Friday, March 29, 2024

‘जुर्माना’ कहानी की समीक्षा के बहाने: पसमांदा समाज के महान कथाकार थे मुंशी प्रेमचंद

कथाकार प्रेमचंद की कहानी ‘ज़ुर्माना’ अशराफ बनाम पसमांदा के बीच अंर्तद्वन्द्व को समझने के लिए बेहतरीन कहानी है। इस कहानी को सस्ता साहित्य मंडल ने ‘प्रेमचंद की संपूर्ण दलित कहानियां’ में जगह दी है। यह कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने पसमांदा (शूद्र-अतिशूद्र मुसलमान) समाज की स्थिति से भारतीय समाज को परिचय कराया है, वह भी पूरी पसमांदा पक्षधरता के साथ। उनका मानना था कि सवर्ण बनाम दलित भारतीय समाज की सच्चाई है। वे अपने कहानियों और उपन्यासों के श्रमिक पात्रों के प्रति हमेशा से सचेत रहे हैं। उनकी पक्षधरता को उनकी रचनाओं में नंगी आंखों से देखा जा सकता है।

आज भी पसमांदा समाज की महिलाएं अशराफ शेख, सैय्यद, पठान या गैर मुस्लिम सवर्णों के घरों में बर्तन माजकर एवं साफ-सफाई कर अपने बच्चों की परवरिश कर रही हैं। नगरपालिका के सफाई ठेकेदारों के मातहती में सड़क या गंदे नाले साफ़ करने के काम में भी ज्यादातर मेहतर जाति की महिलाएं/पुरुष लगे हुए हैं। इन्हें दलितों की तरह ही उच्च जाति एवं वर्गों से भेदभाव एवं उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। प्रेमचंद ने इसी समाज से एक पात्र मेहतरानी अलारक्खी को अपने ‘जुर्माना’ कहानी का विषय बनाया है। प्रेमचंद अपने पात्र का परिचय शुरुआत में ही करा देते हैं- 

ऐसा शायद ही कोई महीना जाता कि अलारक्खी के वेतन से कुछ जुर्माना न कट जाता। कभी-कभी तो उसे 6 रूपए के 5 रूपए ही मिलते, लेकिन वह सब कुछ सहकर भी सफाई के दारोग़ा मु० खैरात अली खाँ के चंगुल में कभी न आती। खाँ साहब की मातहती में सैकड़ों मेहतरानियाँ थीं। किसी की भी तलब न कटती, किसी पर जुर्माना न होता, न डाँट ही पड़ती। खाँ साहब नेकनाम थे, दयालु थे। मगर अलारक्खी उनके हाथों बराबर ताड़ऩा पाती रहती थी। वह कामचोर नहीं थी, बेअदब नहीं थी, फूहड़ नहीं थी, बदसूरत भी नहीं थी; पहर रात को इस ठण्ड के दिनों में वह झाड़ू लेकर निकल जाती और नौ बजे तक एक-चित्त होकर सडक़ पर झाड़ू लगाती रहती। फिर भी उस पर जुर्माना हो जाता। उसका पति हुसेनी भी अवसर पाकर उसका काम कर देता, लेकिन अलारक्खी की क़िस्मत में जुर्माना देना था। तलब का दिन औरों के लिए हँसने का दिन था अलारक्खी के लिए रोने का। उस दिन उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहता। न जाने कितने पैसे कट जाएँगे? वह परीक्षा वाले छात्रों की तरह बार-बार जुर्माना की रकम का तखमीना करती।

उपरोक्त लाइनों में ही प्रेमचंद ने अलारक्खी की स्थिति का बयां कर दिया है। लेकिन प्रेमचंद यहीं नहीं रुकते, उसे और विस्तार देते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की विशेषता है कि उनके कहानियों में श्रमिकों के प्रति सौंदर्य प्रेम भरपूर देखने को मिलता है। हर व्यक्ति उनके कथानक से आसानी से जुड़ जाता है। यह प्रेमचंद की कहानियों की ताकत ही है कि पाठक सामाजिक कार्यकर्ता बनने के लिए प्रेरित होता है। पाठक खुद कहानी का पात्र बन जाता है-

उस दिन वह थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गयी थी। उसी वक्त दारोगाजी अपने इक्के पर आ रहे थे। वह कितना कहती रही हजूरअली, मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के सेवड़े लेकर खा रही थी। उसी वक्त दारोग़ा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहाँ छिपा रहता है? जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है-अल्ला जाने! आठ आने से बढ़कर एक रुपया न हो जाए।

अलारक्खी के ऊपर डर का साया लगातार बना रहता है, चाहे वह फुरसत के क्षण हों या कुछ खाने का समय, अलारक्खी को आज़ादी में साँस लेने का समय भी नहीं है। एक बार उसे अपने बच्चे – जो ममता के लिए छटपटा रही है – को लेकर काम पर जाना पड़ा –  

उसने तड़के बच्ची को गोद में उठाया और झाड़ू लेकर सड़क पर जा पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही न थी। उसने बार-बार दारोग़ा के आने की धमकी दी-अभी आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लड़की को अपने नाक-कान कटवाना मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर न था; आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, किसी उपाय से न उतरी तो अलारक्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती छोड़कर झाड़ू लगाने लगी। मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर रोती भी न थी। अलारक्खी के पीछे लगी हुई बार-बार उसकी साड़ी पकड़कर खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर जमीन पर लोट जाती और एक क्षण में उठकर फिर रोने लगती। उसने झाड़ू तानकर कहा-चुप हो जा, नहीं तो झाड़ू से मारूँगी, जान निकल जाएगी; अभी दारोग़ा दाढ़ीजार आता होगा।

उसका बच्चा माँ की सच्ची ममता पाने के लिए तड़प रहा है, लेकिन आने वाली पीढ़ी को भी ऊंच-नीच पर आधारित समाज सताने से नहीं छोड़ता। यहां प्रेमचंद अलारक्खी से ही चिंतित नहीं है अपितु उन्हें नई पीढ़ी भी रोते-बिलखते दिखाई देती है।

दारोग़ा ने डाँटकर कहा- काम करने चलती है तो एक पुच्छिल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं छोड़ आयी?

अलारक्खी ने कातर स्वर में कहा- इसका जी अच्छा नहीं है हुजूर, घर पर किसके पास छोड़ आती।

‘क्या हुआ है इसको!’

‘बुखार आता है हुजूर!’

‘और तू इसे यों छोडक़र रुला रही है। मरेगी कि जीयेगी?’

‘गोद में लिये-लिये काम कैसे करूँ हुजूर!

‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेती!’

‘तलब कट जाती हुजूर, गुजारा कैसे होता?’

‘इसे उठा ले और घर जा। हुसेनी लौटकर आये तो इधर झाड़ू लगाने के लिए भेज देना।’

अलारक्खी ने लड़की को उठा लिया और चलने को हुई, तब दारोग़ाजी ने पूछा-मुझे गाली क्यों दे रही थी?

अलारक्खी की रही-सही जान भी निकल गयी। काटो तो लहू नहीं। थर-थर काँपती बोली-नहीं हुजूर, मेरी आँखें फूट जाएँ जो तुमको गाली दी हो।

और वह फूट-फूटकर रोने लगी।

खैरात अली खां एक शासक की हैसियत में है, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। अशराफ का शासन कैसा होता है वह अलारक्खी जैसी भुक्तभोगी ही समझ सकती है, उसे ऐसी जिंदगी पसन्द नहीं है। वे सामाजिक एकता की बुनियादी कमजोरी को भी समझते हैं। यह संवाद बहुत ही महत्वपूर्ण है-

हुसेनी ने सान्त्वना दी- तू इतनी उदास क्यों है? तलब ही न कटेगी-कटने दे अबकी से तेरी जान की कसम खाता हूँ, एक घूँट दारू या ताड़ी नहीं पीऊँगा।

‘मैं डरती हूँ, बरखास्त न कर दे मेरी जीभ जल जाय! कहाँ से कहाँ ।।।

‘बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्ला भला करे! कहाँ तक रोयें!’

‘तुम मुझे नाहक लिये चलते हो। सब-की-सब हँसेंगी।’

‘बरखास्त करेगा तो पूछूँगा नहीं किस इलजाम पर बरखास्त करते हो, गाली देते किसने सुना? कोई अन्धेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे और कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी के दरवाजे पर सर पटक दूँगा।’

‘ऐसी ही एकता होती तो दारोग़ा इतना जरीमाना करने पाता?’

कभी इनके चेहरों को ठीक से देखिए उनके चेहरे पर तनाव की लकीरें आपको साफ दिख जाएंगी। यह तनाव कहां से पैदा हो रहा है। वेतन मिलने के समय अलारक्खी की विवशता, लाचारी और अपमान देखकर कोई भी मानवीय इंसान हिल जायेगा।

हजारों मेहतरानियाँ जमा थीं, रंग-बिरंग के कपड़े पहने, बनाव-सिंगार किये। पान-सिगरेट वाले भी आ गये थे, खोंचे वाले भी। पठानों का एक दल भी अपने असामियों से रुपये वसूली करने आ पहुँचा था। वह दोनों भी जाकर खड़े हो गये। वेतन बँटने लगा। पहले मेहतरानियों का नम्बर था। जिसका नाम पुकारा जाता वह लपककर जाती और अपने रुपये लेकर दारोग़ाजी को मुफ्त की दुआएँ देती हुई चली जाती। चम्पा के बाद अलारक्खी का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज अलारक्खी का नाम उड़ गया था। चम्पा के बाद जहूरन का नाम पुकारा गया जो अलारक्खी के नीचे था।

अलारक्खी ने हताश आँखों से हुसेनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगीं। उसके जी में आया, घर चली जाए। यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट जाती कि उसमें समा जाती।

एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अलारक्खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब इसकी परवा न थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।

इस कहानी का अंतिम क्षण जरुर गांधीवादी हो गया है, वह अशराफ के उदारता स्वरूप दिये गये बिना कटौती के वेतन से खुश हो जाती है और उसके प्रति उसके मन में जो गुस्सा रहता है, छूमन्तर हो जाता है। यहीं कहानी खत्म हो जाती है। मगर यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि दोबारा उसके वेतन में कटौती नहीं होगी, क्या उसके मालिक का उदारवादी मन हमेशा यथावत बना रहेगा, क्या अब डर-डर कर जीना नहीं पड़ेगा?

प्रेमचंद अपनी रचनाओं में पसमांदा किरदारों को ऊंचाई पर देखना चाहते हैं, वे मानते हैं की जब तक ऐसे लोगों की जिंदगी नहीं बदलेगी कोई भी आज़ादी बेमानी है। प्रेमचंद हिंदू दलित और मुस्लिम दलित में कोई फर्क नहीं करते हैं। जुर्माना कहानी के अलारक्खी जैसे पात्र उनके उपन्यासों में भरे पड़े हैं, शायद पाठकों को कर्मभूमि का पात्र अमरकांत याद हो जिसने पसमांदा समाज की युवती शकीना के प्रेम ने सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई के लिए दलितों के गाँव भेजने के लिए प्रेरित किया था। प्रेमचंद का साहित्य सही मायने में पसमांदा समाज चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान सबके लिए जरुरी हैं। ऐसे ही पात्रों से जुड़ने के लिए प्रेमचंद सभी पाठकों को – चाहे वह दरोगा खैरात अली खां ही क्यों न हो – आह्वान करते हैं।

(इमानुद्दीन लेखक हैं और आजकल गोरखपुर में रहते हैं।)

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