Sunday, April 28, 2024

‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र’ की संसद में बिना चर्चा के ही दर्जनों अहम बिल पारित

संसद का मानसून सत्र अपने आखिरी दौर में चल रहा है। तकरीबन पूरा सत्र हंगामों के नाम रहा। विपक्ष ने मणिपुर पर संसद के भीतर बहस चाही लेकिन सरकार उसके लिए तैयार नहीं हुई। कहने को इस दौरान कोई काम नहीं हुआ। लेकिन सच्चाई यह है कि सारी संसदीय परंपराओं, लोकतांत्रिक मान्यताओं और संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रख कर सरकार ने चोर दरवाजे से ढेर सारे विधेयक पारित करा लिए। जिन पर न तो सदन के भीतर बहस हुई और न ही कोई चर्चा। और इसमें ज्यादातर विधेयक न केवल जन विरोधी हैं बल्कि देश के हितों को भी बड़ा नुकसान पहुंचाने वाले हैं।

मानसून सत्र में अविश्वास प्रस्ताव के बीच एक के बाद एक विधेयक पारित होते रहे। सरकार की ओर से 21 नए विधेयक पेश किये जाने की तैयारी की जा रही थी। इसके अलावा 7 विधेयक ऐसे थे जिन्हें राज्य सभा से पारित किया जाना था। इस प्रकार कुल 28 विधेयकों को पारित करने के लिए 20 जुलाई से लेकर 11 अगस्त के बीच के सत्र में कुल 15 बैठकें होनी थीं। 

जैसा कि देश इस बात से वाकिफ है कि संसद का मानसून सत्र शुरू होने से एक दिन पहले ही मणिपुर हिंसा से जुड़ा एक वायरल वीडियो देश ही नहीं दुनिया को बुरी तरह से झकझोर दिया, जिसके चलते सभी विपक्षी पार्टियों की ओर से एक स्वर में मणिपुर के मुद्दे पर संसद में चर्चा की मांग उठाई गई। देश में सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों लोगों की प्रतिक्रिया और सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश की बेहद तल्ख टिप्पणी के बाद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मणिपुर मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़ी। 

संसद के बाहर खड़े होकर उनका दिया गया बयान मणिपुर हिंसा और जघन्य घटना पर मरहम लगाने के बजाय नमक छिडकने जैसा साबित हुआ, जब उन्होंने मणिपुर यौन हिंसा पर अपने 36 सेकंड के बयान के साथ राजस्थान और छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों को भी लपेट लिया। विपक्ष ने इसे मणिपुर की गंभीरता को जानबूझकर कम करने के रूप में देखा, और शाम होते-होते देखने में भी आया कि भाजपा के वरिष्ठ नेताओं सहित सोशल मीडिया पर आईटी सेल और कार्यकर्ताओं ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल को निशाने पर ले लिया। 

नतीजतन लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के मणिपुर पर पीएम मोदी के बयान की मांग तो दूसरी तरफ सरकार की ओर से नियम 176 के तहत सीमित चर्चा पर दोनों सदन लगातार हंगामे की भेंट चढ़ गये। इसी बीच राज्यसभा में आप पार्टी के नेता संजय सिंह को नियमों की अवहेलना के नाम पर मानसून सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया। विपक्ष ने जब महसूस कर लिया कि सरकार स्वंय सदन की कार्रवाई नहीं चलाना चाहती, और पीएम मोदी सदन के भीतर इस मुद्दे पर बयान नहीं देने जा रहे हैं तो उन्होंने 26 जुलाई को मणिपुर मुद्दे पर अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार को मणिपुर पर चर्चा करने के लिए बाध्य कर दिया। 

अब यहीं पर नया खेल शुरू होता है। लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला ने कांग्रेस नेता गौरव गोगोई की ओर से प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए इस पर चर्चा के लिए सरकार और सचिवालय के साथ मंत्रणा कर समय और दिन निर्धारित करने की बात कह विधेयकों पर चर्चा और पारित करने का रास्ता निकाल लिया। 

27 जुलाई को लोकसभा में दो बिल –  निरसन और संशोधन विधेयक, 2022 और जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2022 पारित करा लिए गये। शुक्रवार को तीन और बिल- खान एवं खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2023, राष्ट्रीय नर्सिंग और मिडवाइफरी आयोग विधेयक, 2023 और राष्ट्रीय दंत चिकित्सा आयोग विधेयक, 2023 संसद में पारित करा लिए गये। विपक्ष मणिपुर पर चर्चा कराए जाने की तख्तियां लेकर “शर्म करो-शर्म करो” “गैर-संवैधानिक” और “अवैध” चिल्लाता रहा, दूसरी तरफ बिलों पर संक्षिप्त चर्चा कर ध्वनिमत से बिल पारित किये जाते रहे। 

लोकसभा की कार्यवाही संभाल रहे सभापति ने नियम 198 का हवाला देते हुए सदन को बताया कि सदन ने यदि अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की अनुमति प्रदान कर दी है तो सार्वजनिक महत्व को ध्यान में रखते हुए विधेयक पर चर्चा और उन्हें पारित किया जा सकता है। अगले सप्ताह का मुद्दा असल में और टाल दिया गया और अंततः 8 अगस्त से 10 अगस्त के बीच ही मणिपुर पर सदन में चर्चा होनी तय पाई गई। 

कांग्रेस नेता मनीष तिवारी और जयराम रमेश सहित कई विपक्षी नेताओं ने अविश्वास प्रस्ताव के बीच बिल पेश किये जाने और बिना चर्चा के ही पारित किये जाने का विरोध करते हुए पिछले इतिहास का हवाला दिया। लेकिन सरकार के लिए यही स्थिति सबसे माकूल लगी, जब बिना चर्चा के ही दर्जनों महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए हैं जो बहुसंख्यक जनता के लिए बेहद नुकसानदेह और कॉर्पोरेट समर्थक साबित होने जा रहे हैं। एक तरह से कहें तो विपक्ष जहां मणिपुर पर चर्चा कराकर भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा कर पाने में सफल हो सकती है, वहीं मोदी सरकार ने अपनी आपदा में फिर से एक अवसर निकालते हुए कई ऐसे विधेयकों को पारित कराने में सफलता हासिल कर ली है, जिनपर विस्तृत चर्चा, हंगामा, सदन का बहिष्कार सहित राष्ट्रीय स्तर पर हितधारकों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता था। 

संसद का आगामी मानसून सत्र, जो 20 जुलाई से शुरू होकर 11 अगस्त तक चलेगा, नए संसद भवन में आयोजित किया जाएगा, जो एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर होगा। इसमें 15 बैठकें होने की उम्मीद है। यहां मानसून सत्र के दौरान पेश किए जाने वाले विधेयकों की सूची दी गई है। निम्न विधेयक लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में पारित किये जा चुके हैं:

  1. अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक, 2023
  2. प्रेस और आवधिक पंजीकरण विधेयक, 2023,
  3. अपतटीय क्षेत्र खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2023,
  4. खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2023,
  5. सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक, 2023,
  6. वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023,
  7. विनियोग विधेयक, 2023,
  8. जम्मू और कश्मीर विनियोग विधेयक, 2023 एवं  विनियोग (नंबर 2) विधेयक, 2023,
  9. जम्मू और कश्मीर विनियोग (नंबर 2) विधेयक, 2023,
  10. वित्त विधेयक, 2023,
  11. जन विश्वास (प्रावधानों का संशोधन) विधेयक, 2022
  12. विनियोग (नंबर 4) विधेयक, 2022
  13. विनियोग (नंबर 5) विधेयक, 2022,
  14. संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (दूसरा संशोधन) विधेयक, 2022
  15. संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (तीसरा संशोधन) विधेयक, 2022
  16. संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (चौथा संशोधन) विधेयक, 2022
  17. संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश (पांचवां संशोधन) विधेयक, 2022
  18. बहु-राज्य सहकारी सोसायटी विधेयक, 2023
  19. नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (संशोधन) विधेयक, 2022
  20. प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, 2023
  21. मध्यस्थता विधेयक, 2021
  22. जैविक विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021

निम्न विधेयक लोकसभा में पारित हो चुके हैं, और अब राज्यसभा के सदन से पारित किये जाने की तैयारी है: 

  1. अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन विधेयक, 2023।
  2. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2023
  3. भारतीय प्रबंधन संस्थान (संशोधन) विधेयक, 2023
  4. अपतटीय क्षेत्र खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2023।
  5. जन्म और मृत्यु पंजीकरण (संशोधन) विधेयक, 2023।
  6. जम्मू और कश्मीर आरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2023।
  7. जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2023
  8. संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जाति आदेश (संशोधन) विधेयक, 2023
  9. संविधान (जम्मू और कश्मीर) अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक, 2023
  10. राष्ट्रीय नर्सिंग और मिडवाइफरी आयोग विधेयक, 2023
  11. राष्ट्रीय दंत चिकित्सा आयोग विधेयक, 2023
  12. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश (संशोधन) विधेयक, 2023
  13.  तटीय जलकृषि प्राधिकरण (संशोधन) विधेयक, 2023
  14. अंतर-सेवा संगठन (कमांड, नियंत्रण और अनुशासन) विधेयक, 2023
  15. निरसन और संशोधन विधेयक, 2022
  16. बिजली (संशोधन) विधेयक, 2022
  17. बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक, 2021

इन विधेयकों पर न तो सदन में कोई चर्चा हुई, और न ही कोई सवाल-जवाब। सदन में विपक्ष नारेबाजी करता रहा, और बड़ी ख़ामोशी के साथ संबंधित मंत्रालय की ओर से बिल पेश किया गया और इसके तत्काल बाद मौखिक वोटिंग के माध्यम से विधेयकों को एक-एक कर पारित कर दिया गया। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र का इससे बड़ा भद्दा मजाक शायद ही पहले किसी देश ने देखा हो। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इन विधेयकों के बारे में न ही कोई चर्चा देश में की जा रही है और न ही इनके क्या असर होने जा रहे हैं, पर समाचार पत्रों तक ने विस्तार से कोई चर्चा या संपादकीय पृष्ठों पर स्थान दिया है।

इनमें से कुछेक बिलों पर ही न्यूज़ चैनलों और अखबारों की नजर है, जिसमें दिल्ली की राज्य सरकार के अधिकारों को सीमित करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक, 2023 लोकसभा में पेश किया गया और पारित कर आज राज्यसभा में चर्चा चल रही है। सबसे अधिक चर्चा में रहने वाले इस बिल पर पहली बार मानसून सत्र में राज्य सभा में बहस चल रही है, लेकिन सदन में एनडीए के पक्ष में बहुमत स्पष्ट नजर आता है। यह विधेयक राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण की स्थापना करता है, जिसमें मुख्यमंत्री, दिल्ली के मुख्य सचिव, दिल्ली के प्रधान गृह सचिव शामिल रहेंगे। प्राधिकरण राज्य में अधिकारियों के तबादलों और पोस्टिंग सहित अनुशासनात्मक मामलों के संबंध में उपराज्यपाल (एलजी) को अपनी सिफारिशें भेजेगा।

कुलमिलाकर एलजी के पास राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण द्वारा अनुशंसित मामलों और दिल्ली विधानसभा को बुलाने, स्थगित करने और भंग करने सहित कई मामलों पर अपने विवेक का प्रयोग करने के अधिकार मिल जाते हैं। कहना न होगा कि सुप्रीमकोर्ट की 8 वर्षों तक दिल्ली प्रशासनिक विवाद को सुलझाने की तजवीज को मोदी सरकार ने जिस प्रकार से 8 दिन के भीतर अध्यादेश लाकर और बाकायदा विधयेक पारित कराकर कानून बनाने की ओर बढ़ना है, वह सीधे-सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय को राज्य का सुपर सीएम बनाने की ओर ले जाता है। दिल्ली ने भाजपा को 25 वर्षों से राज्य सरकार की बागडोर नहीं सौंपी, लिहाजा ईनाम के तौर पर दिल्ली की 2।5 करोड़ जनता को लोकतांत्रिक तानाशाही का डोज लेना ही पड़ेगा।  

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल 2023 : इसी के साथ आज दोपहर बाद सदन की कार्यवाही शुरू होने पर लोकसभा में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल 2023 पास हो गया। विपक्षी सांसद मणिपुर मुद्दे को लेकर नारेबाजी करते रहे। आज भी सदन में 3 विधेयक पारित किये जाने का लक्ष्य था। इस बिल को लेकर भी भारी विवाद है, और समाचारपत्रों में डेटा सुरक्षा से जुड़े समीक्षक अपनी आशंकाएं जता रहे हैं। 

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सरकार द्वारा डेटा प्रोसेसिंग में छूट से डेटा संग्रह, प्रसंस्करण और आवश्यकता से अधिक संकलन होना संभव है। इसमें निजता के मौलिक अधिकार के उल्लंघन की संभावना निहित है। इसके अलावा विधेयक व्यक्तिगत डेटा के प्रसंस्करण से उत्पन्न होने वाले नुकसान के जोखिमों को विनियमित नहीं करता है। इसके साथ ही विधेयक डेटा पोर्टेबिलिटी का अधिकार और डेटा प्रिंसिपल को बिसार देने का अधिकार नहीं देता है।

इतना ही नहीं, विधेयक केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित देशों को छोड़कर, भारत के बाहर व्यक्तिगत डेटा के हस्तांतरण की अनुमति देता है। यह तंत्र उन देशों में डेटा सुरक्षा मानकों का पर्याप्त मूल्यांकन सुनिश्चित नहीं कर सकता है जिन देशों में व्यक्तिगत डेटा के हस्तांतरण की अनुमति है। भारतीय डेटा संरक्षण बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति दो साल के लिए की जाएगी और वे दोबारा नियुक्ति के लिए पात्र होंगे। ऐसे में आशंका है कि पुनर्नियुक्ति की गुंजाइश वाला व्यक्ति अल्पावधि बोर्ड के स्वतंत्र कामकाज को प्रभावित कर सकता है।

बहु-राज्य सहकारी सोसायटी विधेयक, 2023: 

सहकारी समितियां स्वैच्छिक, लोकतांत्रिक एवं स्वायत्त संगठन होती हैं, जिनका नियंत्रण उनके सदस्यों के हाथ में होता है। अभी तक वे ही इसकी नीतियों और निर्णय लेने में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे हैं। आजादी पूर्व से ही भारत में औपचारिक सहकारी समितियों के गठन से पहले भी, ग्राम समुदायों द्वारा सामूहिक रूप से ग्राम टंकी एवं और वन जैसी संपत्ति खड़ी करने के उदाहरण मौजूद हैं। यह बिल दोनों सदनों में पारित हो चुका है, लेकिन इस बिल पर भी सदन में कोई चर्चा नहीं हुई। इसके बारे में कहा गया है कि इसके द्वारा अब बीमार पड़ी बहु-राज्य सहकारी समितियों को एक फंड के द्वारा पुनर्जीवित किया जाएगा, जिसे लाभदायक बहु-राज्य सहकारी समितियों के योगदान के माध्यम से वित्त पोषित किया जाएगा। लेकिन इसका नुकसान यह होगा कि बेहतर तरीके से काम करने वाले सहकारी सोसाइटी एवं समाजों पर इसका बोझ लाद दिया जायेगा।

सरकार को बहु-राज्य सहकारी समितियों में अपनी हिस्सेदारी के निस्तार को प्रतिबंधित करने की शक्ति प्रदान करना स्वायत्तता और स्वतंत्रता के सहकारी सिद्धांतों के खिलाफ जाता है। विभिन्न राज्यों में इस विधेयक को लेकर एक प्रमुख चिंता राज्य में मौजूद स्वायत्त सहकारी समितियों के केन्द्रीयकरण के खतरे से जुड़ी है, जो स्वायत्तता के अभाव में स्थानीय पहलकदमी को कुंद कर सकती है। केरल में आज भी सहकारिता के माध्यम से विभिन्न समुदायों और महिला सशक्तीकरण को लेकर कई पहलकदमियां चल रही हैं, जिनका भविष्य अधर में लटक सकता है। 

जैविक विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021

यह बिल भी दोनों सदन में पारित किया जा चुका है। इसमें सहिंताबद्ध पारंपरिक ज्ञान शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। इसकी व्यापक व्याख्या का नुकसान यह है कि इससे स्थानीय पारंपरिक ज्ञान से होने वाले लाभ को साझा करने की जरूरत समाप्त हो सकती है। यह विधेयक लाभ साझाकरण प्रावधानों को निर्धारित करने में स्थानीय समुदायों की सीधी भूमिका को खत्म कर देता है। विधेयक अधिनियम के तहत अपराधों को अपराध की श्रेणी से हटा देता है, और इसके बजाय दंड की एक व्यापक श्रृंखला का प्रावधान बना देता है। 

इतना ही नहीं यह कानून सरकारी अधिकारियों को पूछताछ करने और जुर्माना निर्धारित करने का अधिकार प्रदान कर देता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकारी अधिकारियों को इस प्रकार के विवेकाधिकार को प्रदान करना उचित है?

वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 

यह विधेयक भी दोनों सदनों में विरोध और नारेबाजी के बीच में पारित किया जा चुका है। मौजूदा दौर में यह सर्वाधिक विवादित और देश में सबसे अधिक वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकारों को बलात हस्तगत करने वाला कानून है। यह बिल भूमि की दो श्रेणियों को अधिनियम के दायरे से बाहर कर देता है: 25 अक्टूबर, 1980 से पहले वन के रूप में दर्ज भूमि, जो कि वन के रूप में अधिसूचित नहीं है। इसके अलावा वह भूमि जो 12 दिसंबर, 1996 से पहले वन-उपयोग से गैर-वन-उपयोग में तब्दील कर दी गई थी। यह कानून वनों की कटाई को रोकने हेतु 1996 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है।

इसके साथ ही इस बिल के माध्यम से राष्ट्रीय सुरक्षा परियोजनाओं के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों के 100 किमी के दायरे की भूमि के उपयोग की छूट देने से उत्तर-पूर्वी राज्यों में वन क्षेत्र और वन्य जीवन पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस बिल के माध्यम से भारत मौजूदा 22% वन भूभाग को 33% क्षेत्रफल तक ले जाने के अपने घोषित लक्ष्य को पूरा करने की दिशा के बजाय उल्टी दिशा की ओर मुड़ गया है। इतना ही नहीं बल्कि चिड़ियाघरों, पर्यावरण-पर्यटन सुविधाओं एवं टोही सर्वेक्षणों जैसी परियोजनाओं के लिए पूर्ण छूट प्रदान करने से वन भूमि और वन्य जीवन दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना बढ़ गई है।

जन विश्वास (प्रावधान संशोधन) विधेयक, 2022

वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय से संबंधित यह बिल बेहद विवादास्पद और स्पष्ट रूप से जन-विरोधी कानून कहा जा सकता है, लेकिन मात्र 3 लोकसभा सदस्यों और 11 राज्य सभा सदस्यों ने इस विधेयक की चर्चा में हिस्सा लिया। 

यह विधेयक 42 अधिनियमों में संशोधन करता है जिनमें: भारतीय डाकघर अधिनियम, 1898, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम, 1991 और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 शामिल हैं।

इसमें कुछ अपराधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। कुछ अधिनियमों में कारावास की सजा वाले कई अपराधों अपर सिर्फ आर्थिक जुर्माना लगाकर अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत किसी कानूनी अनुबंध का उल्लंघन कर व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने पर तीन वर्ष तक की कैद की सजा या पांच लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों दंड देने का प्रावधान था। अब इसके स्थान पर 25 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया गया है। 

विधेयक भारतीय डाकघर अधिनियम, 1898 के तहत सभी अपराधों को हटा देता है। इससे दो प्रश्न उठते हैं। पहला, चूंकि इस अधिनियम के तहत कई अपराध केवल डाकघर के अधिकारियों द्वारा ही किए जा सकते हैं, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि उन अपराधों को हटाना जीवन और व्यवसाय करने में आसानी में सुधार के घोषित उद्देश्य के लिए कितना प्रासंगिक है। दूसरा, छोड़े गए अपराधों में डाक लेखों का गैरकानूनी खुलासा शामिल है। इस अपराध के लिए दंड मुक्त करने से निजता का अनुचित हनन होना संभव है।

नया कानून पर्यावरण संरक्षण के लिए शिक्षा, जागरूकता और अनुसंधान के लिए एक पर्यावरण संरक्षण कोष के निर्माण की बात करता है। इस फंड को बनाने के कारण स्पष्ट नहीं हैं, क्योंकि इसके उद्देश्य और केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के मौजूदा फंड के बीच में अतिक्रमण मौजूद है।

इसके साथ ही कानून उच्च मूल्य बैंक नोट (नोटबंदी) अधिनियम, 1978 के तहत अपराधों को अपराधमुक्त करता है। इस अधिनियम का उपयोग 16 जनवरी, 1978 को उच्च मूल्य वाले बैंक नोटों को कानूनी निविदा के रूप में हटाने के लिए किया गया था। यह समय सीमा उस अधिनियम के तहत नियामक अनुपालन पर भी लागू होती है। इसलिए 45 वर्षों के बाद इस अधिनियम के तहत दंडों में संशोधन प्रासंगिक नहीं हो सकता है।

सवाल उठता है कि जब पूरा देश महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता, सांप्रदायिक उन्माद, जातीय हिंसा एवं नरसंहार की घटानाओं से अपने लोकतांत्रिक भविष्य को लेकर इतना अधिक भयभीत नहीं था, ऐसे में एक के बाद एक विधेयक पारित कर सरकार आखिर किसके हित में काम कर रही है? जनता जनार्दन से जनादेश लेकर संविधान के मूलभूत उद्देश्यों की दिशा में काम करने की शपथ लेने वाले देश के नीति-निर्माताओं की जल्दबाजी पूरी तरह से विपरीत दिशा की ओर उन्मुख नजर आती है। ऐसे में लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी एक बार फिर घूमकर उसी जनता-जनार्दन की ओर मुड़ जाती है, जिसने 75 वर्ष पूर्व 250 वर्षों की गुलामी के खिलाफ लंबी कुर्बानियों का इतिहास खड़ा कर संभव बनाया था।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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अरुण कान्त शुक्ला
अरुण कान्त शुक्ला
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8 months ago

सम्पूर्णता में लोकतंत्र तो विश्व के किसी भी देश में सिर्फ ख़्वाब ही है पर जिस तरह से भारत में इसकी धज्जियां पिछले 10 वर्ष से उडाई जा रही हैं..वे दहलाने के लिये पर्याप्त हैं…भारतीय मानस का बहुसंख्कयक हिस्साी स्वयम भी अपने अधिकारों के लिये लोकतांत्रिक ढंग से जागरूक नहीं रहा है..पर अब जब लोकसभा से बाहर देश में लगभग गृहयुद्ध की स्थति निर्मित हो गयी है तो शायद उस मांस को जो भक्ति और राष्ट्रवाद के नशे में धुत्त पडा है..शायद कुछ चेतन आये…

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