Thursday, April 25, 2024

देश में जलती चिताओं के बीच मंदिर निर्माण का अट्टहास

नरेंद्र मोदी दूसरी बार जब चुन कर आए तो उन्होंने संविधान की पवित्र किताब को चूमा था। यह दृश्य हर किसी को याद होगा। उसी दिन हमने कह दिया था अब बारी संविधान के ऐसी-तैसी की है। क्योंकि उसके पहले अपने पहले कार्यकाल में पीएम मोदी ने पहली बार संसद में प्रवेश करते हुए उसकी चौखट पर अपना सिर नवाया था। और उसके बाद संसद, उसकी गरिमा और उसके सत्रों का क्या हुआ यह किसी से छुपा नहीं है। उसका नतीजा यह है कि अब सरकार को सत्र बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

बड़े-बड़े फैसले अध्यादेशों के जरिये ले लिए जा रहे हैं। कृषि संबंधी तीन अध्यादेश ताजा सबूत है। दरअसल मोदी ने जो कहा उसका ठीक उलटा किया। काला धन ले आना था। नोटबंदी करके सबको सफेद कर दिया। चप्पल वालों को हवाई जहाज में बैठाना था। जन धन के जरिये उनका पूरा पैसा खींच कर कारपोरेट को दे दिया। पेट्रोल और डीजल की कीमतें कम करनी थी। उसका क्या हुआ यह भी अब क्या आपको लिखकर बताना होगा? 

तो बात यहां संविधान के ऐसी तैसी की हो रही है। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत परसों दोपहर से ही राज्यपाल कलराज मिश्र से विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए गुजारिश कर रहे हैं लेकिन राज्यपाल महोदय हैं कि उन्होंने कान में रूई डाल रखी है। उन्हें अशोक गहलोत की बात सुनाई ही नहीं पड़ रही है। जबकि संविधान में साफ-साफ लिखा है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह से काम करेंगे। और यहां अशोक गहलोत इस सिलसिले में बाकायदा कैबिनेट का प्रस्ताव पारित करा चुके हैं। फिर गहलोत के सारे विधायक राजभवन जाकर धरने पर बैठ जाते हैं।

बावजूद इसके महामहिम के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। और अब अशोक गहलोत ने पीएमओ के सामने धरने तक की धमकी दे डाली है और कांग्रेस ने देश के सभी राजभवनों के सामने प्रदर्शन करने का ऐलान किया है। दरअसल महामहिम को केंद्र ने संविधान को ताक पर रख देने के लिए कह दिया है। क्योंकि ऐसा कहने वाले को लगता है कि अब उसका आदेश ही कानून है। और वह अब किसी संविधान और व्यवस्था का मोहताज नहीं रहा।

लोकतंत्र को पीएम मोदी ने बच्चों का खिलौना बना दिया है। उसके पहले दसियों लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारों के साथ उन्होंने क्या किया वह भारतीय राजनीतिक इतिहास के काले पन्नों में दर्ज हो चुका है। और अब तो यह बात लगभग तय हो चुकी है कि जनता किसी को भी चुने सरकार बीजेपी और उसके समर्थक दलों की ही बनेगी। यह बात गोवा से लेकर मणिपुर और कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश तक मोदी एंड कंपनी ने साबित भी किया है। 

और इस कड़ी में एक के बाद दूसरी संस्था को उसके घुटनों के बल लाकर खड़ा कर दिया गया है। ये संस्थाएं और उनमें काम करने वाले लोग अब किसी संविधान नहीं बल्कि मौजूद सत्ता की जरूरतों के मुताबिक फैसले ले रहे हैं। चुनाव आयोग तक का संचालन बीजेपी के आईटी सेल से अगर हो रहा है तो समझा जा सकता है कि संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण पाताल लोक के किस हिस्से तक पहुंच गया है।

कहीं से भी राहत न मिलने पर नागरिक आखिर में न्यायालय की शरण में जाता है। लेकिन देश में पहली बार ऐसा हो रहा है कि वहां जाने पर क्या फैसला होगा इसकी जानकारी लोगों को पहले हो जाती है। और यह सब कुछ किसी और के मुकाबले सर्वोच्च अदालत में सबसे ज्यादा है। अगर खुदा न खास्ता किसी न्यायाधीश ने व्यक्तिगत स्तर पर कहिए या फिर विवेक के आधार पर और कैरियर का जोखिम उठाते हुए कोई फैसला दे भी दिया तो उसके चोटी की अदालत से बदले जाने में एक पल भी नहीं लगता है। ऐसा एक नहीं दर्जनों बार हुआ है। और अब तो सर्वोच्च अदालत अपने आंगन में ही अपने लोगों का आखेट करने में जुट गयी है। सीनियर एडवोकेट प्रशांत भूषण का ताजा मामला सबके सामने है। उन्हें एक ऐसे मामले पर अवमानना का आरोपी बना दिया गया है जिस पर हजारों-हजार लोगों ने उन्हीं के जैसी राय जाहिर की है।

और उनके मामले को भी एक ऐसी पीठ के हवाले कर दिया गया है जिसका शीर्ष सत्ता के साथ नाभिनाल का रिश्ता है। दिलचस्प बात यह है कि उन्हें उन्हीं प्रावधानों के तहत दंडित करने की कोशिश की जा रही है जिस पर मुकदमे की सुनवाई के दूसरे दिन राजस्थान के मामले में खुद उसकी रक्षा करने का सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है। जिसमें उसने कहा है कि विधायकों के विरोध के अधिकार को खारिज नहीं किया जा सकता है। अगर विधायकों के अलग मत रखने का अधिकार है तो क्या सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले एक वरिष्ठ वकील के पास क्या यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह किसी मसले पर अपनी स्वतंत्र राय जाहिर कर सके? और वैसे भी वकील जब अदालत में जज के सामने जिरह कर रहा होता है तो वह और क्या कर रहा होता है?

आमतौर पर जब राजे-रजवाड़े या फिर रियासतें खंडहर का रूप लेती थीं तो उनके वारिस उसकी बची जमीनों और संपत्तियों को बेंच कर अपना ऐशो आराम या फिर जीवनयापन करते थे। यही काम इस समय देश के मुखिया कर रहे हैं। पिछले छह सालों में मोदी सरकार ने आर्थिक तबाही के जिस मुकाम पर लाकर देश को खड़ा कर दिया है अब उन्हें सरकारी संपत्तियों को बेचने और उनका निजीकरण करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं दिख रहा है। रेलवे से लेकर प्लेन और बीएसएनएल से लेकर बैंक तक सबको कॉरपोरेट के हवाले किया जा रहा है। और इन अनमोल और बेशकीमती संपत्तियों को बेचने का फैसला लेने में मोदी एक मिनट की भी देरी नहीं लगा रहे हैं। 

और अब जबकि पूरे देश को कोविड महामारी ने अपनी चपेट में ले लिया है। और राह चलते लोगों की मौतें हो रही हैं। अस्पताल में एक बेड तक नसीब नहीं है। एंबुलेस और दूसरे साधन की बात तो दूर इलाज करने वाले डॉक्टर और नर्स तक अस्पताल छोड़ कर भाग जा रहे हों। इसकी सबसे भयावह और दिल को दहला देने वाली तस्वीरें उस बिहार से आ रही हैं जहां नरेंद्र मोदी ने पिछले चुनाव के दौरान केंद्रीय सहायता की राशि के लिए खुलेआम बोली लगवाई थी।

और अब जबकि केंद्र में उनकी सरकार है और सूबे में भी उनका गठबंधन है। तो जनता को सड़क पर मरने के लिए छोड़कर खुद राम मंदिर के निर्माण और उसके उद्घघाटन की तैयारियों में मशगूल हैं। दुनिया में यह पहला देश होगा जहां महा विपत्ति के इस दौर में भी जिंदगियों को बचाने की जगह मंदिर निर्माण का काम सरकार की प्राथमिकता में है। यह जाहिलियत की पराकाष्ठा है। और इसके लिए किसी मोदी और उसकी सत्ता को केवल जिम्मेदार ठहराना बेहद भोलापन होगा। दरअसल यह भारतीय जनमानस की चेतना और उसकी बनी जेहनियत का नतीजा है। जिसमें देश का शासक श्मशानों में जलती चिताओं के बीच मंदिर निर्माण का अट्टहास कर रहा है और हम खुद गिरेबान पकड़ कर उससे जवाब मांगने की जगह उसके साथ नाच रहे हैं।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)

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