकिन इसका कोई उल्लेख नहीं था कि, वह आखिर इसे सुनिश्चित करेगी कैसे। सबसे आश्चर्यजनक कदम, सरकार द्वारा जमाखोरी को वैध बनाने के कानून से जुड़ा था, जिस पर एक शब्द भी नहीं कहा गया। यह बात किसी के भी समझ से परे है कि, आखिर, जमाखोरों को जमाखोरी की अनुमति कानूनी रूप से वैध बनाने से किस किसान का भला होगा। यह एक सामान्य सी बात है कि, जमाखोरी से बाजार में कृत्रिम कमी पैदा की जाती है और फिर दाम बढ़ने घटने के मूल आर्थिक सिद्धांत के अनुसार, चीजों की कीमतें बढ़ने लगती हैं।

फिर जैसे ही बाजार में जमा की हुयी चीजें झोंक दी जाती हैं तो, फिर कीमत गिरने लगती है। यह एक प्रकार से बाजार को नियंत्रित करने का पूंजीवादी तरीका है। पहले ईसी एक्ट या आवश्यक वस्तु अधिनियम के अंतर्गत सरकार को यह शक्ति मिली थी कि वह कृत्रिम रूप से बाजार में बनायी जा रही चीजों की कमी और अधिकता को नियंत्रित कर सके। और जैसे ही ईसी एक्ट में छापे पड़ने लगते थे, चीजों के दाम सामान्य होने लगते थे। अब न तो यह कानून रहा और न ही जमाखोरी कोई अपराध। अब पूरा बाजार, उपभोक्ता, किसान सभी इन्ही जमाखोरों के रहमो करम पर डाल दिये गए हैं। यह कानून खत्म कर के सरकार ने खुद को ही महंगाई के घटने बढ़ने से अलग कर लिया है। 

जब नमक बनाकर नमक कानून तोड़ने के दृढ़ संकल्प के साथ,  महात्मा गांधी, दांडी के लिये, अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से 12 मार्च 1930 को निकले थे तब उनके साथ केवल कुछ ही लोग थे। 14 से 16 घंटे पैदल चल कर 24 दिन के बाद 6 अप्रैल, 1930 को जब वे सागर तट पर पहुंचे, तो उनके साथ अपार भीड़ थी, जन समूह था। शुरुआत में इस यात्रा को हल्के में लेने वाली ब्रिटिश हुकूमत का अमला भी था। जब इस कार्यक्रम की रूपरेखा बनी तो,  किसी को नहीं पता था कि एक चुटकी नमक से दुनिया का सवसे ताकतवर साम्राज्य कैसे हिल जाएगा ? इसका मज़ाक़ अंग्रेजों ने भी उड़ाया और उन लोगों ने भी शंका की दृष्टि से गांधी के इस कदम को देखा, जो स्वाधीनता संग्राम में गांधी जी के साथ थे । पर जब गांधी जी ने सागर तट से सागर जल लेकर एक चुटकी नमक उछाल दिया तो साम्राज्य का इकबाल दरकने लगा।

उल्लेखनीय है कि भारत में अंग्रेजों के समय नमक उत्पादन और विक्रय के ऊपर बड़ी मात्रा में कर लगा दिया था और नमक जीवन के लिये आवश्यक वस्तु होने के कारण भारतवासियों को इस कानून से मुक्त करने और अपना अधिकार दिलवाने हेतु ये सविनय अवज्ञा का कार्यक्रम आयोजित किया गया था।  कानून भंग करने के बाद सत्याग्रहियों ने अंग्रेजों की लाठियाँ खाई थीं परंतु पीछे नहीं मुड़े थे। इस आंदोलन में कई नेताओं को गिरप्तार कर लिया। यह आंदोलन पूरे एक साल चला और 1931 को गांधी-इर्विन समझौते से खत्म हो गया। सरकार झुकी। और वह सरकार झुकी जिसके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था और जो सागर की लहरों पर शासन करता था।

आज हमारी सरकार ने, नये तीन कृषि कानूनों द्वारा, उन कृषि उत्पादों को भी, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें हैं, को आवश्यक वस्तु की सूची से ही नहीं निकाल दिया है, बल्कि जो कानून जमाखोरी को अपराध घोषित करता था उसे ही सरकार ने खत्म कर दिया है।  यानी अब जो चाहे,जितना चाहे और जब तक चाहे, उन अनाज फसल, कृषि उत्पादों का असीमित भंडारण कर सकता है। बाजार में मांग और पूर्ति का संतुलन बिगाड़ सकता है। चाहे वह अकाल जैसी स्थिति दैवी आपदाओं के समय ला सकता है। 1941-42 के समय बंगाल का अकाल ऐसे ही जमाखोरों की करतूत का परिणाम था, जिसके ऊपर ब्रिटिश सरकार का वरदहस्त था। 

कल्पना कीजिए, अगर जमाखोरों का एक सिंडिकेट बन जाय और देश भर के कृषि उत्पाद के खरीद, विक्रय और भंडारण को नियंत्रित करने लगे तब सरकार के पास ऐसा कौन सा कानून है जो उसके अंतर्गत जमाखोरों के खिलाफ वह कोई कानूनी कार्यवाही कर सकेगी ? यह आंदोलन किसानों के लिये कितना लाभकारी है और कितना हानिकारक, इसका अध्ययन किसान संगठन और कृषि अर्थशास्त्री कर ही रहे हैं, पर यह कानून, सबको प्रभावित करेगा। बिचौलियों को खत्म करने के नाम पर लाया गया यह कानून, अंततः जमाखोरों और मुनाफाखोरों के लिए एक पनाहगाह के रूप में ही बन कर रह जायेगा। न केवल जनता बल्कि सरकार खुद ही अपने पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम सरकारी राशन प्रणाली, खाद्य सुरक्षा कानून आदि के क्रियान्वयन के लिये इन्हीं जमाखोरों के सिंडिकेट पर निर्भर हो जाएगी। 

हम खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हैं, पर 12 अक्तूबर, 2020 को जारी किए गए ‘वैश्विक भुखमरी सूचकांक’ में शामिल 117 देशों में भारत को 94 वां स्थान प्राप्त हुआ है। हम अपने पड़ोसी देशों में नेपाल, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान से ही बेहतर स्थिति में हैं। सरकार ने खुद ही 80 करोड़ लोगों को गेहूं, चना तथा अन्य खाद्यान्न अभी दिया है। ऐसी स्थिति में जब 80 करोड़ लोग सरकार प्रदत्त खाद्यान्न सुविधा पर निर्भर हैं तो सरकार द्वारा आवश्यक वस्तु अधिनियम को खत्म कर के जमाखोरी को वैध बना देने का कानून मेरी समझ से बाहर है। भूख की पूर्ति मनुष्य की प्रथम आवश्यकता है, पर सरकार इस समस्या के प्रति भी असंवेदनशील बनी हुयी है। यह निंदनीय है और शर्मनाक भी। 

क्या अधिक लोकतंत्र से आर्थिक सुधारों को लागू करने में नीति आयोग को मुश्किलें आ रही हैं ? अगर नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत की बात सुनें तो लगता है कि लोकतंत्र आर्थिक सुधारों की दिशा में एक बाधा है। देश के थिंकटैंक, नीति आयोग के प्रमुख अमिताभ कांत ने कहा है कि, देश मे लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है, इस लिये आर्थिक सुधारों में दिक्कत हो रही है। हालांकि पीटीआई के हवाले से कहा गया उनका बयान, सार्वजनिक होते ही, विवादित हो गया फिर उनकी यह सफाई भी आ गयी कि, उनका यह आशय नहीं था। पर एक सवाल अक्सर उठता है कि आर्थिक  सुधार के ये कार्यक्रम किसका सुधार कर रहे हैं ? 

31 मार्च 2020 तक, जब कोरोना ने अपनी हाज़िरी दर्ज भी नहीं कराई थी, तब तक जीडीपी गिर कर, अपने निम्नतम स्तर पर आ चुकी थी। आरबीआई से उसका रिज़र्व लिया जा चुका था। तीन बैंक, यस बैंक, पंजाब कोऑपरेटिव बैंक और लक्ष्मी विलास बैंक बैठ गए थे, बैंकिंग सेक्टर को बचाने के लिये कुछ बैंकों को एक दूसरे में विलीन करना पड़ा। बैंकों में अब कितना आर्थिक सुधार चाहिये सर ?

हम जीडीपी में बांग्लादेश से भी पीछे हैं। बेरोजगारी चरम पर है। 2016 के बाद सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देना बंद कर दिये हैं। मैन्युफैक्चरिंग इंडेक्स गिरने लगा और इतना गिरा कि शून्य से नीचे आ गया। आयात निर्यात में कमी आयी। भुखमरी इंडेक्स में हम 107 देशों में 94 वें नम्बर पर आ गए । प्रसन्न वदनं के देश में खुशहाली इंडेक्स में हम 144 वें स्थान पर रौनक अफरोज हैं। जीडीपी यानी विकास दर ही नहीं गिर रही है, बल्कि जीडीपी संकुचन की ओर बढ़ रही है। 

अब लोकतंत्र का हाल देख लीजिए। ‘डेमोक्रेसी के वैश्विक सूचकांक’ में भारत की रैंक में 10 स्थानों की गिरावट, यानी 41 से 51वें स्थान पर हम फिलहाल हैं।भारत की स्थिति अब पाकिस्तान से ही कुछ बेहतर है। भारत को दोषपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में रखा गया है जबकि दुनिया मे श्रेष्ठ लोकतंत्र नार्वे का माना गया है। दूसरे नंबर पर आइसलैंड और तीसरे स्थान पर स्वीडन है। इसके बाद यूरोप के अन्य देश-फिनलैंड, स्विट्जरलैंड और डेनमार्क आदि हैं।

कानून और व्यवस्था की स्थिति तथा अपराध, जब कर्फ्यू लगा दिया जाता है तब बिल्कुल नियंत्रित हो जाता है। पर इसके लिये पूरे शहर को तो नीम बेहोशी की हालत में बराबर नहीं रखा जा सकता है ! नीति आयोग एक एक्सपर्ट थिंक टैंक है। वह देश की आर्थिक बेहतरी के लिए  सोचता है और योजनाएं बनाता है। पर 2016 के बाद जब से नोटबन्दी हुयी देश की अर्थव्यवस्था गिरती ही चली गयी। नोटबन्दी किसका आइडिया था सर ? आप यानी नीति आयोग का या किसी और का ? 

एक बात स्प्ष्ट है, यदि आर्थिक सुधारों के एजेंडे के केंद्र में जनता, जनसरोकार, लोक कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य और जनहित के कार्यक्रम नहीं हैं तो वह और जो कुछ भी हो, सुधार जैसी कोई चीज नहीं है। लोग व्यथित हों, पीड़ित हों, खुद को बर्बाद होते देख रहे हों, और जब वे अपनी बात, अपनी सरकार से कहने के लिए एकजुट होने लगें तो थिंकटैंक को इसमे टू मच डेमोक्रेसी नज़र आने लगी ! इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इन सब आर्थिक सुधारों की कवायद के केंद्र में, जनता के बजाय कोई और है। और जो है, वह अब अयाँ है। 

जैसे ब्रिटिश काल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार हुआ था, और वह भी एक जनांदोलन बन गया था, वैसे ही कहीं आने वाले समय मे अम्बानी और अडानी से जुड़े कॉर्पोरेट के खिलाफ जनता का आक्रोश न शुरू हो जाय। तीन कृषि कानूनों पर सरकार का रवैया, जनता और किसान समस्याओं के समाधान के बजाय, कॉरपोरेट या अम्बानी अडानी के हित की तरफ अधिक झुका लग रहा है। किसान संगठन ने सरकार के कानून में संशोधन के प्रस्ताव को खारिज कर दिए हैं और वे अब भी इन कानूनों के वापस लेने के अतिरिक्त किसी अन्य विकल्प पर राजी नहीं है। आंदोलन लंबा चलेगा। यह हिंसक न हो और सिविल नाफरमानी की राह पर ही रहेगा तो अपने लक्ष्य में सफल भी होगा। सरकार को भी चाहिए कि अगर कानून को फिलहाल वह रद्द नहीं करती है तो उसे स्थगित करे और नए सिरे से कृषि सुधारों के लिये किसान संगठनों, कृषि विशेषज्ञों और अन्य कानूनी एक्सपर्ट की एक कमेटी बना कर एक तय समय सीमा में नए कानून लाये और समस्या का समाधान ढूंढे। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं। और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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