आर्थिक नीतियों के बारे में प्रधानमंत्री के अब तक की तमाम ऐतिहासिक लफ़्फ़ाज़ियों के परे वित्तमंत्री और रिज़र्व बैंक के गवर्नर के नृत्यों की जुगल जोड़ी सचमुच अब अश्लीलता की हद तक असहनीय होती जा रही है ।
इस पूरी मूर्खमंडली को अहसास ही नहीं है कि कोरोना ने किस हद तक दुनिया की अर्थ-व्यवस्था को मरो या स्थायी तौर पर बुनियादी रूप में बदल जाने के संकेत दे दिये हैं ।
अब यह साफ़ है कि दुनिया वह नहीं रहने वाली है जो कोरोना के पहले हुआ करती थी । यह इस बात की घोषणा है कि दुनिया एक बिल्कुल नई परिस्थिति में प्रवेश कर चुकी है ।
सत्तर साल पहले यदि चीन के वुहान शहर में इस प्रकार का कोई संक्रमण हुआ होता तो वह उसी जगह सीमित रह कर ख़त्म भी हो गया होता। संभव है दुनिया के दूसरे हिस्सों में या तो उसकी सूचना ही नहीं पहुँचती, या वह सबके लिए महज़ एक खबर भर होती। लेकिन अभी की दुनिया एक नई दुनिया है । पूरी तरह से गुँथी हुई एकान्वित दुनिया। कोरोना ने इस नए परम सत्य की वैश्विक उद्घोषणा कर दी है ।
सबसे बड़ी विडंबना है कि इस नए काल के साफ संकेतों के बावजूद दुनिया के तमाम देशों के राजनीतिक शरीर की कोशिकाओं में लंबे काल से ‘राष्ट्रवाद’ का जो कीड़ा घुसा हुआ है, वह इस सच को आत्म सात करने में सबसे बड़े प्रतिरोधक का काम कर रहा था। कहना न होगा, कोरोना के आगमन ने राष्ट्रों के शरीर में इस राष्ट्रवादी एंटीबॉडी को निर्णायक रूप में व्यर्थ साबित कर दिया है ।
और भी दुखजनक बात यह है कि ‘राष्ट्रवाद’ का यही वह कीड़ा रहा है जो कोरोना संबंधी तमाम वैज्ञानिक शोधों और विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरह के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन (डब्लूएचओ) की चेतावनियों को पूरी धृष्टता से ठुकराने की कोशिश करता रहा है । इस साल के जनवरी महीने में ही पहली वैश्विक स्वास्थ्य आपदा की घोषणा के वक्त से लेकर आज तक, डब्लूएचओ ने इस महामारी के बारे में जो भी कहा और जो तमाम चेतावनियाँ दीं, वे सभी शत-प्रतिशत सही साबित हुई हैं।
डब्लूएचओ ने न सिर्फ़ कोरोना से मुक़ाबले के बारे में अब तक जितने दिशा-निर्देश जारी किये, वे सब बेहद उपयोगी साबित हुए हैं, बल्कि उसने यह भी साफ़ शब्दों में कहा है कि कोरोना इस बात की पूर्व चेतावनी है कि दुनिया को निकट भविष्य में ही इससे भी बहुत बड़े-बड़े अघटन के लिए अपने को तैयार कर लेना चाहिए।
डब्लूएचओ की अब तक की सबसे क़ीमती सलाह यही है विश्व की सभी सरकारों को स्वास्थ्य के मामले में एक नए वैश्विक सहयोग और समन्वय की स्थायी व्यवस्थाओं के विकास की दशा में तेज़ी से बढ़ जाना चाहिए । वैश्वीकरण यदि मानव सभ्यता के विकास की दिशा का परम सत्य है तो इस दिशा में सुरक्षित और निश्चिंत होकर बढ़ने का एक मात्र आधार वैश्विक सहयोग और समन्वय हो सकता है ।
डब्लूएचओ की सिफ़ारिशों के अलावा इस दौरान दुनिया की सभी सरकारों को इस नई परिस्थिति के प्रभाव से निपटने के लिए जिन आपद कदमों को उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है, वे भी मानवता के भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और संकेतपूर्ण रहे हैं। लगभग सभी सरकारों को जनता के सहायता के लिए, जिस प्रकार अपने ख़ज़ाने को खोल देना पड़ा है, उसने ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ (यूबीआई) की तरह की योजनाओं में ही दुनिया का भविष्य देखने का रास्ता खोल दिया है ।
पिछले तमाम सालों में दुनिया में दक्षिणपंथ के जिस नए उभार के मूल में विश्व राजनीति के शरीर में कुलबुलाते राष्ट्रवाद के कीड़े की उल्लेखनीय भूमिका रही है, उसके पीछे आर्थिक नीतियों के मामले में नव-उदारवाद के उस लंबे दौर की भी भूमिका थी जिसने राज्य की जन-कल्याणकारी नीतियों को तिरस्कृत करके ठुकरा देने में बड़ी भूमिका अदा की थी । अमेरिका में ट्रम्प ने सबको स्वास्थ्य सुविधा देने का वादा करने वाली ओबामा योजना को ही चुनाव के वक्त अपने हमले का मुख्य लक्ष्य बनाया था। यही वह काल रहा है जिसमें ट्रम्प, मोदी, बोरिस जान्सन जैसे मूर्ख राजनेताओं ने पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर क़ब्ज़ा कर लिया था। सबने एक सुर में उस राष्ट्रवाद की हुआं-हुआं ध्वनियाँ निकालनी शुरू कर दीं ।
कहना न होगा, यूबीआई और वैश्विक सहयोग इसी ‘राष्ट्रवादी’ कीड़े का विप्रतिशेध है । कोरोना काल ने राष्ट्रवादी सिद्धांतों की सारी निर्मितियों को बिल्कुल खोखला साबित कर दिया है । आगे इसके राजनीतिक परिणाम कब और किस रूप में सामने आते हैं, इसे निश्चित तौर पर अभी नहीं कहा जा सकता है, पर इतना साफ़ है कि इस युग के वैश्विक सहयोग और समन्वय के परम सत्य की जितनी उपेक्षा की जाएगी, मानव प्रजाति उसकी उतनी ही बड़ी क़ीमत चुकाने के लिए अभिशप्त होगी ।
यह सत्य किसी भी वायरस की तरह ही हमारे सामाजिक-राजनीतिक शरीर की वर्तमान कोशिकाओं से बिल्कुल अलग वह सत्य है, जो सर्वशक्तिमान भी है। इसके अस्तित्व से इंकार करके किसी के भी लिए ज़्यादा दूर चलना असंभव होगा। यह मनुष्यों की मूर्खताओं और स्वार्थों पर टिके वर्तमान समाजों को नष्ट करने और नये समाजों के निर्माण का रास्ता तैयार करते चले जाने की शक्ति लिए हुए परमशिव की तरह है ।
बहरहाल, एक ऐसे समय में मोदी और उनकी मूर्ख-मंडली अब भी अर्थ-व्यवस्था की समस्याओं का निदान जनता के जीवन में सुधार और वैश्विक सहयोग में नहीं, मुट्ठीभर पूँजीपतियों की जेबें गर्म करने, अपनी ही राज्य सरकारों के साथ शत्रुतापूर्ण रुख़ अपना कर चलने और और राष्ट्रवादी हुंकारों के साथ पड़ोसी मुल्कों से रिश्तों को बिगाड़ कर चारों ओर की सीमाओं को सुलगा कर रखने की तरह की आत्महंता नीतियों में देख रही है ।
कोरोना काल के संकट में व्यापक जनता को अधिक से अधिक राहत पहुँचाने के बजाय मोदी रिलायंस, अडानी जैसे अपने चंद मित्रों के हाथ में देश की सारी संपत्तियों को संकेंद्रित करने के अंधाधुंध अभियान में लगे हुए हैं। यहाँ तक कि इनके ज़रिये ही प्रकारांतर से पूरी अर्थ-व्यवस्था पर विदेशी पूँजी की जकड़बंदी को भी मज़बूत किया जा रहा है।
मोदी की दिशा कोरोना काल के संकेतों की बिल्कुल उल्टी दिशा है। उनकी सारी करतूतों से लगता है जैसे वे जनता को ज़्यादा से ज़्यादा कंगाल और ग़ुलाम बनाने के अभियान में उतरे हुए हैं। मोदी की यह उल्टी दिशा ही भारत में तबाही की गति को उसी अनुपात में कई गुना ज़्यादा बढ़ा दे रही है ।
आरबीआई का गवर्नर कहता है, कोरोना से कैसे निपटा जाएगा, इसे कोई निश्चय के साथ नहीं कह सकता है, पर मोर को खिलाने में मस्त मोदी जी मुदित हैं कि यह तो ईश्वर प्रदत्त एक नया अवसर है जब वे अपनी राज्य सरकारों को भी ईश्वर के नाम पर अपने दासानुदास में बदल सकते हैं। गवर्नर कह रहा है कि जो लाखों करोड़ रुपये की कारपोरेट करों में छूट दी गई है, अथवा पूँजीपतियों को जो क़र्ज़ बाँटा जा रहा है, वह अर्थ-व्यवस्था में निवेश का जरा भी कारक नहीं बन रहा है, बल्कि सारे कारपोरेट घराने उसका प्रयोग अपने भविष्य को सुरक्षित करने और अपनी संततियों को पश्चिम के देशों में बसाने के काम में ज़्यादा कर रहे हैं ।
पर मोदी, वे अपने गुलाम मंत्रियों, मूर्ख नौकरशाहों, हुक्म के ग़ुलाम पुलिसवालों और विवेकहीन जजों की फ़ौज के ज़रिये सारी सत्ता को अपने हाथ में लेकर खुद की एक नए हिटलर के रूप में कल्पना से खुश हैं क्योंकि आरएसएस के राजनीति शास्त्र का वही तो एक परम लक्ष्य रहा है जिसे वे हिंदुओं के पराक्रम के साक्षात रूप का अवतार मान कर पूजते रहे हैं।
दुनिया की सभी धार्मिक तत्ववादी ताकतें इसी प्रकार तमाम देशों की तबाही की कहानी तैयार करती रही हैं। भारत में आरएसएस की भूमिका उनसे किसी भी मायने में अलग नहीं है । बल्कि कोरोना काल ने उनकी इस भूमिका को एक नई गति दी है । ये कोई भी कोरोना काल के वैश्विक संदेश को ग्रहण करने में तत्वत: ही समर्थ नहीं है । और शायद यही सबसे प्रमुख वजह होगी जो आगे भारत में इस पूरी मंडली के अंत की गति को भी उतनी ही तेज करेगी । इनकी सांगठनिक शक्ति का सारा तानाबाना कब पूरी तरह से बालुई साबित होगा, इन्हें पता भी नहीं चलेगा ।
स्वास्थ्य, खाद्य और सुरक्षा की पूर्ण गारंटी और विश्व बंधुत्व का अन्तरराष्ट्रीयतावाद, जो साम्यवाद का मूल मंत्र है, कोरोना की चुनौती ने इसकी सत्यता को स्थापित किया है । जो ताक़तें इस संदेश को सुन पाएगी, भविष्य उनका ही होगा । बाक़ी सब जल्द ही इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़ी दिखाई देगी।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक, चिंतक और स्तंभकार हैं। आप कोलकाता में रहते हैं।)
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