Sunday, April 28, 2024

मनोज कुमार झा का लेख: कविता राजनीति की आत्मा है, यह हमेशा से संसद का हिस्सा रही है

भारत की संसद के पवित्र हॉल में, जहां कानून बनाये जाते हैं और नियति को आकार दिया जाता है, हमेशा शब्दों का निर्विवाद प्रभाव रहा है। हलांकि, संसद अपने स्वभाव से ही नियमों और परंपराओं से बंधी हुई जगह है। इन दीवारों के भीतर चर्चा मूल रूप से कानून निर्माताओं के बीच एक तर्कसंगत और विचार-विमर्श की प्रक्रिया के रूप में होती थी, ताकि न्यायसंगत कानूनों और नीतियों का निर्माण हो सके। ये शब्द निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा हमेशा उतनी ही गंभीरता के साथ कहे गये, जितनी कि वे उन शब्दों में भर सकते थे। कभी-कभी, कुछ लोग वाक्पटुता में भी कुशल होते हैं और इसके लिए पहचाने जाते हैं। मुझे यकीन है कि उनका इरादा अपने विचारों और इरादों को उन लोगों तक पहुंचाना था जिनकी वे सेवा कर रहे थे, और इसके साथ-साथ इन शब्दों को भावी पीढ़ियों तक भी पहुंचाना था, क्योंकि ये आधिकारिक और अनौपचारिक लिखित खातों में दर्ज किये जाते रहे हैं।

विधायी कार्य के जटिल तकाजों का ही नतीजा था कि संसद के भीतर इस्तेमाल की जाने वाली भाषा अक्सर औसत नागरिक के लिए अस्पष्ट और उबाऊ हो जाती थी। संसदीय बहसों के सावधानी-पूर्वक लिखे गये और संरक्षित किये गये रिकॉर्ड विशाल और दुर्बोध होते गये। औसत व्यक्ति से शायद ही यह उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने जीवन को आकार देने वाली इन बहसों के सार को समझने के लिए रहस्यमय गद्य के अंतहीन पन्नों को खंगालेगा।

टेलीविज़न पर संसदीय सत्रों का आगमन सुलभता की एक किरण की तरह था जिसने राजनीतिक अपारदर्शिता के घने बादलों को भेद दिया। टेलीविजन पर होने वाली बहसों ने संसद की कार्यवाही को जनता के लिविंग रूम तक पहुंचा दिया। नागरिक अब प्रत्यक्ष रूप से उन चर्चाओं और तर्कों को देख सकते हैं जो उनके राष्ट्र को आकार दे रहे हैं। इस दृश्य तत्व ने राजनीतिक विमर्श में गहराई और तात्कालिकता के तकाजों को शामिल कर दिया।

मेरे जैसे छोटे दलों के सांसद, जिनके पास अपनी बात विस्तार से रखने के लिए कभी भी पर्याप्त समय नहीं होता है, उन्हें अपनी बात कहने के लिए संक्षिप्तता की शक्ति सीखनी होती है। यहां कविता और काव्यात्मक अभिव्यक्ति की भूमिका अपरिहार्य हो जाती है। मुझे हमारी फिल्मों और साहित्य में महिला पत्र लेखकों की याद आती है, जो अपने पत्रों के अंत में लिखती थीं कि “थोड़ा लिखना, बहुत समझना,” यानि मेरी इस संक्षिप्त अभिव्यक्ति के अर्थ कहीं अधिक गहरे और विस्तृत हैं। उनका आशय अपनी अभिव्यक्ति पर काबिज सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिबंधों को इंगित करने से भी होता था।

डिजिटल युग और सोशल मीडिया के उदय ने संसदीय बहसों में जनता के शामिल होने के तरीके को और बदल दिया है। संक्षिप्त और गहरे अर्थों से भरपूर – कभी-कभी मार्मिक, तो कभी-कभी विद्रोही – बहसों या दृश्यों के फ़ुटेज अब व्यापक रूप से शेयर किए जाने लगे हैं। इनकी बदौलत जनता अपने प्रतिनिधियों के दिलो-दिमाग की झलक कुछ ही सेकंड में पा सकती है।

त्वरित संतुष्टि और फटाफट उपभोग के इस युग में, एक सावधानी बरतने की जरूरत है। जटिल राजनीतिक मुद्दों को अत्यधिक सरलीकृत वाक्यांशों में सीमित करने में गंभीर ख़तरे निहित हैं। सांसद और नागरिक, दोनों इसकी चपेट में आ सकते हैं। वास्तव में, कुछ सांसद अपने निर्वाचक समूहों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए कुटिल मंतव्यों वाले भाषणों का इस्तेमाल करने लगे हैं – और अब तो खुलेआम गालियां भी देने लगे हैं। अपने साथी सांसदों को गालियां देते हुए ये सांसद यह जाहिर कर दे रहे हैं कि उनके गणित के हिसाब से मौजूदा माहौल में अपने निर्वाचक समूहों को शिक्षित करने के बजाय उनमें निम्न मानसिकता पैदा करने से उन्हें ज्यादा फायदा होगा।

इस प्रकार शब्दों की इस जटिल रस्साकशी के दौर में कविता पाठ नैतिक राजनीति के एक रूप के तौर पर उभर कर आता है। कविता, अपने स्वभाव से, रूपक-प्रधान और संक्षिप्त होती है। कवि द्वारा सावधानीपूर्वक चुने गये अपेक्षाकृत कम शब्दों में यह अर्थ की कई परतों को व्यक्त करती है। जब मैं अपने भाषणों में कविता का उपयोग करता हूं, तो मैं उन विचारों को संप्रेषित करने के लिए रूपक और भावना की शक्ति का उपयोग करना चाहता हूं जिनके लिए गद्य में घंटों तक अपनी बात कहने की आवश्यकता होगी, और फिर भी वह अभिव्यक्ति शुष्क रह जाएगी। कविता जटिल अवधारणाओं को ज्ञान के सुग्राह्य टुकड़ों में परिवर्तित करने का अवसर देती है, जिससे संदेश व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ हो जाता है।

मैं यहां जो कुछ भी कह रहा हूं उसमें कुछ भी नया नहीं है और न ही ऐसा कुछ है जिसके बारे में लोग नहीं जानते हैं। वास्तव में, लोग इसे बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन कुछ लोग जानबूझकर इसे न समझने और स्वीकार न करने की कोशिश कर रहे हैं। मैंने इस कविता-पाठ के बारे में कुछ स्थानों पर प्रकाशित राय देखी है, जहां टिप्पणीकारों ने स्वीकार किया है कि रूपक कविता का दिल होते हैं, लेकिन फिर, अगले ही वाक्य में, और बिना किसी व्यंग्य के, वे ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता, ‘ठाकुर का कुआं’ का विश्लेषण अभिधा में करने लगते हैं।

ऐसे टिप्पणीकार भी हैं जो तर्क दे रहे हैं कि इस कविता को संसद में नहीं पढ़ा जाना चाहिए था और इसके पाठ को रिकॉर्ड से हटा दिया जाना चाहिए। उनसे मुझे पूछना है कि क्या उन्हें इस कविता से ही दिक्कत है? या, क्या उनके हिसाब से एक सांसद को इसका पाठ नहीं करना चाहिए था?

कविता हमेशा से संसद का हिस्सा रही है। संविधान की नींव रखने वाले इसके माता-पिता, संसद में मेरे पूर्ववर्तियों और मेरे वरिष्ठ सहयोगियों के साथ-साथ मेरे समकालीन सांसदों ने भी अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने के लिए बार-बार कविता का सहारा लिया है – कभी कोमल कविताएं, कभी आग उगलती हुई कविताएं, जो अक्सर तीखी होती थीं और प्रश्नांकित करती थीं, और हमेशा ही बेहद प्रभावी साबित होती थीं। वे विभिन्न परंपराओं और विभिन्न भाषाओं से प्रेरणा लेते रहे हैं।

उन्होंने हमारे पूर्वजों द्वारा लिखी गई कविताएँ भी सुनाई हैं, जो समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं, और उन्होंने युवा समकालीन कवियों द्वारा लिखी गई कमिताओं को भी सुनाया है। कविताओं के ये पाठ हमेशा विचार-विमर्श के स्तर को ऊंचा उठाते हैं। यही कारण है कि भारतीय संसद की वेबसाइट पर “वाक्पटुता और हास-परिहास” के लिए अलग-अलग खंड हैं, जिनमें प्रत्येक सत्र के भाषणों से चुने हुए “वाक्पटुता, हास्य, कविता और दोहों के उदाहरणों” का संकलन है। हममें से कई लोगों के लिए यह अच्छा होगा कि हम इन अभिलेखों को देखें और देखें कि कविता के बारे में हमारी चिंता दरअसल है क्या?

अपने भाषणों में जब मैं लेखकों और कवियों का सन्दर्भ लाता हूं, तो मेरा इरादा उन विचारों और शब्दों के लिए अधिक स्थान बनाने का होता है जो धारा के विरुद्ध हैं और अपनी अंतर्वस्तु में परिवर्तनकामी हैं। अमूमन ये ऐसे विचार होते हैं, जिन्हें सार्वजनिक बहसों में पर्याप्त स्थान या समय नहीं मिलता है, ताकि उन्हें पूरी तरह से व्यक्त किया जा सके और समझा जा सके। राजनीतिक विमर्श में कविता की भूमिका को जनता से जुड़ने के एक सूक्ष्म और शक्तिशाली साधन के रूप में देखा जाना चाहिए, जो न केवल शब्दों को, बल्कि राजनीतिक आदर्शों की आत्मा को भी व्यक्त करता हो।

(राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा का लेख, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार, अनुवाद : शैलेश)

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