“मैंने अभी इंटरमीडिएट परीक्षा पास की है। मैं स्नातक की पढ़ाई करना चाहता हूँ लेकिन मैं कर नहीं पा रहा हूँ। क्योंकि मुझे सर्टिफिकेट नहीं दिया गया। मेरे माता पिता छत्तीसगढ़ में हैं। मैं आंध्र प्रदेश में शरण लिया हूं ताकि सर्वाइव कर सकूं। मेरे पिता ने बताया कि उनके सारे बच्चे मार दिये गये इसलिये वो मुझे बचाना चाहते हैं। वो अपनी पीढ़ी को बचाना चाहते हैं। उन्होंने मुझे आंध्रप्रदेश में गुप्त तरीके से एक स्कूल में डाल दिया। यदि वे लोग जान जाते कि हम छत्तीसगढ़ से हैं, सलवा जुडूम पीड़ित हैं तो वो हमें मार देते। इस तरह से मेरी स्कूली शिक्षा हुई।”- उपरोक्त पंक्तियां पढ़कर अब तक आप जान ही चुके होंगे इस देश में आदिवासी, वनवासी होना कितना ख़तरनाक़ है। यहां मैं उक्त आदिवासी छात्र की जान को संभावित जोख़िम और भविष्य को ध्यान में रखते हुये उसका नाम और पहचान उजागर नहीं कर रहा हूँ।
उसने अपने बचपन में हिंदुस्तान, भारत सरकार और स्टेट पुलिस का जो ख़ौफ़, जो दमन झेला है, उनकी बर्बर यातनाएं उसकी स्मृतियों का अभिन्न हिस्सा हैं। वो ख़ौफ़ के साये में कैसे जीता होगा, उसकी दमनित स्मृतियों में इसे महसूस किया जा सकता है। सलवा जुडूम में निर्वासित आदिवासी छात्र आगे अपनी स्मृतियों के सहारे 15 साल पहले अपने समुदाय और परिवार पर हुये स्टेट दमन को याद कर बताता है कि – “सलवा जुडूम जब हुआ मैं बहुत छोटा था। सलवा जुडूम में स्टेट पुलिस ने लोगों को जान से मारा। उन्हें अपनी ज़मीन न छोड़ने के लिये पनिश किया। मैं भी वहां था माता पिता के साथ। जब पुलिस ने हम पर हमला किया था। मैं बच्चा था। हर रोज़ सुबह चार बजे वो मुझे लेकर घर से बाहर चले जाते थे। जंगल में छुपने के लिये। जंगल में छुपकर हम लोगों ने अपनी जान बचाई। कई बार हम लोगों ने रातें जंगल में सोकर बिताई हैं।
सलवा जुडूम में बिछड़े अपने परिवार को याद करते वो आदिवासी छात्र बताता है कि उसके माता पिता छत्तीसगढ़ में धान की खेती करते हैं, वो खाने भर का होता है। उसे वो बेंचते नहीं हैँ। जबकि उसका एक बड़ा भाई भी आंध्रप्रदेश में रहता है। बड़ा भाई नहीं पढ़ पाया वो खेती करता है उसकी शादी हो गयी है। वो धान उगाकर जी रहा है आंध्रप्रदेश में। आँध्रप्रदेश में सलवा जुडूम पीड़ितों पर वहां की सरकार द्वारा हो रहे हमले और दमन में आदिवासियों के सामने पुनर्पलायन का संकट खड़ा कर दिया है। आंध्र प्रदेश में शरण लिये हुये शिक्षा की चाहत रखने वाला उक्त छात्र बताता है कि – “ आंध्र प्रदेश सरकार हमारी ज़मीनों पर पेड़ लगाना चाहती है। इसलिये वो हमारे घर तोड़ रहे हैं। हमारे खेतों को उजाड़ रहे हैं। हमें आंध्र प्रदेश पुलिस मार पीट रही है ताकि हम अब यहां से भी भाग जायें। हमारे साथ ये समस्यायें हैं। हमें आंध्र प्रदेश में कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती। न राशन, पानी, गैस जैसी सहूलियतें”।

तीनतरफा हमला
दरअसल हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा में आदिवासी समुदाय, उनकी नस्ल, उनकी संस्कृति और उनकी भाषा मेल नहीं खाती हैं। इसलिये वो भी मुस्लिमों की ही तरह सरकार और पुलिस के निशाने पर हैं। सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी इस पूरे मामले पर विस्तार से बात रखते हैं। वो बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में जो स्टेट और माओवादी के बीच में हिंसा चल रही है वो हिंसा साल 2005 में बढ़ी थी। एक प्रयोग हुआ था जिसे सलवा जुडूम का नाम दिया गया था। उस समय लगभग 55 हजार लोग अपना घर- बार छोड़कर दूसरे प्रदेश आंध्रप्रदेश और तेलंगाना चले गये थे। उनके पुनर्वास का मुद्दा है। आप पूछ सकते हैं कि जब वो 15-17 साल पहले पलायन करके चले गये तो उनके पुनर्वास का मुद्दा आज क्यों है। पिछले 2 सालों में जब कोरोना का कहर यहां चल रहा था तो उस कोरोना क्राइसिस का सबने अपनी अपनी तरह से प्रयोग किया। दरअसल छत्तीसगढ़ से विस्थापित होकर लोग आंध्रप्रदेश चले गये थे। राज्य के बंटवारे के बाद अधिकांश विस्थापित फिलहाल तेलंगाना राज्य में हैं।
शुभ्रांशु तेलंगाना सरकारा द्वारा कोरोनाकाल में सलवा जुडूम पीड़ित आदिवासियों के दमन का जिक्र कर कहते हैं, तेलंगाना सरकार ने कोरोना काल में इनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया। कोरोना काल में मीडिया का भी उतना दख़ल नहीं था। तो कोरोना काल में सरकार ने लगभग इनकी आधी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इनके मकान ढहा दिये। जब मैं ‘इनकी ज़मीन’ बोल रहा हूँ तो इसका मतलब दंडकारण्य जंगल से है जो कि 4-5 राज्यों में फैला हुआ है। जब छत्तीसगढ़ में इन आदिवासियों को मारा गया तो ये लोग दंडकारण्य जंगल में ही 40-50 किलोमीटर अंदर आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में चले गये।
अब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की सरकारें इन्हीं अपने क्षेत्र वाले दंडकारण्य से इन्हें भगा रही हैं। वो पहले भी इन्हें वापस भेजना चाहती थीं लेकिन बीच में कोर्ट के ऑर्डर आ गये तो मामला टलता गया। पिछले तीन महीने से फिर से जो आधी ज़मीन आदिवासियों के पास बची थी उस पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया है। पिछले एक हफ़्ते में तेलंगाना ने लगभग 75 विस्थापितों की बसाहटों को हटाने की कोशिश की है और वन विभाग के अधिकारियों ने विस्थापितों की आधी से अधिक ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर उस पर पौधारोपण कर दिया है। विस्थापितों को लगातार छत्तीसगढ़ वापस जाने के लिए कहा जा रहा है, पर अधिकतर विस्थापित अब भी अपने गृह ग्राम वापस नहीं जाना चाहते, क्योंकि वहां अब भी उनके अधिकतर गांवों में माओवादियों का क़ब्ज़ा है और हिंसा अब भी जारी है।
वनाधिकार क़ानून का हवाला देते हुये शुभ्रांशु चौधरी बताते हैं कि वनाधिकार का अदला-बदली का कानून यह नहीं कहता कि बदले में दी गई ज़मीन उसी राज्य में होनी चाहिए। इसलिए, कानूनत: विस्थापितों को उनके छत्तीसगढ़ में छोड़े वन भूमि के बदले उनके द्वारा पिछले 15 सालों में आंध्र और तेलंगाना में जंगल काटकर बनाए ज़मीनों का मालिकाना हक़ दिया जा सकता है। आंध्र और तेलंगाना में भी आदिवासी उसी दंडकारण्य के जंगल में हैं और उन्हें अक्सर समझ नहीं आता कि थोड़े थोड़े दिन बाद सरकार जगह का नाम बदल देती है और उसके साथ नियम भी बदल जाते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में वे मुरिया गोंड आदिवासी कहलाते हैं, पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में उनको आदिवासी नहीं माना जाता। कुछ लोग बेहतर दुनिया बनाने के एक प्रयोग के लिए दंडकारण्य गए, कुछ ने उस हिंसक प्रयोग को खत्म करने के लिए और एक हिसंक प्रयोग किया। दोनों प्रयोग असफल रहे, पर इनके बीच दंडकारण्य का मूल निवासी भटक रहा है।
विस्थापितों ने अदला बदली क़ानून के तहत किया आवेदन
कुछ विस्थापितों ने 3 साल पूर्व वनाधिकार की अदला-बदली की धारा के तहत यह आवेदन किया था कि उनके गांव से विस्थापित होने के पहले उनके पास जो वन भूमि थी, उसके बदले सरकार किसी शांत जगह में उन्हें बदले में ज़मीन दे तो वे वहां जाना चाहेंगे। पर सरकार ने उन आवेदनों पर अब तक कोई कार्यवाही नहीं की है। पर अब लोगों ने विस्थापित आदिवासी संघ बनाकर फिर से वनाधिकार की 3.1 एम धारा के तहत फ़ॉर्म भरना शुरू किया है।

छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी नेता कहते हैं कि विस्थापित यदि वापस आना चाहें तो उन्हें रहने के लिए ज़मीन तो दी जा सकती है, पर खेती के लिए ज़मीन बस्तर में नहीं है। विस्थापित आदिवासी संघ के सदस्यों ने छत्तीसगढ़ सरकार को यह लिखकर दिया है कि यदि वे प्रत्येक विस्थापित परिवार को 5 एकड़ ज़मीन और साथ की सुविधाएं दें तो वे वापस आना चाहते हैं। वहीं शीर्षस्थ माओवादी नेताओं का कहना हैं कि- विस्थापितों को छत्तीसगढ़ वापस ले आने के बजाय सरकार उन्हें जंगल काटकर बनाई गई ज़मीनों का वहीं आंध्र और तेलंगाना में पट्टा दे।
6 अप्रैल को जंतर-मंतर पर धरना देंगे पीड़ित आदिवासी
4 अप्रैल को रायपुर में विस्थापित छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को वनाधिकार के अदला-बदली के लिए 1000 विस्थापितों के आवेदन पत्र प्रस्तुत कर उस पर शीघ्र कार्यवाही की माँग करेंगे। इसके बाद विस्थापित आदिवासी 6 अप्रैल को इन्हीं माँगों के साथ जंतर-मंतर दिल्ली में एक दिवसीय धरना करेंगे ।
इससे पहले विस्थापित आदिवासियों ने 23 मार्च से दंडकारण्य से दिल्ली एक मोटर साइकिल शांति यात्रा लेकर दिल्ली जाने और इस यात्रा के जरिए केंद्र सरकार से मिजोरम में हिंसा के कारण पलायन कर त्रिपुरा जाने वाले ब्रू आदिवासियों के लिए ब्रू पुनर्वास योजना की तर्ज़ पर सलवा जुडूम पीड़ित आदिवासियों के पुनर्वास के लिये सभी राज्यों को साथ लेकर वे मध्य भारत में भी पुनर्वास योजना बनाने का अनुरोध करने की योजना बनाई थी।
30 मार्च, 2022 को वलसा आदिवासुलु समख्या (विस्थापित आदिवासियों का संगठन) ने एक प्रेस कान्फ्रेंस का आयोजन कर कहा कि आज़ादी की 75 वीं सालगिरह में बस्तर से 75 विस्थापित यह सवाल पूछने निकले हैं कि क्या वे भी इस देश के नागरिक हैं? क्या यह उनकी भी आज़ादी का अमृत महोत्सव है? प्रेस कान्फ्रेंस में वक्ताओं ने बताया कि पिछले दो सालों में जब देश कोरोना महामारी के कारण लॉक डाउन में था तेलंगाना और आन्ध्रप्रदेश की सरकारों ने इन विस्थापितों से उनकी वे लगभग आधी ज़मीन वापस लेकर उन पर पौधारोपण कर दिया है जहां पर विस्थापन के बाद जंगल काटकर ये पिछले 17 वर्षों से खेती कर किसी तरह अपना और अपने परिवार का जीवनयापन कर रहे थे। वक्ताओं ने आगे कहा कि पिछले तीन माह से दोनों सरकारों ने विस्थापितों की आधी बची ज़मीन पर भी पौधारोपण शुरू कर दिया है और कुछ बसाहटों को जंगल से निकालकर सड़क किनारे आने को भी मजबूर किया है।
वक्ताओं ने कहा कि इन विस्थापितों ने वनाधिकार की धारा 3.1.m अदला बदली के क़ानून के तहत आवेदन किया है पर आवेदनों में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है। इस क़ानून के अनुसार यदि कोई आदिवासी 2005 के पहले के अपने क़ब्ज़े की वन भूमि से अपनी मर्ज़ी के बग़ैर विस्थापित हुआ है तो सरकार उन्हें बदले में दूसरी जगह ज़मीन देगी।
बता दें कि मिज़ोरम राज्य के ब्रू आदिवासी इसी तरह की एक राजनैतिक हिंसा के कारण भागकर पड़ोसी राज्य त्रिपुरा जाने को मजबूर हुए थे। 2019-20 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक ब्रू पुनर्वास योजना बनाकर ब्रू आदिवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था की है। बस्तर के पलायित आदिवासी केंद्र सरकार से यह माँग कर रहे हैं कि ब्रू एवं कश्मीरी व अन्य इस तरह विस्थापितों की तरह बस्तर से विस्थापितों के भी पुनर्वास की समुचित व्यवस्था की जाए ।
अधिकारियों की दलील
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के प्रशासनिक अधिकारी अपने दमन के बचाव में दबी ज़ुबान से दलील देते हैं कि चूंकि छत्तीसगढ़ ने माओवादियों पर पिछले कुछ सालों में दबाव बहुत बढ़ा दिया है, इसलिए उन्हें डर है कि माओवादी अब आंध्र और तेलंगाना का रुख़ करेंगे। दरअसल, उनके अधिकतर नेता तेलुगू हैं और इस प्रयास में वे दोनों प्रदेशों और छत्तीसगढ़ के बीच जंगल में बसे इन विस्थापितों के घरों में रुकेंगे, उनके यहां खाना खाएंगे, इसलिए वे विस्थापितों को इस जंगल से निकालना चाहते हैं।
संसद में उठी आवाज़
बस्तर संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि व कांग्रेस सांसद दीपक बैज ने तीन दिन पहले लोकसभा में इस मुद्दे को उठाया है। उन्होंने लोकसभा को संबोधित करके कहा कि मेरा क्षेत्र बस्तर दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा आदि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सैंकड़ों गांवों से हज़ारों आदिवासी अपने घर व गांव को छोड़कर अपने सीमावर्ती गांव आंध्रप्रदेश व तेलंगाना में पलायन कर गये थे। लगभग 15-16 वर्ष पूर्व पलायन करके वो आंध्रप्रदेश व तेलंगाना में बसे आदिवासियों को यहां की सरकारें ज़बरन निकाल रही हैं। उनके घर तोड़े जा रहे हैं। ये आदिवासी भय के साये में जीने के लिये विवश हैं। इन आदिवासियों को फिर पलायन के लिये विवश किया जा रहा है।
उक्त परिस्थितियों को गंभीरता से लेते हुये छत्तीसगढ़ सरकार ने जिला प्रशासन की टीम गठित की है। ताकि उन आदिवासियों को चिन्हित कर मदद कर सके। उक्त आदिवासियों के पुनर्वास हेतु केंद्र सरकार 19-20 के मिजोरम से त्रिपुरा गये ब्रू आदिवासियों की पुनर्वास की तरह नीति बनाये और जो आदिवासी जहां हैं वहां रहने का अधिकार दे और वनाधिकार अधिनियम-2006 के धारा 3.1.एम के तहत तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में वन भूमि जहां जिसका क़ब्ज़ा है वहां उसको अदिकार दे। जिससे पलायन कर आंध्र प्रदेश तेलंगाना में बसे आदिवासियों के पुनर्पलायन समस्या का समाधान हो सके और उनके भरण पोषण के लिये दिक्कत न आये। चूंकि यह मामाला तीन राज्यों तेलंगाना, आंध्रप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ का है इसलिये केंद्र सरकार से मेरी मांग है कि इस मामले में आदिवासियों को न्याय दिलाने में मदद करे।
सभ्यता की लड़ाई आज तक लड़ रहे हैं आदिवासी
छत्तीसगढ़ से लेकर आंध्रप्रदेश और ओडिशा तक फैले दंडकारण्य जंगल का नाम मूलनिवासी दंडक असुर के नाम पर पड़ा है। रामायण में जिक्र आता है कि आर्यवंशी राम लक्ष्मण हथियारों से सज्जित होकर इस जंगल में घुसे और विरोध करने पर उन्होंने विराध नामक असुर की हत्या की। इसी तरह से बीजेपी जब छत्तीसगढ़ की सत्ता में आयी तो उसने दंडक और विराध के वंशजों को सामूहिक कत्ल-ए-आम के लिये ‘सलवा जुडूम’ लांच किया जिसमें अत्याधुनिक हथियारों से लैश पुलिस ने चुन चुनकर आदिवासियों की हत्या की। उनके घर जला दिये गर्भवती आदिवासी महिलाओं का पेट फाड़ दिया उनके संग सामूहिक दुष्कर्म किया। छोटे छोटे बच्चों तक को नहीं बख्शा जिसके चलते हजारों आदिवासी आंध्रप्रदेश और तेलंगाना पलायन को अभिशप्त हुये।
जैसा कि आपको पता है आज से 17 साल पहले जब सलवा जुडूम आंदोलन के कारण हिंसा बढ़ी तब एक सरकारी आँकड़े के अनुसार 644 गाँवों से 55 हज़ार लोग हिंसा से बचने के लिए अपना घर और गाँव छोड़कर पड़ोसी राज्य आँध्र प्रदेश (अब तेलंगाना भी) चले गए थे।
(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)
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